बहुत समय पहले की बात है। किसी शहर में एक व्यापारी रहता था, उस व्यापारी ने कहीं से सुन लिया कि राजा परीक्षित को भगवद्कथा सुनने से ही ज्ञान प्राप्त हो गया था। व्यापारी ने सोचा कि सिर्फ कथा सुनने से ही मनुष्य ज्ञानवान हो जाता है तो मैं भी कथा सुन कर ज्ञानवान बन जाऊंगा। कथा सुनाने के लिए एक पंडित जी बुलाए गए। पंडित जी से आग्रह किया कि वे कथा सुनाएं। पंडित जी ने भी सोचा कि मोटी आसामी फंस रही है, इसे कथा सुनाकर एक बड़ी रकम दक्षिणा के रूप में मिल सकती है। पंडित जी कथा सुनाने को तैयार हो गए। अगले दिन से पंडित जी ने कथा सुनानी आरम्भ की और व्यापारी कथा सुनता रहा। यह क्रम एक महीने तक चलता रहा, फिर एक दिन व्यापारी ने पंडित जी से कहा पंडित जी आप की ये कथाएँ सुन कर मुझ में कोई बदलाव नहींं आया और ना ही मुझे राजा परीक्षित की तरह ज्ञान प्राप्त हुआ।
पंडित जी ने झल्लाते हुए व्यापारी से कहा आप ने अभी तक दक्षिणा तो दी ही नहींं है, जिस से आप को ज्ञान की प्राप्ति नहींं हुई। इस पर व्यापारी ने कहा जबतक ज्ञान की प्राप्ति नहींं होती तब तक वह दक्षिणा नहींं देगा। इस बात पर दोनों में बहस होने लगी। दोनों ही अपनी अपनी बात पर अड़े थे। पंडित जी कहते थे कि दक्षिणा मिलेगी तो ज्ञान मिलेगा और व्यापारी कहता था ज्ञान मिलेगा तो दक्षिणा मिलेगी। तभी वहां से एक संत महात्मा का गुजरना हुआ। दोनों ने एक दूसरे को दोष देते हुए उन संत महात्मा से न्याय की गुहार लगाई। महात्मा ज्ञानी पुरुष थे, उन्हों ने दोनों के हाथ पांव बंधवा दिए और दोनों से कहा कि अब एक दूसरे का बंधन खोलने का प्रयास करो। बहुत प्रयास करने के बाद भी दोनों एक दूसरे को मुक्त कराने में असफल रहे। तब महात्मा जी बोले पंडित जी ने खुद को लोभ के बंधन में और व्यापारी ने खुद को ज्ञान कि कामना के बंधन से बांध लिया था, जो खुद बंधा हो वह दूसरे के बंधन को कैसे खोल सकता है। आपस में बिना नि:स्वार्थ एवं एकात्म बने, आध्यात्मिक उद्देश्य कि पूर्ति नहींं हो सकती है। पहले अपने बंधनों से मुक्त हो जाओ फिर ज्ञान देने व लेने में सफल हो सकोगे।
Pt.P.S Tripathi
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