Monday 26 October 2015

पद्मनाथ द्वादषी पूजन - स्वास्थ्य और आरोग्य की प्राप्ति -

आष्विनी शुक्ल मास भगवान विष्णु की पूजा तथा व्रत का मास माना जाता है इसकी द्वादषी में की गई पूजन, व्रत तथा दान बहुत फलदायी होता है। शास्त्रों में विष्णु की नाभी से उत्पन्न कमल को पद्मनाभ कहा गया। जिसमें तप दान से सभी कल्याण करने वाला बताया गया है। आष्विनी शुक्ल मास के हर दिन में किए गए तप का अपना अलग ही महत्व होता है। आष्विनी शुक्ल मास में मनवांछित फल प्राप्ति हेतु पद्मनाथ द्वादषी पूजन का बहुत महत्व है। इसमें ब्रम्ह मूहुर्त में तिल का तेल शरीर में मलकर स्नान करने के उपरांत विष्णु पूजन करने का विधान है। इसके लिए विष्णु स्त्रोत के श्लोकों से पूजा और अभिषेक करें। जिसमें फूल, फल, चावल, दूध, शक्कर चढ़ाकर आरती करने के उपरांत दान करें तथा भजन कीर्तन करें। भगवान विष्णु की प्रतिमा को क्षीर से स्नान कराकर कर दान देने के उपरांत बिना नमक का आहार ग्रहण करें। इससे शारीरिक व्याधि दूर होकर स्वास्थ्य और आरोग्य की प्राप्ति होती है। इस व्रत में विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करना विषेष हितकर होता है। माना जाता है कि इस दिन भगवान जागृतवस्था में आने हेतु अंगडाई लेते हैं। जिससे पद्मासीन ब्रम्ह ओंकार की ध्वनि करते हैं। उक्त ध्वनि से जगत का कल्याण हेाता है। अतः इस दिन की गई पूजा से भगवान सीधे प्रसन्न होते हैं अतः सभी कष्टों की निवृत्ति होकर सुख की प्राप्ति होती है।
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सर्वपित्र -श्राद्ध की अमावस्या -


भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आष्विन मास की अमावस्या तक का समय अपने पितरों तथा पूर्वजो को पूजन, याद करने तथा उनकी मुक्ति हेतु दान करने का होता है। इस माह में किए गए दान एवं पुण्य जीवन में सुख तथा समृद्धिदायी होती है साथ ही कष्टों को दूर करने वाली होती है। आष्विन मास के अमावस्या को पितृपक्ष का अंतिम दिन माना जाता है। पूरे 15 दिवस चलने वाले इस पितरतर्पण का विसर्जन आष्विन मास की अमावस्या को किये जाने का विधान है। इस दिन किए गए सभी दान एवं श्राद्ध पितरों की मुक्ति का माना जाता है। जिस भी व्यक्ति की मृत्यु अमावसा के दिन होती हैं उनका श्राद्ध इसी दिन किया जाता है। इस दिन किसी भी तिथि में मृत्यु पाने वाले व्यक्ति का श्राद्ध किया जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति श्राद्ध के 15 दिन नियमो का पालन नहीं कर सकता अथवा परिजन की मृत्यु तिथी भूल गया हो या कारणवश उस तिथी के दिन श्राद्ध न कर पाया हो तो वो इस दिन श्राद्ध की विधि कर सकता हैं इसे पितृ अमावस श्राद्ध कहा जाता हैं। इस दिन ब्राम्हणों को भोजन तथा दान देकर तृप्त करने से पितरों की मुक्ति होना माना जाता है। इस दिन प्रातःकाल नदी के स्नान से निवृत्त होने के उपरांत सभी प्रकार के भोज एवं दानसामग्री लेकर संकल्प के साथ दान करने के उपरांत सायंकाल द्वार पर दीपक जलाकर एक दोनें में पूरी, खीर आदि पकवान रख दिए जाते हैं, जिसमें खाद्य सामग्री पितरों की रास्ते की भूख मिटाने तथा दीपक उनके रास्ते को प्रज्जवलित करने हेतु रखा जाता है। इस प्रकार पितरों को विदा करने से जीवन में ग्रहदोष की निवृत्ति होकर परिवार सुखी होता है।

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दोस्ती में सिर्फ धोखा-जाने अपनी कुंडली से -

क्यों किसी को जान से प्यारें दोस्त मिलते हैं तो किसी को दोस्ती में सिर्फ धोखा-जाने अपनी कुंडली से -
इस दुनिया में आते ही हमें कई रिश्ते मिल जाते हैं। उन रिश्तों को बनाने में हमारा कोई योगदान नहीं होता, हमारे जिम्मे सिर्फ जिम्मेदारी होती है, उन रिश्तों को खाद पानी देने की, उन्हें निभाने और निभाते चले जाने की। लेकिन, दोस्ती एकदम अलहदा रिश्ता है। इसे हम खुद बनाते हैं, बाकी रिश्तों की तरह इस रिश्ते के लिए किसी तरह की औपचारिकता की जरुरत नहीं होती, सिर्फ प्यार और भरोसे की जरुरत होती है। कई बार दोस्तो के लिए सभी कुछ करने के बाद भी कोई साथ नहीं देता तो किसी को बिना कीमत चुकायें ही सभी का सहयोग मिल जाता है। इसका कारण हम ज्योतिषीय गणना द्वारा भली-भांति जान सकते हैं। किसी भी कुंडली में अगर सप्तम स्थान या सप्तमेष क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत होकर छठवे आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए अथवा सप्तम स्थान पर राहु जैसे क्रूर ग्रह बैठ जाए तो दोस्तो से धोखा मिल सकता है। अतः किसी विद्धान आचार्य से अपनी कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर संबंधित ग्रह की शांति, मंत्रजाप तथा ग्रह की वस्तुओं का दान करना चाहिए।
 
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Saturday 24 October 2015

बच्चा झूठ बोले या बात छुपाये तो करायें भृगु कालेंद्र पूजन -

बच्चे क्यों कभी झूठ बोलने पर विवश हो जाते हैं? झूठ बोलने के प्रमुख कारण हैं कि अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करना चाहते इसी प्रकार कभी कभी इस लिए भी झूठ बोलते हैं ताकि उन्हें कमजोर या मूर्ख न समझा जाए। इसी प्रकार दंड व अपमान का भय भी झूठ बोलने पर मजबूर करता है। विभिन्न कारणों से झूठ बोला जा सकता है किंतु यह व्यवहारिक रूप से झूठ बोलने के तर्क हैं। किंतु जब किसी व्यक्ति की कुंडली देखी जाए तो उसकी कुंडली की ग्रह एवं उनकी स्थिति देखकर बताया जा सकता है कि कोई व्यक्ति झूठ बोलने का आदी होगा अथवा कोई सच का साथ देने वाला। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि लग्न, तीसरे, पंचम या एकादश स्थान में राहु या क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत हो तो ऐसे व्यक्ति अनावश्यक रूप से झूठ का सहारा लेते हैं। वहीं किसी व्यक्ति का तीसरा स्थान या तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से आक्रांत होकर छठवे आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए तो भी झूठ बोलने की आदत आ सकती है। इसी प्रकार अगर इन्हीं स्थानों का स्वामी शुक्र होकर विपरीत हो जाए तो लोग अपनी सामाजिक हैसियत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के संबंध में झूठ बोलते हैं। अतः यदि कोई बच्चा झूठ बोलने लगे तो उसके ग्रहों की स्थिति का आकलन कर उसकी भृगु कालेंद्र पूजन करायें साथ ही शनि या शुक्र का दान एवं शनि के मंत्रों का जाप कराकर झूठ बोलने की आदत को कम किया जा सकता है।
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भारत में भ्रष्टाचार के ज्योतिषीय कारण और निवारण

भ्रष्टाचार को सामान्य रूप में देखें तो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा अपने भाग्य या पुरुषार्थ से ज्यादा पाने की चाह। स्वार्थ में लिप्त होकर कोई भी किया गया गलत कार्य भ्रष्टाचार होता है। भ्रष्टाचार का दायरा विशाल है। भ्रष्टाचार के कई रूप हैं- रिश्वत, कमीशन लेना, काला बाजारी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कर्तव्य से भागना, चोर-अपराधियों को सहयोग करना, अतिरिक्त गलत कार्य में रुचि लेना आदि सभी अनुचित कार्यों को भ्रष्टाचार कहा जायेगा। दुर्भाग्य से भारत में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। वैसे देखा जाए तो सारे विश्व में भ्रष्टाचारी राक्षस का आतंक फैला हुआ है। भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है।इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है। जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुंडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढ़कर भौतिकता से परे देशहित एवं समाजकल्याण के लिए सोचना होगा।
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गया मध्याष्टमी में पिृतऋण से उऋण होने के लिए करें गया श्राद्ध -

श्राद्ध कर्म की चर्चा हो तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है। समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थान श्राद्ध तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्द है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर, विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है की स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं दूसरा प्रमुख स्थान, गया जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम ‘फल्गु नदी’ है। ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था। माना जाता है कि इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा। इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था। आज गया मध्याष्टमी है। इस तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो मे आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से ‘गया जी’ बोला जाता है। गया में श्राद्ध करने के बाद श्राद्धकर्म की पूर्णता हो जाती है तथा पितृ को शाश्वत् संतुष्टि मिलती है। मातृ-पितृभक्त प्रातःकाल फल्गु में स्नान कर तर्पण करें. यहीं पितरों के लिए पिंडदान करें. मंदिर परिसर में 16 वेदी तीर्थ पर श्राद्ध के लिए तिल, चावल, जौ, दूध, दही व घी का उपयोग कर पिंडदान के बाद अक्षयवट में पिंडदान करके सुफल लें.
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भानुसप्तमी के श्राद्ध से पायें स्वास्थ्य

मानव जाति त्रिविध (आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) कष्ट भोगता है उनमें मृत पूर्वजों की अतृप्ति के कारण वंशजों को जो कष्ट होता है वह आध्यात्मिक कारणों से होने वाले कष्टो में से एक है। समस्याओं से मुक्ति के अनेक उपाय करने के बावजूद भी राहत नहीं मिलती है। सामान्यतः दैनिक जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। शारीरिक रूप से कमजोर, मानसिक रूप से विक्षिप्त, विकलांग रूप में जन्म लेना इत्यादि। सप्तमी का श्राद्ध भानुसप्तमी के नाम से किया जाता है। जिसमें श्राद्धकर्म करने से सूर्यग्रहण में किए गए पुण्य के बराबर फल मिलता है और आने वाले वंष को शारीरिक कष्टो से छुटकारा मिलकर स्वास्थ्य एवं समृद्धि की प्राप्ति का योग बनता है। किसी भी प्रकार से शारीरिक या किसी बीमारी से मृत्यु को प्राप्त पितरों के कारण शारीरिक कष्टो के कारण जीवन दुखमय होने पर दुख की निवृत्ति और उस प्रकार के शारीरिक कष्ट से रक्षा हेतु भानुसप्तमी का श्राद्ध करने का विधान वेदों में है। इस दिन दीपक, कपूर, धूप, लालपुष्प और चावल, शक्कर से सूर्य को गंगाजल का अध्र्य देते हुए सूर्य पुराण का पाठ कर दान देने से चर्मरोग पंगुपन या मूकपन से मुक्ति प्राप्त होती है।
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पितृपक्ष की पूजा से करें मानसिक शांति की प्राप्ति -

प्रत्येक मनुष्य जातक पर उसके जन्म के साथ ही तीन प्रकार के ऋण अर्थात देव ऋण, ऋषि ऋण और मातृपितृ ऋण अनिवार्य रूप से चुकाने बाध्यकारी हो जाते है। जन्म के बाद इन बाध्यकारी होने जाने वाले ऋणों से यदि प्रयास पूर्वक मुक्ति प्राप्त न की जाए तो जीवन की प्राप्तियों का अर्थ अधूरा रह जाता है। ज्योतिष के अनुसार इन दोषों से पीडि़त कुंडली शापित कुंडली कही जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने मातृपक्ष अर्थात माता के अतिरिक्त माना मामा-मामी मौसा-मौसी नाना-नानी तथा पितृ पक्ष अर्थात दादा-दादी चाचा-चाची ताऊ ताई आदि को कष्ट व दुख देता है और उनकी अवहेलना व तिरस्कार करता है।
जन्मकुण्डली में यदि चंद्र पर राहु केतु या शनि का प्रभाव होता है तो जातक मातृ ऋण से पीडित होता है। चन्द्रमा मन का प्रतिनिधि ग्रह है अतः ऐसे जातक को निरन्तर मानसिक अशांति से भी पीडि़त होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मातृ ऋण से मुक्ति के प्श्चात ही जीवन में शांति मिलनी संभव होती है और इस मातृऋण से मुक्ति के लिए पितृपक्ष में रूद्राभिषेक करने के साथ चावल एवं दूध का दान करने से मातृऋण से मुक्ति पाई जा सकती है।
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पितृपक्ष में करें नारायणबली पूजन पायें काम्य सुख -

जब अपत्य हिनता, कष्टमय जीवन और दारिद्र, शरीर के न छुटने वाले विकार भुतप्रेत, पिशाच्च बाधा, अपमृत्यू, अपघातों का सिलसिला साथ ही पुर्वजन्म में मिले पितृशाप, प्रेतशाप, मातृशाप, भ्रातृशाप, पत्निशाप, मातुलशाप आदी संकट मनुष्य के सामने निश्चल रुप में खडे हो। इन सभी संकटो से निश्चित रुप से मुक्ती पाने के लिये शास्त्रोक्त काम्य नारायण बली विधान है। इस विधान के साथ नागबली का भी विधान है। किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में जो द्रव्य संग्रह किया होता है उसकी उस पर आसक्ती रह गयी हो तो वह व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् भी उस द्रव्य का किसी को लाभ नहीं लेेने देता इसके अलावा नाग या सर्प की इस जन्म में अथवा पिछले किसी जन्म में हत्या की गयी तो उसका शाप लगता है। वात, पित्त, कफ जैसे त्रिदोष, जन्य ज्वर, शुळ, ऊद, गंडमाला, कुष्ट्कंडु, नेत्रकर्णकच्छ आदी सारे रोगो का निवारण करने के लिए एवं संतती प्राप्ति के लिए नारायणबली व नागबली का विधान करना चाहिए। ये विधान श्री क्षेत्र अमलेश्वर में करना चाहिए।
नारायण नागबलि ये दोनो विधी मानव की अपूर्ण इच्छा , कामना पूर्ण करने के उद्देश से किय जाते है इसीलिए ये दोने विधी काम्यू कहलाते है। नारायणबलि और नागबपलि ये अलग-अलग विधीयां है। नारायण बलि का उद्देश मुखत: पितृदोष निवारण करना है । और नागबलि का उद्देश सर्प/साप/नाग हत्याह का दोष निवारण करना है। केवल नारायण बलि यां नागबलि कर नहीं सकतें, इसगलिए ये दोनो विधीयां एकसाथ ही करनी पडती हैं।
नारायण नागबलि की पूजा क्यूँ???
संतती प्राप्ति के लिए
प्रेतयोनी से होने वाली पीडा दुर करने के लिए
परिवार के किसी सदस्य के दुर्मरण के कारण इहलोक छोडना पडा हो उससे होन वाली पीडा के परिहारार्थ (दुर्मरण:याने बुरी तरह से आयी मौत ।अपघा, आत्म‍हत्याद और अचानक पानी में डुब के मृत्यु होना इसे दुर्मरण कहते है)
प्रेतशाप और जारणमारण अभिचार योग के परिहारार्थ के लिऐ।
पितृदोष निवारण के लिए नारायण नागबलि कर्म करने के लिये शास्त्रों मे निर्देशित किया गया है । प्राय: यह कर्म जातक के दुर्भाग्य संबधी दोषों से मुक्ति दिलाने के लिए किये जाते है।
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वृद्धि श्राद्ध से पायें समृद्धि

हिन्दूधर्म की मान्यता अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को आर्शीवाद लेना प्रमुख कर्तव्य है, हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही आज यह सुखी जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। वेदों में वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है इसीलिए आवश्यक है -श्राद्ध और साथ ही जीवन में किसी प्रकार के वृद्धिकार्य जैसेे विवाहादि संस्कार, पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश इत्यादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है। दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है, जिससे जीवन में जो समृद्धि प्राप्त होती है वह चिरस्थायी बनी रहे और निरंतर वृद्धि प्राप्त होती रहे इस हेतु वृद्धि श्राद्ध किये जाने का विधान है।
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रामायण की चौपाई से सिद्धि मन्त्र

ऋद्धि सिद्ध की प्राप्ति के लिए
साधक नाम जपहिं लय लाएं।
होहि सिद्धि अनिमादिक पाएं।।
धन सम्पत्ति की प्राप्ति हेतु
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं।
सुख सम्पत्ति नानाविधि पावहिं
लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए
जिमि सरिता सागर मंहु जाही।
जद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपत्ति बिनहि बोलाएं।
धर्मशील पहिं जहि सुभाएं।।
वर्षा की कामना की पूर्ति हेतु
सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवनदाता।।
सुख प्राप्ति के लिए
सुनहि विमुक्त बिरत अरू विबई।
लहहि भगति गति संपति नई।।
शास्त्रार्थ में विजय पाने के लिए
तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।।
विद्या प्राप्ति के लिए
गुरु ग्रह गए पढ़न रघुराई।
अलपकाल विद्या सब आई।।
ज्ञान प्राप्ति के लिए
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंचरचित अति अधम शरीरा।।
प्रेम वृद्धि के लिए
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीती।।
परीक्षा में सफलता के लिए
जेहि पर कृपा करहिं जनुजानी।
कवि उर अजिर नचावहिं बानी।।
मोरि सुधारहिं सो सब भांती।
जासु कृपा नहिं कृपा अघाती।।
विपत्ति में सफलता के लिए
राजिव नयन धरैधनु सायक।
भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।।
संकट से रक्षा के लिए
जौं प्रभु दीन दयाल कहावा।
आरतिहरन बेद जसु गावा।।
जपहि नामु जन आरत भारी।
मिंटहि कुसंकट होहि सुखारी।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ मम संकट भारी।।
विघ्न विनाश के लिए
सकल विघ्न व्यापहि नहिं तेही।
राम सुकृपा बिलोकहिं जेही।।
दरिद्रता दूर करने हेतु
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के ।
कामद धन दारिद्र दवारिके।।
अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित प्रान केहि बात।।
विविध रोगों, उपद्रवों आदि से रक्षा हेतु
दैहिक दैविक भौतिक तापा।
राम काज नहिं काहुहिं व्यापा।।
विष नाश के लिए
नाम प्रभाऊ जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।
खोई हुई वस्तु की पुनः प्राप्ति हेतु
गई बहारे गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।
महामारी, हैजा आदि से रक्षा हेतु
जय रघुवंश वन भानू।
गहन दनुज कुल दहन कूसानू।।
मस्तिष्क पीड़ा से रक्षा हेतु
हनुमान अंगद रन गाजे।
होक सुनत रजनीचर भाजे।।
शत्रु को मित्र बनाने के लिए
गरल सुधा रिपु करहि मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।
शत्रुता दूर करने के लिए
वयरू न कर काहू सन कोई।
रामप्रताप विषमता खोई।।
भूत प्रेत के भय से मुक्ति के लिए
प्रनवउ पवन कुमार खल बन पावक ग्यान धुन।
जासु हृदय आगार बसहि राम सर चाप घर।।
सफल यात्रा के लिए
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
हृदय राखि कौशलपुर राजा।।
पुत्र प्राप्ति हेतु
प्रेम मगन कौशल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बाल चरित कर गान।।
मनोरथ की सिद्धि हेतु
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरू नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करहि त्रिसरारी।।
हनुमान भक्ति हेतु
सुमिरि पवन सुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू।।
विचार की शुद्धि हेतु
ताके जुग पद कमल मनावऊं।
जासु कृपा निरमल मति पावऊं।।
ईश्वर से क्षमा हेतु
अनुचित बहुत कहेउं अग्याता।
छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।।

शरद पूर्णिमा

अश्विनी मास को शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को "शाद पूर्णिमा' कहते हैं । इसे रास पूर्णिमा कमला पूर्णिमा, कौमुदी उत्सव, कुमार उत्सव, शरदोत्सव और चंद्रक्रोत्सव आदि के नाम से भी जाना जाता है । इसी दिन ब्रजमंडल में गोपियों ने भगवती कात्यायिनी की अर्चना करके कृष्णा के सानिध्य की प्राप्ति का वरदान पाया था । तत्पश्चात भगवान कृष्णा ने यमुना के तट पर गोपियों के साथ महारास किया था । "
भगवती कात्यायिनी नवदुर्गा की छटा स्वरूप हैं । महर्षि कात्यायन ने आदि शक्ति की उपासना करके उनसे यह प्रार्थना की थी कि दुखी प्राणियों की रक्षा के लिए वे उन्ही के घर में अवतरित हों । महर्षि कात्यायन की कन्या के रूप में अवतरित होने के कारण इनका नाम कात्यायिनी पड़ा । सिंह इनकी सवारी है, उनके हाथ उज्जवल चंद्रहास से सुशोभित हैं । दुर्गा ने कन्याओं की मनोकामना की पूर्ति के लिए ही कात्यायिनी रूप धारण किया था। इन्हें ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री माना गया है ।रास पूर्णिमा का यह पर्व शरद ऋतु के आगमन का सूचक है, इसके साथ ही शरद ऋतु आरंभ हो जाती है । शरद पूर्णिमा की रात को लक्ष्मी का पूजन और जागरण किया जाता है । ऐसी मान्यता है कि इस रात लक्ष्मी भूलोक पर विचरण करती हैं और जाग्रत मनुष्य को धन-धान्य से संपन्न बनाती हैं । लक्ष्मी के आठ रूप हैं-धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, ऐश्वर्य अथवा राज्यलक्ष्मी, वैभव लक्ष्मी, राजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, कमला लक्ष्मी एवं विजयलक्ष्मी । पुराणों के अनुसार मंथन से उत्पन्न लक्ष्मी ने क्षीर सागर में शेषनाग यर विश्राम करने वाले श्रीहरि का ही वरण किया, जो इस बात का प्रतीक है कि जो व्यक्ति साहसपूर्वक समस्त बाधाओं का सामना करते हुए, पूर्णनिष्ठा से कर्तव्यपरायण होकर अपने कार्यों का संपादन करता है, लक्ष्मी रूपी वैभव उसी का वरण करता है । क्षीर सागर इस विश्व का प्रतीक है ।शेष-शय्या इस जगत में स्थित बाधाओं का प्रतीक है । भगवान विष्णु उस कर्तव्यपरायण लक्ष्यधारी व्यक्तित्व के प्रतीक हैं जो जगत की समस्त बाधाओं एवं चिंताओं का धैर्यपूर्वक सामना करते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है ।जाग्रत एवं चेतन व्यक्ति को ही लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । प्रमादी, आलसी, मूर्ख, निर्चुद्धि, कृपण, कायर व्यक्ति कभी भी लक्ष्मी का कृपापात्र नहीं हो सकता ।
भारतीय ज्योतिषशास्त्र की मान्यता के अनुसार पूरे वर्ष में चन्द्रमा केवल शरद पूर्णिमा की रात को ही अपनी सोलह कलाओं से पूर्ण होता है । इस दिन चंद्रमा पृथ्वी के अधिक निकट होता है । इसीलिए इस रात को चंद्रमा अपेक्षाकृत अधिक बड़ा दिखाई देता है । वर्षा ऋतु के चौमासों के बादल छंटने पर इस रात्रि में पूर्ण चन्द्र की छटा अधिक धवल एवं प्रदीप्त प्रतीत होती है । चांदनी रात में विचरण करने से संतप्त मन क्रो शांति मिलती है । इसीलिए हमारे मनोविज्ञानी चिकित्साशास्त्रियों ने इस रात्रि के खुले प्रांगण में नाच, गान रास से भरपूर सामूहिक उत्सव के आयोजन की व्यवस्था की है । हम दुख की पीड़ा को भले ही अकेले झेलें, किंतु आनंद के क्षण सबके साथ बांटते हैं । उत्सव जब सामाजिक अथवा सामूहिक हो तो उसका आनंद और भी अधिक बढ़ जाता है। महापुरुषों में चंद्र की सुन्दरता एवं शीतलता दोनों ही गुण विद्यमान होते हैं । राम और कृष्णा को इसीलिए उनके भक्त प्रेम से रामचंद्र और कृष्ण चंद्र कहते है । चंद्र के आकर्षण से ही समुद्र में ज्वर भाटा आता है । प्रेमीजनों का हदय पूर्णिमा की कांति से आलोड़ित होता है, इसीलिए पूर्णिमा की रात में प्रेमी युगलों द्वारा नौका विहार की परंपरा पाई जाती है । ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की चान्दनी में औषधीय गुण भी विधमान रहते हैं । इसलिए इस रात खुले बरतन में खीर भरकर चांदनी में रखी जाती है । प्रात:काल इसी खीर को प्रसाद के रूप में घर के सभी प्राणी खाते हैं । इस रात चन्द्रमा की ओर टकटकी लगाकर देखने से नेत्र ज्योति भी बढती है । निरोगी रहने के लिए ही आकाश के मध्य में स्थित होने पर इस पूर्ण चन्द्रमा को पूजने की परंपरा है ।
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Wednesday 21 October 2015

आर्किटेक्चरल इंजिनीयरिंग करने के ग्रह योग

आज के शहरीकरण में हर व्यक्ति अपना एक स्वतंत्र रुप का घर चाहता है । घर बनवाने हेतु विभिन्न तरह के डिजाइन के अलग दिखने बाला घर आर्किटेक्ट के माध्यम से तैयार करवाता है। जिसके कारण ही शिक्षित व अनुभवी आर्किटेक्ट की मांग दिनों-दिन बढती जा रही है । समाज में धन और प्रतिष्ठा से जुड़कर इनकी अलग पहचान हो रही है । इसी कारण आज का नवयुवक भी आर्किटेक्ट की पढाई कर इस व्यवसाय को अपनाना चाहता हैं ।
1. भूमि कारक शनि व मंगल एवं कलात्मक कारक शुक्र का कुंडली में बली होना
आकेंटेक्ट शिक्षा के लिए कारक हैं ।
2. मंगल की राशि की लग्न या शनि की राशि की लग्न हो या शनि व मंगल में से किसी का भी लग्न पर प्रभाव हो और साथ ही शनि, मंगल, शुक्र जैसे ग्रहों का पंचम, लग्न, दशम,धन,लाभ आदि में से किन्हें से संबंध हो रहा हो, तो भी जातक को आकेंटेक्ट की शिक्षा दिलाकर आकेंटेक्ट बनाता है ।
3. यदि लग्नेश मंगल का शुक्र के साथ युति या दृष्ट संबंध हो,गुरु का संबंध केन्द्र या त्रिकोंण में भूमि कारक शनि से हो एवं बुध भी अच्छी स्थिति में हो और कर्मेश का संबंध भी यदि मंगल या शनि या शुक्र में से किसी भी रुप में बन रहा हो, तो जातक आकेंटेक्ट की पढाई कर आकेंटेक्ट का काम करता है ।
4. यदि लग्नेश के रुप में शनि पर गुरु की दृष्टि हो रही हो,भाग्येश के रुप में कारक शुक्र का संबंध कर्मेश मंगल के साथ होकर भाग्य या लाभ भाव में गुरू से दष्ट हो रहा हो एवं बुध के साथ केन्द्र में बुधादित्व योग होकर शनि और राहु जैसे ग्रहों से प्रभावित हो, तब भी जातक आकेंटेक्ट कार्य कर सकता है ।
5. यदि मंगल की राशि का लग्न होकर गुरू से दृष्ट हो, गुरु का शुक्र और शनि जैसे ग्रहों पर दृष्टि प्रभाव हो व लग्नेश मंगल का भी शुक्र पर दृष्टि संबंध हो रहा हो और शुक्र की राशि में बुधादित्य योग होकर राहु से युति या दृष्टि द्वारा प्रभावित हो रहा हो, तो भी जातक आर्केटेक्ट के कार्य में दक्ष होता है ।
6. यदि मंगल लग्नेश होकर लग्न में राहू जैसे ग्रह से प्रभावित हो, शनि व शुक्र का मंगल की राशि मेष में युति या दृष्टि संबध हो रहा हो एंवं बुधादित्व योग केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो जातक भी आकेंटेक्ट प्रोफेशन का कार्य करता है।
7. यदि शनि लाभ या धन भाव में हो या धन भाव में बैठकर कर्मेश शुक्र व लाभभाव को प्रभावित करें एवं भाग्येश के रुप में मंगल पचंमेश गुरु व लग्नेश सूर्य के साथ होकर केन्द्र या त्रिकोंण में राहु से युति या दृष्ट द्वारा प्रभावित हो तो भी जातक भूमि, भवन संबंधित कार्य का आर्केटेक्ट बनता है ।
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विजयादशमी

हमारी संस्कृति शौर्य और पराक्रम की आराधक है । विजयादशमी का पर्व उसी परंपरा को जीवंतता प्रदान करने वाला पर्व है । अनुभवी लोगों का कहना है कि आग, शत्रु और रोग का आभास होते ही निदान करना जरूरी है । इससे पहले कि समय पाकर ये तीनों अपना विकराल रूप धारण करें और हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाए-उन पर काबू पा लिया जाना चाहिए । विजयादशमी का पर्व असल में संकल्पबद्ध और दृढ़निश्चयी होकर बाहरी और भीतरी शत्रुओं को जड़ सहित उखाड़ फेंकने का महापर्व है ।
विजयादशमी का पर्व असत यर सत की, स्वार्थ पर परमार्थ की, दानवता पर मानवता की, बुराई पर अच्छाई की और अज्ञान पर ज्ञान की विजय का प्रतीक है । सदियों पहले श्रीराम ने नौ दिन तक भगवती शक्ति ( जगदंबा ) की आराधना करके शक्ति अर्जित की और विजयादशमी के दिन आततायी रावण पर विजय प्राप्त की थी । छत्रपति शिवाजी ने भी औरंगजेब की विशाल सेना को अपने युक्तिबल से परास्त करने के लिए आज ही के दिन का चयन किया था | विजयादशमी का महापर्व साबित करता है कि अन्यायी चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसका एक न एक दिन नाश अवश्य होता है । अन्यायी और दुराचारी का अंत तो बुरा ही होता है, साथ ही आने वली पीढियां भी उसके निकृष्ट कर्मों को क्षमा नहीं करतीं । श्रीराम के पावन चरित्र का स्मरण और अनुकरण कराने के लिए दशहरा के दस दिनों में देश के कोने-कोने में रामलीलाओं का मंचन किया जाता है । काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के प्रतीक रावण, कुंभकरण और मेघनाद के पुतलों का दशहरे के दिन दहन किया जाता है । कुछ क्षेत्रों में इन पुतलों के जले हुए अवशेषों को घर ले जाने की भी परंपरा है । ऐसी मान्यता है कि इन अवशेषों को घरों में रखने से सभी विकार हमारे घरों में प्रवेश नहीं कर पाते, जो कभी रावण में थे तथा विजयादशमी के दिन जिनका दहन कर दिया गया है । विजयादशमी के दिन शमी वृक्ष की पूजा की जाती है । शमी का वृक्ष दृढ़ता और तेजस्विता का प्रतीक है । इसमें अग्नि तत्व की प्रचुरता होती है । यज्ञ आदि में प्रकट करने के लिए अरणी मंथन के उपकरण शमी की लकड़ी से ही बनाए जाते हैं । मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय जनमानस की आस्था के प्रतीक हैं । भारतीय संस्कृति में श्रीराम का महत्व इसलिए नहीं है कि श्रीराम ईश्वर हैं, बल्कि उनकी महत्ता इसलिए है क्योंकि वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं । श्रीहरि विष्णु ने श्रीराम के रूप में एक साधारण मानव का अवतार लिया और मानव को कर्तव्यपरायणता की शिक्षा दी । श्रीराम ने अपने शील, शक्ति सौंदर्य, विवेक,धर्म, परमार्थ, क्षमा, समदृष्टि, संतोष और दया जैसे सात्विक सदगुणों द्वारा तामसी प्रवृति, मोह, अभिमान, काम, क्रोध, मद,लोभ, अनीति, हिंसा, पर
द्रोह तथा पाप आदि दुर्गुणों के प्रतीक अतुल वैभव, ऐश्वर्यशील, ज्ञान व पांडित्यपूर्ण, बलशाली रावण को पराजित किया था । श्रीराम ने 34 वर्ष के वनवास काल में, अपने प्रवास में पड़ने वाले प्रत्येक ग्राम और नगर के समस्त समुदायों व जातियों को संगठन के सूत्र से जोड़ा । श्रीराम ने मानव समुदाय को विजय और सफलता के लिए अपने कार्यों से एक मंत्र दिया-'संगठन यंत्र' इसी के बल पर उन्होंने रावण के अतुलित शक्ति-संपन्न साम्राज्य को ध्वस्त किया । महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को धर्म का साक्षात स्वरूप बताया
है- रामो विग्रहवान धर्म: अर्थात संपूर्ण जगत उन्हीं में समाहित है । श्रीराम के बिना हमारी संस्कृति निष्प्राण है । श्रीराम का चरित्र मर्यादा और कर्तव्य का स्रम्मिश्रण रहा है । वे जीवन पर्यत मर्थादामय व कर्तव्यनिष्ठ रहे हैं । उनके जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता, जब श्रीराम मर्यादा और कर्तव्य से हटते दिखाई दिए हों । इसीलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए ।
श्रीराम ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा की स्थापना की । उन्होंने पुत्र, शिष्य,भ्राता,मित्र, पति, सेनाध्यक्ष और राजा के रूप में आदर्शों की स्थापना की । उन्होंने समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के गले लगाया । अहिल्या, निषादराज, गुह, वानरराज सुग्रीव, ऋक्षराज़ जटायु, शबरी, विभीषण, हनुमान और अंगद-ये सभी श्रीराम के चरित्र को उजला बनाने वाले नक्षत्र बन गए ।
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Tuesday 20 October 2015

सफल लेखक बनने के ज्योतिष्य विश्लेषण

अगर तृतीय भाव बलवान हो, तृतीय भाव में कोई ग्रह बली होकर स्थित हो, तृतीयेश स्वराशि या उच्च राशि में हो तो जातक सफल लेखक होता हैं।
किसी जातक के जीवन के बारे में जानकारी प्राप्त करने हेतु ज्योतिष शास्त्र में जन्मांग का अध्ययन कर बताया जा सकता हैं कि जातक का सम्पूर्ण जीवन कैसा रहेगा। जन्मांग के बारह भाव भित्र भित्र कारकों हेतु निर्धारित हैं। इन कारको एवं उसके स्वामी ग्रह की स्थिति ही उस कारक के बारे में सफल फलादेश देने में समर्थ हैं। जन्मांग के तृतीय भाव से किसी जातक की लेखनी शक्ति के बारे में जाना जा सकता है। बुध को क्षण प्रतिक्षण मानव मस्तिष्क में आने वाले विचारों को सुव्यवस्थित रूप से अभिव्यक्ति का कारक ग्रह माना जाता है तो शुक्र को आर्थिक क्षमता का। जन्मांग में पंचम भाव से जातक की बो़द्धिक एंव तार्किक शक्ति, किसी विषय वस्तु को समझने की शक्ति, ज्ञान व विवेक का विचार किया जाता है। इस प्रकार जन्मांग के तृतीय भाव, तृतीयेश, पंचम भाव, पंचमेश, बुध व शुक्र की स्थिति के आधार पर जातक की लेखनी शक्ति के बारे में जाना जाता हैं किसी भी प्रकार के लेखन हेतु स्मरण शक्ति एंव लेखन अभिव्यक्ति के साथ उसकी मानसिक एकाग्रता एंव उसे आत्मसात करने की क्षमता भी आवश्यक है। इसलिए जन्मांग का चतुर्थ भाव भी महत्वपूर्ण है। चतुर्थ भाव हृदय का कारक भाव भी माना जाता है। इसलिए कोई जातक किस विषय में लेखन पूर्णतया लगन से कर पायेगा। इसके लिये चतुर्थ भाव व चतुर्थेश का अध्ययन भी आवश्यक है। चतुर्थ भाव जातक मे किस विषय का लेखन आन्तरिक मनोभावों से प्रेरित होगा। यदि चतुर्थ भाव पर क्रुर ग्रहों का प्रभाव अधिक बन रहा हो तो जातक क्रांतिकारी विचार अर्थात हिंसात्मक एवं प्रतिक्रियात्मक लेखन में पुर्ण रूचि रखता हैं। लेकिन शुभ प्रभाव होने पर शांतिपूर्ण जीवन को ईश्वर का वरदान मानकर उसके अनुसार चलने की हिमायत का पक्षधर लेखन करता है। उसके लेखन में शांति, सद्भाव, प्रेम, सुख दुःख को जीवन का अंग मानने का भाव रहता है। लेकिन विपरीत होने पर हमेंशा प्रतिक्रियात्मक विचारों का लेखन करने में रूचि रखता हैं। ईश्वर की बनाई सृष्टि में गलत हस्तक्षेप करने की विचार क्षमता रखता है। यह भी देखा गया है। कि वैज्ञानिक क्रियाकलापों, महत्वपूर्ण खोजों एवं उनके अनुसंधान पर शनि मंगल एवं राहु जैसे ग्रह लेखन क्षमता में निखार लाते है। इस प्रकार क लेखन के लिये अष्टम भाव एवं भावेश का अध्ययन भी आवश्यक होता है।
जन्मांग का तृतीय भाव बलवान हो, तृतीय भाव में कोई ग्रह बली होकर स्थित हो, तृतीय स्वराशि या उच्च राशि में हो तो जातक सफल लेखक होता है। तृतीय भाव एवं तृतीयेश पर शुभग्रहों का युति या अन्य प्रभाव हो तो जातक लेखक तो बन सकता है पर शुक्र का बलवान एवं शुभ स्थित होना ही उसे सफल लेखक की संज्ञा दे सकता है क्योंकि शुक्र की बलवान स्थिति ही उसे धन एवं मान-सम्मान की प्राप्ति करा सकती हैं। वर्तमान में वही लेखक सफल माना जाता है जिसकी कृतियां पाठक का पूर्णतया मनोंरजन एवं ज्ञान की प्राप्ति कराएं। साथ ही जनमानस में भी उस कृति को पढने की जागृत होती रहे। किसी कृति के जितने पाठक अधिक होंगे उसमें से जितने पाठक उस कृति से संतुष्ट होंगे एवं लेखक को भी कृति से अप्रत्याशित धन की प्राप्ति हो जाए वही सफल लेखक बन सकता है।जन्मांग में तृतीय भाव, तृतीयेश के साथ चतुर्थेश एवं पंचमेश की बली स्थिति भी आवश्यक है। चतुर्थेश एवं पंचमेश मे परस्पर योग हो दोनों षडबली होकर स्थिति हो, पंचमेश का लग्नेश से संबंध हो, लग्नेश पूर्णतया बली होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता का प्रतिशत बढ जाता है। किसी जातक के जीवन में लग्न एवं लग्नेश का बली होना उसकी आकर्षण क्षमता में वृद्धि करता है। लग्न-लग्नेश के बली होने एवं शुभ ग्रहों के युति प्रभाव में होने पर जातक का व्यक्तित्व निखरता है। उसके व्यक्तित्व में निखार ही उसे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सीढी दर सीढी सफलता की प्राप्ति कराता है। लग्न भाव तृतीय भाव से एकादश भी बनता है। एकादश भाव अर्थात उसके लेखन से कितना लाभ प्राप्त होगा उसके बारे में जानकारी देने का भाव है। इसलिए लग्न एवं लग्नेश का बली होना ही उसकी लेखन क्षमता की कसौटी का सशक्त माध्यम बनता है।इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न, तृतीय, चतुर्थ, पंचम भाव व इसके स्वामी ग्रह जन्मांग में जितने बलवान होकर स्थित होंगे, उसी तारतम्य से जातक को लेखन अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान होगा। इसलिए सफल लेखक हेतु इन सभी कारक ग्रहों बलवान होना, शुभ स्थिति मे होंना, नीच एवं अस्त ग्रहों के प्रभाव में न होंना एवं उचित समय पर आना ही किसी जातक को सफल लेखक बनाने हेतु उत्तम अवसर प्रदान करता है। सफल लेखक बनने हेतु यदि आप भी प्रयत्नशील है तो अपने जन्मांग का विश्लेषण कर जाने कि कौनसा ग्रह प्रतिकुल परिणाम दे रहा है। उस ग्रह का वैदिक उपाय कर लेने पर उसे सफलता अवश्य प्राप्त होती हैं।

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द्वादश भावों में शुक्र का फल

प्रथम भाव में शुक्र- जातक के जन्म के समय लगन में विराजमान शुक्र को पहले भाव में शुक्र की उपाधि दी गयी है। पहले भाव में शुक्र के होने से जातक सुन्दर होता है,और शुक्र जो कि भौतिक सुखों का दाता है,जातक को सुखी रखता है,शुक्र दैत्यों का राजा है इसलिये जातक को भौतिक वस्तुओं को प्रदान करता है,और जातक को शराब कबाब आदि से कोई परहेज नही होता है,जातक की रुचि कलात्मक अभिव्यक्तियों में अधिक होती है,वह सजाने और संवरने वाले कामों में दक्ष होता है,जातक को राज कार्यों के करने और राजकार्यों के अन्दर किसी न किसी प्रकार से शामिल होने में आनन्द आता है,वह अपना हुकुम चलाने की कला को जानता है,नाटक सिनेमा और टीवी मीडिया के द्वारा अपनी ही बात को रखने के उपाय करता है,अपनी उपभोग की क्षमता के कारण और रोगों पर जल्दी से विजय पाने के कारण अधिक उम्र का होता है,अपनी तरफ़ विरोधी आकर्षण होने के कारण अधिक कामी होता है,और काम सुख के लिये उसे कोई विशेष प्रयत्न नही करने पडते हैं।
द्वितीय भाव में शुक्र- दूसरा भाव कालपुरुष का मुख कहा गया है,मुख से जातक कलात्मक बात करता है,अपनी आंखों से वह कलात्मक अभिव्यक्ति करने के अन्दर माहिर होता है,अपने चेहरे को सजा कर रखना उसकी नीयत होती है,सुन्दर भोजन और पेय पदार्थों की तरफ़ उसका रुझान होता है,अपनी वाकपटुता के कारण वह समाज और जान पहिचान वाले क्षेत्र में प्रिय होता है,संसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति अपनी समझने की कला से पूर्ण होने के कारण वह विद्वान भी माना जाता है,अपनी जानपहिचान का फ़ायदा लेने के कारण वह साहसी भी होता है,लेकिन अकेला फ़ंसने के समय वह अपने को नि:सहाय भी पाता है,खाने पीने में साफ़सफ़ाई रखने के कारण वह अधिक उम्र का भी होता है।
तीसरे भाव में शुक्र- तीसरे भाव में शुक्र के होने पर जातक को अपने को प्रदर्शित करने का चाव बचपन से ही होता है,कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार तीसरा भाव दूसरों को अपनी कला या शरीर के द्वारा कहानी नाटक और सिनेमा टीवी मीडिया के द्वारा प्रदर्शित करना भी होता है,तीसरे भाव के शुक्र वाले जातक अधिकतर नाटकबाज होते है,और किसी भी प्रकार के संप्रेषण को आसानी से व्यक्त कर सकते है,वे फ़टाफ़ट बिना किसी कारण के रोकर दिखा सकते है,बिना किसी कारण के हंस कर दिखा सकते है,बिना किसी कारण के गुस्सा भी कर सकते है,यह उनकी जन्म जात सिफ़्त का उदाहरण माना जा सकता है। अधिकतर महिला जातकों में तीसरे भाव का शुक्र बडे भाई की पत्नी के रूप में देखा जाता है,तीसरे भाव के शुक्र वाला जातक खूबशूरत जीवन साथी का पति या पत्नी होता है,तीसरे भाव के शुक्र वाले जातक को जीवन साथी बदलने में देर नही लगती है,चित्रकारी करने के साथ वह अपने को भावुकता के जाल में गूंथता चला जाता है,और उसी भावुकता के चलते वह अपने को अन्दर ही अन्दर जीवन साथी के प्रति बुरी भावना पैदा कर लेता है,अक्सर जीवन की अभिव्यक्तियों को प्रसारित करते करते वह थक सा जाता है,और इस शुक्र के धारक जातक आलस्य की तरफ़ जाकर अपना कीमती समय बरबाद कर लेते है,तीसरे शुक्र के कारण जातक के अन्दर चतुराई की मात्रा का प्रभाव अधिक हो जाता है,आलस्य के कारण जब वह किसी गंभीर समस्या को सुलझाने में असमर्थ होता है,तो वह अपनी चतुराई से उस समस्या को दूर करने की कोशिश करता है।
चौथे भाव में शुक्र- चौथे भाव का शुक्र कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार चन्द्रमा की कर्क राशि में होता है,जातक के अन्दर मानसिक रूप से कामवासना की अधिकता होती है,उसे ख्यालों में केवल पुरुष को नारी और नारी को पुरुष का ही क्याल रहता है,जातक आस्तिक भी होता है,परोपकारी भी होता है,लेकिन परोपकार के अन्दर स्त्री को पुरुष के प्रति और पुरुष को स्त्री के प्रति आकर्षण का भाव देखा जाता है,जातक व्यवहार कुशल भी होता है,और व्यवहार के अन्दर भी शुक्र का आकर्षण मुख्य होता है,जातक का स्वभाव और भावनायें अधिक मात्रा में होती है,वह अपने को समाज में वाहनो से युक्त सजे हुये घर से युक्त और आभूषणों से युक्त दिखाना चाहता है,अधिकतर चौथे शुक्र वाले जातकों की रहने की व्यवस्था बहुत ही सजावटी देखी जाती है,चौथे भाव के शुक्र के व्यक्ति को फ़ल और सजावटी खानों का काम करने से अच्छा फ़ायदा होता देखा गया है,पानी वाली जमीन में या रहने वाले स्थानों के अन्दर पानी की सजावटी क्रियायें पानी वाले जहाजों के काम आदि भी देखे जाते है,धनु या वृश्चिक का शुक्र अगर चौथे भाव में विराजमान होता है,तो जातक को हवाई जहाजों के अन्दर और अंतरिक्ष के अन्दर भी सफ़ल होता देखा गया है।
पंचम भाव में शुक्र- पंचम भाव का शुक्र कविता करने के लिये अधिक प्रयुक्त माना जाता है,चन्द्रमा की राशि कर्क से दूसरा होने के कारण जातक भावना को बहुत ही सजा संवार कर कहता है,उसके शब्दों के अन्दर शैरो शायरी की पुटता का महत्व अधिक रूप से देखा जाता है,अपनी भावना के चलते जातक पूजा पाठ से अधिकतर दूर ही रहता है,उसे शिक्षा से लेकर अपने जीवन के हर पहलू में केवल भौतिकता का महत्व ही समझ में आता है,व्ह जो सामने है,उसी पर विश्वास करना आता है,आगे क्या होगा उसे इस बात का ख्याल नही आता है,वह किसी भी तरह पराशक्ति को एक ढकोसला समझता है,और अक्सर इस प्रकार के लोग अपने को कम्प्यूटर वाले खेलों और सजावटी सामानों के द्वारा धन कमाने की फ़िराक में रहते है,उनको भगवान से अधिक अपने कलाकार दिमाग पर अधिक भरोशा होता है,अधिकतर इस प्रकार के जातक अपनी उम्र की आखिरी मंजिल पर किसी न किसी कारण अपना सब कुछ गंवाकर भिखारी की तरह का जीवन निकालते देखे गये है,उनकी औलाद अधिक भौतिकता के कारण मानसिकता और रिस्तों को केवल संतुष्टि का कारण ही समझते है,और समय के रहते ही वे अपना मुंह स्वाभाविकता से फ़ेर लेते हैं।
छठे भाव में शुक्र- छठा भाव कालपुरुष के अनुसार बुध का घर माना जाता है,और कन्या राशि का प्रभाव होने के कारण शुक्र इस स्थान में नीच का माना जाता है,अधिकतर छठे शुक्र वाले जातकों के जीवन साथी मोटे होते है,और आराम तलब होने के कारण छठे शुक्र वालों को अपने जीवन साथी के सभी काम करने पडते है,इस भाव के जातकों के जीवन साथी किसी न किसी प्रकार से दूसरे लोगों से अपनी शारीरिक काम संतुष्टि को पूरा करने के चक्कर में केवल इसी लिये रहते है,क्योंकि छठे शुक्र वाले जातकों के शरीर में जननांग सम्बन्धी कोई न कोई बीमारी हमेशा बनी रहती है,चिढचिढापन और झल्लाहट के प्रभाव से वे घर या परिवार के अन्दर एक प्रकार से क्लेश का कारण भी बन जाते है,शरीर में शक्ति का विकास नही होने से वे पतले दुबले शरीर के मालिक होते है,यह सब उनकी माता के कारण भी माना जाता है,अधिकतर छठे शुक्र के जातकों की माता सजने संवरने और अपने को प्रदर्शित करने के चक्कर में अपने जीवन के अंतिम समय तक प्रयासरत रहतीं है। पिता के पास अनाप सनाप धन की आवक भी रहती है,और छठे शुक्र के जातकों के एक मौसी की भी जीवनी उसके लिये महत्वपूर्ण होती है,माता के खानदान से कोई न कोई कलाकार होता है, या मीडिया आदि में अपना काम कर रहा होता है।
सप्तम भाव में शुक्र- सप्तम भाव में शुक्र कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार अपनी ही राशि तुला में होता है,इस भाव में शुक्र जीवन साथी के रूप में अधिकतर मामलों में तीन तीन प्रेम सम्बन्ध देने का कारक होता है,इस प्रकार के प्रेम सम्बन्ध उम्र की उन्नीसवीं साल में,पच्चीसवीं साल में और इकत्तीसवीं साल में शुक्र के द्वारा प्रदान किये जाते है,इस शुक्र का प्रभाव माता की तरफ़ से उपहार में मिलता है,माता के अन्दर अति कामुकता और भौतिक सुखों की तरफ़ झुकाव का परिणाम माना जाता है,पिता की भी अधिकतर मामलों में या तो शुक्र वाले काम होते है,अथवा पिता की भी एक शादी या तो होकर छूट गयी होती है,या फ़िर दो सम्बन्ध लगातार आजीवन चला करते है,सप्तम भाव का शुक्र अपने भाव में होने के कारण महिला मित्रों को ही अपने कार्य के अन्दर भागीदारी का प्रभाव देता है। पुरुषों को सुन्दर पत्नी का प्रदायक शुक्र पत्नी को अपने से नीचे वाले प्रभावों में रखने के लिये भी उत्तरदायी माना जाता है,इस भाव का शुक्र उदारता वाली प्रकृति भी रखता है,अपने को लोकप्रिय भी बनाता है,लेकिन लोक प्रिय होने में नाम सही रूप में लिया जाये यह आवश्यक नही है,कारण यह शुक्र कामवासना की अधिकता से व्यभिचारी भी बना देता है,और दिमागी रूप से चंचल भी बनाता है,विलासिता के कारण जातक अधिकतर मामलों में कर्म हीन होकर अपने को उल्टे सीधे कामों मे लगा लेते है।
आठवें भाव में शुक्र- आठवें भाव का शुक्र जातक को विदेश यात्रायें जरूर करवाता है,और अक्सर पहले से माता या पिता के द्वारा सम्पन्न किये गये जीवन साथी वाले रिस्ते दर किनार कर दिये जाते है,और अपनी मर्जी से अन्य रिस्ते बनाकर माता पिता के लिये एक नई मुसीबत हमेशा के लिये खडी कर दी जाती है। जातक का स्वभाव तुनक मिजाज होने के कारण माता के द्वारा जो शिक्षा दी जाती है वह समाज विरोधी ही मानी जाती है,माता के पंचम भाव में यह शुक्र होने के कारण माता को सूर्य का प्रभाव देता है,और सूर्य शुक्र की युति होने के कारण वह या तो राजनीति में चली जाती है,और राजनीति में भी सबसे नीचे वाले काम करने को मिलते है,जैसे साफ़ सफ़ाई करना आदि,माता की माता यानी जातक की नानी के लिये भी यह शुक्र अपनी गाथा के अनुसार वैध्वय प्रदान करता है,और उसे किसी न किसी प्रकार से शिक्षिका या अन्य पब्लिक वाले कार्य भी प्रदान करता है,जातक को नानी की सम्पत्ति बचपन में जरूर भोगने को मिलती है,लेकिन बडे होने के बाद जातक मंगल के घर में शुक्र के होने के बाद या तो मिलट्री में जाता है,या फ़िर किसी प्रकार की सजावटी टेकनोलोजी यानी कम्प्यूटर और अन्य आई टी वाली टेकनोलोजी में अपना नाम कमाता है। लगातार पुरुष वर्ग कामुकता की तरफ़ मन लगाने के कारण अक्सर उसके अन्दर जीवन रक्षक तत्वों की कमी हो जाती है,और वह रोगी बन जाता है,लेकिन रोग के चलते यह शुक्र जवानी के अन्दर किये गये कामों का फ़ल जरूर भुगतने के लिये जिन्दा रखता है,और किसी न किसी प्रकार के असाध्य रोग जैसे तपेदिक या सांस की बीमारी देता है,और शक्तिहीन बनाकर बिस्तर पर पडा रखता है। इस प्रकार के पुरुष वर्ग स्त्रियों पर अपना धन बरबाद करते है,और स्त्री वर्ग आभूषणो और मनोरंजन के साधनों तथा महंगे आवासों में अपना धन व्यय करती है।
नवें भाव का शुक्र- नवें भाव का मालिक कालपुरुष के अनुसार गुरु होता है,और गुरु के घर में शुक्र के बैठ जाने से जातक के लिये शुक्र धन लक्ष्मी का कारक बन जाता है,उसके पास बाप दादा के जमाने की सम्पत्ति उपभोग करने के लिये होती है,और शादी के बाद उसके पास और धन बढने लगता है,जातक की माता को जननांग सम्बन्धी कोई न कोई बीमारी होती है,और पिता को मोटापा यह शुक्र उपहार में प्रदान करता है,बाप आराम पसंद भी होता है,बाप के रहते जातक के लिये किसी प्रकार की धन वाली कमी नही रहती है,वह मनचाहे तरीके से धन का उपभोग करता है,इस प्रकार के जातकों का ध्यान शुक्र के कारण बडे रूप में बैंकिंग या धन को धन से कमाने के साधन प्रयोग करने की दक्षता ईश्वर की तरफ़ से मिलती है,वह लगातार किसी न किसी कारण से अपने को धनवान बनाने के लिये कोई कसर नही छोडता है। उसके बडे भाई की पत्नी या तो बहुत कंजूस होती है,या फ़िर धन को समेटने के कारण वह अपने परिवार से बिलग होकर जातक का साथ छोड देती है,छोटे भाई की पत्नी भी जातक के कहे अनुसार चलती है,और वह हमेशा जातक के लिये भाग्य बन कर रहती है,नवां भाव भाग्य और धर्म का माना जाता है,जातक के लिये लक्ष्मी ही भगवान होती है,और योग्यता के कारण धन ही भाग्य होता है। जातक का ध्यान धन के कारण उसकी रक्षा करने के लिये भगवान से लगा रहता है,और वह केवल पूजा पाठ केवल धन को कमाने के लिये ही करता है। सुखी जीवन जीने वाले जातक नवें शुक्र वाले ही देखे गये है,छोटे भाई की पत्नी का साथ होने के कारण छोटा भाई हमेशा साथ रहने और समय समय पर अपनी सहायता देने के लिये तत्पर रहता है।
दशम भाव का शुक्र- दसम भाव का शुक्र कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार शनि के घर में विराजमान होता है,पिता के लिये यह शुक्र माता से शासित बताया जाता है,और माता के लिये पिता सही रूप से किसी भी काम के अन्दर हां में हां मिलाने वाला माना जाता है।छोटा भी कुकर्मी बन जाता है,और बडा भाई आरामतलब बन जाता है। जातक के पास कितने ही काम करने को मिलते है,और बहुत सी आजीविकायें उसके आसपास होती है। अक्सर दसवें भाव का शुक्र दो शादियां करवाता है,या तो एक जीवन साथी को भगवान के पास भेज देता है,अथवा किसी न किसी कारण से अलगाव करवा देता है। जातक के लिये एक ही काम अक्सर परेशान करने वाला होता है,कि कमाये हुये धन को वह शनि वाले नीचे कामों के अन्दर ही व्यय करता है,इस प्रकार के जातक दूसरों के लिये कार्य करने के लिये साधन जुटाने का काम करते है,दसवें भाव के शुक्र वाले जातक महिलाओं के लिये ही काम करने वाले माने जाते है,और किसी न किसी प्रकार से घर को सजाने वाले कलाकारी के काम,कढाई कशीदाकारी,पत्थरों को तरासने के काम आदि दसवें भाव के शुक्र के जातक के पास करने को मिलते है।
ग्यारहवें भाव का शुक्र - ग्यारहवां भाव संचार के देवता यूरेनस का माना जाता है,आज के युग में संचार का बोलबाला भी है,मीडिया और इन्टरनेट का कार्य इसी शुक्र की बदौलत फ़लीभूत माना जाता है,इस भाव का शुक्र जातक को विजुअल साधनों को देने में अपनी महारता को दिखाता है,जातक फ़िल्म एनीमेशन कार्टून बनाना कार्टून फ़िल्म बनाना टीवी के लिये काम करना,आदि के लिये हमेशा उत्साहित देखा जा सकता है। जातक के पिता की जुबान में धन होता है,वह किसी न किसी प्रकार से जुबान से धन कमाने का काम करता है,जातक का छोटा भाई धन कमाने के अन्दर प्रसिद्ध होता है,जातक की पत्नी अपने परिवार की तरफ़ देखने वाली होती है,और जातक की कमाई के द्वारा अपने मायके का परिवार संभालने के काम करती है। जातक का बडा भाई स्त्री से शासित होता है,जातक के बडी बहिन होती है,और वह भी अपने पति को शासित करने में अपना गौरव समझती है। जातक को जमीनी काम करने का शौक होता है,वह खेती वाली जमीनों को सम्भालने और दूध के काम करने के अन्दर अपने को उत्साहित पाता है,जातक की माता का स्वभाव भी एक प्रकार से हठीला माना जाता है,वह धन की कीमत को नही समझती है,और माया नगरी को राख के ढेर में बदलने के लिये हमेशा उत्सुक रहती है,लेकिन पिता के भाग्य से वह जितना खर्च करती है,उतना ही अधिक धन बढता चला जाता है।
बारहवें भाव में शुक्र -बारहवें भाव के शुक्र का स्थान कालपुरुष की कुन्डली के अनुसार राहु के घर में माना जाता है,राहु और शुक्र दोनो मिलकर या तो जातक को आजीवन हवा में उडाकर हवाई यात्रायें करवाया करते है,या आराम देने के बाद सोचने की क्रिया करवाने के बाद शरीर को फ़ुलाते रहते है,जातक का मोटा होना इस भाव के शुक्र की देन है,जातक का जीवन साथी सभी जातक की जिम्मेदारियां संभालने का कार्य करता है,और अपने को लगातार किसी न किसी प्रकार की बीमारियों का ग्रास बनाता चला जाता है,जातक का पिता या तो परिवार में बडा भाई होता है,और वह जातक की माता के भाग्य से धनवान होता है,पिता का धन जातक को मुफ़्त में भोगने को मिलता है,उम्र की बयालीसवीं साल तक जातक को मानसिक संतुष्टि नही मिलती है,चाहे उसके पास कितने ही साधन हों,वह किसी न किसी प्रकार से अपने को अभावग्रस्त ही मानता रहता है,और नई नई स्कीमें लगाकर बयालीस साल की उम्र तक जितना भी प्रयास कमाने के करता है,उतना ही वह पिता का धन बरबाद करता है,लेकिन माता के भाग्य से वह धन किसी न किसी कारण से बढता चला जाता है। उम्र की तीसरी सीढी पर वह धन कमाना चालू करता है,और फ़िर लगातार मरते दम तक कमाने से हार नही मानता है। जातक का बडा भाई अपने जुबान से धन कमाने का मालिक होता है,लेकिन भाभी का प्रभाव परिवार की मर्यादा को तोडने में ही रहता है,वह अपने को धन का दुश्मन समझती है,और किसी न किसी प्रकार से पारिवारिक महिलाओं से अपनी तू तू में में करती ही मिलती है,उसे बाहर जाने और विदेश की यात्रायें करने का शौक होता है,भाभी का जीवन अपनी कमजोरियों के कारण या तो अस्पताल में बीतता है,या फ़िर उसके संबन्ध किसी न किसी प्रकार से यौन सम्बन्धी बीमारियों के प्रति समाज में कार्य करने के प्रति मिलते है,वह अपने डाक्टर या महिलाओं को प्रजनन के समय सहायता देने वाली होती है।

नवरात्र का नौवां दिन: माँ सिद्धिदात्री का पूजन

दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है । इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ।
सिद्धिदात्री : मां दुर्गा का नौवां रूप
नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर बहुत ही विधि-विधान से माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-उपासना की जाती है। आइए जानते हैं नौवीं देवी सिद्धिदात्री के बारे में :-
भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी की पूजा नौंवे दिन की जाती है। यह देवी सर्व सिद्धियां प्रदान करने वाली देवी हैं। उपासक या भक्त पर इनकी कृपा से कठिन से कठिन कार्य भी चुटकी में संभव हो जाते हैं। हिमाचल के नंदापर्वत पर इनका प्रसिद्ध तीर्थ है। अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं। भगवान शिव ने भी इस देवी की कृपा से यह तमाम सिद्धियां प्राप्त की थीं। इस देवी की कृपा से ही शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण शिव अर्द्धनारीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए। इस देवी के दाहिनी तरफ नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा तथा बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ में शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल का पुष्प है। इनका वाहन सिंह है और यह कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। विधि-विधान से नौंवे दिन इस देवी की उपासना करने से सिद्धियां प्राप्त होती हैं। यह अंतिम देवी हैं। इनकी साधना करने से लौकिक और परलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति हो जाती है। मां के चरणों में शरणागत होकर हमें निरंतर नियमनिष्ठ रहकर उपासना करना चाहिए। इस देवी का स्मरण, ध्यान, पूजन हमें इस संसार की असारता का बोध कराते हैं और अमृत पद की ओर ले जाते हैं।

शनि की साढ़ेसाती का विश्लेषण....

यदि किसी व्यक्ति को यह कह दिया जाये कि तुम पर शनिदेव की साढ़ेसाती चल रही है तो न जाने उस व्यक्ति के दिमाग में क्या-क्या भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
साढ़ेसाती का विशलेषण
शनिदेव के कुपित होने का अर्थ यह है कि संबंधित जातक अन्याय एवं अनावश्यक विषमताओं का साथ दे रहा है। ऐसे मनुष्यों को शनिदेव दंडित कर उनका शुध्दिकरण करते हैं। साथ ही उन्हें सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी करते हैं। ऐसी स्थिति में यह कहना कि शनिदेव की साढ़ेसाती की पूरी अवधि खराब है, एकदम गलत है। क्योंकि यदि एक बच्चा स्कूल से एक पेंसिल चुरा कर घर ले आये और मां उसे दंड देने के बजाय उसे प्रोत्साहन दे तो वह भविष्य में एक दिन बहुत बड़ा चोर बन जायेगा। यदि उसे पहले दिन ही पेंसिल चोरी के लिए दंडित कर दिया जाये तो वह दंड उसे हमेशा सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करेगा। या यूं कह दीजिए कि सुनार सोने को गर्म आग में रखकर ही सुन्दर आभूषणों के लिए ढालता है, ठीक उसी प्रकार शनिदेव न्याय अधिकारी बनकर जातक-जातिकाओं के पापों की सजा देकर उन्हें पवित्र कर सुख-सम्पत्ति एवं धन देते हैं।
शनिदेव का एक विशेष गुण यह भी है कि वह दूध का दूध एवं पानी का पानी कर देते हैं। यानी वह सच्चे और झूठे का भेद भलीभांति समझते हैं। शनिदेव बहुत बड़े उपदेशक, शिक्षक एवं गुरु भी कहे जाते हैं, जो जातक को विपत्ति और कष्ट, अभाव व निर्धनता रूपी तापों से तपाकर मलहीन बनाते हुए उसे उन्नति के सोपान पर लाकर खड़ा कर देते हैं। यानी इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि साढ़ेसाती में यदि शनिदेव प्रतिकूल परिस्थितियों का संकेत देने वाले भाव में बैठे हैं तो हमारे प्रारब्ध या यिमाण कर्म में कहीं न कहीं त्रुटि जरूर रही है और उसका फल हमें साढ़ेसाती में अवश्य भुगतना होगा।यदि हमें यह ज्ञात हो जाए कि साढ़े सात वर्ष में से कौन सा समय अच्छा जायेगा, या कौन सा समय बुरा जायेगा, तो संबंधित व्यक्ति तदनुसार कदम उठाकर हर हालत में अपने को खुशहाल रखने की युक्ति निकाल सकता है। उसे यह मालूम हो जाये कि आज मेरा समय खराब है, अत: मैं अच्छा कार्य करूं, कल शुभ समय भी आने वाला है तो वह दु:ख एवं मुसीबतों को सहते हुए भी उनको भुलाकर सुख व सुनहरे पल का इन्तजार करेगा। सुख के इंतजार में बड़ा से बड़ा दुख भी आसानी से कट जाता है। वैसे भी यह परंपरा है कि अंधेरी रात के बाद सदैव सुबह होती है। आज दुख है तो कभी सुख भी अवश्य आयेगा।अत: शनिदेव की साढ़ेसाती को हौवा समझ उससे डरने के बजाय हम अपने यिमाण कर्म को सुधारें तो अच्छा रहेगा। याद रहे, शनिदेव की साढ़ेसाती का प्रभाव तीन चरणों में होता है और तीनों चरण एक समान नहीं होते, तीनों चरणों में संबंधित व्यक्ति को सुख-दुख के अलग अलग स्वाद चखने को मिलते हैं।
शनिदेव पूरे भच का 30 वर्ष में एक चक्कर लगा पाते हैं। अर्थात एक राशि में ढाई वर्ष रहते हैं। मनुष्य अपने स्वार्थवश अच्छा-बुरा कार्य करता रहता है। जब शनिदेव उसकी राशि में प्रवेश करता है तो पिछले 30 वर्षों में जो जातक ने अच्छे-बुरे कार्य किये हैं, उनका ऑडिट करते हैं। ऑडिट करने पर वह देखते हैं कि इस जातक का पिछले 30 वर्षों का कैसा व्यवहार रहा। यदि अच्छा रहा, मानवता के प्रति प्रेम भरा रहा तो साढ़ेसाती में सुख प्राप्त होता है और यदि मानवता के प्रति दर्ुव्यवहार रहा तो जितना दर्ुव्यवहार रहा उसके अनुसार उसे सजा देते हैं। इसलिए व्यक्ति का मानवता के प्रति अच्छा व्यवहार रहे। नेक कमाई करे तो उसे साढ़ेसाती ढैय्या में किसी भी प्रकार का कष्ट प्राप्त नहीं होता है। अनेक राजनीतिज्ञों को शनिदेव की साढ़ेसाती में ऊँचाइयों पर चढ़ते देखा गया है।
शनिदेव का नाम सुनकर अक्सर लोगों में भय का आतंक व्याप्त हो जाता है। शनिदेव की साढ़ेसाती का हौवा जनमानस में अति प्राचीनकाल से चला आ रहा है। जिससे जातकों के मन में भीषण भय एवं सघन संत्रास उत्पन्न करने वाली स्थिति पैदा हो जाती है। इस संबंध में लोगों के मन में अनेक भ्रांतियां बैठी हैं। लौकिक कथाओं में इसकी विनाशकारी स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है। अत: इस दशा में व्यवस्थित विवेचन की अनिवार्यता स्वत: सिध्द है।
वैसे ज्योतिष शास्त्रो के अनुसार शनिदेव यदि जन्मराशि से द्वादश, लग्न व धन भाव में स्थित हों तो उसकी साढ़ेसाती शुरू हो जाती है और ढाई वर्ष तक शनि की दृष्टि प्रथम चरण में पड़ती है और संकेत देती है कि पूर्व कर्मों के फलस्वरूप जातक को आर्थिक कठिनाइयों, शारीरिक कष्ट, स्थान परिवर्तन, अधिकाधिक व्यय और आमदनी कम होने से मानसिक तनाव, वैवाहिक मामले में व्यवधान आदि फल प्राप्त होने वाले हैं। यदि शनि जन्म राशि में स्थित हो तो भी ढाई वर्ष तक भोग काल कहा जाता है। दूसरे चरण में पूर्वकृत निजकर्मों के फलस्वरूप जातकों को व्यावसायिक हानि, सम्बंधियों को कष्ट, यात्रा, मित्रों का अभाव, शत्रु, पीड़ा व कार्यों में अवरोध आदि फल मिलते हैं। तीसरे चरण में पूर्वकृत निजकर्मों के फलस्वरूप जातको को सुख का अभाव अधिकाधिक व्यय से मानसिक व्यग्रता, गलत आचरण रखने वालों से संबंध, विरोध, विवाद व संबंधियों से मतभेद तथा असहयोग का वातावरण बना रहता है। यह अक्सर नेत्रों, उदर और पैर में निवास करता है। वैसे इसे अच्छा भी मानते हैं। ढैया और अल्प-कल्याणकारी में ढाई वर्ष तक रहने वाली अन्य शनि दशा भी है।
कल्याणी प्रददाति वै रविसुता राशेश्चतुर्थाष्टमे।
वैसे शनिदेव मेषादि राशियों का चक्कर 30 वर्ष में पूरा कर लेते हैं। ज्योतिष गणना के अनुसार ये एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहते हैं। साढ़ेसाती का आरंभ तब होता है जब शनिदेव चन्द्र राशि से द्वादश भाव में संचार करते हैं। लग्न या द्वितीय भाव तक साढ़ेसाती का प्रभाव मवार चलता है। इन्हीं साढ़े सात वर्षों को साढ़ेसाती के नाम से जानते हैं।
शनिदेव की साढ़ेसाती क्या है ?????
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनिदेव की साढ़ेसाती तब प्रारम्भ होती है जब शनिदेव जातक की जन्म राशि अर्थात् (वह राशि जिसमें चन्द्रमा बैठता है, उससे पहले वाली राशि चन्द्र कुण्डली से द्वादश भाव में प्रवेश करते हैं तो यहां ये ढाई वर्ष रहते हैं। उसके बाद शनिदेव प्रथम भाव जन्म राशि में प्रवेश करते हैं, फिर ढाई वर्ष का समय लेते हैं, इसके बाद वह अगली राशि द्वितीय भाव में प्रवेश कर फिर वहां ढाई वर्ष का समय लेते हैं। यानी शनिदेव जन्मराशि की पहली राशि में प्रवेश करते हैं तो शनिदेव की साढ़ेसाती प्रारम्भ होती है, पूरे साढ़े सात वर्ष के बाद शनिदेव जब जन्म से अगली राशि को पार कर जाते हैं तो शनिदेव की साढ़ेसाती समाप्त हो जाती है। अब मैं आपको जानकारी दे रहा हूं कि शनिदेव जब किसी राशि में होता है तो किस राशि के जातक को शनिदेव की साढ़ेसाती होती है।
1. जब शनिदेव गोचर में भ्रमण करते हुए मीन, मेष और वृष राशियों पर भ्रमण करते हैं तो मेष राशि के व्यक्तियों को शनिदेव की साढ़ेसाती प्रारम्भ होती है।
2.मेष, वृष और मिथुन राशि के भ्रमण काल में वृष राशि पर शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
3.शनिदेव जब वृष, मिथुन और कर्क राशि में स्थित हों, तब मिथुन राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
4.शनिदेव जब मिथुन, कर्क और सिंह राशि पर भ्रमण करते हैं तो कर्क राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
5.शनिदेव जब कर्क, सिंह और कन्या राशि में स्थित हो तो सिंह राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
6.शनिदेव गोचर भ्रमण काल में सिंह, कन्या एवं तुला राशि में हों तो कन्या राशि के जातकों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
7.शनिदेव कन्या, तुला व वृश्चिक राशि में भ्रमण करते हैं तो तुला राशि पर साढ़ेसाती रहती है।
8.शनिदेव जब तुला, वृश्चिक एवं धनु राशि में स्थित हों तो वृश्चिक राशि वाले जातकों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
9.जब गोचर में शनिदेव वृश्चिक, धनु व मकर राशि पर हों तो धनु राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहेगी।
10.जब शनिदेव धनु, मकर एवं कुंभ राशि में हो तो मकर राशि वालों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
11.शनिदेव जब गोचर में मकर, कुंभ व मीन राशि में प्रवेश करते हैं तो कुंभ राशि के लोगों को शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
12.शनिदेव जब कुंभ, मीन एवं मेष में आते हैं तो मीन राशि वाले जातक-जातिकाओं के लिए शनिदेव की साढ़ेसाती रहती है।
जो व्यक्ति प्रथम बार साढ़ेसाती से गुजर जाता है, उसे पुन: 30 वर्ष पश्चात शनिदेव की साढ़ेसाती से प्रभावित होना पड़ता है। अगर अपवाद को छोड़ दिया जाये तो जातक को अपने जीवन में तीन बार साढ़ेसाती का सामना करना पड़ता है। साढ़ेसाती से अक्सर लोग भयाांत हो जाते हैं। लेकिन सब साढ़ेसाती अनिष्टकारक नहीं होती।

द्वादश राशियों में शनि का फल

मेष से मीन तक कुल बारह राशियाँ है। इन बारह राशियों में स्थिर होकर शनि पृथक-पृथक परिणाम प्रदान करता है । शनि कौन-सी राशि में स्थित होकर क्या फल प्रदान करता है, यह निम्नवत रूप से जाना जा सकता है।
मेष राशिस्थ शनि
मेष राशि में शनि की उपस्थिति से जातक अत्यंत क्रोधी स्वभाव का और कुत्सित कर्मों में रुचि लेने वाला होता है । वह विवादों का अवसर खोजता है एवं व्यर्थ के परिश्रम से पराभूत तथा प्रकृति से अनियमित होता है । वह आत्म बलहीन और निर्बल होता है । किसी का एहसान जल्दी भुला देता है, गलत कामों में समय बर्बाद करता है एवं निरंतर अशांति का अनुभव करता है ।
वृष राशिस्थ शनि 
यदि शनि वृष राशि में हो तो जातक स्पष्टवादी, दुराचारी, मुर्ख, झूठा एवं विभिन्न कार्यों को करने में अग्रसर रहता है । उसमें दासवृत्ति को प्रमुखता होती है । ये स्त्रियों से उसकी विशेष आसक्ति रहती है । स्त्रियाँ भी उस पर सर्वस्व न्योछावर करने को उत्सुक रहती हैं । किन्तु ऐसे व्यक्ति पर यकीन करना मुश्किल होता है । '
मिथुन राशिस्थ शनि
यदि कुँडली में मिथुन राशि का शनि हो तो जातक यात्राबहुल जीवन व्यतीत करता है । निरंतर प्रवास एवं विदेशवास उसकी नियति होती है । जातक कपटी,दुराचारी और पाखंडी होता है तथा अपव्यय के कारण आर्थिक संबंधों से दुखी रहता है। वह उधोगी होता है। अपनी रसपूर्ण-अलंकऱयुक्त वाणी से जनप्रियता अर्जित करता है, राजकार्यों में दक्ष होता है, आडंबर में निपुणा होता है और जीवनचर्या में नितांत गोपनीयता रखता है । वह अत्यधिक कामातुर भी होता भी होता है |
कर्क राशिस्थ शनि
यदि शनि कर्क राशि में हो तो जातक बाल्यावस्था में अत्यंत दुखी रहता रहता है |माता का स्नेह उसे न के बराबर मिलता है। उसका स्वभाव चंचल और अस्थिर होता है । वह दूसरे व्यक्तियों के कार्यों में निरंतर अवरोध उत्पन्न करने वाला, अपनेकार्यों से ख्याति अर्जित करने वाला, आत्मीय-निकटस्थ जनों के प्रति किंचित असहिष्णु व्यवहार करने वाला, अंतर्विरोधी आचरण से आक्रांत, जीवन के मध्य भाग में पर्याप्त समृद्धि-सुयश संपन्न एवं स्पर्द्धायुक्त होता है । वह सुदर्शन और सौभाग्ययुक्त होने के बावजूद संघर्ष भरा बाल्यकाल व्यतीत करता है। इस समय व्याधियां उसे दुखी करती है। मातृ-सुख में क्षीणता होती है। पुर्वायु में आर्थिक विकलता रहती है । रुग्ण रहना नियति होती है । उदात कार्यो को वह तत्परता से पूर्ण करता है । यदि सप्तम भाव का प्रभाव हो तो द्वि-विवाह भी संभव है ।
सिंह राशिस्थ शनि
सिंह राशिस्थ शनि के प्रभाव से जातक अध्ययन, अनुसंधान एवं लेखन के विशिष्ट क्षेत्रों में निष्ठापूर्वक प्रवृत्त होता है । बहुज्ञ होने के बाबजूद वह कुचर्चा के वृत्त में रहता है । परिणाम स्वरूप उसमें रुक्षता अथवा उद्दंडता का अभ्युदय होता है । पत्नी-सुख क्षीण रहता है । बहदास सदृशा कार्यों से आजीविका का भीग करता है । निकटस्थ व्यक्तियों से रुष्ट रहता है एवं उनसे उपेक्षित होता है । संतति अल्प होती है । प्राय: विरोचीजनों से सुखोपभोग के साधन उपलब्ध करता है । उसे पत्नी पक्ष से समृद्धि और सम्मान प्राप्त हो सकता है।
कन्या राशिस्थ शनि
यदि शनि कन्या राशि में हो तो जातक अधम कोटि का जनहितकारी, नारी वर्ग के गाते भोगवादी दृष्टिकोण रखने वाला, मितभाषी, पवित्र स्थलों की यात्रा करने वाला और धन-संपन्न होता है। यदि शनि अशुभ प्रभाव में हो तो जातक नपुंसक जैसा रूपाकार धारण करने वाला, व्यभिचारी, शिल्पी एवं पान्नजीवी होता है । उसके स्वभाव में कुटिलता एवं जीवन में विशिष्ट महत्वाकांक्षा होती है । ऐसा जातक कृशकाय, मिव-विरोधी एवं संतोष से विरहित रहता है ।
तुला रांशिस्थ शनि
यदि शनि तुला राशि में हो तो जातक नेतृत्व वहन करने में सक्षम होता है ।वह सदैव अपनी उन्नति की ओर अग्रसर रहता है तथा अपने भुजबल से यश अजित करता है। ज्योतिविर्दों के अनुसार ऐसा जातक समृद्ध, नृपतुल्य जीवन का व्यतीत्तकर्ता एवं संपति संग्राहक होता है।
वृश्चिक राशिस्थ शनि
वृश्चिक राशि का शनि होने से जातक शुभ-पवित्र कृत्यों के संपादन में अरुचि प्रदर्शित करता है । वह कुटिल बुद्धि का होता है । उसे विष अथवा शस्त्र से भय होता है । उसकी प्रवृति प्रचंड, रोषयुक्त, लोभयुक्त, परधनापहारी एवं अहंयुफ्त होती है। वह अनेक अधम कृत्य करता है तथा क्षति, अति व्यय एवं व्याधि से आक्रांत रहता है । उसका जीवन अवरोधों से परिपूर्ण रहता है । पुत्र का आनंद बाधित होता है । उसके मन में दृढ़त्ता निवास करती है । वह शत्रुओँ को दुरभिसंधि से उद्विग्न रहता है । उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दंड पीडित करते हैं ।
धनु राशिस्थ शनि
यदि जातक को जन्मकाल में धनु राशि का शनि हो तो वह अध्ययन, मनन, वाद-विवाद, शास्त्र ज्ञान एवं लौकिक ज्ञान आदि में निष्णात होता है । वह अपने उत्तम आचार-व्यवहार तथा प्रकृष्ट प्रवृत्तिवों से सुयश अर्जित करता है । उसका आत्मज इस क्रीर्तिध्वजा का सक्षम संवाहक होता है। वह मृदु और अल्प वार्तालाप करता है । आयु के उत्तरार्द्ध में अपार वैभव, प्रतिष्ठा एवं आदर अर्जित करता है । स्त्री और संतान का सूख भोगता है तथा सत्ताधीशों का प्रिय एवं विश्वस्त होता है। उसमें नेतृत्व करने की अपार क्षमता होती है ।
मकर राशिस्थ शनि
यदि कुंडली में मकर राशि का 'शनि हो तो जातक पर-स्त्रिगामी, दूसरों की संपत्ति यहाँ भूमि का उपभोग करने में समर्थ तथा दर्शनीय स्थलों और आभूषणों का अनुरागी होता है । वह बहुमुखी कलाओं का व्यवहारिक ज्ञान रखता है तथा दृढ़ उद्यमी होता है । विद्वानों का कहना है कि ऐसा जातक अपने वैदिक पांडित्य तथा शेल्पिक अभिज्ञान के लिए उत्तमोत्तम लोगों द्वारा अभिनंदित किया जाता है ।
कुंभ राशिस्थ शनि
यदि शनि कुंभ राशि में हो तो जातक व्यसनी, देबी-देवताओं पर श्रद्धा न रखने वाला, परिश्रमी तथा उन्मादी स्वभाव का होता है । विचारकों ने एक मत से कुंभ राशिस्थ शनि को अधिकतर गर्हित सिद्ध किया है । उनके मतानुसार ऐसा जातक मिथ्या भाषण में पटु, कुटिल, धूर्ताचारी और आलसी होता है । पर-स्त्रियों का भोग उसे आनंद देता है।
मीन राशिस्थ शनि
यदि कुंडली में मीन राशि का शनि हो तो जातक यज्ञादि शुभ कर्मों को संपादित करने में विशेष रुचि लेता है तथा शैल्पिक सामर्थ से युक्त होता है । यह नीति के गहन त्तत्वों का विवेचक, संपत्तिवान तथा कुल एवं आत्मीयजनों में शीर्षस्थ होता है । बहुमूल्य रत्नों का पारखी होता है । ऐसा व्यक्ति व्यावहारिकता में सक्षम, नृपतुल्य, तेजोगुणयुक्त, सर्वहित चिंतक, पुत्र कलत्र से सुखी, शासक का विश्वसनीय एवं सकारात्मक क्षमताओं की प्रशंसा करने वाला होता है ।

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Monday 19 October 2015

ज्योतिष्य दृष्टिकोण से देखें की नाक का रक्तस्राव (नकसीर) क्यों???????



नकसीर : नाक का रक्तस्राव जब नाक से खून बहने लगता है, तो इसी अवस्था को नकसीर कहते हैं। नकसीर विशेष कर गर्मियों के मौसम में होती है। गर्मियों के दिनों में गर्मी के कारण धमनियों पर अधिक दबाव पड़ने से नाक से खून बहने लगता है। कई बार बहने वाले रक्त की मात्रा से आम आदमी घबरा जाता है और सोचता है कि ऐसे में क्या करें? नकसीर फूटने के कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख है बहुत से लोगों की नाक के भीतर अंगुली से कुरेदने की आदत। वे नाक में जमे स्राव को अंगुली घुमा कर निकालना चाहते हैं। ऐसे में नाखून से नाक की भीतरी कोमल परत पर चोट लग कर खून बहने लगता है। उच्च रक्तचाप के रोगियों में भी नकसीर फूटने का भय होता है। नाक के भीतर संक्रमण हो जाने की दशा में ज्वर, नाक से पानी बहना और मुंह से बदबू आने के साथ-साथ खून भी निकल सकता है। नाक की त्वचा में किसी प्रकार की एलर्जी हो जाए, तो उसका स्राव सूख जाता है और वहां पपड़ी जम जाती है, जो अलग होते समय रक्तस्राव कर सकती है। नाक में किसी प्रकार का ट्यूमर, या गांठ भी रक्तस्राव कर सकते हैं। ऐसे में सांस लेने में तकलीफ, नाक से पानी आना और नाक दर्द जैसे लक्षण प्रायः रहते हैं। नाक में किसी तरह की चोट लग जाए, तो भी रक्तस्राव हो सकता है। समुद्री सतह से बहुत ऊंचाई वाले स्थान पर जाने से भी नकसीर फूट सकती है। ऐसा धमनियों पर अधिक दबाव पड़ने से होता है। रियूमैटिक फीवर, जिसमें बुखार के साथ-साथ जोड़ों में दर्द और शरीर पर लाल दाने उभर आते हैं, उसमें भी नाक से रक्तस्राव हो सकता है। कुछ व्यक्तियों में रक्त कोशिका विकृत होने पर खून जमने की क्रिया देरी से होती है, या बिल्कुल नहीं होती। उन्हें भी कई बार, इस बीमारी से दो-चार होना पड़ सकता है। विटामिन की कमी, मासिक धर्म की अनियमितता, अत्यधिक शारीरिक श्रम, धूप में ज्यादा देर रहना जैसे काराण भी रक्तस्राव को जन्म दे सकते हैं।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण : ज्योतिषीय दृष्टि से काल पुरुष की कुंडली का तृतीय भाव नाक की आंतरिक प्रक्रिया का नेतृत्व करता है। नाक के आंतरिक रोगों का कारक बुध होता है। मंगल हृदय भाव और रक्त का कारक है। चंद्र रक्तचाप का कारक है। इसी लिए 'नकसीर' का संबंध तृतीय भाव, बुध, चंद्र और मंगल से हुआ। किसी भी जन्मकुंडली में लग्नेश, लग्न, तृतीयेश, तृतीय भाव, बुध, चंद्र और मंगल दुष्प्रभावों में रहें, तो नकसीर जैसा रोग होता है। विभिन्न लग्नों में नकसीर रोग : मेष लग्न : लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में, षष्ठेश तृतीय भाव में चंद्र से युक्त, या दृष्ट हो और तृतीय भाव पर राह,ु या केतु की दृष्टि हो, तो जातक को नकसीर होती है। वृष लग्न : लग्नेश त्रिक भावों में मंगल से युक्त, या दृष्ट हो, तृतीयेश चंद्र राहु, या केतु से दृष्ट हो, तृतीय भाव में गुरु अपने उच्च अंशों पर बुध से युक्त हो, तो नकसीर होती है। मिथुन लग्न : लग्नेश और तृतीयेश षष्ठ, या अष्टम भावों में हों, मंगल तृतीय भाव में, या तृतीय भाव पर दृष्टि रखे, चंद्र तृतीय भाव में राहु से दृष्ट हो और गुरु-केतु दृष्ट, या युक्त हो कर लग्न पर दृष्टि रखें, तो नकसीर होती है। कर्क लग्न : लग्नेश और तृतीयेश तृतीय भाव में युक्त हो कर मंगल से दृष्ट हों और मंगल राहु से दृष्ट हो, लग्न पर शनि की दृष्टि हो, तो नकसीर होती है। सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य षष्ठ भाव में हो और षष्ठेश शनि तृतीय भाव में हो तथा मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, तृतीयेश बुध से युक्त हो कर राहु से दृष्ट हो, चंद्र लग्न, या चतुर्थ भाव में हो, तो नकसीर होती है। कन्या लग्न : लग्नेश त्रिक भावों में हो, चंद्र तृतीय भाव में मंगल से युक्त, या दृष्ट हो, गुरु तृतीय भाव में हो, या तृतीयेश पर दृष्टि रखे और राहु, केतु तृतीय भाव पर, या लग्न पर दृष्टि रखे, तो नकसीर होती है। तुला लग्न : लग्नेश अष्टम भाव में, मंगल तृतीय भाव में गुरु से युक्त, या दृष्ट हो, बुध षष्ठ में चंद्र से युक्त हो और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो नकसीर होती है। वृश्चिक लग्न : लग्नेश और षष्ठेश मंगल-शनि से दृष्ट हो कर षष्ठ भाव में हों, तृतीय भाव में चंद्र और बुध राहु से दष्ृ ट हां े तो नकसीर हाते है |धनु लग्न : शुक्र और बुध तृतीय भाव में, सूर्य द्वितीय भाव में राहु से युक्त, या दृष्ट हो, चंद्र तृतीयेश शनि से युक्त हो और लग्नेश त्रिक भावों में हो, तो नकसीर होती है। मकर लग्न : गुरु तृतीय भाव में हो और लग्नेश त्रिक भावों में हो, तृतीय भाव पर मंगल की दृष्टि हो, चंद्र मंगल से युक्त हो, बुध सूर्य से अस्त हो, तो नकसीर होती है। कुंभ लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में, या अष्टम भाव में हो, मंगल तृतीय भाव में बुध से युक्त हो और गुरु से दृष्ट हो, चंद्र राहु के दुष्प्रभाव में हो, तो नकसीर होती है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। रोग की उत्पत्ति संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा और गोचर के प्रतिकूल रहने से होती है। जब तक दशांतर्दशा और गोचर प्रतिकूल रहेंगे, शरीर में रोग रहेगा। उसके पश्चात रोग से भुक्ति प्राप्त होगी।

शिक्षा से सम्बन्धी समस्याओं का निवारण या हल



कुंडली में ग्रहों की स्थिति और सितारों की नजर बताती है। आपके करियर का राज:- हर विद्यार्थी अपनी पढ़ाई में कठिन परिश्रम कर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करता है। अपने भाग्य और कड़ी मेहनत के बल पर ही कोई, विद्यार्थी परीक्षा में श्रेष्ठ अंकों को प्राप्त कर सकता है। किसी भी तरह की परीक्षा में इंटरव्यू में जाने के पूर्व बड़ों का अशीर्वाद लेना चाहिए। मीठे दही में तुलसी का पत्ता मिलाकर सेवन करना चाहिए इस तरह के उपायों से सफलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है। इन्हीं में कुछ मंत्रों यंत्रों एवं सरल टोटकों के प्रभाव से अच्छी सफलता प्राप्त की जा सकती है। मंत्र: ।। ¬ नमो भगवती सरस्वती बाग्वादिनी ब्रह्माणी।। ।। ब्रह्मरुपिणी बुद्धिवर्द्धिनी मम विद्या देहि-देहि स्वाहा।। अपनी जिह्ना को तालु में लगाकर माॅ सरस्वती के बीज मंत्रों का उच्चारण करने से माॅ सरस्वती की कृपा प्राप्त होती है। ऐसे किसी भी सफलता की प्राप्ति के लिए इस मंत्र का 11 बार या 21 बार इस मंत्र का जप करने से सफलता की प्राप्ति होती है और इस मंत्र का नित्य सुबह जप करें। ।। जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।। ।। कबि उर अजिर नचकहि बानी।। गुरुवार के दिन केसर की स्याही से भोजपत्र पर इस यंत्र का निर्माण करें। इस यंत्र में सब तरह से योग करने पर जोड़ 20 आएगा। इस ताबीज को गले धारण करें। इससे परीक्षा में सफलता की प्राप्ति होगी। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह अध्ययन करते समय उनका मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए। जिन विद्यार्थियों को परीक्षा देेने से पहले उत्तर भूलने की आदत हो। उन्हें परीक्षा के समय जाने से पहले अपने पास कपूर व फिटकरी पास रखकर जाना चाहिए। यह नकारात्मक ऊर्जा को हटाते हैं। परीक्षा के समय जब कठिन विषय की परीक्षा हो तो पास में गुरुवार के दिन मोर पंख रखें। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपनी पढ़ाई का अध्ययन करना चाहिए, जिससे लंबे समय तक विष का विद्यार्थी के ज़हन में ताजा बना रहता है। परीक्षा में जाने से पहले मीठे दही का सेवन करना चाहिए। दिन शुभ व्यतीत होता है। भगवान गणेश जी को हर बुधवार के दिन दूर्बा चढ़ाने से बच्चों की बुद्धि कुशाग्र होती है। इसलिए गणेश जी का सदैव स्मरण करें। जब आपका सूर्य स्वर (दायां स्वर) नासिका का चल रहा है। तब अपने कठिन विषयों का अध्ययन करें। तो वह शीघ्र याद हो जाएगा। इसी प्रकार कक्ष में प्रवेश करते समय भी चल रहे स्वर का ध्यान रखकर प्रवेश करें। ‘परीक्षा में सफलता प्राप्त करने हेतु’ परीक्षा भवन में प्रवेश करते समय भगवान राम का ध्यान करें और निम्नलिखित मंत्र का ग्यारह बार जप करें। ।। प्रबसि नगर कीजे सब काजा।। ।। हृदय राखि कौशलपुर राजा।। गुरु व अंत में चैपाई के संपुट अवश्य लगाएं। यह बहुत प्रभावी टोटके हैं। ‘शिक्षा दीक्षा में रुकावट दूर करने के लिए’’ क्रिस्टल के बने कछुए का उपयोग प्रमुख होता है। क्रिस्टल के कछुए को विद्यार्थी के मेज पर रखना चाहिए। एकाग्रता बनी रहती है। साथ ही सफेद चंदन की बनी मूर्ति टेबल पर रखनी चाहिए रुकावटें धीरे-धीरे दूर होने लगती है। परीक्षा में सफलता के लिए परीक्षा में जाते समय विद्यार्थी को केसर का तिलक लगाएं और थोड़ा सा उसकी जीभ पर भी रखें उसे सारा सबक याद रहेगा और सफलता मिलेगी। चांदी की दो अलग-अलग कटोरी में दही पेड़ा रखकर माॅ सरस्वती के चित्र के आगे ढककर रखें और बच्चे की सफलता के लिए कामना करें। मां सरस्वती का स्मरण कर बच्चे को परीक्षा के लिए निकलने से तीन घंटा पूर्व एक कटोरी खिलाना है और परीक्षा के लिए जाते भक्त दूसरी कटोरी का प्रसाद खिलएं सफलता मिलेगी। ‘विद्या में आने वाले विघ्न को दूर करेने हेतु’ मंदिर में सफेद काले कंबल तथा धार्मिक पुस्तकों का दान करें। 40 दिन तक प्रतिदिन एक केला गणेश जी के मंदिर में उनके आगे रखें। वारों के अनुसार परीक्षा देने के समय किए जाने वाले उपायः सोमवार ः सोमवार के दिन पेपर देने जा रहे हों तो दर्पण में अपना प्रतिबिंव देखकर जाएं। शिवलिंग पर पान का पत्ता चढ़ाकर जाएं। मंगलवार: हनुमानजी को गुड़, चने का भोज लगाकर प्रसाद खाकर जाएं। बुधवार: गणेजजी को दूर्वा चढ़ाकर, धनिया चबाकर जाएं। बृहस्पतिवार: केसर का तिलक लगाकर परीक्षा देने जाएं और अपने साथ पीली सरसों रखें। शुक्रवार: श्वेत वस्त्र धारण करके, मीठे दूध में चावल देवी को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करें। शनिवार: अपनी जेब में राई के दाने रखकर परीक्षा देने जाएं। रविवार: दही व गुड़ अपने मुख में रखकर परीक्षा देने जाएं। इनमें किसी एक मंत्र का प्रयोग अवश्य करें।

वृक्षों का ज्योतिष्य या वैदिक महत्व



पश्चिम के लोग तथा नये पढ़े-लिखे भारतीय भारत देश में प्रचलित वृक्ष पूजा का बड़ा मजाक उड़ाते हैं, जबकि स्वयं पूरे विश्व को क्रिसमस के दिन क्रिसमस ट्री की आराधना करने के लिए प्रेरित करते है| भारतीयों को पेड़-पत्ते का पुजारी कहा जाता है। परंतु वृक्ष की पूजा हंसी की चीज नहीं है। तुलसी पूजन हर हिंदू घर में होता है। इस पौधे का स्वास्थ्य एवं मन पर कितना प्रभाव पड़ता है, इस संबंध में अभी तक नयी-नयी बातें मालूम हो रही है। लोक पालक विष्णु हैं। आयुर्वेद के आचार्य विष्णु हैं। धन्वंतरि को विष्णु का अवतार कहते हैं। सैकड़ों रोगों की दवा तथा घर की गंदगी भरी हवा को दूर करने वाला पौधा तुलसी है। तुलसी का विष्णु से विवाह एक प्रतीक मात्र है। इसी तरह से पीपल के पेड़ में वासुदेव का पूजन करते हैं। वासुदेव अजर एवं अमर हैं। संसार में पीपल ही एक मात्र ऐसा वृक्ष है, जिसमें कोई रोग नहीं लग सकता। कीड़े प्रत्येक पेड़ तथा पत्तों में लग सकते हैं, परंतु पीपल में नहीं। वट वृक्ष की दार्शनिक महिमा है। यह ऊध्र्व मूल है, यानी, इसकी जड़ ऊपर, शाखा नीचे को आती है। ब्रह्म ऊपर बैठा है। यह सृष्टि उसकी शाखा है, वट वृक्ष का प्रतीक है। उसके पूजन का बड़ा महत्व है। ज्येष्ठ के महीने में ”वट सावित्री“ का बड़ा पर्व होता है, जिसे ”बरगदाई“ भी कहते हैं। आंवले के सेवन से शरीर का कायाकल्प हो जाता है। इसके वृक्ष के नीचे बैठने से फेफड़े का रोग नहीं होता है, चर्म रोग नहीं होता है। कार्तिक के महीने में कच्चे आंवले तथा आंवले के वृक्ष का स्वास्थ्य के लिए विशेष महत्व है। इसलिए कार्तिक में आंवले के वृक्ष का पूजन, आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन करने की बड़ी पुरानी प्रथा इस देश में है। कार्तिक शुक्ल पक्ष में ”धात्री पूजन“ का विधान है। इस पूजन में आंवले के वृक्ष के नीचे विष्णु का पूजन होता है।
शंकर भगवान को बिल्व पत्र चढ़ाते हैं। शंकर ने हलाहल विष का पान समुद्र मंथन के समय किया था। अतएव उसकी गर्मी से वह तृप्त हैं। हर एक नशा विष होता है। किसी के लिए संखिया विष का काम करता है, किसी के लिये नशे का काम करता है। बहुत गहरा नशा करने वाले जन कुचला, संखिया सब कुछ हजम कर जाते हैं, तो वे नागिन पालते हैं और अपनी जीभ पर उससे रोज कटवा/डसवा लेते हैं। तब कुछ नशा जमता है। नशे को उतारने के लिए सबसे अच्छी दवा बिल्व (बेल) का पत्ता है। कितनी भी भांग चढ़ी हो, जरा सा बिल्व पत्र कुचल कर, उसका अर्क पिला देने से नशा खत्म हो जाता है। हलाहल विष का पान करने वाले शंकर के मस्तक पर, या शिव लिंग पर बिल्व पत्र चढ़ाने का नियम है। जो लोग बिल्व पत्र का गुण नहीं जानते हैं, वे उसका महत्व नहीं समझते हैं।बिल्व पत्र तथा बिल्व वृक्ष का और भी महत्व है। नव रात्र में सप्तमी के दिन बिल्व पत्र से देवी को अभिमंत्रित करना चाहिए। रावण के वध तथा राम की सहायता के लिए ब्रह्मा ने बिल्व वृक्ष में देवी का आवाहन किया था। बिल्व वृक्ष भगवती का प्रतीक माना जाता है।
विजया दशमी की शाम को शमी वृक्ष के पूजन का विधान है। शास्त्र का वचन है कि ”शमी पाप की शामक है।“ अर्जुन को महाभारत में अस्त्र-शस्त्र शमी ने धारण कराये थे। राम को प्रिय बात शमी ने सुनायी थी। यात्रा को निर्विघ्न बनाने वाली शमी है, अतः पूज्य है। यात्रा के समय यात्री के हाथ में शमी की पत्ती देने की पुरानी प्रथा इस देश में है। गणेश पूजन में गणेश जी को दूर्वा (दूब) के साथ शमी भी चढ़ाते हैं। कुश भी पूजा के काम आता है। विधान है कि भाद्रपद माह के महीने की अमावस की काली रात्रि में कुश उखाड़ना चाहिए। शास्त्र का वचन है कि दर्भ ताजे होने के कारण श्राद्ध के योग्य होते हैं। चैत्र मास, शुक्ल पक्ष, अष्टमी को पुनर्वसु नक्षत्र में जो लोग अशोक वृक्ष की 8 कली को (उसके अर्क को) पीते हैं, उनको कोई शोक नहीं होता। अवश्य ही इस अशोक कली का कोई आयुर्वेदिक महत्व होगा, जिससे रोग दोष नष्ट होता होगा।
दौना (दमनक) की पत्तियां मीठी सुगंध देती हैं। चैत्र मास में अपने इष्ट देवता को दौने की पत्ती चढ़ायी जाती है। दौने की महक से बल-वीर्य भी बढ़ता है। इसी लिए यह ऋषि, गंधर्व आदि को मोहित करने वाला तथा कामदेव की पत्नी रति के मुख से निकले हुए भाप की सुगंधि से युक्त कहा जाता है। कहते हैं कि इसमें कामदेव का वास है |आम के वृक्ष तथा आम के फूल, जिसे मंजरी कहते हैं, के पूजन की अनेक विधियां है। वसंत पंचमी के दिन इसका पूजन होता है। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा धुरड्डी के दिन मंजरी पान का विधान है। यदि मकान में कोई दोष हो, या आदमी की तीसरी शादी हो, या कन्या को विधवा होने का दोष (भय) हो, तो मदार (अर्क) के साथ विवाह करने का विधान है।