Wednesday 4 May 2016

शुक्र दशा का नैसर्गिक फल

यदि शुक्र बलवान, शुभ युक्त या दृष्ट तथा शुभ भाव में स्थित हो तो जीवन सफल होता है। व्यवसाय में यश, सम्पत्ति, कीर्ति आदि की प्राप्ति होती है। स्त्रियां एकाधिक होती हैं। कामुक किन्तु परस्त्रियों से विमुख प्रविती होती है। स्त्री, सन्तान, धन, सम्पत्ति, आभूषण और वाहन द्वारा सुख प्राप्त होता है। राज्य पक्ष से सम्मान होता है, विद्या-लाभ, गायन और नृत्यादि में मन लगाने वाला, शुभ स्वभाव, दानादि में अभिरुचि रखने वाला एवं क्रय-विक्रय में चतुर होता है। यदि शुक्र निर्बल या पीडि़त हो तो झगड़ालू, खर्चीली प्रवृत्ति के प्रेम सम्बन्धों की चाह होती है। साधारण भाषा में दिल फैंक कहते हैं। इज्जत की फिक्र न करने वाले, अनैतिक सम्बन्धों में रस लेने वाले, चंचल अविश्वासी होते हैं। सभी कमाई शराब पीने में गंवा देते हैं। मित्रता में भी स्थिरता नहीं होती। किसी भी चीज में व्यवस्थित नहीं होते। धर्म कर्म के बारे में भी उदासीन रहते हैं। घरेलू झगड़े, वात-कफ प्रकोप जनित रोग होते हैं।
विभिन्न भावगत शुक्र की दशा का फल
केंद्र भाव- उत्तम वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, नवरत्न, आभूषण, वाहन आदि से शारीरिक सुख की प्राप्ति
लग्न भाव- राजनेताओं से मित्रता व लाभ, वाहन, आभूषण आदि से शारीरिक सुख की प्राप्ति होती है।
द्वितीय भाव- धनी, उत्तम भोजन, मधुर वाणी, परोपकारी, राज-सम्मान प्राप्त होता है।
तीसरा भाव- उत्साही, साहसी, उत्तम वाहन, आभूषण, वस्त्रादि एवं भाइयों से सुख प्राप्त होता है।
चतुर्थ भाव- अधिकार प्राप्ति, वस्त्र, आभूषण, वाहन, सुगन्धित द्रव्य आदि प्राप्त होते हैं। सम्मान व कीर्ति प्राप्त होती है। माता का सुख मिलता है।
पंचम भाव- सन्तान प्राप्ति, कीर्ति, सम्मान व उत्तम विद्या प्राप्ति होती है।
छटवा भाव - धन नाश, पुत्र, कुटुम्ब एवं भाइयों, स्त्री की हानि, शत्रु भय, रोग का आक्रमण होता है।
सप्तम भाव- स्त्री का वियोग, परदेश गमन, रोग, प्रमेह, व्यभिचारी, सन्तान एवं बन्धुजन की हानि होती है।
अष्टम भाव- शस्त्र, अग्नि या चोर से आघात, कभी सुख, कभी दुःख की प्राप्ति होती है। धन की वृद्धि और राजकीय यश प्राप्त होता है।
नवम भाव -राज सम्मान, पिता व गुरुजनों से सुख और यश की वृद्धि, धार्मिक कर्मों में रुचि होती है।
दशम भाव- धार्मिक कर्मों में रुचि, नवीन सम्पत्ति, वाहन आदि की प्राप्ति, वस्त्र, आभूषण, सुगन्धित द्रव्य आदि की प्राप्ति होती है।
एकादश भाव -राज सम्मान, पुत्र, धन, वस्त्र, सुगन्धित द्रव्यों की प्राप्ति होती है। व्यवसाय में वृद्धि, परोपकारी एवं पुस्तक लिखने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
द्वादश भाव- राज-सम्मान, धन की प्राप्ति, स्थानच्युति। विदेश भ्रमण, मातृ वियोग एवं मन दुःखी होता है।
शुक्र की महादशा में उत्तम वाहन, धन-संपदा-रत्न-आभूषण की प्राप्ति, क्रीड़ा, मनोरंजन, सुख वैभव सामग्री, स्त्री सुख, नल, यात्रा व राजसम्मान की प्राप्ति हो तथा घर में मंगल कार्य हों। शुक्र शुभ ग्रह है। काल पुरुष का धनेश व सप्तमेश होने से निश्चय ही धन, देह कान्ति, उत्तम खान-पान, वस्त्राभूषण व स्त्री सुख देगा। द्वादशस्थ होने पर समुद्र पार से धनागम कराएगा, किन्तु व्ययभाव में स्थित ग्रह हानि, चिन्ता व कष्ट भी देता है। अतः किसी गुरुजन का वियोग, बन्धुओं को कष्ट व मन में चिंता भी होगी।
शुक्र/शुक्र- वस्त्राभूषण, वाहन, सुगन्धित पदार्थ, स्त्री भोग, धन संपदा व सुख प्राप्त हो। देह कान्ति बढ़े।
शुक्र/सूर्य- नेत्र, कपोल, कुक्षि (बगल) में रोग/पीड़ा हो। राजभय, गुरुजन अथवा बन्धु से/को पीड़ा हो(सूर्य व शुक्र परस्पर शत्रु हैं, सूर्य राजा है तो शुक्र सुख है। अतः राजा या गुरुजन (वरिष्ठ) अधिकारियों से भय एवं कष्ट की संभावना बढ़ती है। कालपुरुष के जन्मांग में शुक्र, सूर्य से द्वादश भाव में है। ये भी सुख की हानि करने वाली स्थिति है।)
शुक्र/चन्द्रमा- नख-शिख व दांतों में चोट लगे, दर्द हो। वात-पित्त रोग, धन नाश, संग्रहणी, यक्ष्मा अथवा गुल्म रोग हो। सूर्य की भांति चंद्रमा भी शुक्र के लिये शत्रु ही है। चंद्रमा कालपुरुष का सुखेश है तो शुक्र द्वि तीयेश, अतः रोग-पीड़ा, धन हानि से मन में संताप होना सहज है।
शुक्र/मंगल- पित्त प्रकोप व रक्त दोष से पीड़ा हो। भूमि, सोना, तांबा सरीखी धातु की प्राप्ति व लाभ होेता है। किसी युवती से अवैध संबंध होना संभव है। कार्य व्यवधान/परिवर्तन हो। नौकरी या व्यापार बदले। मंगल कालपुरुष का लग्नेश होकर दशमस्थ है तो शुक्र धनेश होकर व्यय भाव में। इनमें परस्पर संबंध 3-11 भाव का है जो अशुभ ही कहा जाएगा। मंगल भूमि लाभ तो अवश्य कराएगा, किन्तु रक्त विकार या उच्च रक्त चाप भी दे सकता है। इसी प्रकार शुक्र-मंगल के कारण काम वेग को बढ़ाएगा, अविवेकी बनाकर पशुवत् आचरण दे सकता है।
शुक्र/राहु- पुत्र का जन्म, धन लाभ व आदर सत्कार मिले। वाणी मधुर व प्यारी हो। शत्रु पर विजय मिले, शत्रु कारावास भोगे। कभी जातक को भी विष, अग्नि, चोर से पीड़ा व मानसिक संताप होता है।
शुक्र/गुरु- उच्च पद व अधिकारों की प्राप्ति हो। धर्म कर्म में संलग्न हो देवताओं का पूजन करे। स्त्री पुत्र का सुख पाए। राज्य कृपा से विविध सुखभोग प्राप्त हों।
शुक्र/शनि- समाज, सेना या सरकार से सम्मान मिले। उत्तम स्त्री सुख, धनागम व सुख साधन की प्राप्ति व वृद्धि हो। शुक्र व शनि परस्पर मित्र हैं। काल पुरुष के जन्मांग में शुक्र भोग स्थान में है, तो शनि भी सप्तम भाव में शुक्र की राशि का होकर स्थित है। अतः ये शनि, निश्चय ही भोग सामग्री, वैभव व भाग्य वृद्धि के साथ सुख बढ़ाएगा।
शुक्र/बुध- धन-संपत्ति, यश-प्रतिष्ठा, पद-अधिकार व पुत्र का सुख मिले। शत्रुओं का नाश हो। जातक वात-पित्त-कफ (त्रिदोष) व्याधि से पीडि़त हो। (बुध पराक्रमेश हेाकर षष्ठस्थ होने से पराक्रम वृद्धि कर शत्रु नाश करेगा। शुक्र धनेश होकर भोग भवन में उच्चस्थ होने पर वैभव व सुख सामग्री बढ़ाकर सुख देगा।)
शुक्र/केतु- संपत्ति व सुख की हानि, अग्नि भय, देह में पीड़ा, पुत्र वियोग व वेश्याओं की संगति हो। (शुक्र दैत्य गुरु है, वह भोगी भी है। केतु प्रबल देवशत्रु है। अतः भोग लिप्सा व धर्म विमुखता के दुखदायी परिणाम इस अवधि में प्राप्त होना स्वाभाविक ही है। केतु मानो चेतावनी देता है कि वह धर्म का पक्षधर है। अधर्म, अन्याय व स्वार्थ के लिये जातक को कठोर दंड अवश्य मिलेगा।)

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