Monday 28 December 2015

आयु निर्धारण

ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्र या अन्य विधाओं द्वारा मृत्यु का कारण व सटीक आयुनिर्णय कैसे किया जा सकता है? हिंदुओं कि मान्यता के अनुसार बालक की आयु का निर्धारण माता के गर्भ में ही हो जाता है। यह बड़े गौरव कि बात है कि ज्योतिष शास्त्र में आयु निर्धारण विषय पर व्यापक चिंतन किया गया है। यह एक कठिन विषय है। ज्योतिष शास्त्र में अविरल शोध, अध्ययन व अनुसंधान कार्य में जी जान से जुड़े हजारों, लाखों ज्योतिषी इस दिव्य विज्ञान के आलोक से जगत को आलौकिक कर पाएं है। महर्षि पराशर के अनुसार ‘बालारिष्ट योगारिष्टमल्पध्यंच दिर्घकम। दिव्यं चैवामितं चैवं सत्पाधायुः प्रकीतितम’।। हे विप्र आयुर्दाय का वस्तुतः ज्ञान होना तो देवों के लिए भी दुर्लभ है फिर भी बालारिष्ट, योगारिष्ट, अल्प, मध्य, दीर्घ, दिव्य और अस्मित ये सात प्रकार की आयु होती हैं। बालारिष्ट आयु - 8 वर्ष 6, 8, 12 भाव में चंद्रमा यदि पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो बालारिष्ट योग बनता है अथवा बालक का जन्म समय ग्रहण समय में हुआ हो तब भी बालारिष्ट योग बनता है। योगारिष्ट - 20 वर्ष जातक की कुंडली में आयु में कमी करने वाले विशेष योग बन रहे होते हैं। ग्रह योगों से इस प्रकार की आयु का निर्धारण किया जाता है। अल्पायु - 32 वर्ष  यदि लग्नेश, अष्टम या षष्ट भाव में हो और लग्न व लग्नेश पर किसी प्रकार से शुभ प्रभाव न हो तथा गुरु भी निर्बल हो तो अल्पायु योग बनता है।  अष्टमेश और लग्नेश का राशि परिवर्तन हो और अष्टमेश, लग्नेश का मित्र न हो और लग्न, लग्नेश शुभ प्रभाव से मुक्त हो तो जातक अल्पायु का हो सकता है।  षष्ठेश और अष्टमेश दोनों लग्न में बैठे या देखें और लग्नेश भी त्रिक भाव में हो तथा गुरु भी पीड़ित हो तो अल्पायु संभव है। मध्यमायु - 64 वर्ष 32 से 64 वर्ष के बीच की आयु के जातक मध्यमायु के अंतर्गत आते हैं। अधिकांश जातक मध्यमायु के अंतर्गत ही आते हैं। इसके कुछ योग इस प्रकार हैं।  लग्नेश और अष्टमेश परस्पर सम हो तथा समान बली हों तो मध्यमायु होती है।  लग्नेश यदि शुभ स्थान में तो हो परंतु शत्रु ग्रहों से प्रभावित हो तो व्यक्ति की मध्यमायु होती है।  लग्नेश त्रिक भाव में हो परंतु शुभ ग्रहों से दृष्ट हो और गुरु पीड़ित हो तो भी मध्यमायु योग बनता है। दीर्घायु - 120 वर्ष इसे पूर्णायु योग भी कहा जाता है। 64 वर्ष से 120 वर्ष के मध्य की आयु दीर्घायु कहलाती है। इसके कुछ योग इस प्रकार है।  लग्नेश केंद्र, त्रिकोण में बली हो तथा अष्टम भाव में कोई पाप योग न बने या पाप ग्रह न हा तो दीर्घायु होती है।  केंद्र त्रिकोण और अष्टम भाव में पाप योग न बने तथा लग्नेश व गुरु केंद्रस्थ हो तो दीर्घायु होती है। अथवा यदि लग्नेश अष्टमेश से अधिक बली हो। चंद्र राशि का स्वामी अपने अष्टमेष से अधिक बली हो। नवांश लग्न व नवांश चंद्र राशि के स्वामी अपने-अपने अष्टमेश से अधिक बली हों तो ये योग पूर्णतया घटित होने पर दीर्घायु देते हैं। दिव्य आयु - 1000 वर्ष जब कुंडली में सभी शुभ ग्रह केंद्र और त्रिकोण में और पाप ग्रह 3, 6, 11 में हो तथा अष्टम भाव में शुभ ग्रह की राशि हो तो दिव्य आयु योग बनता है। ऐसे जातक की आयु यज्ञ, अनुष्ठान और योग क्रिया से हजार वर्ष की आयु हो सकती है। अस्मित आयु - सबसे अधिक जब गुरु चतुर्थ वर्ग में होकर केंद्र में हो शुक्र षड्वर्ग में एवं कर्क लग्न हो तो ऐसा व्यक्ति मानव न होकर देवता होता है। और उसकी आयु की कोई सीमा नहीं होती है। 2. ज्योतिष द्वारा मृत्यु का कारण एवं आयु निर्धारण का विचार सामान्यतः अष्टम भाव से किया जाता है। इसके साथ ही अष्टमेश, कारक शनि, लग्न-लग्नेश, राशि-राशीश, चंद्रमा, कर्मभाव - कर्मेश, व्यय भाव- व्ययेश तथा इसके अलावा प्रत्येक लग्न के लिये मारक अर्थात् शत्रु ग्रह, द्वितीय, सप्तम, तृतीय एवं अष्टम भाव (सभी मारक भाव) तथा इनके स्वामियों तथा उपरोक्त सभी पर शुभ एवं अशुभ पाप ग्रहों द्वारा डाले जाने वाले प्रभाव (युति/दृष्टि) पर भी विचार करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। सामान्यतः आयु में कमी करके मृत्यु का योग ‘मारक’ ग्रह देते हैं। इस तरह से ‘‘मारक’’ का अर्थ होता है -‘‘ मारने वाला’’ अर्थात् ‘‘मारकेश’’ का अर्थ होता है- ‘‘मृत्यु देने वाले ग्रह’’। जो आयु में कमी कर मृत्यु देता है। सामान्यतः मारकेश ग्रह वह होता है जो लग्नेश से शत्रुता रखता है। इस तरह से, प्रत्येक लग्न के लिये मारकेश ग्रहों को तालिका -1 में दर्शाया गया है। उक्त सारणी से स्पष्ट है कि मंगल एवं बुध एक दूसरे के लिये मारकेश का कार्य करते हैं। इसी तरह शनि तथा सूर्य आदि। इसके अलावा, प्रत्येक लग्न के लिये एकादशेश भी मारकेश का कार्य करता है। क्योंकि लग्नेश एवं एकादशेश आपस में शत्रुता रखते हैं तथा एकादशेश, प्रत्येक लग्न के लिये बाधक (मारक) ग्रह का कार्य करता है। इसे तालिका-2 में दर्शाया गया है- कभी-कभी लग्नेश, राशीश, अष्टमेश तथा चंद्र (मन, मस्तिष्क कारक) जो कि नीच, शत्रु राशि के हों तथा त्रिक भाव (6, 8, 12) आदि में चले जायंे तथा चंद्र नीच के अलावा अमावस्या का बलहीन हो तथा इन पर राहु, केतु का पाप प्रभाव हो तो भी मारक योग बन जाता है, जो कि मृत्यु का कारण बनते हैं। क्योंकि राहु, केतु से कालसर्प, पितृदोष ग्रहण योग (सूर्य,चंद्र से), अंगारक योग (मंगल से), जड़ योग (बुध से), चांडाल योग (गुरु से), अभोत्वक योग (शुक्र से) तथा शनि से नंदी योग बनते हैं। इसके साथ ही इनकी तथा मारक ग्रहों की दशायें भी चल रही हों तो अरिष्ट की संभावना बढ जाती है। जैमिनी से आयु निर्णय जैमिनी के सूत्रों के अनुसार तीन जोड़ों के आधार पर आयु निर्णय की विधि बताई गई है। ये तीन जोड़े हैं। 1. लग्नेश-अष्टमेश 2. लग्न- होरा लग्न 3. शनि-चंद्र । 1. इनमें यदि दोनों चर राशि में हो या एक स्थिर राशि में और दूसरा द्वि स्वभाव राशि में हो तो दीर्घायु होगी। 2. एक चर और दूसरा स्थिर में अथवा दोनों द्विस्वभाव राशि में हो तो मध्यमायु होगी। 3. एक चर और दूसरा द्विस्वभाव राशि में हो अथवा दोनों स्थिर राशि में हो तो अल्पायु होगी। निम्नांकित चक्र में इस प्रकार स्पष्ट हैः- उपर्युक्त विधि से देखने पर यदि तीनों जोड़ों में दीर्घायु बने तो आयु 120 वर्ष। दो से बने तो 108 वर्ष ओर एक प्रकार से बने तो 96 वर्ष होगी। मध्यमायु में इसी चक्र से 80-72 और 64 वर्ष होगी। अल्पायु तीनों प्रकार से बने तो 32 वर्ष, दो प्रकार से बने तो 36 वर्ष और एक प्रकार से बने तो 40 वर्ष होगी। इस प्रकार तीन प्रकार की आयु के तीन-तीन भेद होंगे। किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि आयु खंड के ठीक अंतिम वर्ष में ही मृत्यु हो जायेगी। प्रश्न उठ सकता है कि तीन तरह से आयु के विचार में यदि तीन तरह की आयु आये तो क्या करना उचित होगा? विभिन्न प्रकार की आयु आने पर लग्न और होरा लग्न से जो निश्चित हो, उसे ग्रहण करना चाहिए। विभिन्न प्रकार की आयु आने पर यदि लग्न या सप्तम भाव में चंद्रमा स्थित हो तो ऐसी स्थिति में शनि और चंद्रमा से जो आयु आ रही हो, वह ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् लग्न व सप्तम में चंद्रमा न हो तो लग्न और होरा लग्न से सिद्ध आयु मान ग्रहण करनी चाहिए। तीन प्रकार के आयु मान से गणितागत स्पष्ट आयु ज्ञात करने की विधि का उल्लेख पराशर ने किया हैं इसका गणित सूत्र इस ढंग का है- जितने योग कारक ग्रह हो, उनके अंश का योग करके, उस योग में योग कारक ग्रह की संख्या का भाग दे दें, जो अंशाधिलब्धि हो, उनके प्रति खंड से गुणा कर गुणनफल में 30 का भाग देकर लब्धि वर्ष आदि को प्राप्त (दीर्घादि) आयु की वर्ष संख्या में घटाने से स्पष्ट आयु-वर्ष, मास व दिन में होगी। निम्नांकित चक्र का अवलोकन करें विंशोत्तरी दशा क्रम में जन्म नक्षत्र स्वामी से पांचवी दशा मंगल की हो, छठी दशा गुरु की हो, चतुर्थ दशा शनि की हो अथवा पांचवी दशा राहु की हो तो ये दशायें अरिष्ट कारक अर्थात् मृत्यु कारक होती है। इस तरह से, जिन जातकों का जन्म केतु के नक्षत्र-मघा, मूल, अश्विनी में हुआ है उसकी पांचवी दशा मंगल की होती है अर्थात् केतु स्वामित्व वाले नक्षत्र की पांचवी दशा मंगल की होती है। जो अरिष्टकारी होती है। इसके अतिरिक्त आयु निर्णय हेतु कई और विधियां प्रचलित हैं। मृत्यु का कारण: अन्य ज्योतिषीय योग  यदि अष्टम भाव में कोई ग्रह नही है, उस दशा में जिस बली ग्रह द्वारा अष्टम भाव दृष्ट होता है, उस ग्रह के धातु (कफ, पित्त, वायु) के प्रकोप से जातक का मरण होता है। ऐसा प्राचीन ज्योतिष शास्त्र के पुरोधा का मत है। यथा- सूर्य का पित्त से, चंद्रमा का वात से, मंगल का पित्त से, बुध का फल-वायु से, गुरु का कफ से, शुक्र का कफ-वात से तथा शनि का वात से।  अष्टम स्थान की राशि कालपुरुष के जिस अंग में रहना शास्त्रोक्त है, इस अंग में ही उस धातु के प्रकोप से मृत्यु होती है।  यदि अष्टम भाव पर कई एक बली ग्रहों की दृष्टि हो तो उन सभी ग्रहों के धातु दोष से जातक का मरण होता है।  मृत्यु के कारणों का विवेचन करते समय यदि अष्टम भावस्थ ग्रह/ग्रहों की प्रकृति व प्रभाव तथा उसमें स्थित राशि, प्रकृति व राशियों के प्रभाव को संज्ञान में लेना परमावश्यक है।  सूर्य: सूर्य से अग्नि, उष्ण ज्वर, पित्त विकार, शस्त्राघात, मस्तिष्क की दुर्बलता, मेरूदंड व हृदय रोग।  चंद्रमा: जलोदर, हैजा, मुख के रोग, प्यरिसी, यक्ष्मा, पागलपन, जल के जानवर, शराब के दुष्प्रभाव।  मंगल: अग्नि प्रकोप, विद्युत करेंट, अग्नेय अस्त्र, मंगल आघात पहुंचाता है। रक्त विकार, हड्डी के टूटने, एक्सीडेंट, रक्त, हड्डी में मज्जा की कमी। क्षरण, कुष्ठ रोग, कैंसर रोग।  बुध: पीलिया, ऐनीमिया, स्नायु रोग, रक्त में हिमोग्लोबिन की कमी, प्लेटलेट्स कम होना, आंख, नाक, गला संबंधी रोग, यकृत की खराबी, स्नायु विकार, मानसिक रोग ।  गुरु: पाचन क्रिया में गड़बड़ी, कफ जनित रोग, टाइफाईड, मूर्छा, अदालती कार्यवाई, दैवी प्रकोप, वायु रोग मानसिक रोग।  शुक्र: मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, गुर्दा रोग, रक्त/वीर्य/ रज दोष, गला, फेफड़ा, मादक पदार्थों के सेवन का कुफल प्रोस्ट्रेट ग्लैंड, सूखा रोग।  शनि: लकवा, सन्निपात, पिशाच पीड़ा, हृदय तनाव, दीर्घ कालीन रोग, कैंसर, पक्षाघात, दुर्घटना, दांत, कान, हड्डी टूटना, वात, दमा।  राहु: कैंसर, चर्म रोग, मानसिक विकार, आत्म हत्या की प्रवृत्ति, विषाक्त भोजन करने से उत्पन्न रोग, सर्प दंश, कुष्ठ रोग विषैले जंतुओं के काटने, सेप्टिक, हृदय रोग, दीर्घकालिक रोग केतु: अपूर्व कल्पित दुर्घटना, दुर्भरण, हत्या, शस्त्राघात, सेप्टिक, भोजनादि में विषाक्त पदार्थ या कीटाणुओं का प्रवेश, जहरीली शराब पीने का कुफल, रक्त, चर्म, वात रोग चेहरे पर दाग, एग्जिमा। विशेष: 1. जन्मांग से अष्टम में जो दोष या रोग वर्णित हैं उनसे, अष्टम भाव से अष्टम अर्थात् तृतीय भाव व तृतीयेश सभी आ जाते हैं। 2. अष्टमेश जिस नवांश में बैठा हो उस नवांश राशि से संबंधित दोष से भी मृत्यु का कारण बनता है। अष्टम भावस्थ राशियों के अधो अंकित दोष के कारण जातक मृत्यु का वरण करता है। 1. मेष : पित्त प्रकोप, ज्वर, उष्णता, लू लगना जठराग्नि संबंधी रोग। 2. वृष: त्रिदोष, फेफड़े में कफ रुकने/सड़ने से उत्पन्न विकार, दुष्टों से लड़ाई या चैपायों की सींग से घायल होकर मृत्यु संभव है। 3. मिथुन: प्रमेह, गुर्दा रोग, दमा, पित्ताशय के रोग, आपसी वैमनस्य/शत्रुओं से जीवन बचाना मुमकिन नहीं। 4. कर्क: जल में डूबने, उन्माद, पागलपन, वात जनित रोगं 5. सिंह: जंगली जानवरो, शत्रुओं के हमले, फोड़ा, ज्वर, सर्पदंश। 6. कन्या: सुजाक रोग, एड्स, गुप्त रोग, मूत्र व जननेन्द्रिय रोग, स्त्री की हत्या, बिषपान। 7. तुला: उपवास, क्रोध अधिक करने, युद्ध भूमि में, मस्तिष्क ज्वर, सन्निपात। 8. वृश्चिक: प्लीहा, संग्रहणी, लीवर रोग, बवासीर, चर्म रोग, रुधिर विकार, विषपान से या विष के गलत प्रयोग से मृत्यु संभव है। 9. धनु: हृदय रोग, गुदा रोग, जलाघात, ऊंचाई से गिरना, शस्त्राघात से। 10. मकर: ऐपेन्डिसाइटिस, अल्सर, नर्वस सिस्टम के फेल हो जाने के कारण गंभीर स्थिति, विषैला फोड़ा। 11. कुंभ: कफ, ज्वर, घाव के सड़ने, कैंसर, वायु विकार, अग्नि सदृश या उससे संबंधित कारण से मृत्यु। 12. मीन: पानी में डूबने, वृद्धावस्था में अतिसार, पित्त ज्वर, रक्त संबंधित बीमारियों से मृत्यु संभावी है।

कर्म और भाग्य

ज्योतिष कर्म एवं भाग्य की सही व्याख्या करता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों के आधीन रहता है इसलिए उसे कर्म अवश्य करना है और जीवन का सार यही है। प्रत्येक कर्म का प्रतिफल होता है- यह एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक विचारधारा यह बताती है कि कर्म और उसका प्रतिफल एक साथ कार्य नहीं करते। हमें अकसर किसी कर्म का फल बहुत अधिक समय के बाद फलित होता दिखाई देता है। कर्म और कर्मफल को जानना एक गुप्त रहस्य है। इसे केवल ज्योतिष के आधार पर जाना जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छाओं का मेल अपनी योग्यताओं से करना चाहिए। 1. पुनर्जन्म 2. कर्म: मनुष्य कर्म करने से बच नहीं सकता, यह संभव ही नहीं कि मनुष्य कर्म न करे। 3. कर्म प्रतिफल के अंतर्गत अच्छे या बुरे कर्मों का भोग यही कर्म चक्र है। स्मृति में कहा गया है: अवश्यमनु भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। ना भुक्तं क्षीयते कर्म कतप कोटि शतैरपि।। अर्थात प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों का अच्छा या बुरा फल अवश्य भोगता है। पुनर्जन्म के विषय हिंदू वैदिक ज्योतिष की आस्था है। तभी तो भगवत् गीता में भगवान ने कहा है ‘‘जातस्यहि ध्रुवो मृत्यु र्धुवं जन्म मृतस्य च। तस्मादपरिहार्ये न त्वं शोचितुर्महसि।।’’ अर्थात जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। उसी प्रकार जो मर गए हैं उनका जन्म निश्चित है। कर्मांे के सिद्धांत का अर्थ इस प्रकार से हो सकता है- एक विचार को बोना किसी कार्य को काटना, किसी कार्य को बोना किसी आदत को काटना, किसी आदत को बोना किसी चरित्र को काटना और किसी चरित्र को बोकर अपने भाग्य का निर्माण करना, कुंडली में दशम का व्यय स्थान भाग्य स्थान होता है। भाग्यरूपी बीज से जो वृक्ष तैयार होता है वह कर्म है। प्रकरांतर से कर्म वृक्ष का बीज भाग्य है। इस बीज को प्रारब्ध कहा गया है। बीज तीन प्रकार के होते हैं। 1. वृक्ष से लगा अपक्व बीज (क्रियमाण कर्म) 2. वृक्ष से लगा सुपक्व बीज जो बोने के लिए रखा है (संचित कर्म) 3. क्षेत्र में बोया गया बीज जो कि अंकुरित होकर विस्तार प्राप्त कर रहा है (प्रारब्ध कर्म) इससे स्पष्ट है कि कर्म ही भाग्य है। जो कर्म किया जा रहा है और पूरा नहीं हो पाया है वह क्रियमाण कर्म है। जो कर्म किया जा चुका है किंतु फलित नहीं हुआ है वह संचित कर्म है। यही जो संचित हो चुका है, जब फल देने लगता है, तो प्रारब्ध कहलाता है। यह दिखाई नहीं देता क्योंकि यह पूर्व कर्मों का अच्छा या बुरा फल है। यह अदृष्ट है, यही भाग्य है। कर्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह दशम भाव ‘क्षेत्र’ में बोया जाता है, बढ़ता और फैलता है और पक कर पूर्ण होता है। तब यह नवम भाव में आकर पूर्णरूप से संरक्षित होता है। कालांतर में परिणामशील होकर भाग्य नाम से जाना जाता है। सम्यक प्रकार से किया गया कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता, उसका फल मिलना निश्चित है। अतः संकल्पपूर्वक कर्म करना चाहिए। यही कारण है कि धार्मिक कर्मकांडों में संकल्प पूर्व में पढ़ा जाता है। यह संकल्प कर्म व्यक्ति का पीछा करता रहता है। जब तक कर्ता नहीं मिल जाता तब तक वह उसे ढंूढता रहता है, भले ही इसमें पूरा युग ही क्यों न लग जाए। सैकड़ों जन्मों तक कर्ता को अपने कर्म फल का भोग करते रहना पड़ता है, इससे पिंड नहीं छूटता। शास्त्र में कहा गया है: यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्व कृतं कर्म कर्तारम अनुगच्छति।। अर्थात जिस प्रकार हजारों गौओं के झुंड में बछड़ा अपनी माता का ठीक ठाक पता लगा लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। जन्म कुंडली में दशम भाव कर्म स्थान है, कर्म का पराक्रम जन्म कुंडली का व्यय भाव होता है। कर्म का व्यय शुभ या अशुभ, दशम भाव का व्यय नवम भाग्य या धर्म के रूप में जन्म समय से ही अदृष्ट रूप से छिपा रहता है। दशम भाव का सुख भाव या चतुर्थ से जाया का संबंध है और व्यय अर्थात 12वां भाव, जो कर्म का पराक्रम है, चतुर्थ भाव से पुत्रकारक संबंध रखता है, अतः जैसा कर्म किया जाएगा वैसा ही फल का भोग किया जाएगा। क्योंकि जन्म कुंडली का अष्टम भाव, जो कि कर्म भाव से एकादश है, रंध्र है। एक अत्यंत गंभीर विचारशील भाव है दशम भाव से सातवां भाव चतुर्थ और चतुर्थ या जाया कारक से पांचवां भाव जन्म कुंडली का अष्टम भाव जो चतुर्थ का गर्भ स्थान है और श्रेष्ठ गर्भ अच्छी संतान को जन्म देता है, जो कि जन्म कुंडली का द्वितीय भाव या वाणीकारक दशम भाव का संतान कारक भाव होता है अच्छी वाणी ही अच्छे संस्कार का दर्पण है। द्वितीय भाव से पंचम भाव जन्म कुंडली का छठा भाव, पंचम भाव से पंचम शत्रु रोग बुद्धि का धन आदि के रूप में जाना जाता है। इसी कारण व्यक्ति के जीवन में दूसरे, छठे और दसवें भावों का प्रमुख स्थान है। लेकिन मूल में तो केवल दशम भाव ही होता जो गर्भरूपी अष्टम भाव में छिपे रहते हैं। गर्भ में भी नौ मास का समय लगता है। उपर्युक्त वातावरण आने पर ही फल की प्राप्ति होती है। इस तरह जन्म कुंडली के अष्टम भाव में अनेक रहस्य छिपे रहते हैं, यह परीक्षण स्थान है। यदि अष्टम भाव से व्यय पर ध्यान दें जन्म कुंडली सप्तम भाव और नवम भाव या भाग्य स्थान जो अष्टम का खरा सोना रूपी धर्म है यही तो भाग्य है। इस कारण दशम भाव से दशम सप्तम भाव भावत भावम् कर्म बनता है। दशम भाव का व्यय भाव और अष्टम का सुरक्षित धन भाग्य होता है, इस कारण अष्टम भाव में रहस्य है। चूंकि भाग्य भाव से पंचम भाव स्थम् लग्न कंुडली होती है क्योंकि भाग्य की संतान व्यक्ति या जातक होता है, इस कारण कर्मों का फल जातक शरीर प्राप्ति के बाद भोगता है, तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- जो विधिना ने लिख दिया छठी रात्रि के अंक। राई घटै न तिल बढ़ै रह रे जीव निशंक।।

जाने कुंडली से शनि आपका मित्र या शत्रु

शनि को लंगड़ा ग्रह भी कहते हैं क्योंकि यह बहुत ही धीमी गति से चलता है। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है कि इंद्रजीत के जन्म के समय में रावण ने हर ग्रह को आदेश दिया था कि वे सबके सब एकादश भाव में रहें। इससे जातक की हर इच्छा की पूर्ति होती है। शनि भी एकादश भाव में बहुत बढ़िया प्रभाव देता है; उतना ही बुरा प्रभाव द्वादश में देता है। शनि मोक्ष का कारक ग्रह, मोक्षकारक द्वादश में हो तो इससे बुरा फल और क्या हो सकता है? देवताओं के इशारे पर शनि ने इंद्रजीत के जन्म समय में अपना एक पैर द्वादश भाव में बढ़ा दिया, जिसे देख रावण का क्रोध सीमा को पार कर गया एवं शनि के एक पैर को काट कर उसको लंगड़ा ग्रह बना दिया। शनि का सूर्य एवं चंद्र के प्रति मित्रता का भाव नहीं होता है। शनि का आचरण सूर्य-चंद्र के आचरण के विरुद्ध होता है। यही वजह है कि सूर्य-चंद्र की राशियों-सिंह एवं कर्क के विपरीत इसकी राशियां मकर एवं कुंभ हैं। चंद्र किसी काम को जल्दी में अंजाम देना चाहता है, पर शनि और चंद्र का किसी तरह का संबंध हो गया, तो एक तो काम जल्दी नहीं होगा, दूसरे कई बार प्रयास करना होगा। सूर्य हृदय का कारक ग्रह कहलाता है। अगर शनि एवं सूर्य का संबंध होता है तो खून को ले जाने वाली नलिकाओं के छेद को संकीर्ण बना कर हृदय रोग पीछा करता है। शनि के ये सब अवगुण स्पष्ट नज़र आते हैं, किंतु इसमें गुणों की भी कमी नहीं है। शनि जनतंत्र का कारक ग्रह कहलाता है। राजनीति में शनि विश्वास का प्रतीक माना जाता है। अगर किसी राजनीतिज्ञ की कुंडली में शनि की स्थिति ठीक नहीं होती तो जनता को उस राजनेता की बातों का विश्वास नहीं होता है। शनि शुष्क, रिक्त, नियम पालन करने वाला, एकांतप्रिय, रहस्यों को अपने अंदर छिपाने वाला ग्रह है। यह एकांतप्रिय होता है, अतः पूजा, साधना आदि के लिए शुभ ग्रह माना जाता है। यह मन को शांत रखता है और अगर पूजा के समय मन शांत हो गया तो साधना में मन भी लगेगा एवं सिद्धि भी जल्दी होगी। पंचम भाव को पूजा से संबंधित भाव माना जाता है। अगर किसी जातक के पंचम भाव का उपस्वामी चंद्र है तो उस आदमी का मन पूजा में कभी भी नहीं लगेगा। पूजा के समय मन इधर-उधर खूब भटकेगा एवं हर बात की चिंता उस आदमी को उसी समय होगी। पर अगर शनि पंचम का उपस्वामी है, तो पूजा के समय मन एकदम शांत रहेगा। शनि के दोस्त ग्रहों में बुध एवं शुक्र के नाम आते हैं। पर शनि वृष एवं तुला लग्न वालों के लिए हमेशा ही लाभदायक होगा। पर यह बात मिथुन एवं कन्या लग्न वालों पर लागू नहीं होगी। उत्तर कालामृत के अनुसार शनि अगर अपनी राशि में स्थित हो या गुरु की राशि पर स्थित हो या उच्च का हो, तो शुभ होता है। पर शनि के बारे में एक विशेष बात यह कही गयी है कि शनि अगर अपनी भाव स्थिति के अनुसार शुभ है, तो उसे स्वयं की राशि पर, उच्च राशि में, या वर्गोत्तम नहीं होना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो योगकारक शनि की दशा के समय राजा भी भिखारी बन जाएगा। शनि अगर अशुभ हो, तो काम में देरी हो सकती है, निराशा मिल सकती है, झगड़ा हो सकता है, शांति बाधित हो सकती है, जातक का निरादर हो सकता है, उसे अवहलेना का शिकार होना पड़ सकता है। पर अगर शनि शुभ हो, तो शांति से काम करने, धन की बचत का उपाय करने, मेहनत करने, जीवन में सफलता प्राप्त करने एवं अपने अंदर बहुत सारे रहस्यों को दबा रखने की क्षमता मिलती है। शनि आयुष्कारक ग्रह कहलाता है एवं अगर यह आयु स्थान, यानी अष्टम भाव में हो, तो उम्र को बढ़ाता है। गुरु में जहां वृद्धि की बात होती है, वहीं शनि में कटौती की। गुरु जहां संतान वृद्धि में कारक ग्रह होता है, वहीं शनि को, परिवार नियोजन के द्वारा, संतान वृद्धि को रोकने की क्षमता प्राप्त है। गुरु एवं शनि में एक और खास भेद है। गुरु जहां पुरोहित का काम, धर्म के प्रचारक का काम करता है, वहां शनि मौन रह कर साधना करता है। उसे भोज खाने के स्थान पर उपवास करना ही भाता है। शनि का रंग बैंगनी है। इसका रत्न नीलम होता है। अंकों में संख्या 8 होती है। शनि के प्रभाव की वजह से ही 8 अंक को छिपे रहस्यों का अंक कहा जाता है। शनि से संबंधित विषय इतिहास, भूगर्भ शास्त्र, चिकित्सा की पुरानी पद्धतियां आदि हैं। शनि एवं मंगल दोनों को ही जमीन से वास्ता होता है, पर मंगल जमीन की ऊपरी सतह से संबंधित होता है, जबकि शनि भीतरी सतह से। शनि अगर शुभ स्थिति में न हो, तो तरह-तरह की बीमारियां दे सकता है। शरीर से उस गंदगी को बाहर आने से रोक देता है, जिसे बाहर निकलना चाहिए था। पायरिया हो जाता है, झिल्ली कड़ी हो जाती है, शरीर में खून आदि का प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। यह सब उस स्थिति में होता है जब शनि चंद्र को प्रदूषित करता है। अगर इस प्रदूषण में मंगल भी आता है तो चेचक की संभावना बनती है एवं शरीर में मवाद जम जाता है। शनि अगर सिर्फ मंगल को दूषित कर रहा हो, तो रीढ़ की हड्डी का टेढ़ा होना, गिर कर चोट लगना, पित्त की थैली में पथरी का होना इत्यादि बीमारियां होती हैं। इसी तरह से शनि अगर सूर्य एवं गुरु को प्रदूषित करता है तो, शरीर में कोलेस्ट्रोल की वृद्धि के कारण रक्त वाहक नलिकाओं में अवरोध पैदा होता है एवं हृदयाघात की संभावना पैदा होती है। इस तरह से अलग-अलग ग्रहों के साथ अलग-अलग रोग हो सकते हंै। शनि के द्वारा दी गयी बीमारी ज्यादा समय के लिए होती है।

उदर रोग: ज्योतिष्य दृष्टिकोण

उदर शरीर का वह भाग या अंग है जहां से सभी रोगों की उत्पत्ति होती है। अक्सर लोग खाने-पीने का ध्यान नहीं रखते, परिणाम यह होता है कि पाचन प्रणाली गड़बड़ा जाती है जिससे मंदाग्नि, अफारा, कब्ज, जी मिचलाना, उल्टियां, पेचिश, अतिसार आदि कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते जाते हैं जो भविष्य में किसी बड़े रोग का कारण भी बन सकते हैं। यदि सावधानी पूर्वक संतुलित आहार लिया जाये तो पाचन प्रणाली सुचारू रूप से कार्य करेगी और हम स्वस्थ रहेंगे। उदर में पाचन प्रणाली का काय भोजन चबाने से प्रारंभ होता है। जब हम भोजन चबाते हैं तो हमारे मुंह में लार ग्रंथियों से लार निकलकर हमारे भोजन में मिल जाती है और कार्बोहाइड्रेट्स को ग्लूकोज में बदल देती है। ग्रास नली के रास्ते भोजन अमाशय में चला जाता है। अमाशय की झिल्ली में पेप्सिन और रैनेट नामक दो रस उत्पन्न होते हैं जो भोजन के साथ मिलकर उसे शीघ्र पचाने में सहायता करते हैं। इसके पश्चात भोजन छोटी आंत के आखिर में चला जाता है। यहां भोजन के आवश्यक तत्व रक्त में मिल जाते हैं तथा भोजन का शेष भाग बड़ी आंत में चला जाता है, जहां से मूत्राशय और मलाशय द्वारा मल के रूप में शरीर से बाहर हो जाता है। ज्योतिषीय दृष्टिकोण: ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति का कारण ग्रह नक्षत्रों की खगोलीय चाल है। जितने दिन तक ग्रह-नक्षत्रों का गोचर प्रतिकूल रहेगा व्यक्ति उतने दिन तक रोगी रहेगा उसके उपरांत मुक्त हो जाएगा। जन्मकुंडली अनुसार ग्रह स्थिति व्यक्ति को होने वाले रोगों का संकेत देती है। ग्रह गोचर और महादशा के अनुसार रोग की उत्पत्ति का समय और अवधि का अनुमान लगाया जाता है। उदर रोगों के ज्योतिषीय कारण जन्मकुंडली में सबसे अधिक महत्वपूर्ण लग्न होता है और यदि लग्न अस्वस्थ है, कमजोर है तो व्यक्ति रोगी होता है। लग्न के स्वस्थ होने का अभिप्राय लग्नेश की कुंडली में स्थिति और लग्न में बैठे ग्रहों पर निर्भर करता है। लग्नेश यदि शत्रु, अकारक से दृष्ट या युक्त हो तो कमजोर हो जाता है। इसी प्रकार यदि लग्न शत्रु या अकारक ग्रह से दृष्ट या युक्त हो तो भी लग्न कमजोर हो जाता है। काल पुरूष की कुंडली में द्वितीय भाव जिह्ना के स्वाद का है। पंचम भाव उदर के ऊपरी भाग पाचन, अमाशय, पित्ताशय, अग्नाशय और यकृत का है। षष्ठ भाव उदर की आंतों का है। उदर रोग में लग्न के अतिरिक्त द्वितीय, पंचम और षष्ठ भाव और इनके स्वामियों की स्थिति पर विचार किया जाता है। विभिन्न लग्नों में उदर रोग मेष लग्न: मंगल षष्ठ या अष्टम भाव में बुध से दृष्ट हो, सूर्य शनि से दृष्ट या युक्त हो, शुक्र लग्न में हो तो जातक को उदर रोग से परेशानी होती रहती है। वृष लग्न: गुरु लग्न, पंचम या षष्ठ भाव में स्थित हो और राहु या केतु ये युक्त हो, लग्नेश शुक्र अस्त होकर द्वितीय या पंचम भाव में हो। मिथुन लग्न: लग्नेश बुध अस्त होकर पंचम, षष्ठ या अष्टम भाव में हो, मंगल लग्न, द्वितीय या पंचम भाव में स्थित हो या दृष्टि दे तो जातक को उदर से संबंधित परेशानी होती है। कर्क लग्न: चंद्र, बुध दोनों षष्ठ भाव में हों, सूर्य पंचम भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को उदर रोग होता है। सिंह लग्न: गुरु पंचम भाव में वक्री शनि से दृष्ट हो, लग्नेश राहु/केतु से युक्त या दृष्ट हो, मंगल से पंचम या षष्ठ हो तो जातक को उदर रोग होता है। कन्या लग्न: मंगल द्वि तीय या षष्ठ भाव में हो, बुध अस्त होकर मंगल के प्रभाव में हो, गुरु की पंचम भाव में स्थिति या दृष्टि हो तो जातक को उदर रोग होता है। तुला लग्न: पंचम या षष्ठ भाव गुरु से दृष्ट या युक्त हो, शुक्र अस्त और वक्री हो कर कुंडली में किसी भी भाव में हो तो जातक को उदर रोग होता है। वृश्चिक लग्न: बुध लग्न में, द्वितीय भाव में, पंचम भाव, षष्ठ भाव में स्थित हो और अस्त न हो, लग्नेश मंगल राहु-केतु युक्त या दृष्ट हो तो जातक को उदर रोग होता है। धनु लग्न: शुक्र, राहु/केतु से युक्त होकर पंचम या षष्ठ भाव में हो, गुरु अस्त हो और शनि की दृष्टि हो तो जातक को उदर रोग होता है। मकर लग्न: गुरु द्वितीय भाव या षष्ठ भाव में वक्री हो और राहु/केतु से दृष्ट या युक्त हो तो जातक को उदर रोग देता है। कुंभ लग्न: शनि अस्त हो, गुरु लग्न में पंचम भाव में, मंगल षष्ठ भाव में राहु/केतु से युक्त हो तो उदर रोग होता है। मीन: शुक्र षष्ठ भाव में, शनि द्वितीय या पंचम भाव में, चंद्र अस्त या राहु केतु से युक्त हो तो जातक को उदर से संबंधित रोग होता है।

मंगल दोष के उपाय

मंगल स्तोत्र का जाप मंगल दोष परिहार में इस जाप का विशेष महत्व है। यदि कोई अन्य उपाय कर रहे हैं तो साथ में इस स्तोत्र का जाप जरूर करें। मंगलवार को इस स्तोत्र का पाठ विषम संख्या में 5-11-21 बार अवश्य करें। यह जाप शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार को शुरू किया जा सकता है। विष्णु प्रतिमा विवाह यह उन कन्याओं के लिये है जिनकी कुंडली में यह दोष है। यदि किसी कन्या की कुंडली में यह दोष है तो उसे वैधव्य भोगना पड़ता है। इसलिये पीपल विवाह, कुंभ विवाह तथा विष्णु प्रतिमा विवाह की विशेष मान्यता है। भगवान विष्णु जीवन-मृत्यु के बंधन से दूर हैं इसलिये जिस कन्या की कुंडली में यह दोष होता है इस उपाय से वैधव्य योग समाप्त हो जाता है। इस विवाह को पूरी तरह गोपनीय रखना चाहिये अन्यथा फल प्राप्त नहीं होगा। यह केवल कन्या ही करे पिता की कोई भूमिका नहीं होती। विष्णु प्रतिमा विवाह में कन्यादान की जरूरत नहीं होती। विवाह के समय परिवार की महिलायें उपस्थित रहें। यह विवाह पूरी तरह गोपनीय रखना चाहिये। जिस आचार्य से विवाह करवाना हो उसे इसके बारे में बता दें। मंगल रत्न इसका मुख्य रत्न मूंगा है। इसे 8 से 15 रत्ती का सोने या तांबे में जड़वायें और शुक्लपक्ष के प्रथम मंगलवार हनुमान जी के मंदिर में जाकर ।। ओम अं अंगारकाय नमः।। मंत्र का 11 बार जाप करके अंगूठी पर घुमाकर अनामिका में धारण करें। 9 दिन के बाद इसका प्रभाव शुरू हो जाता है। ध्यान रहे यदि पत्नी की कुंडली में मंगल दोष है तो पति को यह रत्न धारण करना चाहिये और यदि पति की कुंडली में यह दोष हो तो पत्नी को धारण करना चाहिए। मंगल व्रत मंगल दोष को समाप्त करने के लिये मंगलव्रत का भी विशेष महत्व है। यह व्रत शुक्लपक्ष के प्रथम मंगलवार से आरंभ करें। हल्का आहार जैसे फल, मावे की मिठाई, चूरमा आदि लिया जा सकता है। । ओम क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः की एक माला का जाप करें। मंत्र जाप के समय लाल रूमाल अवश्य रखें। मंगलवार और बुधवार को ब्रह्मचर्य का पालन जरूर करें। इसके साथ यह धन, भवन, सुख-समृद्धि तथा मनचाही संतान भी देने वाला है। मंगल चण्डिका स्तोत्र मंगलदोष समाप्त करने के लिये मंगल चंडिका स्तोत्र का पाठ बहुत लाभदायक है। पंचमुखी दीपक जलाकर पाठ करें। यह 108 मंगलवार करें। 7 या 21 की संख्या हो। जितनी संख्या शुरू करें उतनी ही पूरी रखें, संख्या कम या अधिक नहीं होनी चाहिये। अंगारक स्तोत्र इस स्तोत्र का पाठ करने से दूषित प्रभाव समाप्त हो जाता है। इस स्तोत्र का पाठ रोज या हर मंगलवार करें। मंगल के 108 नाम मंगल दोष को समाप्त करने के लिये मंगल के 108 नामों का उच्चारण बहुत लाभदायक होता है। प्रतिदिन 108 नामों का पाठ करने से मंगल दोष का परिहार हो जाता है। इससे दांपत्य जीवन सुखी हो जाता है। मंगल दोष मुक्ति के लिए लग्नानुसार उपाय मंगल दोष से मुक्त होने के लिए शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार को करें। जो उपाय शनिवार को करने हैं वह शनिवार से शुरू करें। 1. प्रत्येक शनिवार को हनुमानजी की तस्वीर के आगे चमेली के तेल का दीपक जलायें और सुंदर कांड का पाठ करें। 2. अभिमंत्रित मंगल यंत्र गले में धारण करें। 3. यदि पत्रिका में मंगल कारक हो तो त्रिकोण मूंगा धारण करें। 4. त्रिधातु का कड़ा कन्या बायें हाथ में और पुरूष दायें हाथ में धारण करें। 5. 750 ग्राम गुड़ की रेवड़ी बहते जल में प्रवाह करें। यह 3 मंगलवार करें। 6. घर के दरवाजे पर चांदी की कील ठुकवायें। 7. 900 ग्राम लाल मसूर की दाल लाल वस्त्र में बांध कर तीन मंगलवार किसी युवा गरीब को दें। मेष लग्न: 1. लाल रूमाल सदैव अपने पास रखें। 2. दक्षिणमुखी मकान में न रहें। 3. मंगलवार को किसी 9 वर्ष की कन्या को मीठा खिलायें। वृषभ लग्न: 1. पत्नी को चांदी की चूड़ी पर लाल रंग करवा कर धारण करवायें। 2. श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें। 3. मांस-मदिरा से दूर रहें। 4. किसी विधवा की सेवा करते रहें। 5. घर में नौकर को समय से वेतन देते रहना चाहिये। मिथुन लग्न: 1. किसी से मुफ्त की वस्तुएं न लें चाहे वह उपहार ही क्यांे न हो। 2. भतीजों से प्रेम करें। 3. मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर में लड्डू का भोग लगायें। कर्क लग्न: 1. श्री हनुमान जी का कोई पाठ या मंगल स्तोत्र का पाठ करें। 2. मंगलवार को मीठा व्रत रखें। 3. सोते समय तांबे के बर्तन में जल रखें तथा सुबह खाली पेट ग्रहण करें। सिंह लग्न: झूठी गवाही कभी मत दें। 3. निर्बल पर अत्याचार न करें। 3. माता- मौसी की सेवा करें। कन्या लग्न: 1. हाथी की कोई तस्वीर घर में न रखें। 2. किसी से दान न लें। 3. बड़े भाई, ताऊ व मामा की सेवा करें। 4. शहद व सिंदूर बहते जल में प्रवाहित करें। 5. किसी निर्जन स्थान में मिट्टी से दीवार बनाकर स्वयं गिरायें। 6. बुआ, मौसी अथवा साली के घर जायें तो मिठाई लेकर जायें। तुला लग्न: 1. मंगलवार को मीठा भोजन गरीबों को खिलायें। 2. गायत्री मंत्र का जाप करें। 3. दूध से बने हलवे को गरीबों में बांटें। 4. मंगलवार को बजरंगबाण का पाठ करके हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद बांटें। 5. तंदूर की मीठी रोटी कुत्ते को दें। वृश्चिक लग्न: 1. लाल रूमाल हमेशा अपने पास रखें। 2. सुबह उठ कर शहद चाटें। 3. भतीजों से विशेष प्रेम करें। 4. किसी से अपशब्द न बोलें। 5. शहद व सिंदूर जल में प्रवाहित करें। धनु लग्न: 1. मांस, जुआ, तामसिक भोजन से दूर रहें। 2. मंगलवार को कुत्ते को मीठी रोटी खिलाएं। 3. दक्षिणमुखी मकान में न रहें। मकर लग्न: 1. लाल रंग और इससे मिलते रंग के वस्त्र धारण करें। 2. मेहमानों को मीठा खिलायें। 3. काले व काने व्यक्ति से दूर रहें। कुंभ लग्न: 1. हनुमान चालीसा की पुस्तक का दान करें। 2. निर्बलों की सहायता करें। 3. मंगलवार व शनिवार को पीपल को जल दें। मीन लग्न: 1. मुफ्त की कोई वस्तु न लें। 2. मद्यपान से दूर रहें। 3. मंगलवार को हनुमानजी को चोला चढ़ायें। 4. घर में कोई जंगवाला पुराना हथियार न रखें। 5. शहद व केसर का सेवन करें।

शनि ग्रह का गोचर का प्रभाव

शनि ग्रह सबसे बड़े व धीमी गति के होने के कारण धरती पर अपना सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं। गोचर में भ्रमण करते हुये ये एक साथ 6 राशियों पर अपना नियंत्रण रखते हैं जिस कारण इनका फलित ज्योतिष में अपना अलग ही महत्व रहता है। अनुभवों से ज्ञात होता है कि शनि, मंगल व राहु गोचर में अपना शुभ फल लग्न से 62 अंश के बिन्दु पर होने पर देते हैं जबकि अन्य अंशों के बिन्दु में होने पर ये सभी ग्रह अपना अशुभफल प्रदान करते हैं। गुरु ग्रह इसी अंश के बिन्दु पर अपना सर्वोत्तम शुभ फल प्रदान करते हैं जबकि अन्य अंशों के बिन्दुओं पर केवल शुभफल ही देते हैं तथा लग्न से 200 अंश के बिन्दु में गुरु अशुभ फल देते हैं। जन्म लग्न से शनि का गोचर जातक विशेष के मस्तिष्क को कुंद करता है। जातक की सेहत खराब होने लग जाती है तथा लंबा व बड़ा रोग होने की संभावना बढ़ जाती है (टीबी. जैसे रोग इस दौरान ज्यादा पाये जाते हैं), जातक को दुर्घटनाआंे का भय होने लगता है। स्त्री जातकांे में इस समय प्रेम संबंधांे में निराशा, तलाक,विधवापन जैसी परेशानियाँ देखी गयी हैं। ऐसा नहीं है कि ये गोचर सारे अशुभ प्रभाव ही देता है। अनुभव में देखा गया है कि जो जातक तुला, मकर या कुम्भ लग्न के थे उन्हंे शनि के इस गोचर ने शुभ फल भी प्रदान किए। इसके अतिरिक्त जिनकी पत्रिका मे शनि शुभ अवस्था में थे उन्हें शनि के इस गोचर ने बीमारी से मुक्ति, स्त्री सुख व स्त्री मिलन जैसे सुख भी प्रदान किए (जिनकी पत्नी उनसे दूर रहती हो वह वापस आ जाती हैं )। इसी प्रकार के नतीजे मंगल,सूर्य राहु, केतु के लग्न से गोचर करने पर भी पाये गए । यदि गोचरीय शनि को मंगल प्रभाव दे रहा हो तो जातक को बुरे वक्त से गुजरना पड़ता है, उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। यदि शनि पर शुभ ग्रह का प्रभाव हो तो जातक को उसकी ईमानदारी का शानदार इनाम मिलता है। यही वह समय होता है जब जातक समाज में अपना ऊंचा स्थान पा जाता है। जब शनि लग्न से 60 अंश पर से गुजरता है तब जातक को जमीन जायदाद एवं व्यापार संबंधी लाभ प्राप्त होते हैं। जमीन से किसी भी प्रकार जुड़े व्यक्तियों को बहुत लाभ मिलता है। घर से गए व्यक्ति,गायब हुये व्यक्ति वापस अपने घर आ जाते हैं। यदि यह शनि मंगल के प्रभाव मंे हो तो जातक के छोटे भाई-बहनांे क स्वास्थ्य की हानि होती है। रिश्तेदारों व पड़ोसियों से तनाव पैदा करता है, यदि इस शनि को गुरु ग्रह देख रहा हो तो परिवार में सुखों की वृद्धि होती है, संतान का जन्म होता है। लेखकों के लिए यह समय अति शुभ होता है, राजनीति से जुड़े लोगों की समस्या का समाधान होता है। कला से जुड़े व्यक्तियों, कलाकारों का सम्मान होता है तथा धरती पर दुधारू पशुओं की वृद्धि होती है। जब शनि गोचर में लग्न से 90 अंशों से गुजरता है तो जातक विशेष को अचानक हानि का सामना करना पड़ता है, माता या मातृपक्ष के किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है, कोर्ट कचहरी के चक्करांे के कारण अनावश्यक खर्च होता है, धन हानि के साथ-साथ स्थान परिवर्तन भी होता है। यदि यह शनि शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो इन सभी अशुभफलों में कमी होकर जातक को धनप्राप्ति व नई परिस्थितियों,उम्मीदों का सामना करना पड़ता है। लग्न से 120 अंशांे पर गोचर करने पर शनि संबंधांे को तोड़ने का कार्य करता है, संतान को कष्ट व स्वास्थ्य हानि होती है। कुछ अवस्थाओं में बड़े बच्चे अपने माता-पिता की अवहेलना भी करने लगते हैं। यदि इस शनि पर कोई शुभ ग्रह प्रभाव डाल रहा हो तो जातक तीर्थयात्रा व धार्मिक शिक्षा का अध्यापन करता है। यदि यह शनि स्वगृही हो या शुभ हो तो राजनीतिज्ञांे को अपने शत्रुओं पर विजय दिलाता है और यदि इस शनि पर पाप प्रभाव हो तो बड़ों के द्वारा दंड,कानून द्वारा सजा, विस्थापन,मृत्यु तथा घर वालों को बीमारी जैसे फल प्राप्त होते हैं। इस गोचर से व्यापारियांे व कारोबारियों को नुकसान होता है, स्त्री जातकांे को विवाह में बाधाएं व पति सुख में कमी जैसे फलों का सामना करना पड़ता है। मजदूर वर्ग हड़ताल जैसी समस्याओं का सामना करता है, चोटिल होता है। शनि का लग्न के 180 अंशांे पर गोचर जातक विशेष को पत्नी की स्वास्थ्य हानि, परीक्षा मंे असफलता, किसी इल्जाम मंे फंसना, नौकरांे से मतभेद तथा पालतू जानवरांे की हानि जैसे फल देता है। जब शनि का गोचर लग्न से 199 अंश पर होता है तब जातक विशेष को पत्नी की हानि, संपत्ति बंटवारा, स्वयं के अस्तित्व पर संदेह,नौकरी में अवनति जैसे फल प्राप्त होते हैं। अगर इस शनि के गोचर पर पाप प्रभाव हो तो जातक को अवसाद, असहयोग,नकारात्मक सोच के कारण आत्महत्या जैसे विचार आते हैं।

नीच ग्रह की शुभता

प्रायः ऐसी धारणा है कि नीच ग्रह हमेशा अशुभ फल ही देते हैं, जबकि वास्तविकता इससे भिन्न है। हो सकता है कुछ मामलों में नीच ग्रह नकारात्मक परिणाम देते हों, पर हमेशा ऐसा नहीं होता है। उदाहरणस्वरूप हम शनि ग्रह को लेते हैं। यह एक राशि में ढाई वर्ष रहता है। स्वाभाविक है यह अपनी उच्च राशि तुला में ढाई वर्ष तक रहेगा व नीच राशि मेष में भी ढाई वर्ष रहेगा। तो क्या इसके उच्च के होने की अवस्था में जन्म लेने वालों पर हमेशा शनि की कृपा बरसेगी या शनि की नीच अवस्था में जन्म लेने वाले पर शनि का प्रकोप बरसेगा। व्यवहार में भी यह सामने आया है कि जिसकी कुण्डली में शनि नीच राशि में है, वह भी शनि से संबंधित कामों में लाभ पाता है, जबकि उच्च के शनि वाले जातक को भी शनि जनित कष्टों का सामना करना पड़ सकता है। इस प्रकार मंगल कर्क राशि में नीच का होता है। यही मंगल ग्रह कर्क लग्न या राशि के लिए योगकारक ग्रह माना गया है। यह कर्क लग्न में पंचमेश और दशमेश अर्थात केन्द्र और त्रिकोण दोनों जगहों का स्वामी होता है। ऐसी अवस्था में जब यह लग्न में स्थित होगा तो नीच का तो कहा जाएगा, लेकिन यह यहां पर अशुभ नहीं, बल्कि विशेष योगकारक हो जाएगा। कई ऐसी स्थितियां भी होती हैं, जब कोई ग्रह किसी अशुभ स्थान का स्वामी होकर नीच का हो जाता है और शुभ फल देने लगता है। उदाहरण के लिए अष्टमेश का नीच का होना अच्छा माना गया है। इस प्रकार तमाम उदाहरण हैं, जो नीच ग्रह को अशुभ फलदायी कहे जाने के पक्ष में नहीं हैं। नीच राशि के ग्रह - 1. यदि सूर्य नीच राशि तुला (7) में हो तो, जातक पापी साथियों की सहायता करने वाला, और नीच कर्म में तत्पर होता है। 2. चंद्रमा नीच राशि वृश्चिक (8) का हो तो जातक रोगी, धन का अपव्यय करने वाला तथा विद्वानों का संगी होता है। 3. मंगल नीच राशि कर्क (4) में हो तो, जातक की बुद्धि कुंठित होती है, इसके सोचे हुए कार्य अधूरे रहते हैं। यह किसी का एहसान भूलने में देर नहीं करता है। 4. बुध नीच राशि मीन (12) का हो तो, जातक समाजद्रोही, बंधुओं के द्वारा अपमानित तथा चित्रकला आदि में प्रसिद्ध होता है। 5. गुरु नीच राशि मकर (10) का हो तो अपनी दशा में जातक को कलंकित करता है, तथा भाग्य के साथ खिलवाड़ करता रहता है। 6. शुक्र नीच राशि कन्या (6) का हो तो, जातक को मेहनत के बाद भी धन नहीं मिलता है। इसके कारण जातक को पश्चात्ताप होता रहता है। 7. शनि नीच राशि मेष (1) का हो तो, अपव्ययी, मद्यपान करने वाला तथा पर स्त्रीगामी होता है। 8. राहु नीच राशि का होने पर जातक मुकदमे जीतने वाला, लेकिन धन प्राप्त नहीं होता है। 9. केतु नीच राशि का होने पर जातक मलिन मन का, दुर्बुद्धि और कष्ट सहन करने वाला होता है।

आर्ष पद्धति

वैदिक ग्रंथों तथा वेदांग ज्योतिष का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि भारत में नक्षत्र ज्ञान अपने उत्कर्ष पर रहा है। इसी कारण नक्षत्र ज्ञान तथा नक्षत्र विद्या का अर्थ ‘ज्योतिष’ माना जाने लगा। ज्योतिष का प्रचलित अर्थ हुआ वह षास्त्र जिसमें ज्योति का अध्ययन हो। वास्तव में ज्योतिष नक्षत्र आधारित विज्ञान ही है। ज्योतिष के तीनों स्कंधों-गणित, फलित तथा संंिहता पर नक्षत्रों का वर्चस्व है। वैदिक काल में काल निर्णय नक्षत्रों के माध्यम से किया जाता था। वर्तमान में फलित ज्योतिष में किसी जातक का षुभाषुभ ज्ञात करने के लिए ग्रहों की महादषाओं, अंतर तथा प्रत्यंतर दषाओं का अध्ययन किया जाता है। अनेक प्रकार की दषाओं में नक्षत्र दषा पद्धति प्रधान मानी जाती है। बहुप्रचलित एवं स्वीकृत विंषोतरी दषा, अष्टोत्तरी दषा, काल चक्र दषा, योगिनी दषा आदि दषाएं नक्षत्र पर आधारित ही हैं। मुहूर्त प्रकरणों में अनेक कार्यों के षुभाषुभ परिणाम तथा मुहूर्त का आधार नक्षत्रों पर ही आधारित है। विवाह मेलापक की पद्धति चाहे उत्तर भारतीय हो, या दक्षिण भारतीय, दोनों ही में नक्षत्र आधारित मेलापक का वर्चस्व है। उत्तर भारत में प्रचलित विवाह मेलापक के 36 गुणों में से 21 गुणों के निणर्य का आधार नक्षत्र ही है। व्रत एवं उपवास का निर्णय नक्षत्र पर निर्भर करता है। त्रैलोक्य दीपक, सर्वतोभद्र चक्र का आधार नक्षत्र है। वेदों में नक्षत्रों का वर्णन हुआ है। परंतु सब स्थलों पर नक्षत्र षब्द का अर्थ आजकल के प्रचलित अर्थ में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। ऋग्वेद सहिंता तथा अथर्ववेद संहिता में नक्षत्र षब्द का अर्थ तारों के संदर्भ में भी हुआ है। ऋक्संहिता में (7।5।35) चंद्रमा के मार्ग में आने वाले तारों तथा नक्षत्रों के लिए एक ही षब्द का उपयोग हुआ है। परंतु तैत्तरीय संहिता में नक्षत्रों एवं तारों में अंतर किया गया है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार ‘नक्षत्राणि रुप तारका अस्थीनि’, अर्थात नक्षत्र रुप तथा तारें अस्थियंा है। तैत्तरीय ब्राह्मण 1।5।2 में नक्षत्रों को परिभाषित करते हुए बताया गया है कि ‘ समुद्र के समान विस्तार वाले आकाष को जिन तारक नौकाओं के माध्यम से हम पार करते हैं, वे तारे हैं। इन तारों के आधार पर जो यज्ञ प्रयोग किये जाते हैं, उनके लोक क्षत नहीं होते। इसी से उन्हें नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र दिव्य ज्योति देवताओं के मंदिर हैं। जिस प्रकार पृथ्वी पर घर, निवास, अथवा किसी स्थल की पहचान के लिए विषिष्ट चित्र आदि की सहायता ली जाती है, उसी प्रकार अष्व मुख आदि चित्रों की सहायता से अष्विनी आदि देवताओं के षुद्ध नक्षत्रों की पहचान हो जाती है। इस लिए नक्षत्रों का नाम चित्र भी है। तैत्तरीय ब्राह्मण में नक्षत्र षब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है: प्रबाहुर्वा अग्रे क्षत्राण्यातेपुः। तेषामिन्द्रः क्षत्राण्यादत ।। न वा इमानि क्षत्राण्यभूवन्निति । तन्नक्षत्राणंा नक्षत्रत्वम् ।। अर्थात जो क्षत नहीं है, वही नक्षत्र है। निरुक्त में नक्षत्र षब्द के लिए कहा गया है ‘ नक्षत्राणि नक्षतेर्गतिकर्मण।’ तैत्तरीय ब्राह्मण में 1।5।2 में कहा गया है कि ‘ इस लोक के पुण्यात्मा उस लोक में नक्षत्र हो जाते हंै। नक्षत्र देवताओं के ग्रह हैं। जो यह जानता है, वह ग्रही होता है। यह जो पृथ्वी का चित्र है, वह ही नक्षत्र है। अतः अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कोई कार्य न तो प्रारंभ करना चाहिए और न ही समाप्त करना चाहिए। अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कार्य करना पापकारक दिनों में कार्य करने के समान दोषपूर्ण है। आज भी मुहूर्त ग्रंथों में अषुभ नाम वाले नक्षत्रों में कार्य करने का निषेध है। ऋग्वेद ज्योतिष में कहा गया है: नक्षत्रदेवता एता एताभिर्यज्ञकर्मणि । यजमानस्य षास्त्रज्ञेर्नाम नक्षत्रजं स्मृतम् ।। अर्थात षास्त्रों के वचनानुसार यज्ञ कर्म में नक्षत्रों के देवताओं के द्वारा यजमान का नक्षत्र नाम रखा जाना चाहिए। तैत्तरीय श्रुति में नक्षत्रों से संबंधित विषयों का विस्तृत तथा विपुल वर्णन हुआ है। इस श्रुति में सब नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं के नाम भी बताये गये हैं। नक्षत्रों के नामों की व्युत्पति बतायी गई है। तैत्तरीय संहिता के अनुवाक 4।4।10 में सभी नक्षत्रों के नाम दिये गये हैं। तैत्तरीय ब्राह्मण में तीन स्थलों पर सब नक्षत्रों के नाम तथा उनके देवताओं के नाम बताये गये हैं। नक्षत्रों की व्युत्पति के विषय में तैत्तरीय ब्राह्मण 1 । 1। 2 में तथा 1।5।2 में विस्तृत उल्लेख दिया गया है। इसी ब्राह्मण के 1।5।2।2 में नक्षत्रीय प्रजापति की कल्पना की गयी है। इसके अनुसार नक्षत्र प्रजापति में हस्त नक्षत्र उसका हाथ, चित्रा नक्षत्र उसका सिर, स्वाती हृदय, विषाखा के दो तारे दोनों जंघाएं तथा अनुराधा खड़े रहने का स्थान है। नक्षत्रों की स्थिति की यह परिभाषा वास्तव में नक्षत्रों में समाहित तारों के विषय में ज्ञान कराने का माध्यम है। इससे यह जाना जा सकता हैे कि किस नक्षत्र पुंज में कितने तारे विद्यमान हैं। वेदों में 27 नक्षत्रों के अतिरिक्त भी कुछ अन्य तारों का उल्लेख मिलता है। स. 1।24।10 में ‘ अमी यक्षा निहितास उच्चा नक्तन्ददृषे कुहचिद्दिवेयु’ के माध्यम से कहा गया है कि आकाष के उच्च क्षेत्रों में स्थित ऋक्ष रात में दिखाई देते हैं और दिन में कहीं अन्यत्र चले जाते है। प्राचीन काल में सप्तर्षियों का उल्लेख ऋक्ष के रुप में किया गया है। सस्ंकृत में ऋक्ष का अर्थ भालू भी होता है। ज्योतिष ग्रंथों तथा षास्त्रों में तारों के विषिष्ट समूंह को नक्षत्र कहा गया है। नक्षत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ‘ न क्षरतीति नक्षत्रः’, अर्थात जिसका क्षरण न होता हो, वह नक्षत्र है। अथर्ववेद 19।7 की ऋचा ‘ चित्राणि साकंकृकृ; में 28 नक्षत्रों का उल्लेख है। तैत्तरीय श्रुति में दो स्थानों पर अभिजित नक्षत्र का नाम आया है। यजुर्वेद के एक मंत्र में 27 नक्षत्रों का उल्लेख है। इन उल्लेखों से भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि नक्षत्र 27 माने जाएं अथवा 28। आज भी फलित ज्योतिष में 27 नक्षत्र माने जाते है,ं परंतु मुहूर्त आदि विषयों में, अभिजित सहित, 28 नक्षत्र ग्रहण करने का संप्रदाय भी प्रचलित है। सामान्यतः सूक्ष्म नक्षत्र का मान क्रंाति वृत्त का 27 वां भाग, अर्थात 800 कला है। आधुनिक युग में भी यह मान स्वीकृत है। परंतु प्राचीन काल में एक और पद्धति प्रचलित थी। उसमें कुछ नक्षत्रों को अर्धभोग कुछ को सम भोग, अर्थात एक भोग तथा कुछ को अध्यर्ध अर्थात ड़ेढ़ भोग का माना जाता था। ब्रह्मगुप्त तथा भास्कराचार्य ने महर्षि गर्ग के संदर्भ से इसका उल्लेख करते हुए कहा है कि गर्गादादिक ऋषियों ने फलादेष के लिए यह पद्धति अपनायी थी। इस पद्धति के अनुसार भरणी, आद्र्रा, अष्लेषा, स्वाती, ज्येष्ठा, षतभिषा, ये 6 नक्षत्र अर्ध भोग तथा रोहिणी, पुनर्वसु, तीनों उत्तरा तथा विषाखा, ये 6 नक्षत्र अध्यर्ध भोग तथा षेष नक्षत्र सम भोग माने गये हैं। गर्ग ने भोग का मान 800 कला तथा ब्रह्मगुप्त ने चंद्र मध्य दिन गति अर्थात 790 कला 35 विकला माना है। इसी लिए ब्रह्म सिद्धांत में अभिजित नक्षत्र ले कर चक्र कला की पूर्ति के लिए उसका मान 4 अंष 14 कला 15 विकला दिया है। (21600- 27ग 790/ 35 त्र 4 अंष 14 कला 15 विकला)। नारद ने इस पद्धति के अनुसार अर्ध भोग नक्षत्रों का कालात्मक मान 15 मुहूर्त, अर्थात 30 घटी, सम भोग वाले नक्षत्रों का मान 30 मुहूर्त तथा अध्यर्ध नक्षत्रों का कलात्मक मान 45 मुहूर्त लिखा है। यदि नक्षत्रों के मध्य मान से गणना की जाए, तो यह गणित ठीक आता है। नक्षत्रों के सम, मध्य तथा अध्यर्ध मान आज भी प्रचलित हैं। राजनैतिक तथा व्यापारिक भविष्यवाणियों में सूर्य संक्रांति का विषेष महत्व होता है। सूर्य संक्रांति जिस नक्षत्र में हो, उसी के आधार पर 15, 30, या 45 घटी की संक्राति मानी जाती है। इसी के आधार पर सुभि़क्ष, अथवा दुर्भिक्ष का निर्णय होता है। इसका मूल यही पद्धति है। ऐसा प्रतीत होता है कि नक्षत्रों के तारों का अंतर समान न होने के कारण ही नक्षत्रों के भोग काल में अंतर की धारणा प्रचलित हुई होगी। उनमे से कुछ नक्षत्रों के नाम उनके षुभाषुभ फल के अनुसार ही पड़ गये। उदाहरण के लिये ज्येष्ठ, अथवा वरिष्ठ को मारने वाली ज्येष्ठघ्नी, जिसमें सैकड़ों चिकित्सकों की सहायता ली जाए, वह षतभिषक, या षतभिषा, जिसका फल रुदन हो वह रेवती आदि। यह फल वषिष्ठ संहिता के आधार पर है, जिस में कहा गया है: षतभिषजि भैषज्यं कारयेत्. पौषणधिण्ये मासैकं रोगपीड़नम्’ भारतीय पुराणों तथा धर्म गं्रथों में स्थान स्थान पर दी गयी कथाएं उस समय की खगोलीय स्थिति का वर्णन है, इसे एक बार नहीं कई बार सिद्ध किया जा चुका है। महाभारत में वर्णित ययाति, अर्जुन आदि के सदेह स्वर्ग गमन के प्रंसंग इसी प्रकार के हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में रोहिणी, मृग तथा मृग व्याध की कथा, रोहिणी प्रजापति की कथा इन तथ्यों की पुष्टि करती है। भारत में नक्षत्र ज्योतिष के अत्याधिक प्रचार तथा प्रसार से प्रायः ही यह माना जाता है कि भारतीय ज्योतिष में राषियों का प्रभाव वराह मिहिर के समय से आया। प्रायः ही इस मत की पुष्टि के लिए महाभारत का उदाहरण दिया जाता है, क्योंकि महाभारत में ज्योतिष की चर्चा अनेक स्थानों पर है। युगों का उल्लेख महाभारत में है। वर्ष के बारह मास, अधिमास, दक्षिणायण ,उत्तरायण का वर्णन भी महाभारत में मिलता है। ग्रहण का उल्लेख मिलता है। ग्रहण पूर्णिमा - अमावस्या को होता है, इसका भी वर्णन मिलता है। यदि नहीं मिलता तो सप्ताह के दिनों का उल्लेख नहीं मिलता। योग, करण, राषियों के नाम नहीं मिलते। तिथियों तथा पर्व की गणना सूर्य एवं चंद्र की स्थिति के अनुसार की जाने के प्रमाण मिलते हैं। इस आधार को ले कर विद्वानों का मत है कि वराह मिहिर ने यवनो के प्रभाव से भारतीय ज्योतिष में राषियों का समावेष किया। उक्त वक्तव्य के प्रमाण में बृहज्जातक अध्याय 1 के ष्लोक 8 का सदंर्भ लिया जाता है, जिसमें राषियों के यवन नामों का उल्लेख है। हमारे मतानुसार यह मंतव्य निराधार है। संस्कृत के आदि कवि वाल्मिकी की रचना ‘ रामायण’ का काल महाभारत पूर्व का है। वाल्मिकी रामायण बाल कांड सर्ग 18 के ष्लोक 8-10 में भगवान श्री राम के जन्म समय की ग्रह स्थिति का वर्णन करते हुए स्पष्ट रूप से कर्क लग्न के विषय में कहा है ‘ग्रहेषु कर्कटके लग्ने’। अतः निर्विवादित रुप से भारत में प्राचीन काल से ही राषियों का प्रचलन सिद्ध होता है। राषियों से नक्षत्रों के मान सूक्ष्म हैं। अतः आर्ष ऋषियों ने नक्षत्रों पर आधारित ज्योतिष को राषि ज्योतिष से अधिक महत्वपूर्ण माना। यही तथ्य पुराणों तथा संहिताओं में परिलक्षित होता है।

मानव जीवन में ज्योतिष शास्त्र का प्रभाव

ज्योतिष शास्त्र का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर ने प्रत्येक मानव की आयु की रचना उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार की है, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता विशेषरूप से मनुष्य के जीवन की निम्नांकित तीन घटनाओं को कोई नहीं बदल सकता: 1. जन्म 2. विवाह 3. मृत्यु। ज्योतिष विद्या इन्हीं तीनों पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है, यद्यपि इन तीनों के अतिरिक्त जीवन से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बिदुओं से भी संबंधित है। कारण है कि यह एक ब्रह्म विद्या है। ज्योतिष शास्त्र को वेद के नेत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। यह भारतीय ऋषि-महर्षियों के त्याग, तपस्या एवं बुद्धि की देन है। इसका गणित-भाग विश्व-मानव मस्तिष्क की वैज्ञानिक प्राप्ति का मूल है तथा फलित भाग उसका फल-फूल। ज्योतिष अपने विविध भेदों के माध्यम से समाज की सेवा करता आया है और करता रहेगा। यह सत्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति या ज्ञान का विशेष प्रभाव समाज पर पड़ता है, उसका विरोध भी उसी स्तर पर होता है। ज्योतिष ने अपने ज्ञान के माध्यम से समाज को जितना अधिक प्रभावित किया है, उतने ही प्रखर रूप से इसकी आलोचना भी की गई। आलोचनाओं से निखर कर इसने अपने गणित-ज्ञान से विश्व को उद्घोषित किया तथा आकाश में रहने वाले ग्रहों, नक्षत्रों बिंबों तथा रश्मियों के प्रभावों का अध्ययन किया। इन प्रभावों से समाज में होने वाले परिवर्तन को देखा और समझा। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों के प्राणी पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए मनीषियों ने ब्रह्मांड रूपी भचक्र में विचरने वाले ग्रहों का कुंडली के भचक्र के रूप में साक्षात्कार कर उसके माध्यम से जन-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया, जिसे ‘फलित ज्योतिष’ की संज्ञा दी गई जो अपने आप में सत्य और विज्ञान-सम्मत है। किंतु प्रश्न यह है कि आकश में भ्रमण करने वाले ग्रहों का प्रभाव सृष्टि जड़ चेतन पर भी पड़ता है। ब्रह्मांड में अपनी रश्मियों को बिखेरने वाले ग्रह सांसारिक जीवों तथा वस्तुओं पर अपना अमिट प्रभाव डालते हैं, जिसका मूर्त रूप सागर मे उठने वाले ज्वार-भाटा का मूल कारण ‘चंद्रमा’ के प्रभाव को मानते हैं। तरल पदार्थ पर चंद्रमा का प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है। फाइलेरिया बीमारी का एक तीव्र वेग भी एकादशी से पूर्णिमा तक अधिक होता है। ज्योतिष चंद्रमा को रुधिर का कारक मानता है। चं्रदमा जल में अपना प्रभाव डालकर जिस तरह उसमें उथल-पुथल मचाता है, उसी तरह से शरीर रक्त प्रवाह में भी अपना प्रभाव प्रदान कर मानव को रोगी बना देता है। वनस्पतियों पर यदि ध्यान दिया जाय तो चंद्रोदय होते ही कुमदिनी पुष्पित होती ह तथा कमल संकुंचित। सूर्योदय होने पर कमल प्रस्फुटित तथा कुमदिनीं संकुंचित। इससे स्पष्ट होता है कि सूर्य तथा चंद्रमा का इन दोनों पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। ‘उद्मिज्जज्ञ सरलिनोंस’ ने अपनी पुष्पवाटिका में फूलों की ऐसी पंक्ति बैठा ली थी, जो बारी-बारी से खिलकर घड़ी का कार्य करती थी। पशु-पक्षियों पर भी ग्रहों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टि गोचर होता है। उदाहरणार्थ बिल्ली की आंख की पुतली, चंद्रमा की कलानुसार घटती-बढ़ती रहती है। कुत्तों की काम वासना आश्विन-कार्तिक में जागृत होती है। अनेक पशु-पक्षी पर ग्रहों, तारों का प्रभाव अदृश्य रूप से पड़ता है, जो उनके क्रिया कलापों से उद्भाषित हो जाता है। पक्षियों की वाणी से घटनाओं की पूर्व सूचना हो जाती है। आदिवासी लोग बहुत कुछ इसी पर निर्भर रहते हैं। ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने अपनी अन्वेषणात्मक बुद्धि से ग्रहों के पड़ने वाले प्रभावों को पूर्ण रूप से परखा तथा उसके विषय में समाज को उचित मार्ग-दर्शन प्रदान किया। आज इस बात की आवश्यकता है कि हम इस शास्त्र के ज्ञान को सही सरल और सुबोध बनाकर मानव-समाज के समक्ष प्रस्तुत करें। शास्त्र वर्णित नियमानुसार यदि फलादेश किया जाए, जो प्रत्यक्ष रूप से घटित हो, तो इस शास्त्र को विज्ञान कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। फलादेश की प्रक्रिया: फलित ज्योतिष के विस्तार एवं विधाओं को देखने से ज्ञात होता है कि महर्षियों ने अपनी-अपनी सूझ-बूझ से अन्वेषण किया। परिणामतः उनके भेद-उपभेद होते चले गये। अतएव इसमें जातक, तांत्रिक, संहिता, केरल, समुद्रिक, अंक, मुहूर्त, रमल, शकुन, स्वर इत्यादि उपभेदों में भी अनेक सिद्धांतों का प्रचलन हुआ। मात्र जातक को ही लिया जाये, तो उसमें भी अनेक सिद्धांत प्रचलित हुए जिनमें केशव और पराशर को मूर्धन्य माना गया है। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों की मौलिक प्रकृति, गुणतत्व-दोष कारक तत्व इत्यादि में लगभग सभी का मतैक्य है, परंतु फलकथन की विधि, दृष्टि, योग और दशादि के विचार में सबमें मतांतर है। ज्योतिषशास्त्र में महर्षि पराशर ने ग्रहों के शुभा-शुभत्व के निर्णय का वैज्ञानिक दृष्टि से फलादेश करने की विधियों, राजयोग, सुदर्शन पद्धति, दृष्टि तथा विश्लेषण किया है, उतना ‘अन्यत्र’ नहीं है। उन्होंने ग्रहों के अधिकाधिक शुभाशुभत्व का अलग से निर्णय किया है। ‘राजयोग’ के बारे में भी उनका विचार स्वतंत्र तथा सुलझा हुआ है। यद्यपि वराहमिहिर आदि आचार्यों ने भी इस पर अपना प्रभाव कम नहीं डाला है, फिर भी पराशर के विचार की तुलना में इनका विचार गौण है। अतः समीक्षकों ने ‘फलौ पराशरी स्मृति’ तक कह दिया है। पराशर के अनुसार ग्रहों के फल दो प्रकार के होते हैं। 1. अदृढ़ कर्मज 2. दृढ़ कर्मज अदृढ कर्मज फल गोचर ग्रह कृति है, जो शांत्यादि अनुष्ठान से परिवर्तनशील होता है। परंतु दृढ़ कर्मज फल ग्रह की दशा, भाव आदि से उत्पन्न होता है, जो अमिट होता है। अतः आधुनिक ज्योतिषियों के द्वारा अभिव्यक्त गोचर फल स्थायित्व से रहित होता है। जब तक गोचर का ग्रह प्रबल योग कारक रहता है, तब तक शुभ फल की प्राप्ति होती है। जब प्रतिकूल हो जाता है, तब उस फल का भी विनाश हो जताा है। हां, यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि नक्षत्र दशा का फल नहीं मिलता है। 

जीवन में रुकावट हो तो क्या करें

आप भी जानते हैं, कि संसार का हर एक जीव अपने परिवार तथा आस पास के लोगों से बहुत प्यार करता है और हर किसी के मन मंे प्यार और सम्मान पाने की बहुत चाह होती है। लेकिन आज-कल परिवार में छोटी-छोटी बातों को लेकर क्लेश होना और फिर उसके कारण उस क्लेश का विकराल रूप होने में देर नहीं लगती है। हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, कि ये उसी कारण ऐसा हुआ है, अगर वो ऐसा नहीं करता तो आज ये हालात नहीं होते।
ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है, हम या आप किसी को गलत नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इन सबके लिए जिम्मेदार हमारे कर्म तो होते हैं, लेकिन सबसे बड़े जिम्मेदार हमारे ग्रह ही होते हैं। कोई भी जीव धरती पर बुरा नहीं है, आइये अब कैसे इसे ठीक करें, जिससे कि हम हमारे प्यार करने वाले अनमोल परिवार से किसी भी तरह दूर न हों।
सबसे पहले क्या करें:
हमारे घर में छोटी-मोटी जरूरतों के लिए कीलें, बिना ताले की चाभियां, जंग लगा हुआ लोहा, बरसात की भीगी लकड़ी, कबाड़ के और भी जो रूप होते हैं, पड़े हुये मिल जाते हंै, उन्हें बाहर निकालें।
छत पर भी कोई कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि नहीं होना चाहिए, घर की छत बिस्तर के सुख वाले ग्रह से संबन्धित माना गया है।
घर में मूर्ति लगाकर, ज्योत जलाकर पूजा पाठ न करें, मंदिर में जाकर आप दोनों प्रकार से पूजा कर सकते हैं, सिर्फ आपको घर में मना किया जा रहा है।
सुबह जल्दी उठकर घर में साफ-सफाई करके पूरे घर में अच्छी लेकिन हल्की खूशबू वाली अगरबत्ती या धूप जला दें, जिससे कि परिवार में सभी लोगों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो सके।
गंदे-फटे बिस्तरों का प्रयोग न करें, हर सप्ताह में एक बार बिस्तरों के लिहाफ आदि बदल दें।
पति-पत्नी दिन के समय कभी भी एक न हों।
घर में नीले-काले रंग के पेंट आदि न करवाएँ और पर्दे आदि भी इस रंग के प्रयोग न करें।
घर के पूर्वी और उत्तर दिशा को हमेशा साफ रखें, इस दिशा में कभी भी कबाड़ या भारी सामान न रखें।
रोजाना घर की सबसे पहली रोटी में से कुत्ते, कौवे और गाय को हिस्सा जरूर दें, अगर रोटी मंे से न दे पाएँ तो अपने भोजन में से इनके लिए हिस्से अवश्य निकालें, ये कार्य करने से आपके सहकर्मी और आपके बड़े अधिकारी आपसे खुश रहेंगे तथा जीवनसाथी का सुख भी अच्छा मिलेगा।
घरेलू सुख-शांति के लिए ऐसा करें-
चाँदी के बड़े से बर्तन में गंगाजल भरकर चाँदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर घर में रखें, गंगाजल कभी सूखने न दें।
हर सप्ताह कम से कम एक बार गायों की सेवा जरूर करें, और संभव हो सके तो गली मंे साफ-सफाई करने वाले को भरपेट शाकाहारी भोजन अपने घर पर ही करवाएँ ।
जीवनसाथी के प्रति वफादारी कभी भी कम न करें।
तला हुआ खाना कम से कम बनाएँ, नारियल, बादाम तलने भुनने से बचें।
शौचालय, स्नानागार आदि बिल्कुल साफ सुथरे रखें, इनमें भी हल्की खूशबू का हमेशा प्रबंध रखें।
रात के समय जूठे बर्तन और गंदे कपड़े भिगोकर न सोएँ, अन्यथा आपके परिवार में एकता कभी नहीं बनेगी, और घर के सभी लोग अपनी- अपनी इच्छा का दबाव बनाकर सब कुछ नष्ट कर देंगे।
जो लोग दिन में मांसाहारी भोजन और शराब का सेवन करते हैं तो वो इसका सेवन सिर्फ रात को ही करें।
बीमारियाँ दूर न होती हों तो क्या करें ?-
हर महीने के किसी भी एक मंगलवार को पूरे महीने में आए रिश्तेदारों और घर के सदस्यों को जोड़ें। उनमंे चार और फालतू जोड़ लें तो जितनी भी संख्या हो उतनी ही आटे मंे गुड़ मिलाकर रोटियाँ तंदूर में लगवाकर कुत्तों और कौवों को डालें, लेकिन ध्यान रहे कि रोटियों मे लोहे का प्रयोग न हो।
हर रोज रात को सिरहाने दो-चार रुपए सिक्के के रूप में रखकर सोयंे और सुबह उठाकर सफाई-कर्मचारी को दे दें।
घर के नौकर-चाकर और साथ में काम करने वालों को खुश रखें, उनसे झगड़ा और बहस कभी न करें।
रोजाना सुबह जल्दी उठकर सूर्य की रोशनी से स्नान करें।
Pt.P.S.Tripathi
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मूर्तिकला का अनूठा केंद्र: मल्हार

मल्हार नगर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में अक्षांक्ष 21०-90० उत्तर तथा देशांतर 82०-20० पूर्व में 32 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बिलासपूर से रायगढ़ जाने वाली सडक़ पर 18किलोमिटर दूर मस्तूरी है। वहां से मल्हार, 14 कि. मी. दूर है। कोशाम्बी से दक्षिण-पूर्वी समुद्र तट की ओर जाने वाला प्राचीन मार्ग भरहुत, बांधवगढ़, अमरकंटक, खरौद, मल्हार तथा सिरपुर ( जिला रायपुर) से होकर जगन्नाथपुरी की ओर जाता था। मल्हार के उत्खनन में ईसा की दूसरी सदी की ब्राम्ही लिपी में आलेखित एक मृमुद्रा प्राप्त हुई है, जिस पर गामस कोसलीया लिखा है। कोसली या कोसला ग्राम का तादाम्म्य मल्हार से 16कि. मी. के अंतर पर उत्तार-पूर्व में स्थित कोसला ग्राम से किया जा सकता है। कोसला गांव में पुराना गए, प्रचारी तथा परिखा आज भी विद्यमान हैं, जो उसकी प्राचीनता को मौर्यों से भी पूर्व ले जाती है। वहां कुषाण शासक विमकैडफाइसिस का एक सिक्का भी मिला है।

सातवाहन वंश:- सातवाहन शासकों की गजां मुद्राण मल्हार-उत्खनान से प्राप्त हुई है। रायगढ़ जिले से एक सातवाहन शासक आपीलक का सिक्का प्राप्त हुआ था। वेदिश्री के नाम की मृणमुद्रा मलहार प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त सातवाहन कालीन कई अभिलेख गुंजी, किसरी, कोणा मल्हार, सेमरसल, दुर्ग, आदि स् थलों से प्राप्त हुए है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र से कुषाण-शासकों के सिक्के भी मिले है। उनमें विमकैडफाइसिस तथा कनिष्ठ प्रथम के सिक्के उल्लेखनीय है। यौधेयों के भी कुछ सिक्के इस क्षेत्र मेंप्राप्त हुए हैं। मल्हार उत्खन्न से ज्ञात हुआ है कि इस क्षेत्र में सुनियोजित नगर-निर्माण का प्रारंभ सातवाहन-काल में हुआ। इस काल के ईंट से बने भवन एवं ठपपांकित मृद्भाण्ड यहाँ मिलते हैं। मल्हार के गढी क्षेत्र में राजमहल एवं अन्य संभ्रांत जनों के आवास एवं कार्यालय रहे होंगे।

शरभपुरीय राजवंश :- दक्षिण कोसल में कलचुरी-शासन के पहले दो प्रमुख राजवंशों का शासन रहा । वे हैं : शरभपुरीय तथा सोमवंशी । इन दोनों वंशो का राज्यकाल लगभग 325 से 655 ई. के बीच रखा जा सकता है। धार्मिक तथा ललित कलाओं के क्षेत्र में यहां विशेष उन्नति हुई । इस क्षेत्र में ललित कला के पाँच मुख्य केन्द्र विकसीत हुए 1 मल्हार, 2 ताला, 3 खरौद 4 सिरपुर तथा 5 राजिम।

कलचुरी वंश :- नवीं शताब्दी के उत्तारार्ध्द में त्रिपुरी के कलचुरी-शासक कोकल्लदेव प्रथम के पुत्र शंकरगण ने डाहल मंडल से कोसल पर आक्रमण किया। पाली पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने अपने छोटे भाई को तुम्माण का शासक बना दिया। कलचुरियों की यह विजय स्थयी नहीं रह पायी। चक्रवती सोमवंशी शासक अब तक काफी प्रबल हो गये थे। उन्होंने तुम्माण से कलचुरियों को निष्कासित कर दिया। लगभग ई. 1000 में कोकल्लदेव द्वितीय के 18पुत्रों में से किसी एक के पुत्र कलिंगराज ने दक्षिण कोसल पर पुन: आक्रमण किया तथा तत्कालीन परवर्ती सोमवंशी नरेशों को पराजित कर कोसल क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। कलिंगराज ने पुन: तुम्माण को कलचुरियों की राजधानी बनाया। कलिंगराज के पश्चात् कमलराज, रत्नराज प्रथम तथा पृथ्वीदेव प्रथम क्रमश: कोसल शासक हुए। मल्हार पर सर्वप्रथम कलचुरि-वंश का शासन जाजल्लदेव प्रथम के समय में स्थापित हुआ। पृथ्वीदेव द्वितीय के राजकाल में मल्हार पर कलचुरियों का मांडलिक शासक ब्रम्हादेव था। पृथ्वीदेव के पश्चात् उसके पुत्र जाजल्लदेव द्वितीया के समय में सोमराज नामक ब्राम्हण ने मल्हार में प्रसिद्व केदारेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर अब पातालेश्वर मंदिर के नाम प्रसिध्द है।

मराठा शासन :- कलचुरी वंश का अंतिम शासक रघुनाथ सिंह था। ई. 1742 में नागपुर का रघुजी भोंसले अपने से सेनापति भास्कर पंत के नेतृत्व मे उडीसा तथा बंगाल पर विजय हेतु छत्तीसगढ़ से गुजरा। उसने रतनपुर पर आक्रमण किया तथा उस पर विजय प्राप्त कर ली । इस प्रकार छत्तीसगढ़ से हैह्यवंशी कलचुरियों का शासन लगभग सात शताब्दियों पश्चात समाप्त हो गया।

कला :- उत्तार भारत से दक्षिण-पूर्व की ओर जाने वाले प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के कारण मल्हार का महत्व बढ़ा । यह नगर धीरे -धीरे विकसित हुआ तथा वहाँ शैव, वैष्णव वजैन धर्मावलंबियों के मंदिरों, मठों व मूर्तियों का निर्माण बडत्रे स्तर पर हुआ । मल्हार में चतुर्भुज विष्णु की एक अद्वितीय प्रतिलिपी मिली है। उस पर मौर्यकालीन ब्राम्हीलीपि लेख अंकित है। इसका निर्माण -समय लगभग ई. पूर्व 200 है। मल्हार तथा उसके समीपतवर्ती क्षेत्र से विशेषत: शैव मंदिर के अवशेष मिले जिनसे इय क्षेत्र में शैव, कार्तिकेय, गणेश, स्क माता, अर्धनारिश्वर आदि की उल्लेखनीय मूर्तियां यहां प्राप्त हुई है। एक शिलापटट पर कच्छप जातक की कथा अंकित है। शिला पटट पर सूखे तालाब से एक कछुए को उडाकश जलाशय की और ले जाते हुए दो हंस बने है। दूसरी कथा उलूक-जातक की है। इसमें उल्लू को पक्षियों का राजा बनाने के लिए उसे सिंहासन पर बिठाया गया है।
सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य विकसित मल्हार की मूर्तिकला में गुप्तयुगीन विशेषताएं स्पष्ट पारिलक्षित है। मल्हार में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। बुध्द, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज आदि अनेक बौध्द देवों की प्रतिमाएं मल्हार में मिली है। उत्खनन में बौध्द स्मारकों तथा प्रतिमाओं का निर्माण इस काल की विशेषता है। बुध्द, बोधिसत्व, तारा, मंजुश्री, हेवज आदि अनेक बौध्द देवों की प्रतिमाएं मल्हार में मिली हैं। उत्खन्न में बौध्द देवता हेवज का मदिर मिला है। इससे ज्ञात होता है कि ईसवी छठवीं सदी के पश्चात यहाँ तांत्रिक बौध्द धर्म का विकास हुआ। जैन तीर्थंकारों, यक्ष-यक्षिणियों, विशेषत: अंबिका की प्रतिमांए भी यहां मिली हैं।
     दसवीं से तेरहवीं सदी तक के समय में मल्हार में विशेष रूप् से शिव-मंदिरों का निर्माण हुआ । इनमें कलचुरी संवत् 919 में निमर्ति केदारेश्वर मंदिर सर्वाधिक महत्तवपूर्ण है। इस मंदिर का निर्माण सोमराज नामक एक ब्राम्हण द्वारा कराया गया । धूर्जटि महादेव का अन्य मंदिर कलचुरि नरेश पृथ्वीदेव द्वितीय के शासन-काल में उसके सामंत ब्रम्हदेव द्वारा कलचुरी सवत 915 में बनवाया गया। इस काल में शिव, गणेश, कार्तिकेय, विष्णू, लक्ष्मी, सूर्य तथा दुर्गा की प्रतिमाएं विशेष रूप से निर्मित की गयी। कलचुरी शासकों, उनकी रानियों आचार्यो तथा गणमान्य दाताओं की प्रतिमाओं का निर्माण उल्लेखनीय हे। मल्हार में ये प्रतिमांए प्राय: काले ग्रेनाइट पत्थर या लाल बलुए पत्थर की बनायी गयी। स्थानीय सफेद पत्थर की बनायी गयी। स्थानीय सफेद पत्थर और हलके-पीले रंग के चूना - पत्थर का प्रयोग भी मूर्ति-निर्माण हेतु किया गया।

उत्खनन :- विगत वर्षो में हुए उत्खननों से मल्हार की संस्कृति का क्रम इस प्रकार उभरा है।
* प्रथम काल ईसा पूर्व लगभग 1000 से मौर्य काल के पूर्व तक।
* द्वितीय काल - मौर्य -सातवाहन-कुषाध काल (ई. पू 325 से ई. 300 तक)
* तृतीय का - शरभपुरीय तथा सोमवंशी काल (ई. 300 से ई. 650 तक )
* चतुर्थ काल- परवर्ती सोमवंशी काल (ई. 650 से ई. 900 तक )
* पंचम काल - कलचुरि काल (ई. 900 से ई. 1300 तक )

 कैसे पहुंचे -
वायु मार्ग - रायपुर ( 148कि. मी. ) निकटतम हवाई अडडा है जो मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापटनम एवं चैन्नई से जुडा हुआ है।
रेल मार्ग - हावडा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर बिलासपुर ( 32 कि. मी ) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सडक़ मार्ग -  बिलासपुर शहर से निजी वाहन अथवा नियमित परिवहन बसों द्वारा मस्तूरी होकर मल्हार तक सडक़ मार्ग से यात्रा की जा सकती है।
आवास व्यवस्था - मल्हार में लोक निर्माण विभाग का दो कमरों से युक्त विश्राम गुह है। बिलासपुर का दो कमरों से युक्त विश्राम गुह है। बिलासपूर नगर में आधुनिक सुविधाओं से युक्त अनेक होटल ठहरने के लिये उपलब्ध हैं।

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Sunday 27 December 2015

वास्तुशास्त्र में दर्पण का महत्व

वास्तुशास्त्र में दर्पण को उत्प्रेरक बताया गया है, जिसके द्वारा भवन में तरंगित ऊर्जा की सृष्टि सुखद अहसास कराती है। इसके उचित उपयोग द्वारा हम अनेक लाभजनक उपलब्धियां अर्जित कर सकते हैं। कैसे, आइए जानें-
* भवन के पूर्व और उत्तर दिशा व ईशान कोण में दर्पण की उपस्थिति लाभदायक है।
* भवन में छोटी और संकुचित जगह पर दर्पण रखना चमत्कारी प्रभाव पैदा करता है।
* दर्पण कहीं भी लगा हो, उसमें शुभ वस्तुओं का प्रतिबिंब होना चाहिए।
* दर्पण को खिडक़ी या दरवाजे की ओर देखता हुआ न लगाएं।
* आपका ड्राइंग रूम छोटा हो तो चारों दीवारों पर दर्पण के टाइल्स लगाएं, लगेगा नहीं कि आप अतिथियों के साथ छोटे कमरे में बैठे हैं।
* कमरे में दीवारों पर आमने-सामने दर्पण लगाने से घर के सदस्यों में बेचैनी और उलझन होती है।
* दर्पण को मनमाने आकार में कटवाकर उपयोग में न लाएं।
* मकान का कोई हिस्सा असामान्य शेप का या अंधकारयुक्त हो वहां गोल दर्पण रखें।
* यदि घर के बाहर इलेक्ट्रिकल पोल, ऊंची इमारतें, अवांछित पेड़ या नुकीले उभार हैं और आप उनका दबाव महसूस कर रहे हैं तो उनकी तरफ उत्तल दर्पण रखें।
* किसी भी दीवार में आईना लगाते वक्त इस बात का ध्यान रखें कि वह न एकदम नीचे हो और न अधिक ऊपर। अन्यथा परिवार के सदस्यों को सिरदर्द हो सकता है।
* यदि बेडरूम में ठीक बिस्तर के सामने दर्पण लगा रखा हो उसे फौरन हटा दें। यहां दर्पण की उपस्थिति वैवाहिक और पारस्परिक प्रेम को तबाह कर सकती है।
* मकान के ईशान कोण में उत्तर या पूर्व की दीवार पर स्थित वॉशबेसिन के ऊपर दर्पण भी लगाएं। यह शुभ फलदायक है।
* यदि आपके घर के दरवाजे तक सीधी सडक़ आने के कारण द्वार वेध हो रहा है और दरवाजा हटाना संभव नहीं है तो दरवाजे पर छुपा हुआ दर्पण लगा दें। यह शक्तिशाली प्रतीक है। अत: इसे लगाने में सावधानी रखना चाहिए। इसे किसी पड़ोसी के घर की ओर केंद्रित करके न लगाएं।
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दिसंबर माह का अंक असर



धनु राशि 24 नवम्बर से प्रारम्भ होती है। सात दिन तक पूर्व राशि वृश्चिक के साथ इसका संधिकाल चलता है जिससे यह 28दिसंबर को ही पूर्ण प्रभाव में आ पाती हैं। इसके बाद 20 दिसम्बर तक इसका पूरा प्रभाव रहता है। उसके बाद आगामी राशि मकर के साथ सवि-काल प्रारम्भ हो जाने से सात दिन तक इसके प्रभाव से उत्तरोत्तर कमी होती जाती है। इस अवधि में, अर्थात् 24 नवम्बर से 20-27 दिसम्बर तक पैदा होने वाले व्यक्तियोंमें इस राशि के प्रतीक घनुर्धारी के गुण मिलते हैं। वे अपने काम में सीधा लक्ष्यबेघ करते है। वे स्पष्ट बोलने वाले और मुँह फट होते हैं जिससे प्राय जानी दुश्मन पाल लेते हैं। वे अपना सारा ध्यान उस क्षण कर रहे काम पर केद्रित रखते हैं और जब तक पूरे प्रयास कर थक नहीं जाते, किसी दूसरी ओर निगाह भी नहीं करते हैं।उनके मस्तिष्क में इतनी शीघ्रता से विचार कौंधते है कि वे प्राय दूसरों के वार्तालाप मेंबीच में टपक पड़ते हैं और धीरे या रुककर बोलने वालों के प्रति अधीरता प्रकट करते हैं। एकदम सत्यवादी होने से वे दूसरों को छलने के प्रवासी का भंडाफोड़ कर देते हैं, भले ही उनका यह कार्य अपने हितों के विरुद्ध हो। वे अपने काम में तब तक विश्राम नहीं लेते जब तक थककर चूर चूर नहीं हो जाते अथवा काम करते हुए मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाते। व्यापार या अन्य किसी कार्य में वे भारी उद्यनी होते हैं लेकिन अपने को कभी एक कामसे बँधा महसूस नहीं करते। अत: वे तेजी से अपने बिचार बदलते रहते हैं। राजनीतिज्ञ केरूप वे अपनी नीतियों में अनेक बार परिवर्तन करेंगे। धर्म प्रचारक के रूप में वे घर्म के बारे में अपने विचार बदल सकते हैं। वैज्ञानिक प्राय: अपना धंधा छोडक़र किसी उद्योग को अपना सकते हैं। उनसे अति तक जाने की प्रवृत्ति होती है। तत्काल निर्णय ले लेते हैं जिसके लिए बाद में पछता भी सकते हैं, लेकिन अभिमानी इतने होते हैं कि अपनी गलतियों को स्वीकार नहीं करते। अधिकार से प्रेम उनका प्रमुख गुण होता हैं। यदि वे महसूस करे कि अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकते तो बीच में ही रुक जाते है। अपनी महत्वाकांक्षा को तिलांजलि दे एकदम नया काम शुरू कर देते हैं अथवा फिर जीवन भर कुछ नहीं करते। इस राशि के नर-नारी प्राय भावुकता के क्षण में विवाह करते हैं और फिर बाद में पछताते हैं। लेकिन अभिमान के कारण अपनी गलती स्वीकार नहीं करते और लोग प्राय: उनके वैवाहिक सुख को आदर्श समझ बैठते हैं। वे कानून और व्यवस्था के पक्के समर्थक होते हैं। पूजा-स्थल पर नियमित रूप से जाते हैं, दूसरों के लाभ के लिए अपना उदाहरण प्रस्तुत करने के दिवार से अधिक, स्वय धार्मिक वृति के होने के कारण कम वे प्राय: भारी लोकप्रियता प्राप्त करते हैं, ‘‘जन आदर्श’’ बन जाते हैं और उन पर यश तथा पद थोप दिए जाते हैं। इस राशि में महिलाएँ पुरुषों से अधिक उदत्त होती है। अपने पति और बच्चे की सफलता के लिए जितना कर सकती हैं, करती हैं और आत्म-त्याग को तैयार रहती हैं। घर से उन्हें गहरा प्रेम होता है तथा विवाह सुखी न होने पर भी वे इस आटे के सौदे सेअधिक-से-अधिक लाभ प्राप्त करने का प्रयास करती हैं। उनमें सम्मान और कर्तव्य के प्रति ऊँची समझ होती है, लेकिन जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत स्वतन्त्र होता है। इस अवधि में जन्मे लोग स्नायुओं के तीव्र रोगों से पीडित हो सकते हैं। आयु बढऩे परवे टाँगों के दर्द से परेशान हो सकते हैं। यदि महीने के उत्तरार्द्ध से पैदा हुए हो तो पावों केकिसी पक्षाघात के भी शिकार हो सकते हैं। नाक का रोग भी हो सकता है। जन्म-काल पर धनु में सूर्य की स्थिति से स्वभाव पर गुरु का जो प्रभाव पड़ता है वह प्रवृत्ति को कुछ दुरंगी बनाता है। ये लोग एक पल में संवेदनशील, दूसरों के बहकावे में आने वाले और शान्त हो सकते हैं, दूसरे ही क्षण वे पूर्ण, आवेशों और दुस्साहसी हो सकते हैं। सत्य, शांति और न्याय के पक्षधर होने के कारण उनका सच्चा धंधा पीडितों की सेवाहै। सताये हुए और दबाए हुए लोगों के साथ उनकी प्रबल सहानुभूति होती है। कभी-न-कभी वे किसी मानवीय या सुधार कार्य में अपना अच्छा देते हैं। उनमें परिहास की गहरी समझ होती है और तर्क करना पसन्द करते हैं। वस्तुत: वे मित्रों में वादविवाद की असाधारण कुशलता के लिए जाने जाते हैं। खुली हवा और घर से बाहर आमोद-प्रमोद के शौकीन होने के कारण वे जंगली, ऊबड़-खाबड़ पर्वतीय प्रदेश की खोज करते या यहाँ विचरण करते अपने स्वाभाविक रूप में होते हैं। वे स्पष्ट खुले दिलवाले और बहुत उदार होते हैं। उनका व्यवहार आम तौर पर विनम्र होता है लेकिन जब अपनी पर उतर आएं तो रूखे और उग्र हो जाते हैं। उनमें उच्चकोटि का पूर्वज्ञान रहता है और गुप्त ज्ञान तथा मन विषयक मामलों में अभिरुचि प्रदर्शित करते हैं।
स्वास्थ्य:
स्वास्थ्य को एकमात्र खतरा मन और शरीर से सीमा से अधिक काम लेने से है। उनके हाथ में इतनी योजनाएं-परियोजनाएँ रहती हैं कि सभी पर ठीक से ध्यान दे पाना सम्भव नहीं होता। फलस्वरूप शक्ति के अपव्यय से जीवनी शक्ति का निरंतर हास होता रहता है। वे गर्मी-सर्दी के बारे में भी लापरवाह रहते है जिससे तीव्र बस्काइटिस के शिकार हो जाते हैं, लेकिन फिर जल्दी ठीक भी हो जाते हैं। आम तौर से रक्त और जिगर की बीमारियों होंगी। रक्त शुद्ध रखना चाहिए, मादक द्रव्यों से बचना चाहिए और सफाई से रहना चाहिए। दिमाग को अधिक आराम देना चाहिए और शरीर को अधिक-से-अधिक ढीला छोडऩे का अभ्यास करना चाहिए।
आर्थिक दशा दिमागी काम से धन कमाने की संभावना सबसे अधिक है। उनमें विचारों को काफी मौलिकता होती है। अपने पूर्व ज्ञान से काम लेना चाहिए। साझेदारों और सहयोगियों से मिलकर शायद ही ठीक से काम कर पाएँ। फिर भी कर्मचारियों, नौकरों और अधीनस्थों का काफी प्रेम मिलता है। उन्हें प्राय: विरासत और उपहारों से लाभ होता है लेकिन आम तौर से अधिक सम्पति नहीं जोड़ पाते। यदि जोड़ ले तो बुढ़ापे में किसी रहस्यमय कारण से हड़पी जा सकती है या कम-से-कम उसमें काफी कमी आ सकती है।
विवाह, संबंध, साझेदारी आदि:
इस अवधि में जन्मे लोगों के सबसे अधिक हार्दिक सम्बन्ध अपनी निजी राशी धनु (21नवम्बर से 19 दिसम्बर), अग्नि-त्रिकोण की अन्य दो राशियों सिंह (21 जुलाई से 20अगस्त)तथा मेष (21 मार्च से 19 अप्रेल), तथा इनके पीछे के सात दिनों के संधि-काल में जन्मे व्यक्तियों के साथ रहेंगे। सातवी राशि मिथुन (21 मई से 20-27 जून) के दौरान जन्मे लोगों का भी उन पर काफी प्रभाव पड़ेगा।
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दिसंबर 2015 माह में मीन राशि

आप सिद्धांतों के अनुयायी रूढि़वादी हैं, तो आप धार्मिक रिवाजों और प्रथाओं के पालन में अंधविश्वासी, कठोर भी हो सकते हैं। इस बात पर आपके परिवार विशेषकर आपके बच्चो से मतभेद संभव।
परिवार: पारिवारिक मामलों के लिए यह माह अच्छा नहीं कहा जाएगा इसलिए घर परिवार से जुड़े मामलों को निबटाने में बडी सतर्कता बरतें। आपके मित्र और परिवार के लोगों के बर्ताव में भी आप कुछ अंतर महसूस करेंगे। इन तमाम कारणों से आप मानसिक रूप से कष्ट का अनुभव करेंगे।
स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के लिहाज से माह को अनुकूल नहीं कहा जाएगा। यद्यपि बीमारी या रोग छोटे ही होंगे लेकिन परेशानी अक्सर बनी रह सकती है। रक्त और त्वचा से संबंधित रोगों के पनपने की संभावना है। शरीर की गर्मी के कारण आप एलर्जी से पीडित हो सकते हैं।
कार्यक्षेत्र: कार्यक्षेत्र से सम्बंधित कुछ न कुछ परेशानियां आपको सदैव घेरे रहेंगी। इन तमाम कारणों के चलते इस अवधि में किसी नए काम के बारे में सोचना या नए काम की शुरुआत करना जोखिम भरा काम होगा। आप स्वयं में आत्मविश्वास की कमी का अनुभव करेंगे।
धन: इस माह की शुरुआत में आपकी आमदनी प्रभावित रहेगी। इस कारण आर्थिक स्थिति कमजोर रहेगी। यदि आप जुआ, लाटरी आदि के माध्यम से कमाई करते हैं तो इनमें बड़ा निवेश करने से बचें।
विद्या: इस माह का प्रथम भाग आपकी शिक्षा के लिए अनुकूल नहीं है। आप अपनी विषय वस्तु पर पूरी तरह से ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाएंगे, जिससे परिणाम खराब आयेगा। लेकिन माह का दूसरा भाग आपके लिए अनुकूल रहेगा।
उपाय:
1. अपने साथ चांदी का एक टुकड़ा रखें।
2. पीली चीजों का दान करें।
३. बृहस्पति मंत्र ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम: का जप करें।

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दिसंबर 2015 माह में मकर राशि

सामन्यत: आप स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेते हैं। आप परिश्रमी व्यक्ति हैं लेकिन कुछ मामलों में आप बातूनी भी हैं, जिसके कारण आपकी कोई योजना समय से पूर्व गोपनीयता खो सकती है। अपने जीवन साथी के साथ समायोजन करने में आपको बडी मेहनत करनी पडती है।
परिवार: तीसरे भाव में केतु का गोचर आपके घरेलू और पारिवारिक जीवन के लिए ठीक नहीं है। इसलिए घर परिवार के लोगों से कुछ वैचारिक मतभेद रह सकता है। छोटी छोटी बातों पर झगड़ें और विवाद हो सकते हैं।
स्वास्थ्य: कुछ मौसम जनित बीमारियों को छोडकर कोई विशेष बीमारी होने के योग नहीं हैं। लेकिन जीवन साथी का स्वास्थ्य आपको मानसिक रूप से चिन्तित रख सकता है। कुल मिलाकर इस माह में आपको स्वास्थ्य को लेकर चिंता करने जैसी स्थिति नहीं हैं।
कार्यक्षेत्र: आपके कार्यक्षेत्र के लिए यह माह अनुकूल रहेगा। इस अवधि में आप सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त करेंगे। व्यापार/व्यवसाय में लाभ प्राप्त कर सकेंगे। नौकरी पेशा लोगों के लिए समय कम ठीक है।
धन: यदि आपके पास कोई पुराना कर्ज है तो आप इस माह उससे छुटकारा पा सकते हैं। व्यापार-व्यवसाय के माध्यम से अच्छा लाभ प्राप्त कर पाएंगे। लेकिन जमीन जायदाद के मामलों में बहुत ही सावधानी से निवेश करें।
विद्या: आप इस माह बुद्धिजीवियों की संगति में रहेंगे और अपने अध्ययन से जुड़े मामलों में सही निर्णय लेंगे। इस काम में आपके सहपाठी भी आपका सहयोग करेंगे। अध्यापको/प्राध्यापकों के साथ आपके संबंध मजबूत होंगे। अत: चिंताओं से दूरी बनाए रखना जरूरी होगा।
उपाय:
1. प्रतिदिन माता के मंदिर जाएं।
2. सूक्ष्म जीवों की सेवा करें।
3. मन की शांति के लिए सेवा करें।
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दिसंबर 2015 माह में धनु राशि

धनु राशि वाले इस माह कुछ हद तक आलसी या सुस्त भी हो सकते हैं। इसका प्रभाव आपके कार्यक्षेत्र पर पड सकता है।
परिवार: पारिवारिक मामलों में माह का पूर्वान्ह मिश्रित फलदायी रहेगा। आरम्भिक महीने में पारिवारिक संबंधों में कुछ तनाव रह सकता है। परिवार के किसी सदस्य को लेकर मन में चिंता रह सकती है। मित्रों और हितैषियों से मदद मिलेगी।
स्वास्थ्य: आपका स्वास्थ्य कमजोर रह सकता है। आपको पेट की तकलीफ परेशान कर सकती है, खान-पान पर संयम रखकर इसे कुछ हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
कार्यक्षेत्र: छोटे कामों के लिये भी आपको बहुत मेहनत करनी पड़ सकती है। नौकरी के हालात बदतर होते जायेंगे। लेकिन शीघ्र ही आप इन पर नियंत्रण पा लेंगे। हर काम को संयम से करने की सलाह भी आपको दी जाती है।
धन: पैसों को लेकर आपको विशेष परेशानी नहीं होगी। शुरुआत में रुपए पैसों को लेकर आपको थोडी ज्यादा मेहनत करने पड सकती है लेकिन बाद में आपकी सारी इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं पूरी होंगी।
विद्या: यदि आप किसी भाषा विशेष को सीखने के लिए अध्ययन कर रहे हैं तो यह समय आपके उत्तम है। किसी विशेष पाठ्क्रम में प्रवेश लेने के लिए आपको घर से दूर जाकर पढाई करनी पड सकती है।
उपाय:
1. दूध और चीनी दान करें।
2. कुत्ते को मीठी रोटी दे।
3. बृहस्पति मंत्र ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरवे नम: का जप करें।

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दिसंबर 2015 माह में वृश्चिक राशि

स्वतन्त्र रुप से कार्य करने की चाह होने के कारण आप अपने कार्यो में दूसरों का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करते है। आप परम्पराओं में कम विश्वास रखते हैं। इस माह पारिवारिक वैवाहिक कार्यक्रम में सम्मिलित होना आपके लिए परेशानी का कारण होगा।
परिवार: पारिवारिक मामलों में यह माह मिलेजुले परिणाम देने वाला रहेगा। परिवार के लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति होगी। परिवार के किसी सदस्य की बीमारी की वजह से आप चिंतित रह सकते हैं।
स्वास्थ्य: माह के शुरुआत में आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। कुछ बेकार के कामों में खुद को उलझा कर आप स्वयं को थका लेंगें। अत: इससे बचने का प्रयास करें। परिवार के लोगों का स्वास्थ्य भी प्रतिकूल रह सकता है।
कार्यक्षेत्र: इस माह दसम सूर्य का गोचर लग्न में है। साथ की केतु गुरु भी अनुकूलता लिए हुए है। व्यापार या नौकरी इत्यादि के विकासशील होने की अच्छी संभावनाएं रहेंगी। आप बहु प्रतीक्षित व्यवसायिक यात्रा करेंगे। इस दौरान हर क्षेत्र से आपको सम्मान मिलेगा।
धन: यदि आपके पैसे कहीं फसे हुए हैं तो थोडे से प्रयास से वो आपको मिल जाएंगे। इन सबके बावजूद खर्चे कमाई से अधिक रह सकते हैं।
विद्या: आप दर्शन व साहित्य के विद्यार्थी हैं तो आपको विशेष सफलता मिल सकती है। किसी नए विषय में भी आपकी रुचि बढ सकती है। यदि आप किसी प्रतियोगी परीक्षा में भाग ले रहे हैं तो आपको किसी भी तरह की लापरवाही बरतना ठीक नहीं रहेगा। अन्यथा आपका अध्ययन प्रभावित हो सकता है।
उपाय:
1. चावल, शक्कर दान करें।
2. भगवान शिव की पूजा करें।
3.  मंगल मंत्र क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम: का जप करें।

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दिसंबर 2015 माह में तुला राशि

आप गहरी दूरदर्शिता के साथ यथार्थवादी और अधिक से अधिक आदर्शवादी भी हैं। इस माह आप स्वभाव से थोडे चंचल भी हो सकते हैं।
परिवार: यह माह आपके पारिवारिक मामलों से जुड़े हर मामले में बहुत सावधानी बरतने की जरूरत है। यहां तक कि मित्र और रिश्तेदार अपनी बातों से मुकर सकते हैं। आपके मन में घर-परिवार को लेकर एक असुरक्षा की भावना पनप सकती है।
स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के लिए यह माह अनुकूल नहीं है। अत: स्वास्थ्य को लेकर किसी प्रकार की लापरवाही उचित नहीं होगी। शनि का गोचर आपको शारीरिक कष्ट देने का संकेत है। शारीरिक के अलावा मानसिक कष्ट भी रह सकते हैं। दिमाग को शांति नहीं मिलेगी।
कार्यक्षेत्र: कार्यक्षेत्र में कुछ व्यवधान रह सकते हैं। यदि आप कुछ नया करने जा रहे हैं तो उस क्षेत्र से जुड़े अनुभवी लोगों की सलाह जरूर लें। व्यर्थ की यात्राओं से बचें। जोखिम उठाने के लिये यह उपयुक्त समय नहीं है।
धन: धन को लेकर निरंतरता नहीं बन पाएगी। फंसा हुआ या रुका हुआ धन प्राप्त करने में परेशानियां रह सकती हैं।
विद्या: विद्यार्थियों के लिए कडी मेहनत करने पर थोडी सफलता है। यदि आप कोई परीक्षा दे रहे हैं तो आपकी मेहनत के अनुरूप आपको परिणाम नहीं मिलेंगे। इन सबके बावजूद आशावादी होना निराशावादी होने से अच्छा है।
उपाय:
1. नौकरी और व्यवसाय में लाभ के लिए उडद दाल दान करें।
2. बहते पानी में नारियल बहाएं और माथे पर केसर का तिलक लगाएं।
3. शुक्र मंत्र द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम: का जप करें।

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दिसंबर 2015 माह में कन्या राशि

इस समय आपकी रुचि कला और साहित्य में हो सकती है। आपके व्यक्तित्व में आकर्षण का भाव है इस कारण लोग आपसे जल्द ही प्रभावित हो जाते हैं।
परिवार: यह माह पारिवारिक मामलों के लिए मिला जुला रहेगा। हालाकि आपको परिवारिक माहौल से सहारा मिलेगा। परिवार के साथ आप तीर्थाटन पर जा सकते हैं। लेकिन राहु और मंगल का गोचर अनुकूल न होने के कारण परिवारजनों की सभी अपेक्षाएं पूरी न होने के कारण घरेलू वातावरण तनावपूर्ण रह सकता है।
स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के लिहाज से माह का पूर्वान्ह अधिकांश समय अनुकूल रहेगा। इस अवधि का उपयोग आप मन को एकाग्र करने के लिए भी कर सकते हैं। इस अवधि में ऑख की पीड़ा भी हो सकती है।
कार्यक्षेत्र: कार्यक्षेत्र के लिहाज़ से यह माह मिश्रित फलदायी रहेगा। बृहस्पति की अनुकूलता आपको कई मामलों में सफल बनाएगी। आप प्रचुर सफलता और सम्मान प्राप्त करेंगे। जोखिम उठाने की प्रवृति पर भी अंकुश लगाए।
धन: धन की आमदनी की निरंतरता में कुछ व्यवधान आ सकता है। लेकिन इस माह धन प्राप्ति की संभावना है तो आप उसे प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन किसी नए काम को शुरु करने के लिए बड़ा निवेश करने से बचना जरूरी है।
विद्या: इस माह का प्रथम भाग आपकी शिक्षा के लिए पूरी तरह से अनुकूल है। लेकिन दूसरे भाग में आपको कुछ व्यवधान मिल सकते हैं। परम्परागत शिक्षार्थियों के लिए समय अनुकूल है।
उपाय:
1. दही या दूध से अभिषेक करें।
2. साईजी की पूजा करें।
3. गुरू मंत्र का जप करें।
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दिसंबर 2015 माह में सिंह राशि

इस पूरे माह आपकी भाग-दौड़ बहुत ज्यादा हो सकती है। आपकी यात्राएँ भी बहुत ज्यादा होने की संभावना बनती है। जो व्यक्ति नौकरी की तलाश में हैं उन्हें इस माह नई नौकरी मिलने की संभावना बनती है। प्रेम संबंधों के लिए यह माह सामान्य से अच्छा रह सकता है।
परिवार: पारीवारिक दृष्टि से यह माह मिश्रित रहेगा। आपको क्रोध ज्यादा आ सकता है और आप जरा-जरा सी बात पर चिड़चिड़े हो सकते हैं।
स्वास्थ्य: आपको कान में दर्द की शिकायत हो सकती है। आपको कंधो से संबंधित कुछ हल्के-फुल्के व्यायाम करने चाहिए अन्यथा आप कंधे के दर्द से बहुत ज्यादा परेशान हो सकते हैं।
कैरियर: माह के दूसरे सप्ताह के बाद से कैरियर के लिए समय अनुकूल रहेगा। आप जो चाहते हैं वह आपको मिलने की संभावना बनती है। माह के आरंभ में आपको अपने क्रोध पर काबू पाना होगा।
धन: धनागमन के नए स्तोत्र बन सकते हैं। यदि आप अपना किराए का घर बदलना चहते हैं तो अभी ना बदलें क्योकि यदि आपने अभी घर परिवर्तन किया तो नए स्थान पर ज्यादा दिन नही टिक पाएंगे।
विद्या: माह अनुकूल रहेगा, आप अव्वल स्थान प्राप्त कर सकते हैं। प्रतियोगी परी़क्षाओं में बैठने वाले बच्चों के लिए माह कुछ कठिन सिद्ध हो सकता है। तैयारी पूरी होने के बावजूद परीक्षा के समय मन कुछ दुविधा में और भ्रमित हो सकता है।
उपाय:
1. हनुमान चालीसा का पाठ करें।
2. मंगल का व्रत करें।

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दिसंबर 2015 माह में कर्क राशि

इस माह आपकी सारी ऊर्जा और भागदौड़ घर-परिवार व कार्यक्षेत्र के लिए बने रहने की संभावना बनती है। भाई-बहनों से भी पूरा सहयोग मिलने की संभावना बनती है। आपके व्यवसायिक संबंधों में वृद्धि होने की संभावना बनती है।
परिवार: आपके लिए यह माह सुख व दुख दोनों से मिला-जुला हो सकता है। आपका दाम्पत्य जीवन में कलह क्लेश होने की संभावना बनती है। बच्चों के साथ मित्रवत व्यवहार करें। आप समझदारी का परिचय देते हुए कभी प्यार से तो कभी सख्ती से घर में सुखद माहौल बनाए रखने का प्रयास करें।
स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के लिहाज से आपके लिए यह माह मिश्रित रहेगा। आपको शारीरिक स्वास्थ्य की बजाय मानसिक परेशानियों के कारण तनाव बना रह सकता है। इससे आपका रक्तचाप अकसर उच्च बना रह सकता है।
कैरियर: कैरियर में आप जल्दबाजी या उत्तेजित होकर कोई निर्णय ना लें। माह मध्य तक का समय संयम और धैर्य से निकालें। उच्चाधिकारियो के साथ किसी तरह की बहस में ना पड़ें। आपको नए अनुबंध मिल सकते हैं लेकिन उनके कार्यान्वित होने में समय लग सकता है।
धन: धन की स्थिति सामान्य रहेगी। अगर बजट का ध्यान रखेंगे तो मानसिक तौर पर शांति रहेगी।
विद्या:  आपके लिए यह माह सामान्य से कुछ अच्छा रहने की संभावना बनती है। आप अपनी सारी ऊर्जा एकत्रित करके मन को एकाग्रचित्त करके पढ़ाई करेंगे तो आपको शीघ्र ही सभी कुछ स्मरण हो सकता है।
उपाय:
1. सूर्य को जल दें।
2. ॐ घृणि सूर्याय नम: का जाप भी करें।
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दिसंबर 2015 माह में मिथुन राशि

आप एक व्यवहार कुशल व्यक्ति हैं। आपके स्वभाव में लचीलापन आसानी से देखने को मिल जाता है। इस माह आप बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित रह सकते हैं।
परिवार: पारिवारिक मामलों के लिए यह माह अधिक अनुकूल नहीं है। बच्चो के बर्ताव से आपकी भावनाएं आहत हो सकती हैं। आपके बच्चों का स्वास्थ्य, स्वभाव अच्छा नहीं रहेगा। लेकिन सूर्य की स्थिति इस बात का संकेत कर रही है कि आपके कार्यक्षेत्र में संबंध संतोषप्रद रहेंगे।
स्वास्थ्य: शनि छठवें में होने से चिंता करना भी स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल सकता है। खान-पान पर संयम रखें अन्यथा उदर विकार होने की सम्भावना है।
कार्यक्षेत्र: आपके कर्म स्थान का स्वामी त्रितीयस्थ है अत: इस अवधि में आपकी सृजनात्मक क्षमता और विवेक का सामंजस्य होगा। फलस्वरूप आप अपने काम को अंजाम तक पहुंचाने में सफल होंगे। किंतु आर्थिक तौर पर ज्यादा लाभकारी नहीं होगा।
धन: आर्थिक मामलों के लिए यह माह शुभ नहीं कहा जाएगा। आप कुछ ऐसे कामों में उलझे रह सकते हैं जो कम फायदा देने वाले होंगे। कुछ ऐसे खर्चें भी सामने आ सकते हैं जिनकी आपने उम्मीद नहीं की होगी।
विद्या: विद्यार्थियों के लिए भी यह माह अधिक अनुकूल नहीं हैं। स्वास्थ्य की प्रतिकूलता अथवा भटकाव के कारण भी आपका अध्ययन प्रभावित रह सकता है।
उपाय:
1. लड्डू मंदिर में बाटें।
2. पन्ना धारण करें।
3. गुरुओं और पीपल के पेड़ की सेवा करें।
4. बुध मंत्र ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: का जप करें।

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दिसंबर 2015 माह में वृषभ राशि

इस माह आप अपने प्रयासों द्वारा किसी भी परिस्थिति को संभाल सकने में सक्षम हैं। किंतु मंगल के राहु से पापाक्रांत होकर पंचम में होने से पार्टनर के स्वस्थ की हानि संभव।
परिवार: चतुर्थ भाव में स्थित बृहस्पति घर परिवार का माहौल अशांत कर सकता है कार्यों से संबंधित यात्राओं के कारण आपको अपने परिवार से दूर रहना पडेगा।
स्वास्थ्य: स्वास्थ्य के लिहाज से यह माह आपके लिए बहुत अच्छा नही प्रतीत हो रहा है। दशमेश शनि जो समय-समय पर आपके स्वास्थ्य को पीडित कर सकता है यह अस्वस्थता छोटी-मोटी बीमारी के कारण ही होगी।
कार्यक्षेत्र: कार्यक्षेत्र के लिए यह माह अच्छा नहीं रहेगा। कुछ विषम परिस्थियां भी सामने आ सकती हैं। कुछ कामों में आप अनुभवी लोगों की सलाह को नजरअंदाज कर सकते हैं और गलत निर्णय लेकर चिंताग्रस्त हो सकते हैं।
धन: आर्थिक मामले के लिए यह माह मध्यम रहेगा। आमदनी की अपेक्षा खर्च अधिक होगा।
विद्या: बुध के कारण आप में एकाग्रता अच्छी रहेगी। फलस्वरूप अध्ययन में आपकी गहरी रुचि रहेगी। यदि आप बैंकिग, मैनेजमेंट या व्यवस्थापन से जुड़े पाठ्यक्रम से जुडऩा चाह रहे हैं या उस क्षेत्र से जुड़े हैं तो आपको उत्तम फलों की प्राप्ति होगी। यदि आप किसी प्रतियोगी परीक्षा में भाग लेना चाह रहे हैं तो उसके लिहाज से भी समय अनुकूल है।
उपाय:
1. मंदिर में नारियल और मूंग चढायें।
2. भगवान गणेश की पूजा करें।
३. शुक्र मंत्र द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम: का जप करें।

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दिसंबर 2015 माह में मेष राशि

लग्रेश मंगल के षष्ठम होने के कारण आप में क्रोध की अधिकता देखने को मिलेगी। सप्तमस्थ शुक्र होने के कारण आप आर्थिक सम्पन्नता और एशो-आराम का आनंद लेंगे। भाग्येश बृहस्पति भाग्यशाली व धार्मिक बना रहा है। शनि आपको शारीरिक कष्ट दे रहा है। इस समय आप थोड़े बेचैन और असंतुष्ट भी हो सकते हैं।
परिवार: पंचम भाव में स्थित बृहस्पति परिवार के सदस्यों की संख्या में बढोत्तरी करवा सकता है। अर्थात घर परिवार में किसी का जन्म हो सकता है अथवा किसी का विवाह आदि हो सकता है।
स्वास्थ्य: रोग भाव में स्थित मंगल राहू से आक्रांत होने के कारण समय-समय पर आपके स्वास्थ्य को बिगडने का प्रयास करेगा। अत: इस माह स्वास्थ्य को लेकर सचेत रहना उचित होगा। जहां तक सम्भव हो गैर जरूरी यात्राओं से बचें।
कार्यक्षेत्र: दशमेश शनि के अष्टम भाव में होने कारण कामों में बाधा आ सकती है। आप कई बडें कामों में सफल भी होगें लेकिन व्यापार के लिए किसी कानूनी झंझट में पडने से बचें। राहु की स्थिति साझे में काम करने वालों के लिए शुभ नहीं रहेंगी।
धन: धनेश शनि के व्यय भाव में होने से किसी माध्यम से आपका पैसा खो सकता है। अत: कोई जोखिम भरा निवेश करने से बचें साथ ही पैसों की सुरक्षा को लेकर सचेत रहें।
विद्या: विद्यार्थियों के लिए यह माह सामान्य रहेगा लेकिन किसी नए पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने से पहले सचेत रहने की आवश्यकता है। अधिक आत्मविश्वासी होने से भी बचना जरूरी होगा। किसी पर आवश्यकता से अधिक विश्वास और निर्भरता उचित नहीं होगी।
उपाय:
1. मंगल राहू की शांति करें।
2. गाय की सेवा करें।
3. मंगल मंत्र क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम: का जप करें।
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Saturday 26 December 2015

आयुर्वेद विज्ञान में व्यक्तित्व विकास



आयुर्वेद को जीवन का विज्ञान कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यह विज्ञान मात्र शारीरिक संरचना, स्वास्थ्य संवर्धन का ही विवेचन नहीं करता, अपितु मनुष्य के आर्थिक, सामाजिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य की विवेचना भी इसका उद्देश्य है। कहा है: ”शरीरेन्द्रिय सत्वात्म संयोगो आयुः“ शरीर के साथ सत्वात्म की विवेचना ही व्यक्तित्व विवेचना है। सत्वात्म का विभिन्न परिमाणों में सम्मिश्रण ही व्यक्तित्व के बहुविध स्वरूपों का प्रदर्शन है। इस व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतंत्र रूप से भूत विद्या नामक चिकित्साशास्त्र की अवधारणा संहिताकारों ने की जिसका मूल स्रोत अथर्ववेद की अथर्वण परंपरा से संभवतः गृहीत किया गया है। क्या है व्यक्तित्व: मानस के विभिन्न क्रिया व्यापार के परिणामस्वरूप व्यवहार के रूप में प्राप्त जो विचार है उसे व्यक्तित्व कहते हैं। कुछ विद्वान ”मनोविचय“ को व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया है। जिस प्रकार शारीरिक क्रियाओं को समझाने के लिए शरीरविचय की आवश्यकता होती है वैसे ही मानस व्यापार के माध्यम से मनोविचय का परिज्ञान होता है। व्यक्तित्व का आभास मनोविचय के माध्यम से भी होता है। मनस स्वयं अतींद्रिय है इसलिए उसके व्यापार दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों प्रकार के होते हैं। इस सूक्ष्म एवं अतींद्रिय मनस के व्यापारों को समझने के लिए चित्त, बुद्धि, अहंकार के विषय का ज्ञान कर व्यक्तित्व ज्ञान किया जाता है। कहा भी है: ”शरीर विचयः शरीरोपकारार्थमिष्यते। ज्ञात्वा हि शरीरतत्वं शरीरोपकारकेषुभावेषु ज्ञानमुत्पद्यते। तस्मात् शरीरविचयं प्रशंसन्ति कुशलाः। चरकसंहिता शारीर 6/3 सभी दर्शन के आचार्य मनस का अस्तित्व स्वीकार करते हैं लेकिन मन के निष्क्रियत्व, क्रियत्व, विभुत्व, अविभुत्व निर्विकार और चिदंश स्वरूप को मानने में एकमत नहीं हैं। मानस के संगठन में संस्कार या संस्कार पुंज का विशेष स्थान है। संस्कार प्रत्येक जीवन के अनुभवों के आधार पर सत्व, रज और तम गुणों से संपृक्त होते हैं। मानस की रचना एवं क्रिया में संस्कार कोषों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे हम मानस व्यापार के द्वारा समझ सकते हैं। आचार्य चरक का मत है कि मन अचेतन होने पर भी क्रियाशील है और उसको चैतन्यांश आत्मा से प्राप्त होता है। कहा भी है: अचेतनं क्रियावच्चमश्चेतयिता परः, युक्तस्य मनसा तस्य निर्दिश्यन्ते विभोः क्रियाः। चेतनावान् यतश्चात्मा ततः कत्र्तानिगद्यते, अचेतनत्वाच्च मनः क्रियावदपिनोच्यते। जिस प्रकार देह या शरीर के निर्माण में त्रिदोषों का महत्व है उसी प्रकार महागुणों का महत्व ‘मानस प्रकृति’ या ‘व्यक्तित्व’ निर्माण में स्वीकार किया गया है। महागुण या सत्व, रजस् या तमस गुणों का प्राधान्य ही व्यक्तित्व या मानस प्रकृति का परिचायक है। यह प्रकृति या व्यक्तित्व आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार शुक्र आत्र्तव के माध्यम से प्राप्त होता है। यथाः शुक्रात्र्तवस्थैर्जन्मादौविषेणैव विषीक्रिमे, तैश्च तिस्र प्रकृतियोः हीन मध्योत्तमापृथक्। मातरं पितरं चैके मन्यन्ते जन्मकारणम् स्वभावं परनिर्माणं यदृच्छाचापरे जनाः। आचार्य सुश्रुत ने प्रकृति की परिभाषा करते हुए बतलाया है कि शुक्र शोषित संयोग में जो दोष प्रबल होता है उसी से प्रकृति उत्पन्न होती है। कहा भी है ”प्रकृतिर्नाम जन्ममरणान्तराल भाविनी गर्भावक्रान्ति समये स्वकारणोद्रेक जनिता निर्विकारिणी दोषस्थितिः।“ व्यक्तित्व या प्रकृति प्रकार एवं विनियोग: आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन धातु साम्य है, अतः प्रकृति का अर्थ धातु साम्य के साथ ही सन्निहित है। जब प्रकृति का अर्थ स्वभाव किया जाता है तब इससे शरीर और मानस व्यक्तित्व का ग्रहण किया जाता है। स्वभावदृष्टया शरीर मानस प्रकृति और देह प्रकृति का परिचायक है। आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों का निर्माण गर्भावस्था में ही होता है। यह पोषण पंचमहाभूतात्म, षडरसात्मक आहार जो माता ग्रहण करती है उसी के अंश से गर्भ को प्राप्त होता है। आचार्य चरक ने चरक संहिता सूत्रस्थान 1/5 में कहा है कि शरीर में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसकी त्रिदोषों या पंच महाभूतों से उत्पत्ति न हुई हो। आचार्य सुश्रुत ने भी पंचमहाभूतों/त्रिदोषों को शरीर की प्राथमिक इकाई के रूप में स्वीकार किया है और ये ही शरीर के सामान्य क्रिया व्यापार को नियमित करते हैं। व्यक्तित्व या मानस प्रकृति के प्रतिनिधित्व के रूप में सत्व, रजस और तमस को भी आधार रूप में मानते हैं। अतः यहां पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सत्व, रज एवं तम पंचमहाभूतों या त्रिदोषों से अलग नहीं हैं। डाॅ. ए. लक्ष्मीपति का मत है कि त्रिदोष या पंचमहाभूत अथवा महागुण (सत्व, रज, तम) शरीर कोशिकाओं के चारों ओर स्थित होते और उन्हें ठोस, गैस और द्रव रूपात्मक द्रव्यसत्ता से पोषण प्रदान करते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक क्रिया का सुव्यवस्थित, एवं पारदर्शी स्वरूप मिलने के कारण और प्रत्यक्ष प्रमाण से अधिकाधिक ज्ञापित होने के कारण इसे ‘न्यूरोह्यूमर्स’ के रूप में प्रतिपादित करते हैं। आयुर्वेदीय संहिताओं में इस तरह के भी संदर्भ हैं कि गर्भधारण से पूर्व एवं धारण के पश्चात जिस प्रकार के आचार-विचार, व्यवहार, खान-पान का प्रयोग मां करती है उसका भी प्रभाव गर्भ पर पड़ता है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी इससे सहमत हैं। व्यक्तित्व एवं ज्योतिष विज्ञान: आयुर्वेद की प्रमुख संहिताओं चरक सुश्रुत एवं अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदय सहित संहितेतर ग्रंथों में शरीरशास्त्र औषधि ग्रहण एवं प्रयोग विधि, निर्माण विधि के संदर्भ में ज्योतिषीय आधारों को ग्रहण करने का निर्देश दिया गया है। ज्योतिषशास्त्र का आधार मुख्य रूप से ग्रहों, नक्षत्रों को माना गया है और इनका ही ‘जातक’ के जन्मकाल, स्थान विशेषादि से गणितीय गणना के आधार पर आकलन कर सुखासुख विवेक निर्धारित किया जाता है। सूर्य, चंद्र, बुध, गुरु, मंगल, शुक्र, राहु, शनि आदि कुंडली के अनुसार सुखासुख विवेक को प्रदर्शित करते हैं। प्रत्येक ग्रह का अपना नैसर्गिक फल होता है। भावाधीश फल का लग्नेश के अनुसार फल बदल जाता है। इसी को आधार मानकर आयुर्वेद के आचार्य साध्यासाध्य व्याधि का विचार कर सकते हैं। अनेक असाध्य व्याधियों का उल्लेख भी है जिनकी साध्यासाध्यता औषधि प्रयोग और ज्योतिषीय फलादेश के आधार पर निश्चित की जा सकती है। यह बात महत्वपूर्ण है कि जहां आयुर्वेद विज्ञान कार्य कारण सिद्धांत के अनुसार शरीराभिनिवृत्ति, द्रव्यमनि निवृत्ति, रोगारोग्य कारणों सहित व्यक्तित्व का प्रतिवादन करता है वहीं ज्योतिष विज्ञान संभावनाओं के आधार पर जातक के गुणावगुणों और दुःख-सुखादि भावों को बताने में समर्थ है। अतः दोनों विज्ञानों का समन्वय कर चिकित्सा जगत की समस्याओं का निवारण किया जा सकता है।

पुष्य नक्षत्र

पुष्य नक्षत्र कर्क राशि के 3-20 अंश से 16-40 अंश तक है। यह नक्षत्र सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। सौरमंडल में इसका गणितीय विस्तार 3 राशि, 3 अंश, 20 कला से 3 राशि, 16अंश, 40 कला तक है। यह नक्षत्र विषुवत रेखा से 18अंश, 9 कला, 56विकला उत्तर में स्थित है. मुख्य रूप से इस नक्षत्र के तीन तारे हैं, तो तीर के समान आकाश में दृष्टिगोचर होते हैं। इसके तीर की नोंक अनेक तारा समूहों के पुंज के रूप में दिखाई देती है. पुष्य को ऋग्वेद में तिष्य अर्थात शुभ या माँगलिक तारा भी कहते हैं। सूर्य जुलाई के तृ्तीय सप्ताह में पुष्य नक्षत्र में गोचर करता है। उस समय यह नक्षत्र पूर्व में उदय होता है। मार्च महीने में रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक पुष्य नक्षत्र अपने शिरोबिन्दु पर होता है। पौष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में रहता है। इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है। पुष्य-नक्षत्र शरीर के आमाशय, पसलियों व फेफड़ों को विशेष रूप से प्रभावित करता है. यह शुभ ग्रहों से प्रभावित होकर इन्हें दृढ़, पुष्ट और निरोगी बनाता है. पुष्य नक्षत्र के देवगुरु वृहस्पति ज्ञान-विज्ञान व नीति-निर्धारण में व्यक्ति को अग्रणी बनाते हैं. यह नक्षत्र शनिदशा को दर्शाता है. शनि स्थिरता का सूचक है.
इसलिए पुष्य नक्षत्र में किये गये कार्य स्थायी होते हैं. पुष्य नक्षत्र का योग सर्वविध दोषों को हरनेवाला और शुभ फलदायक माना गया है। अगर पुष्य नक्षत्र पाप ग्रह से युक्त या ग्रहों से बाधित हो और ताराचक्र के अनुसार प्रतिकूल हो, तो भी विवाह को छोड़ कर शेष सभी कार्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. इस नक्षत्र के स्वामी शनि ग्रह हैं और इसके देवता गुरू माने जाते हैं। इन दोनों ग्रहों के प्रभाव के कारण इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति जीवन में खूब तरक्की करते हैं लेकिन इसमें इनकी मेहनत और लगनशीलता का बड़ा योगदान होता है। बचपन में किये गये संघर्ष के कारण कम उम्र में ही दुनियादारी और जीवन के उद्देश्यों को समझ जाते हैं।
पुष्य नक्षत्र को सभी नक्षत्रों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैए इसे नक्षत्रों का राजा भी कहा जाता है। ऐसे में पुष्य नक्षत्र में जन्मा जातक भी सभी नक्षत्रों से अलग होता रहता है।
ऐसा जातक व्यावहारिक, स्पष्टवादी, शीघ्रता से बोलने वाला, आलोचक, विश्वासपूर्ण पद प्राप्त करने वाला, अधिकारी, मंत्री, राजा, तकनीकी मस्तिष्क का, अपने कार्य में निपुण तथा सबके द्वारा प्रशंसित होता है। यह साधारण सी बात पर चिंतित हो जाएंगे किंतु विषम परिस्थितियों का साहसपूर्ण सामना करते हैं। यह ईश्वर भक्त तथा दार्शनिक विचारों के होते हुए भी सांसारिक कार्यों में सफल माने जाते हैं।
पुष्य नक्षत्र में जन्म होने से जातक शांत हृदय, सर्वप्रिय, विद्वान, पंडित, प्रसन्नचित्त, माता-पिता का भक्त, ब्राह्मणों और देवताओं का आदर और पूजा करने वाला, धर्म को मानने वाला, बुद्धिमान, राजा का प्रिय, पुत्रयुक्त, धन वाहन से युक्त, सम्मानित और सुखी होता है। पुष्य नक्षत्र में जन्म होने से जातक मध्यम कद लंबा, गौर श्याम वर्ण, चिंतनशील, सावधान, तत्पर, आत्मकेंद्रित, क्रमबद्ध और नियमबद्ध, अल्पव्ययी, रूढ़ीवादी, सहिष्णु, बुद्धिमान तथा समझदार होता है। विद्वानो के मत से पुष्य नक्षत्र के दौरान किए गए कार्यो में निश्चित सफलता प्राप्त होती हैं। शास्त्रों में पुष्य योग को 100 दोषों को दूर करने वाला, शुभ कार्य उद्देश्यों में निश्चित सफलता प्रदान करने वाला एवं बहुमूल्य वस्तुओं कि खरीदारी हेतु सबसे श्रेष्ठ एवं शुभ फलदायी योग माना गया है।
गुरुवार के दिन पुष्य नक्षत्र के संयोग से सर्वार्थ अमृतसिद्धि योग बनता है। रविवार को पुष्य नक्षत्र पडऩे से रवि पुष्य योग बनता है जो सबसे अच्छा बताया गया है।
शनिवार के दिन पुष्य नक्षत्र के संयोग से सर्वाद्धसिद्धि योग होता है। पुष्य नक्षत्र को ब्रह्माजी का श्राप मिला था। इसलिए शास्त्रोक्त विधान से पुष्य नक्षत्र में विवाह वर्जित माना गया है।

पुष्य नक्षत्र पुरुष नक्षत्र है:
भले ही इसमें नारीत्व के गुण, संवेदनशीलता व ममता कुछ अधिक मात्रा में हों. इस नक्षत्र का अधिष्ठाता देवता गुरु पुरुष देवता है. इस नक्षत्र में शरीर का मुख व चेहरा आता है. चेहरे के भावों का पुष्य से विशेष संबंध है। यह नक्षत्र पित्त प्रकृ्ति का है। इस नक्षत्र की दिशा पश्चिम, पश्चिम-उत्तर तथा उत्तर दिशा है. इस बात का भी ध्यान रखें कि कर्क राशि की दिशा उत्तर तो नक्षत्रपति शनि को पश्चिम दिशा का स्वामी माना जाता है।

स्वामी शनि:
पुष्य नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि होने से विद्वानों ने इसे तमोगुण प्रधान माना है। अत: यह तामसिक नक्षत्र है. पुष्य जल तत्व प्रधान नक्षत्र है। यह चन्द्रमा की राशि कर्क में स्थित है. चन्द्रमा व कर्क राशि दोनों ही जल तत्व प्रधान हैं, पुन: नक्षत्र का देवता गुरु भी स्थूल व कफ प्रधान होने से जल तत्व की प्रधानता को दर्शाता है. विद्वानों ने पुष्य नक्षत्र को देवगण माना है।

पुष्य नक्षत्र उध्र्वमुखी:
पुष्य नक्षत्र उध्र्वमुखी होने से जातक महत्वाकांक्षी व प्रगतिशील होता है, पौष चन्द्र मास का उत्तरार्ध, जो जनवरी मास में पड़ता है, को पुष्य नक्षत्र का मास माना जाता है। शुक्ल व कृ्ष्ण पक्ष की दशमी का संबंध पुष्य नक्षत्र से माना जाता है. इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि व राशि स्वामी चन्द्र होने से जातक कर्तव्यनिष्ठ, दायित्व निर्वाह में कुशल व परिश्रमी होता है. इस नक्षत्र को जन समुदाय को प्रभावित करने वाला नात्र माना गया है। पुष्य नक्षत्र के प्रथम चरण का अक्षर ‘हू’ है. द्वितीय चरण का अक्षर ‘हे’ है. तृ्तीय चरण का अक्षर ‘हो’ है. चतुर्थ चरण का अक्षर ‘ड’ है. पुष्य नक्षत्र की योनि मेष है। पुष्य नक्षत्र को ऋषि मरीचि का वंशज माना गया है।

* अर्थ- पोषण
* देव- बृहस्पति
* इसे ‘‘ज्योतिष्य और अमरेज्य’’ भी कहते हैं। अमरेज्य शब्द का अर्थ है- देवताओं का पूज्य।
* इस नक्षत्र का स्वामी ग्रह शनि है, पर इसके गुण गुरु के गुणों से अधिक मिलते हैं।
* पुष्य में बृहस्पति का व्रत और पूजन किया जाता है।
* पुष्य नक्षत्र के देवता शनि को माना जाता है।
* पीपल के पेड को पूष्य नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है और पुष्य नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग पीपल वृक्ष की पूजा करते है।
* इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोग अपने घर के खाली हिस्से में पीपल वृक्ष के पेड़ को भी लगाते है।