Monday, 20 April 2015

समावर्तन शिक्षा उपरांत गृह वापसी का संस्कार


भारतीय जीवन संस्कार से शुरू होकर संस्कार पर ही पूर्ण होता है। भारतीय वैदिक शास्त्र में सोलह संस्कार का उल्लेख है। अब तक हमने ग्यारह संस्कार पर चर्चा की है। इस अंक में हम द्वादश संस्कार अर्थात समावर्तन संस्कार को जानेंगे। समावर्तन का अर्थ होता है वापस लौटना। शिक्षा समाप्ति के पश्चात जब युवक अपने गृह लौटने की स्थिति में आ जाता है अर्थात जब उसकी शिक्षा पूर्ण हो जाती है तो उसके घर वापसी हेतु किये गये संस्कार को समावर्तन संस्कार कहा जाता है।
हिब्रह्मचर्यव्रत व विद्यार्थी जीवन के समाप्ति पर बालक के गृह वापसी से पूर्व किए जाने वाले संस्कार के रूप में समावर्तन संस्कार किया जाता था। इस संस्कार के माध्यम से गुरु अपने शिष्य को इंद्रिय निग्रह, दान-दया और मानव कल्याण की शिक्षा देता है। उस समय वे अपने शिष्यों को गृहस्थ जीवन में प्रवेश हेतु तैयार करने के उद्देश्य से कुछ आदर्शपूर्ण उपदेश जो कि सांसारिक जीवन हेतु आवश्यक होता था का ज्ञान देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश के लिए प्रेरित करते थे।
हिन्दु धर्म में सोलह संस्कारों में बारहवा संस्कार समावर्तन संस्कार विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने पर किया जाता है। प्राचीन काल में पच्चीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करने के लिए बाल्य काल में ही गुरुकुल भेज दिया जाता था जहां शिक्षा पूर्ण होने तक अर्थात २५ वर्ष की आयु वहीं रहना होता था। उसके उपरांत जब विद्या अध्ययन का समापन होता था तो आचार्य शिष्यों का समावर्तन-संस्कार कराते थे। ऋग्वेद में लिखा है-
युवा सुवासा: परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमान:।
तं धीरास: कवय उन्नयन्ति स्वाध्यों उ मनसा देवयन्त:।।
अर्थात युवा पुरुष उत्तम वस्त्रों को धारण किए हुए, उपवीत (ब्रह्मचारी) सब विद्या से प्रकाशित जब गृहस्थाश्रम में आता था, तब वह प्रसिद्ध होकर श्रेय मंगलकारी शोभायुक्त होता था। उसको धीर, बुद्धिमान, विद्धान, अच्छे ध्यानयुक्त मन से विद्या के प्रकाश की कामना करते हुए, सहिष्णु रहते हुये गृहस्थ जीवन का पालन करने की शिक्षा दी जाती थी।
25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरुकुल में रहकर, गुरु से समस्त वेद-वेदागों की शिक्षा प्राप्त करके, शिष्य जब गुरु की कसौटी पर खरा उतर जाता था, तब गुरु उसकी शिक्षा पूर्ण होने के प्रतीक स्वरुप उसका समावर्तन-संस्कार करते थे। यह संस्कार एक या अनेक शिष्यों का एक साथ भी होता था। वर्तमान युग में भी यह संस्कार विश्वविद्यालयों में होता है। प्राचीनकाल में समावर्तन-संस्कार द्वारा गुरु अपने शिष्य को कहते थे- ''उत्तिष्ठ, जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधक।ÓÓ अर्थात उठो, जागो और छुरे कि धार से भी तीखे जीवन के श्रेष्ठ पथ को पार करो। अथर्ववेद में कहा गया है कि ब्रह्मचारी समस्त धातुओं को धारण कर समुद्र के समान ज्ञान में गंभीर सलिल जीवनाधार प्रभु के आनंद रस में विभोर होकर तपस्वी होता है। वह स्नातक होकर नम्र, शक्तिमान और पिंगल दीप्तिमान बनकर पृथ्वी पर सुशोभित होता है। इस प्रकार समावर्तन संस्कार द्वारा किसी बालक को जीवन के गृहस्थाश्रम में प्रवेश एवं सरलता पूर्वक जीवन निर्वाह की शिक्षा देने का उद्देश्य शामिल होता है।
इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थों एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान कराने का विधान था। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। वह सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
इसका उद्देश्य है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना। जब बच्चा गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी कर लेता है, अर्थात उनको वेदों के अनुसार विज्ञान, संगीत, तकनीक, युद्धशैली, अनुसन्धान, चिकित्सा और औषधी, अस्त्रों-शस्त्रों के निर्माण, अध्यात्म, धर्म, राजनीति, समाज आदि की उचित और सर्वोत्तम शिक्षा मिल जाती है उसके बाद यह संस्कार किया जाता है।
समार्वतन संस्कार से संबंधित कथा है कि एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों ही ब्रह्माजी के पास ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करने लगे। कुछ काल बीत जाने पर उन्होंने ब्रह्माजी से उपदेश (समावर्तन) ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। सबसे पहले देवताओं ने कहा-प्रभो! हमें उपदेश दीजिए। ब्रह्मा जी ने एक ही अक्षर दिया 'दÓ। इस पर देवताओं ने कहा- हम समझ गए। हमारे स्वर्गादि लोकों में भोंगो की ही भरमार है। उनमें लिप्त होकर हम अंत में स्वर्ग से गिर जाते हैं, अतएव आप हमें 'दÓ से दमन अर्थात इंद्रिय सयंम का उपदेश कर रहे हंै। तब प्रजापति ब्रह्मा ने कहा- ठीक है, तुम समझ गए। फिर मनुष्यों को भी 'दÓ अक्षर दिया गया, तो उन्होंने कहा-हमें 'दÓ से दान करने का उपदेश दिया है, क्योंकि हम लोग जीवन भर संग्रह करने की ही लिप्सा में लगे रहते हैं। अतएव हमारा दान में ही कल्याण है। प्रजापति इस जवाब से संतुष्ट हुए। असुरों को भी ब्रह्मा ने उपदेश में 'दÓ अक्षर ही दिया। असुरों ने सोचा- हमारा स्वभाव हिंसक है और क्रोध व हिंसा हमारे दैनिक जीवन में व्याप्त है, तो निश्चित ही हमारे कल्याण के लिए दया ही एकमात्र मार्ग होगा। दया से ही हम इन दुष्कर्मों को छोड़कर पाप से मुक्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमें 'दÓ से दया अर्थात प्राणि-मात्र पर दया करने का उपदेश दिया है। ब्रह्मा ने कहा- ठीक है, तुम समझ गए। निश्चित ही दमन, दान और दया जैसे उपदेश को प्रत्येक मनुष्य को अपनाते हुए उन्नति के मार्ग पर चलना चाहिए। जैसे समर्थवान व्यक्ति को दया, सुख-समृद्धि से पूर्ण व्यक्ति को दान साथ ही प्रेरणा स्त्रोत व्यक्तियों को दमन का पालन करना चाहिए। जिस तरह ब्रह्मा जी ने देवता, मनुष्य और राक्षसों की शिक्षा पूर्ण हो जाने के बाद उन्हें सांसारिक जीवन हेतु मूल ज्ञान दिया उसी तरह समावर्तन संस्कार में आचार्य शिष्यों को गृहस्थ जीवन के पालन हेतु शिक्षा देते हैं।
समवर्तन संस्कार का मुहूर्त:
सूर्य की उत्तरायण अवस्था में जातक का समवर्तन संस्कार करना चाहिए।
शुभ महीना:
चैत्र (मीन संक्रांति वर्जित), वैशाख, ज्येष्ठ (ज्येष्ठ पुत्र हेतु नहींं), आषाढ़ (शुक्ल 11 से पूर्व), माघ तथा फाल्गुन। जन्म मास त्याज्य।
शुभ तिथि:
शुक्ल पक्ष- 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13
कृष्ण पक्ष- पंचमी तक
शुभ दिन:
सोमवार, बुधवार, गुरुवार, श्ुाक्रवार
शुभ नक्षत्र:
अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती।
शुभ योग:
सिद्धि योग, अमृत योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, राज्यप्रद योग।
शुभ राशि एवं लग्न अथवा नवांश लग्न:
वृष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु, मीन शुभ हैं। इस लग्न के गोचर में भाव 1, 4, 7, 10 एवं 5, 9 में शुभ ग्रह तथा भाव 3, 6, 11 में पाप ग्रह के रहने से समवर्तन संस्कार का मुहूर्त शुभ माना जाता है। परंतु समवर्तन संस्कार का लग्न जन्म राशि जन्म लग्न को छोड़कर होना चाहिए। ध्यान रहे, चंद्र भाव 4, 6, 8, 12 में नहींं हो। ऋषि पराशर के अनुसार समवर्तन संस्कार जन्म मास और जन्म नक्षत्र को छोड़ कर करना चाहिए।
समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य:
जन्म नक्षत्र, जन्म तिथि, जन्म मास, श्राद्ध दिवस (माता-पिता का मृत्यु दिन) चित्त भंग, रोग, क्षय तिथि, वृद्धि तिथि, क्षय मास, अधिक मास, क्षय वर्ष, दग्धा तिथि, अमावस्या तिथि।

Pt.P.S Tripathi
Mobile no-9893363928,9424225005
Landline no-0771-4035992,4050500
Feel Free to ask any questions in

No comments: