लग्न व्यक्तित्व का द्योतक है। मेषादि बारह लग्नों में अलग-अलग रत्न चयन या धारण करने का महत्व है। दशा-अंतर्दशा अथवा गोचर में कुछ समय के लिए रत्न धारण कर सकते हैं, लेकिन मुख्यतया लग्नेश, पंचमेश एवं भाग्येश के रत्न धारण करने से जीवन में आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिल सकती है। विभिन्न लग्नों के संदर्भ में इसका विवरण नीचे दिया जा रहा है। मेष: मेष लग्न के लिए माणिक्य, मोती, मूंगा, पुखराज धारण करना शुभ रहेगा। शिक्षा में सफलता और संतान सुख के लिए माणिक्य धारण करना शुभ है। मेष लग्न में सूर्य पंचमेश भी है। मानसिक परेशानियों से मुक्ति एवं सुख के लिए चतुर्थेश चंद्रमा का रत्न मोती उपयुक्त रहेगा। व्यक्तित्व प्रभावशाली बनाने, मान-प्रतिष्ठा एवं स्वास्थ्य संबंधी अनुकूलता हेतु मेष लग्न वालों को मूंगा धारण करना चाहिए। उत्साह वर्धन व सक्रियता हेतु भी मूंगा उपयोगी है। मेष लग्न के जातकों के लिए उच्च स्तरीय सफलता एवं भाग्य वृद्धि हेतु भाग्येश गुरु का रत्न पुखराज पहनना श्रेयस्कर रहेगा। मेष लग्न वालों को पन्ना, हीरा एवं नीलम पहनने से बचना चाहिए, अर्थात इन रत्नों को आजीवन धारण नहीं करें। दशा-अंतर्दशा अथवा गोचर के अनुसार धारण कर सकते हैं। वृष: वृष लग्न वालों का लग्नेश एवं षष्ठेश शुक्र का रत्न हीरा पहनने से व्यक्तित्व प्रभावशाली होगा व स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। भूमि से जुड़े विवाद, पारिवारिक कष्ट आदि प्रतिकूल परिस्थितियों में जातक को माणिक्य धारण करना चाहिए। आर्थिक मामलों, विद्या, संतान, मानसिक एकाग्रता के लिए पंचमेश व धनेश बुध का रत्न पन्ना पहनना चाहिए। वृष लग्न के लिए शनि भाग्य व दशम का स्वामी होकर प्रबल योगकारक हो जाता है। अतः शनि का रत्न नीलम पहने से भाग्य की प्रबलता, राज्य की अनुकंपा बनी रहेगी तथा जीवन में उच्च स्तरीय सफलता मिलेगी। वृषभ लग्न वालों को मोती, मूंगा और पुखराज पहनने से बचना चाहिए। मिथुन: मिथुन लग्न के जातकों को लग्नेश बुध का रत्न पन्ना धारण करना श्रेयष्कर है बुध लग्नेश व चतुर्थेश भी है अतः पारिवारिक एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं, वाहन-भूमि आदि की प्राप्ति के लिए पन्ना धारण करना शुभ रहेगा। संतान सुख एवं विद्या में सफलता के लिए शुक्र का रत्न हीरा पहनना शुभ रहेगा। मिथुन लग्न वालों को मूंगा, पुखराज, नीलम नहीं पहनने चाहिए। आर्थिक सफलता के लिए मोती पहनना श्रेष्ठ रहेगा। कर्क: कर्क लग्न वालों को लग्नेश चंद्रमा का रत्न मोती आजीवन धारण करना चाहिए। माणिक्य पहनने से आर्थिक सफलता तो मिलेगी लेकिन वृद्ध व्यक्तियों को माणिक्य नहींे पहनना चाहिए क्योंकि सूर्य मारकेश भी होता है। कर्क लग्न के जातकों को मूंगा भी पहनना चाहिए क्योंकि मंगल पंचम व दशम भाव का स्वामी होकर प्रबल योगकारक ग्रह बन जाता है। मूंगा पहनने से शिक्षा, संतान, राज्य आदि से अनुकूलता प्राप्त होती है। कर्क लग्न वालों को हीरा, नीलम या पन्ना नहीं पहनना चाहिए। पुखराज कुछ समय के लिए पहना जा सकता है। सिंह: सिंह लग्न के जातकों को माणिक्य आजीवन पहनना चाहिए क्योंकि लग्नेश का रत्न पहनने से आरोग्य और आत्मबल में वृद्धि होती है एवं सफलता मिलती है। मूंगा पहनने से भूमि-संपत्ति मामलों, पारिवारिक मामलों एवं भाग्य में सफलता मिलेगी। पुखराज पहनने से संतान सुख और प्रेम-प्रसंग में अनुकूलता प्राप्त होगी। सिंह लग्न के जातकों को नीलम, हीरा पन्ना नहीं पहनना चाहिए। कन्या: लग्नेश बुध का रत्न पन्ना पहनने से आरोग्य राज्य पक्ष से प्रतिष्ठा और व्यापारिक कार्यों में सफलता मिलती है। मोती पहनने से आय में वृद्धि होगी। हीरा पहनने से पैतृक धन-संपत्ति और भाग्य की अनुकूलता प्राप्त होती है। कन्या लग्न वालों को माणिक्य, मूंगा, पुखराज या नीलम नहीं पहनना चाहिए। तुला: लग्नेश शुक्र का रत्न हीरा आजीवन पहनना चाहिए। मोती पहनने से राज्य पक्ष से लाभ एवं ख्याति मिलती है। नीलम पहनने से वाहन, संपत्ति और संतान सुख से जुड़े विषयों में सफलता मिलेगी। पन्ना पहनने से भाग्य संबंधी बाधाएं दूर होंगी। तुला लग्न वालों को मूंगा या पुखराज नहीं पहनना चाहिए। माणिक्य दशा-अंतर्दशा में पहन सकते हैं। वृश्चिक: लग्नेश मंगल का रत्न मूंगा आजीवन पहन सकते हैं। भाग्येश चंद्र का रत्न मोती पहनना भाग्यवर्धक साबित होगा। माणिक्य पहनने से मान-प्रतिष्ठा, उच्चाधिकारियों से लाभ होगा। पुखराज पहनने से आर्थिक क्षेत्र, संतान सुख और अध्ययन क्षेत्र में क्षेत्र में सफलता प्राप्त होगी। वृश्चिक लग्न वालों को पन्ना, हीरा व नीलम नहीं पहनना चाहिए। धनु: लग्नेश व चतुर्थेश गुरु का रत्न पुखराज आजीवन धारण कर सकते हैं। इससे जीवन में उत्साह, मान-प्रतिष्ठा और भूमि-संपत्ति के मामलों से लाभ मिलेगा। भाग्येश सूर्य का रत्न माणिक्य पहनने से भाग्य की प्रबलता रहेगी। पंचमेश मंगल का रत्न मूंगा पहनने से संतान सुख व अध्ययन में सफलता मिलेगी। धनु लग्न वालों को मोती, पन्ना, हीरा या नीलम नहीं पहनना चाहिए। मकर: लग्नेश व धनेश शनि का रत्न नीलम पहनने से व्यक्तित्व में निखार आएगा व आर्थिक क्षेत्र में सफलता मिलेगी। नीलम आजीवन धारण कर सकते हैं। उच्च शिक्षा व भाग्य की प्रबलता के लिए पन्ना धारण करना ठीक रहेगा। हीरा पहनने से संतान, अध्ययन व प्रेम प्रसंग में अनुकूलता प्राप्त होगी। मकर लग्न वालों को माणिक्य पुखराज धारण नहीं करना चाहिए। मोती व मूंगा दशा-अंतर्दशा में धारण कर सकते हैं। कुंभ: लग्नेश शनि का रत्न नीलम पहनने से जीवन में उच्चाधिकार, मान-प्रतिष्ठा व स्थिरता की प्राप्ति होती है। हीरा पहनने से संपत्ति, वाहन व भाग्य की प्रबलता बनी रहेगी। दशा-अंतर्दशा में पुखराज व मूंगा पहन सकते हैं, लेकिन माणिक्य व मोती कभी न पहनें। मीन: लग्नेश व राज्येश गुरु का रत्न पुखराज पहनने से आरोग्य और मान-प्रतिष्ठा बढ़ेगी। यह रत्न आजीवन पहनें। पंचमेश चंद्रमा का रत्न मोती शिक्षा, संतान और प्रेम-प्रसंग में उपयोगी होगा। धनेश व भाग्येश का रत्न मूंगा पहनने से आर्थिक क्षेत्र में सफलता मिलेगी व भाग्य भी साथ देगा। माणिक्य हीरा नहीं पहनना चाहिए। दशा, अंतर्दशा या गोचर में नीलम व पन्ना धारण कर सकते हैं।
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Monday 31 October 2016
गृह वास्तु
किसी व्यक्ति विशेष के गृह वास्तु निरीक्षण से उसकी ओर उसके परिवार की स्थिति का काफी हद तक अंदाजा लग जाता है। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार सृष्टि एवं मानव पंचमहाभूत तत्वों (आकाश, वायु, पृथ्वी, जल एवं अग्नि) से बने हैं, उसी प्रकार वास्तु भी इन्हीं तत्वों क े परस्पर समन्वय पर आधारित है, अर्थात घर में इन पंच तत्वों का संतुलन होना चाहिये। शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तौर पर सुखी एवं समृद्ध जीवन के लिये घर में सकारात्मक उर्जा प्रवाह में किसी भी प्रकार की रूकावट नहीं होनी चाहिये। रूकावट और संतुलन के अध्ययन के लिये हमें दिशाओं और तत्वों का ध्यान रखना पड़ता है। इस लेख के विषयानुसार हमें गृह वास्तु से जातक के बारे में जानना है। इसलिये, हम किन दिशाओं में कौन-कौन सी समस्यायें एवं बाधाएं होती हैं उसकी बजाय, समस्याओं के अनुसार वास्तु दोष का वर्णन करने की चेष्टा करते हैं। मुख्य रूप से समस्या शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक ही होती है। शारीरिक गृह स्वामी का स्वास्थ्य अगर गृह स्वामी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है तो निम्न वास्तु दोष होने की सम्भावना है: मुख्य द्वार वेध है। जैसे, टूटा-फूटा मुख्य द्वार, स्वर वेध एव द्वार के अन्य वेध। दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्य) दिशा दूषित है जैसे, नैर्ऋत्य कोण का नीचा होना। यह दिशा सदैव ऊँची और मजबूत होनी चाहिये। यह एक गंभीर वास्तु दोष है और गृह स्वामी के लगातार बीमार रहने की आशंका बनी रहती है। ईशान दूषित है। ईशान दूषित होने से गृह स्वामी के स्वास्थ्य में कमी होती है और सन्तान वंश हानि भी हो सकती है। विशेषतः प्रथम पुत्र के लिये हानिकारक होता है। परिवार के अन्य सदस्यों का स्वास्थ्य अगर परिवार के अन्य सदस्यों का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तो निम्न वास्तु दोष मिलने की सम्भावना है: आग्नेय वृद्धि है। इस प्रकार के दोष में विशेषतः परिवार की महिलाओं का स्वास्थ्य खराब रहता है। नैर्ऋत्य दूषित है तो पत्नी का स्वास्थ्य खराब रह सकता है। उत्तर दिशा दूषित है तो माता का स्वास्थ्य खराब रह सकता है। दक्षिण दिशा दूषित है तो पिता का स्वास्थ्य खराब हो सकता है। बार-बार दुर्घटनाएं अगर नैत्रित्य दिशा दूषित है तो बार-बार दुर्घटनाओं की सम्भावना भी बनी रहती है। इस दिशा का स्वामी राहु है जो एक नैसर्गिक अशुभ ग्रह है। संतान हानि संतान, पारिवारिक परम्पराओं को आगे बढ़ाती है और उसके स्वस्थ रहने से परिवार में चहक और प्रसन्नता बनी रहती है। अगर ईशान या पूर्व दिशा दूषित है तो संतान हानि की सम्भावना रहती है।
इशान दूषित होने की स्थिति में प्रथम पुत्र की स्वास्थ्य हानि की सम्भावना अधिक होती है। मानसिक स्वभाव अगर गृह स्वामी स्वभाव से चिड़चिड़ा, झगड़ालू, क्रोधी, अप्रसन्न, मानसिक रूप से सदैव परेशान रहने वाला लगे तो निम्न वास्तु दोष होने की सम्भावना है: मुख्य द्वार वेध है। ब्रह्मस्थान दूषित है। जैसे, उस पर किसी प्रकार का निर्माण है, हैंडपंप है, बीम है, शयन कक्ष है, शौचालय है या कोई भारी सामान रखा है। कानून से जुड़ी परेशानियां या अचानक अड़चनें आना अगर मुख्य द्वार वेध है तो परिवार कानून से संबंधित समस्याओं में उलझा ही रहता है या बार-बार कार्य पूर्ण होने में अड़चनें आती है। पश्चिम दिशा के दूषित होने से भी यह समस्या आती है क्योंकि कालपुरुष कुंडली में सप्तम भाव, पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। सप्तम भाव साझेदारी का भी कारक है। अर्थात, साझेदारी एवं व्यवसाय संबंधी कानूनी उलझनें पश्चिम दिशा के दूषित होने से आ सकती हैं। जिद्दी बच्चे या अध्ययन में कमजोर अगर जातक के घर के बच्चे अध्ययन में कमजोर हैं या जिद्दी हैं, तो निम्न वास्तु दोषों पर ध्यान दें: दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्य) दूषित है तो बच्चे जिद्दी होते है। ईशान या पूर्व दूषित होने से बच्चे पढ़ाई में कमजोर रहते हैं। वैवाहिक कलह वैवाहिक कलह से जीवन का संपूर्ण संतुलन बिगड़ जाता है। दाम्पत्य के अतिरिक्त परिवार के सभी सदस्य इससे प्रभावित होते हैं। अगर आग्नेय दिशा दोष पूर्ण है तो इसकी सम्भावना अधिक होती है क्योंकि आग्नेय दिशा के प्रतिनिधि ग्रह शुक्र हैं जो वैवाहिक जीवन से सम्बंधित हर सुख पर प्रभाव डालते हैं। पारिवारिक तनाव प्रत्येक परिवार में वैचारिक मतभेद एक सामान्य सी बात है।परन्तु अगर यह मतभेद लगातार बना रहे तो मानसिक तनाव का रूप ले लेता है। निम्न वास्तु दोष होने से परिवार में मानसिक तनाव होने की सम्भावना अधिक हो जाती है: मुख्य द्वार वेध या मुख्य द्वार आग्नेय मुखी या नैर्ऋत्य मुखी होना। रसोई घर में वास्तु दोष हो सकता है। जैसे, गैस का उत्तर-पूर्व या दक्षिण में होना। दूषित वायव्य भी पारिवारिक कलह का कारण होता है| दिवालियापन के करीब आ जाना अगर गृह स्वामी की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गयी है कि वह दिवालियापन की कगार तक आ चुका है तो निम्न वास्तु दोषों पर ध्यान दें। उत्तर दूषित है क्योंकि उत्तर के देवता कुबेर है। वायव्य, विशेषतः उत्तर-वायव्य दूषित होने से दिवालियापन की स्थिति पैदा हो सकती है। ईशान दूषित है जिसके स्वामी ग्रह बृहस्पति हैं जो धन के भी कारक हैं। जैसे, वह स्थान ऊँचा है, वहां शौचालय है, वहां सीढ़ियां हैं इत्यादि। मान-सम्मान में कमी समाज में अधिकतर मान-सम्मान की कीमत को धन से भी अधिक आँका जाता है| अगर, व्यक्ति के मान-सम्मान में कमी आ गयी है या लगातार आ रही है तो वायव्य दिशा दूषित हो सकता है।
इशान दूषित होने की स्थिति में प्रथम पुत्र की स्वास्थ्य हानि की सम्भावना अधिक होती है। मानसिक स्वभाव अगर गृह स्वामी स्वभाव से चिड़चिड़ा, झगड़ालू, क्रोधी, अप्रसन्न, मानसिक रूप से सदैव परेशान रहने वाला लगे तो निम्न वास्तु दोष होने की सम्भावना है: मुख्य द्वार वेध है। ब्रह्मस्थान दूषित है। जैसे, उस पर किसी प्रकार का निर्माण है, हैंडपंप है, बीम है, शयन कक्ष है, शौचालय है या कोई भारी सामान रखा है। कानून से जुड़ी परेशानियां या अचानक अड़चनें आना अगर मुख्य द्वार वेध है तो परिवार कानून से संबंधित समस्याओं में उलझा ही रहता है या बार-बार कार्य पूर्ण होने में अड़चनें आती है। पश्चिम दिशा के दूषित होने से भी यह समस्या आती है क्योंकि कालपुरुष कुंडली में सप्तम भाव, पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करता है। सप्तम भाव साझेदारी का भी कारक है। अर्थात, साझेदारी एवं व्यवसाय संबंधी कानूनी उलझनें पश्चिम दिशा के दूषित होने से आ सकती हैं। जिद्दी बच्चे या अध्ययन में कमजोर अगर जातक के घर के बच्चे अध्ययन में कमजोर हैं या जिद्दी हैं, तो निम्न वास्तु दोषों पर ध्यान दें: दक्षिण-पश्चिम (नैर्ऋत्य) दूषित है तो बच्चे जिद्दी होते है। ईशान या पूर्व दूषित होने से बच्चे पढ़ाई में कमजोर रहते हैं। वैवाहिक कलह वैवाहिक कलह से जीवन का संपूर्ण संतुलन बिगड़ जाता है। दाम्पत्य के अतिरिक्त परिवार के सभी सदस्य इससे प्रभावित होते हैं। अगर आग्नेय दिशा दोष पूर्ण है तो इसकी सम्भावना अधिक होती है क्योंकि आग्नेय दिशा के प्रतिनिधि ग्रह शुक्र हैं जो वैवाहिक जीवन से सम्बंधित हर सुख पर प्रभाव डालते हैं। पारिवारिक तनाव प्रत्येक परिवार में वैचारिक मतभेद एक सामान्य सी बात है।परन्तु अगर यह मतभेद लगातार बना रहे तो मानसिक तनाव का रूप ले लेता है। निम्न वास्तु दोष होने से परिवार में मानसिक तनाव होने की सम्भावना अधिक हो जाती है: मुख्य द्वार वेध या मुख्य द्वार आग्नेय मुखी या नैर्ऋत्य मुखी होना। रसोई घर में वास्तु दोष हो सकता है। जैसे, गैस का उत्तर-पूर्व या दक्षिण में होना। दूषित वायव्य भी पारिवारिक कलह का कारण होता है| दिवालियापन के करीब आ जाना अगर गृह स्वामी की आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर हो गयी है कि वह दिवालियापन की कगार तक आ चुका है तो निम्न वास्तु दोषों पर ध्यान दें। उत्तर दूषित है क्योंकि उत्तर के देवता कुबेर है। वायव्य, विशेषतः उत्तर-वायव्य दूषित होने से दिवालियापन की स्थिति पैदा हो सकती है। ईशान दूषित है जिसके स्वामी ग्रह बृहस्पति हैं जो धन के भी कारक हैं। जैसे, वह स्थान ऊँचा है, वहां शौचालय है, वहां सीढ़ियां हैं इत्यादि। मान-सम्मान में कमी समाज में अधिकतर मान-सम्मान की कीमत को धन से भी अधिक आँका जाता है| अगर, व्यक्ति के मान-सम्मान में कमी आ गयी है या लगातार आ रही है तो वायव्य दिशा दूषित हो सकता है।
कुंडली में शुक्र चन्द्रमा युति के फल
शुक्र-चंद्रमा की युति सौंदर्यप्रदायकसुंदरता अपने आप में काफी मनमोहक होती है। हर व्यक्ति, हर नर-नारी अपने आप को सुंदर दिखाने की कोशिश करता है और इसके लिए अनेक प्रयास भी करता है। लेकिन प्राकृतिक सौंदर्य अपने आप में अलग होती है। यहां सौंदर्य से तात्पर्य व्यक्ति की बनवाट से है जो व्यक्ति को आकर्षित करती है। ज्योतिष शास्त्र के आधार पर देखा गया है कि कुंडली में शुक्र-चंद्रमा की युति व्यक्ति को सौंदर्य प्रदान करती है जो इस बात पर निर्भर करती है कि शुक्र और चंद्र कुंडली के किस भाव में बैठे हैं और किस ग्रह से प्रभावित हैं। इस लेख में किस राशि में चंद्र और शुक्र की युति होने से व किसी अन्य ग्रह का प्रभाव पड़ने पर व्यक्ति कैसा होगा इसका विवेचन किया जा रहा है। मेष तथा वृश्चिक: इस राशि में शुक्र और चंद्र की युति होने से व्यक्ति सुंदर होने के साथ-साथ गेहंुआं रंग तथा लालिमा लिये हुए होता है। वृषभ तथा तुला: इस राशि में यह युति होने से जातक का रंग गोरा तथा सफेदपन पर होता है। मिथुन तथा कन्या: इस राशि में यह युति होने से व्यक्ति लंबा, गेहुंआं तथा कुछ -कुछ पक्का हुआ रंग का होता है। किन्हीं-किन्हीं परिस्थितियों में जहां कि इस युति पर राहु अथवा केतु की पूर्ण दृष्टि पड़ रही हो तो व्यक्ति सांवला होता है किंतु होता है आकर्षक। कर्क राशि: कर्क राशि में यह युति होने से व्यक्ति एकदम गोरा एवं आकर्षक होता है। सिंह राशि: सिंह राशि पर यह युति होने से मनुष्य का रंग सांवला एवं ललाई लिये होता है तथा पक्का-पक्का सा होता है। ऐसे में यदि केतु की दृष्टि पड़ रही हो तो ऐसे व्यक्ति का रंग कभी-कभी चितकबरा भी होता है। धनु एवं मीन: इस राशि में शुक्र-चंद्रमा की युति व्यक्ति को अत्यधिक सुंदर बनाती है। ऐसे जातक का रंग बिल्कुल गोरा, साफ एवं आकर्षक होता है तथा व्यक्ति की चमड़ी काफी कोमल होती है एवं रंग पीलापन लिये हुए होता है। मकर तथा कुंभ: इस राशि में यह युति होने से व्यक्ति सुंदर होने के साथ-साथ सांवलापन लिये हुए होता है। चमड़ी कठोर तथा पकी-पकी सी होती है। ऐसे में यदि इस युति पर राहु अथवा केतु की पूर्ण दृष्टि पड़ रही हो तो व्यक्ति काले रंग का होता है। फिर भी उसका चेहरा एवं शरीर की बनावट आकर्षक होती है।
दांपत्य जीवन में राहु का दुष्प्रभाव
विवाह व दाम्पत्य जीवन का आकलन जन्मकुंडली के सप्तम भाव से किया जाता है। पुरुष की कुंडली में शुक्र ग्रह पत्नी व विवाह (कलत्र) कारक होता है तथा स्त्री की कुंडली में बृहस्पति पति तथा दाम्पत्य सुख का कारक होता है। ‘‘ज्योतिष नवनीतम्’’ ग्रंथ के अनुसारः गुरुणा सहिते दृष्टे दारनाथे बलान्विते। कारके वा तथा पतिव्रतपरायणा।। अर्थात् जब सप्तमेश व कारक (शुक्र) बलवान होकर गुरु से युक्त अथवा दृष्ट हों तो जीवन साथी निष्ठावान होता है। परंतु सभी जातक ऐसे भाग्यशाली नहीं होते। सप्तम भाव, भावेश व शुक्र पर मंगल और शनि का प्रभाव मुख्य रूप से दाम्पत्य जीवन में विघ्नकारक माना जाता है, परंतु छाया ग्रह (राहु/केतु) भी इस क्षेत्र में कम दुष्प्रभावी नहीं होते। छाया ग्रहों में राहु इहलोक तथा सांसारिक क्षेत्र में, और केतु परलोक तथा धार्मिक क्षेत्र में विशेष प्रभावी होते हैं। महर्षि पराशर के अनुसार राहु वृष राशि में उच्च का होता है, मिथुन उसकी मूल त्रिकोण राशि है, तथा वृश्चिक में वह नीच का होता है। जब राहु बलवान हो और शुभ ग्रहों स युक्त या दृष्ट हो तो जातक के लिए शुभ फलदायक होता है। परंतु अशुभ प्रभाव या अष्टम अथवा द्वादश भाव में होने पर राहु जातक का जीवन कष्टमय बना देता है। अशुभ राहु का सप्तम भाव व भावेश से संबंध होने पर दाम्पत्य जीवन दुखी होता है। सभी ग्रंथ राहु के सप्तम भाव व भावेश से संबंध को दाम्पत्य जीवन के लिए अशुभ मानते हैं। जातक चरित्रहीन होता है (सराहुकेतौ यदि दारनाथे पापेक्षिते वा व्यभिचार योगः। ‘‘सर्वार्थचिन्तामणि’’) पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दूसरी पत्नी भी बीमार रहती है, या पति के विरुद्ध आचरण करने वाली होती है। जातक नीच स्त्रियों पर धन नष्ट करता है और उसे संतान प्राप्ति में बाधा आती है या संतान से कष्ट होता है। अष्टम (मांगल्य) भाव का राहु रोगदायक होता है और दाम्पत्य जीवन को दुखी बनाता है। षष्ठ भाव में मंगल, सप्तम भाव में राहु और अष्टम भाव में शनि जीवनसाथी का नाश करते हैं। मानसागरी ग्रंथ के अनुसार: षष्ठे च भवने भौभः सप्तमे राहु सम्भवः। अष्टमे च यदा सौ रिस्तस्य भार्या न जीवति।। राहु का लग्न पर प्रभाव जातक का कपटी, व्यग्र, तथा निरंकुश बनाता है। सप्तम भाव स्थित चंद्रमा पर राहु की युति या दृष्टि जातक को व्याकुल व दुस्साहसी बनाती है। राहु तथा मंगल का आपसी संबंध जातक को जिद्दी व लड़ाकू बनाता है और इनका सप्तम भाव पर प्रभाव विवाह विच्छेद कराता है। राहु का शुक्र पर प्रभाव जातक को कामुक बनाता है। राहु का सूर्य से संबंध होने पर जीवन साथी निम्न स्तर का तथा अहंकारी होता है। ये वृत्तियां दाम्पत्य जीवन में बिखराव लाती हैं। राहु का चंद्रमा व शुक्र दोनों पर दुष्प्रभाव होने से जातक अप्राकृतिक यौन भाव से ग्रस्त होता है। मंगल व शुक्र पर राहु का प्रभाव होने से जातक परिवार, जाति व समाज की परवाह न कर यौन संबंध स्थापित करता है। राहु का शनि पर प्रभाव होने से दीर्घकालीन रोग दाम्पत्य जीवन को दुखमय बना देते हैं।
ग्रहों के कारक घर
हर ग्रह के कारक घर, स्थायी घर, उच्च-नीच घर आदि निश्चित हैं। फिर भले ही वह ग्रह ‘अतिथि’ बने या किरायेदार! ग्रह का समय पूरा होने पर ग्रहरूपी दीया बुझ जाएगा। हर ग्रह उसकी अपनी राशि में, भले ही वह राशि अन्य ग्रह की कारक क्यों न हो, शुभ फल ही देगा। ग्रह जिस घर में बैठा होगा उस ग्रह की चीजें स्थापित करने से उसका प्रभाव बढ़ेगा। उदाहरणार्थ-केतु नौंवे घर में बैठा हो तो कुत्ता पालने से केतु के प्रभाव में बढ़ोत्तरी होगी। नैसर्गिक जन्मकुंडली में दूसरे घर में शुक्र की राशि रहती है एवं दूसरा घर बृहस्पति का कारक है। यहां शुक्र बैठा हो तो उसके शुभ फल प्राप्त होंगे। तीसरे घर में बुध की राशि रहती है। तीसरा घर मंगल का कारक है। मंगल शुभ हो तो यहां बुध का भी शुभ फल मिलेगा। चैथे घर में चंद्र की राशि कर्क आती है। राशि स्वामी चंद्र है। यहां राहु का अशुभ फल प्राप्त नहीं होता। वर्ष जन्मकुंडली में राहु चैथे घर में बैठे तो राहु के कार्य-मकान की छत बदलना, कोयले की बोरियों का संग्रह करना, नया टाॅयलेट बनवाना, काले आदमी को साझेदार बनाना जैसे काम नहीं करने चाहिए अन्यथा झगड़े होते रहेंगे। पांचवें घर में सूर्य की राशि सिंह रहती है। इस घर के कारक ग्रह बृहस्पति तथा सूर्य हैं। इस घर में इसके शुभ फल ही प्राप्त होंगे। छठे घर में बुध की राशि कन्या पड़ती है। यह केतु का कारक घर है। यहां बुध के शुभ फल मिलते हैं। यहां केतु होने पर उसकी चीजों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बुध-केतु साथ में बैठे हों तो बुध के अच्छे और केतु के बुरे फल मिलेंगे। सातवें घर में शुक्र की राशि तुला रहती है। यह घर शुक्र एवं बुध का कारक घर है। यहां शुक्र के शुभ फल मिलते हैं एवं बुध दूसरे ग्रहों की मदद करता है। आठवें घर में मंगल की राशि वृश्चिक रहती है। यह मंगल, शनि एवं चंद्र का कारक घर है। ये तीनों ग्रह जन्मकुंडली में अलग-अलग घरों में बैठे हों तो अच्छा फल प्राप्त होता है। इकट्ठे होने पर अशुभ फल देते हैं। वर्षफल में आठवें घर में अशुभ ग्रह आने पर उसके अशुभ फल ही मिलेंगे। लाल किताब के अनुसार नौवां घर भाग्य का आरंभ और किस्मत भी बतलाता है। जन्मकुंडली में इस घर का सर्वाधिक महत्त्व है। सारी जन्मकुंडली के फल को नौवां घर प्रभावित करता है। जातक के पुरुषार्थ रूपी कर्मों का अंतिम निर्णय भाग्य से ही होता है। काल के तीनों खंडों में भूतकाल इस घर का विषय है। नौवें घर में बृहस्पति की राशि धनु पड़ती है। इसका कारक बृहस्पति है तथा शनि राशिफल का है और बृहस्पति ग्रहफल का। शनि का कोई उपाय नहीं, बृहस्पति का उपाय है। इस घर में बृहस्पति और सूर्य के अच्छे फल प्राप्त होते हैं। धरती के नीचे रहने वाली वनस्पति का यह कारक घर है। दसवां घर विश्वासघाती माना जाता है। इस घर में बैठे ग्रह विश्वासघाती होते हैं। विश्वासघाती ग्रह दूसरे एवं ग्यारहवें घर में लाभदायक बनते हैं। ग्यारहवां घर बृहस्पति का स्थायी घर है। यहां शनि शुभ फल देता है। शनि के अलावा काफी ग्रह अशुभ फल प्रदान करते हैं। ग्यारहवें घर में शनि की राशि कुंभ पड़ती है। इस घर का कारक ग्रह शनि है। जन्मकुंडली में शुभ या अशुभ ग्रह जब खुद की अपनी राशि में या कारक घर में आते हैं तब शुभ फल देते हैं। जन्मकुंडली में बैठा उच्च ग्रह जब वर्ष जन्मकुंडली में भी उच्च का होकर बैठे तब उच्च शुभ फल देता है। बृहस्पति जन्मकुंडली में उच्च का हो और वर्ष जन्मकुंडली में दूसरे या चैथे घर में हो तब शुभ फलदायक होगा। सूर्य, चंद्र, मंगल ये पुरूष ग्रह दिन में, बुध, शनि, राहु, केतु ये नपुंसक ग्रह सवेरे एवं शाम को प्रभावी बनते हैं। कोई भी अशुभ या शुभ ग्रह चाहे जिस घर में बैठा हुआ हो, वह निम्नानुसार अन्य घरों में भी फलदायी होगा। - बृहस्पति-शुक्र अशुभ असरदार हों तो दूसरे और चैथे घरों में भी वे अशुभ फल देंगे। - पहले घर में बुध होने पर सूर्य, मंगल तथा शनि भी फलदायी होंगे। - दूसरे घर में बृहस्पति होने पर शुक्र भी फलदायी होगा। - तीसरे घर में बुध होने पर मंगल एवं शनि भी फलदायी होंगे। - चतुर्थ घर में बृहस्पति होने पर सूर्य और चंद्र भी फलदायी होंगे। - पांचवें घर में बृहस्पति होने पर सूर्य, राहु व केतु भी फलदायी होंगे। - छठे घर में केतु होने पर शुक्र भी फलदायी होगा। - सातवें घर में शुक्र होने पर बुध भी फलदायी होगा। - आठवें घर में मंगल होने पर शनि, चंद्र भी फलदायी होंगे। - नौवें घर में बृहस्पति होने पर अन्य ग्रह फलदायी नहीं होंगे। - दसवें घर में शनि होने पर राहु-केतु भी फलदायी होंगे। - ग्यारहवें घर में शनि होने पर बृहस्पति फलदायी होगा। - बारहवें घर में राहु होने पर बृहस्पति, शनि फलदायी होंगे।
जन्मकुंडली में शनि का गोचरीय फल
कुंडली में यदि शनि ग्रह बलशाली हो तो जातक को आवासीय सुख प्रदान करता है। निम्न वर्ग का नेतृत्व प्राप्त होता है। दुर्बल शनि शारीरिक दुर्बलता-शिथिलता, निर्धनता, प्रमाद एवं व्याधि प्रदान करता है- मन्दे पूर्णबले गृहादिसुखृद भिल्लाधिपत्यं भवेन्नयूने विलहरः शरीरकृशता रोगोऽपकीर्तिर्भवेत।। शनि ग्रह किसी भी एक राशि में लगभग 2 वर्ष 6 माह विचरण करते हुये लगभग 30 वर्ष में 12 राशियों का भोग करते हैं। शनि ग्रह के इस राशि भ्रमण को ही गोचर कहते हैं। शनि ग्रह का किसी एक राशि में भ्रमण करने से शुभ या अशुभ फल भी 2 वर्ष 6 माह तक ही रहता है। शनि ग्रह के चंद्रमा की राशि (जिस राशि में चंद्रमा स्थित हो) से भिन्न-भिन्न भाव में भ्रमण करने से किस-किस प्रकार का कर्मफल प्राप्त होता है, उल्लेख किया जा रहा है- 1. शनि जब चंद्र राशि में होता है:- उस समय जातक की बौद्धिक क्षमता क्षीण हो जाती है। दैहिक एवं आंतरिक व्यथायें प्रखर होने लगती है। अत्यंत आलस्य रहता है। विवाहित पुरूष को धर्मपत्नी तथा विवाहित स्त्री को पति एवं आत्मीय जनों से संघर्ष रहता है। मित्रों से दुख प्राप्त होता है, गृह-सुख विनष्ट होता है। अनपढ़ एवं घातक वस्तुओं से क्षति संभव है, मान-प्रतिष्ठा धूल-धूसरित होती है, प्रवास बहुत होते हैं। असफलतायें भयभीत करती हैं, दरिद्रता का आक्रमण होता है, सत्ता का प्रकोप होता है, व्याधियां पीड़ित करती हैं। 2. चंद्र राशि से शनि जब द्वितीय स्थान में होता है: स्वस्थान का परित्याग होता है, दारूण दुख रहता है, बिना प्रयोजन विवाद व संघर्ष होते हैं। निकटतम संबंधियों से अवरोध उत्पन्न होता है। विवाहित पुरूष की धर्मपत्नी तथा विवाहित स्त्री के पति को मारक पीड़ा सहन करनी पड़ती है। दीर्घ काल का दूर प्रवास संभव होता हैं, धनागम, सुखागम बाधित होते हैं आरंभ किये गये कार्य अधूरे रहते हैं। 3. चंद्र राशि से शनि जब तृतीय स्थान में होता है: भूमि का पर्याप्त लाभ होता है, व्यक्ति स्वस्थ, आनंद व संतुष्ट रहता है। एक अनिर्वचनीय जागृति रहती है, धनागम होता है, धन-धान्य से समृद्धि होती है। आजीविका के साधन प्राप्त होते हैं। समस्त कार्य सहजता से संपन्न होते हैं। व्यक्ति शत्रु विजयी सिद्ध होता है, अनुचर सेवा करते हैं, आचरण में कुत्सित प्रवृत्तियों की अधिकता होती है। पदाधिकार प्राप्त होते हैं। 4. चंद्र राशि से शनि जब चतुर्थ स्थान में होता है:- बहुमुखी अपमान होता है। समाज एवं सत्ता के कोप से साक्षात्कार होता है, आर्थिक कमी शिखर पर होती है। व्यक्ति की प्रवृत्तियां स्वतः धूर्ततायुक्त एवं पतित हो जाती है, विरोधियों एवं व्याधियों का आक्रमण पीड़ादायक होता है। नौकरी में स्थान परिवर्तन अथवा परित्याग संभव होता है, यात्राएं कष्टप्रद होती हैं। आत्मीय जनों से पृथकता होती है, पत्नी एवं बंधु वर्ग विपत्ति में रहते हैं। 5. चंद्र राशि से शनि जब पंचम स्थान में होता है: मनुष्य की रूचि कुत्सित नारी/ नारियों में होती है। उनकी कुसंगति विवेक का हरण करती है, पति का धर्मपत्नी और पत्नी का पति से प्रबल तनाव रहता है, आर्थिक स्थिति चिंताजनक होती है, व्यक्ति सुविचारित कार्यपद्धति का अनुसरण न कर पाने के कारण प्रत्येक कार्य में असफल होता है। व्यवसाय में अवरोध उत्पन्न होते हैं, पत्नी वायु जनित विकारों से त्रस्त रहती है। संतति की क्षति होती है, जातक जन समुदाय को वंचित करके उसके धन का हरण करता है। सुखों मंे न्यूनता उपस्थित होती है शांति दुर्लभ हो जाती है, परिवारजनों से न्यायिक विवाद होते हैं। 6. चंद्र राशि से शनि जब षष्ठ स्थान में होता है- शत्रु परास्त होते हैं, आरोग्य की प्राप्ति होती है, अनेकानेक उत्तम भोग के साधन उपलब्ध होते हैं, संपत्ति, धान्य एवं आनंद का विस्तार होता है, भूमि प्राप्त होती है, आवासीय सुख प्राप्त होता है। स्त्री वर्ग से लाभ होता है। 7. चंद्र राशि से शनि जब सप्तम स्थान में होता है- कष्टदायक यात्राएं होती हैं, दीर्घकाल तक दूर प्रवास व संपत्ति का विनाश होता है, व्यक्ति आंतरिक रूप से संत्रस्त रहता है, गुप्त रोगों का आक्रमण होता है, आजीविका प्रभावित होती है, अपमानजनक घटनायें होती हैं, अप्रिय घटनायें अधिक होती हैं, पत्नी रोगी रहती है, किसी कार्य में स्थायित्व नहीं रह जाता। 8. चंद्र राशि से शनि जब अष्टम स्थान में होता है- सत्ता से दूरी रहती है, पत्नी/पति के सुख में कमी संभव है, निन्दित कृत्यों व व्यक्तियों के कारण संपत्ति व सम्मान नष्ट होता है, स्थायी संपत्ति बाधित होती है, कार्यों में अवरोध उपस्थित होते हैं, पुत्र सुख की क्षति होती है, दिनचर्या अव्यवस्थित रहती है। व्याधियां पीड़ित करती हैं। व्यक्ति पर असंतोष का आक्रमण होता है। 9. चंद्र राशि में शनि जब नवम् स्थान में होता है - अनुचर (सेवक) अवज्ञा करते हैं, धनागम में कमी रहती है। बिना किसी प्रयोजन के यात्राएं होती हैं, विचारधारा के प्रति विद्रोह उमड़ता है, क्लेश व शत्रु प्रबल होते हैं, रूग्णता दुखी करती है, मिथ्याप्रवाह एवं पराधीनता का भय रहता है, बंधु वर्ग विरूद्ध हो जाता है, उपलब्धियां नगण्य हो जाती है, पापवृत्ति प्रबल रहती हंै, पुत्र व पति या पत्नी भी यथोचित सुख नहीं देते। 10. चंद्र राशि से शनि जब दशम स्थान में होता है: संपत्ति नष्ट होकर अर्थ का अभाव रहता है। आजीविका अथवा परिश्रम में अनेक उठा-पटक होते हैं। जन समुदाय में वैचारिक मतभेद होता है। पति-पत्नी के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न होते हैं, हृदय व्याधि से पीड़ा हो सकती है, मनुष्य नीच कर्मों में प्रवृत्त होता है, चित्तवृत्ति अव्यवस्थित रहती है, असफलताओं की अधिकता रहती है। 11. चंद्र राशि से शनि जब दशम स्थान में होता है: संपत्ति नष्ट होकर अर्थ का अभाव रहता है। आजीविका अथवा परिश्रम में अनेक उठा-पटक होते हैं। जन समुदाय में वैचारिक मतभेद होता है। पति-पत्नी में गंभीर मतभेद उत्पन्न होते हैं, हृदय व्याधि से पीड़ा हो सकती है, मनुष्य नीच कर्मों में प्रवृत्त होता है, चित्तवृत्ति अव्यवस्थित रहती है, असफलताओं की अधिकता रहती है। 11. चंद्र राशि से शनि जब एकादश स्थान में होता है: बहुआयामी आनंद की प्राप्ति होती है। लंबे समय के रोग से मुक्ति प्राप्त होती है, अनुचर आज्ञाकारी व परिश्रमी रहते हैं, पद व अधिकार में वृद्धि होती है, नारी वर्ग से प्रचुर संपत्ति प्राप्त होती है, पत्थर, सीमेंट, चर्म, वस्त्र एवं मशीनों से धनागम होता है, स्त्री तथा संतान से सुख प्राप्त होता है। 12. चंद्र राशि से शनि जब द्वादश स्थान में होता है: विघ्नों तथा कष्टों का अंबार लगा रहता है, धन का विनाश होता है। संतति सुख हेतु यह भ्रमण मारक हो सकता है अथवा संतान को मृत्यु तुल्य कष्ट होते हैं। श्रेष्ठजनों से विवाद होता है, शरीर गंभीर समस्याओं से ग्रस्त रहता है, सौभाग्य साथ नहीं देता, व्यय अधिक होता है, जिस कारण मन उद्विग्न रहने से सुख नष्ट हो जाते हैं।
Saturday 29 October 2016
मिथुन लग्न में मंगल का प्रभाव
मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव (फल) निम्नानुसार जान लेना चाहिए- लग्न (प्रथम भाव) में स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को शारीरिक श्रम ट्टारा धन का यथेष्ट लाभ होता है तथा शत्रु पर विजय प्राप्त होती है । माता एवं सुख के पक्ष में कुछ असंतोषयुक्त लाभ होता है । स्त्री की तरफ से रोग तथा परेशानी होती
है। परिश्रम द्वारा व्यवसाय से लाभ होता है । यदि जातक नौकरी में है तो उसकी उन्नति संभव होगी । आयु में वृद्धि तथा पुरातत्व का लाभ होगा । ऐसा जातक क्रोधी, परिश्रमी, झगड़ालू और लाभ कमाने वाला होता है ।
द्वितीय स्थान में अपने मित्र चंद्रमा की कर्क राशि पर नीच का मंगल स्थित होने से जातक को धन एबं कुंदुम्ब के संबंध में हानि उठानी पड़ती है । शत्रुओँ द्वारा उत्पन्न किए गए झगडों से भी हानि होती है । गलत कार्यों (सट्टे-लॉटरी) द्वारा धन- हानि होती है । संतानपक्ष से कुछ कष्ट होता है तथा विद्या के क्षेत्र में गुप्त युक्तियों द्वारा लाभ होता है । जातक धन-प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करता है । धर्म में उसकी सच्ची अद्धा नहीं होती । यदि तृतीय भाव में मंगल की उपस्थिति को तो जातक के पराक्रम की बृद्धि होती है । शत्रु पर विजय मिलती है । जातक उससे लाभ भी उठाता है । भाग्य का सामान्य लाभ होता है । पिता तथा राज्य की ओर से धन, सम्मग्न, यश एवं प्रभाव की वृद्धि होती है । जातक अपने परिश्रम द्वारा धनोपार्जन के क्षेत्र में भारी सफलत्ता प्राप्त करता है । चतुर्थ भाव में मंगल के स्थित होने पर जातक को जमीन-जायदाद का कुछ परेशानियों के साथ लाभ मिलता है । यश की प्राप्ति होती है, आमदनी अच्छी होती है और उन्नति के मार्ग प्रशस्त होते हैं । यदि पंचम भाव में मंगल की स्थिति को तो जातक क्रो संतानपक्ष से सामान्य वैमनस्य के साथ लाभ होता है । विद्या-बुद्धि की प्राप्ति होती है, आयु की वृद्धि और पुरातत्व का लाभ होता है । दैनिक जीवन प्रभावपूर्ण रहता है । जातक को पेट-संबंधी रोग बने रहते हैं । वह परिश्रम के बल पर धनी तथा सुखी होता है । षष्ठ भाव में मंगल का प्रभाव होने से जातक शत्रुपक्ष पर अत्यंत प्रभाव रखता है । कठिन परिश्रम द्वारा अपनी आय में वृद्धि करता है । भाग्य एवं धर्म के प्रति कुछ कमी और असंतोष रहता है ।
यदि सप्तम भाव में मंगल उपस्थित हो तो जातक व्यावसायिक क्षेत्र में सफलता पाता है । उसकी स्त्री कुछ रोगिणी रहती है । उसे पिता द्वारा धन की प्राप्ति और समाज की ओर से मान-सम्मान मिलता है । शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है, किन्तु धन-संग्रह में कमी रहती है । कुंदुम्ब के कारण क्लेश मिलता है । अष्टम ( आयु एवं पुरातत्व ) भाव में शनि की मकर राशि में स्थित उच्च के मंगल से जातक की आयु में वृद्धि होती है, परिश्रम द्वारा धन-लाभ होता है तथा विदेश प्रवास से धन का बहुत ही अधिक लाभ होता है । जीवन निर्वाह के लिए एकमुश्त आमदनी का योग है । भाई-बहनों की तरफ से कुछ क्लेश रहता है ।
नवम त्रिकोण ( भाग्य एवं धर्म) है कुंभ राशि पर स्थित मंगल से जातक की भाग्योन्नती परिश्रम और कुछ कठिनाइयों के बाद होती है । उसे धर्म का पालन बड़े अच्छे के साथ करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है, मगर बाहरी स्थानों से लाभ प्राप्त होता है । भाई-बहनों का पूर्ण सुख मिलता है । जातक जमीन-जायदाद वाला होता है । नवम भाव में गुरु की मीन राशि पर स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को स्वयं के परिश्रम से धन और यश की प्राप्ति होती है । वैरियों पर विशेष प्रभाव बना रहता है । शरीर स्वस्थ एबं शक्तिशाली रहता है । कभी-कभी छोटे-मोटे रोगों का सामना भी करना पड़ जाता है । भूमि आदि के सुख में कुछ परेशानियों के साथ सफलता मिलती है । जीवन भर आमदनी अच्छी रहती है ।
है। परिश्रम द्वारा व्यवसाय से लाभ होता है । यदि जातक नौकरी में है तो उसकी उन्नति संभव होगी । आयु में वृद्धि तथा पुरातत्व का लाभ होगा । ऐसा जातक क्रोधी, परिश्रमी, झगड़ालू और लाभ कमाने वाला होता है ।
द्वितीय स्थान में अपने मित्र चंद्रमा की कर्क राशि पर नीच का मंगल स्थित होने से जातक को धन एबं कुंदुम्ब के संबंध में हानि उठानी पड़ती है । शत्रुओँ द्वारा उत्पन्न किए गए झगडों से भी हानि होती है । गलत कार्यों (सट्टे-लॉटरी) द्वारा धन- हानि होती है । संतानपक्ष से कुछ कष्ट होता है तथा विद्या के क्षेत्र में गुप्त युक्तियों द्वारा लाभ होता है । जातक धन-प्राप्ति के लिए कठिन परिश्रम करता है । धर्म में उसकी सच्ची अद्धा नहीं होती । यदि तृतीय भाव में मंगल की उपस्थिति को तो जातक के पराक्रम की बृद्धि होती है । शत्रु पर विजय मिलती है । जातक उससे लाभ भी उठाता है । भाग्य का सामान्य लाभ होता है । पिता तथा राज्य की ओर से धन, सम्मग्न, यश एवं प्रभाव की वृद्धि होती है । जातक अपने परिश्रम द्वारा धनोपार्जन के क्षेत्र में भारी सफलत्ता प्राप्त करता है । चतुर्थ भाव में मंगल के स्थित होने पर जातक को जमीन-जायदाद का कुछ परेशानियों के साथ लाभ मिलता है । यश की प्राप्ति होती है, आमदनी अच्छी होती है और उन्नति के मार्ग प्रशस्त होते हैं । यदि पंचम भाव में मंगल की स्थिति को तो जातक क्रो संतानपक्ष से सामान्य वैमनस्य के साथ लाभ होता है । विद्या-बुद्धि की प्राप्ति होती है, आयु की वृद्धि और पुरातत्व का लाभ होता है । दैनिक जीवन प्रभावपूर्ण रहता है । जातक को पेट-संबंधी रोग बने रहते हैं । वह परिश्रम के बल पर धनी तथा सुखी होता है । षष्ठ भाव में मंगल का प्रभाव होने से जातक शत्रुपक्ष पर अत्यंत प्रभाव रखता है । कठिन परिश्रम द्वारा अपनी आय में वृद्धि करता है । भाग्य एवं धर्म के प्रति कुछ कमी और असंतोष रहता है ।
यदि सप्तम भाव में मंगल उपस्थित हो तो जातक व्यावसायिक क्षेत्र में सफलता पाता है । उसकी स्त्री कुछ रोगिणी रहती है । उसे पिता द्वारा धन की प्राप्ति और समाज की ओर से मान-सम्मान मिलता है । शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है, किन्तु धन-संग्रह में कमी रहती है । कुंदुम्ब के कारण क्लेश मिलता है । अष्टम ( आयु एवं पुरातत्व ) भाव में शनि की मकर राशि में स्थित उच्च के मंगल से जातक की आयु में वृद्धि होती है, परिश्रम द्वारा धन-लाभ होता है तथा विदेश प्रवास से धन का बहुत ही अधिक लाभ होता है । जीवन निर्वाह के लिए एकमुश्त आमदनी का योग है । भाई-बहनों की तरफ से कुछ क्लेश रहता है ।
नवम त्रिकोण ( भाग्य एवं धर्म) है कुंभ राशि पर स्थित मंगल से जातक की भाग्योन्नती परिश्रम और कुछ कठिनाइयों के बाद होती है । उसे धर्म का पालन बड़े अच्छे के साथ करना पड़ता है । व्यय अधिक रहता है, मगर बाहरी स्थानों से लाभ प्राप्त होता है । भाई-बहनों का पूर्ण सुख मिलता है । जातक जमीन-जायदाद वाला होता है । नवम भाव में गुरु की मीन राशि पर स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को स्वयं के परिश्रम से धन और यश की प्राप्ति होती है । वैरियों पर विशेष प्रभाव बना रहता है । शरीर स्वस्थ एबं शक्तिशाली रहता है । कभी-कभी छोटे-मोटे रोगों का सामना भी करना पड़ जाता है । भूमि आदि के सुख में कुछ परेशानियों के साथ सफलता मिलती है । जीवन भर आमदनी अच्छी रहती है ।
एकादश भाव में मंगल के प्रभाव से जातक को धन का लाभ पर्याप्त तथा स्थायी रूप से प्राप्त होता है, किन्तु मंगल के शत्रु स्थानाधिपति होने के कारण कभी-कभी कुछ कठिनाइयां उठानी पड़ती हैं । परिवार की ओर से भी कष्ट मिलता है । पुत्र लाभ होता है । यदि समझदारी से काम न लिया जाए तो आगे चलकर पुत्र- क्लेश का योग बन जाता है । जातक विद्या का धनी होता है । द्वादश भाव में वृष राशि पर मंगल के प्रभाव से जातक का व्यय अधिक रहता है तथा पराक्रम की वृद्धि होती है । शत्रुपक्ष से हानि और लाभ दोनों ही मिलते हैं । स्त्री की तरफ से कुछ परेशानी बनी रहती है ।
वृषभ लग्न में मंगल का प्रभाव
वृषभ लग्न में जन्म लेने वाले जातकों की जन्मकुंडली के विभिन्न भावों में मंगल का प्रभाव (फल) निम्नानुसार जान लेना चाहिए लग्न (प्रथम भाव ) में बैठे मंगल के प्रभाव से जातक को शारीरिक शक्ति का लाभ होता है तथा बाहरी क्षेत्रों से अच्छे संबंध स्थापित होते हैं । उसे धातुक्षीणता, रजत-विकार, निर्बलता आदि की शिकायत रहती है । स्त्री तथा व्यवसाय के क्षेत्र में सुख मिलता है । द्वितीय ( धन एबं क्रुटुम्ब) भाव में मिथुन राशि पर स्थित मंगल के प्रभाव से जातक को धन तथा परिवार के संबंध में परेशानी रहती है । साथ ही स्त्री एवं व्यवसाय के पक्ष में भी कठिनाइयां आती हैं, किन्तु बाहरी संबंधों से लाभ होता है । जातक को विद्या, बुद्धि एवं संतान के पक्ष में हानि उठानी पड़ सकती है । भाग्य तथा धर्म की वृद्धि होती है । ऐसा जातक भाग्यवान समझा जाता है ।
यदि तृतीय (पराक्रम) भाव में अपने मित्र चंद्रमा की कर्क राशि पर नीच का मंगल स्थित हो तो जातक पराक्रम तथा भाई/बहन के पक्ष में हानि उठानी पड़ती है । साथ ही स्त्री एवं व्यवसाय के क्षेत्र में भी हानि और कठिनाइयों का सामना करना पडता है । अगर चतुर्थ (माता तथा सुख) स्थान में अपने मित्र सूर्य की सिंह राशि में मंगल स्थित हो तो जातक को माता के सुख एवं भूमि-मकान आदि के संबंध में हानि का सामना करना पड़ता है । घरेलू सुख में अशांति बनी रहती है । व्यवसाय के क्षेत्र में अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है, मगर व्यय भी अधिक होता है । बाहरी संबंधों से विशेष सफलता मिलती है ।
यदि पंचम भाव में मंगल विराजमान हो तो जातक को विद्या, बुद्धि तथा संतान के क्षेत्र में भारी चिंता रहती है । स्त्री की तरफ से भी असंतोष रहता है । व्यवसाय में कुछ कठिनाइयों के साथ सफलता मिलती है । यदि षष्ठ भाव में मंगल को उपस्थिति हो तो जातक अपने शत्रुपक्ष पर प्रबल बना रहता है, किन्तु स्त्री तथा व्यवसाय के क्षेत्र में चिंता एवं हानियों का शिकार होना पड़ता है । भाग्य और धर्म की वृद्धि होती है । शरीर में दुर्बलता बनी रहेगी । वीर्य विकार तथा रक्त विकार विकार संबधी दोष उत्पन्न हो सकते हैं । यदि सप्तम भाव में स्वक्षेत्री मंगल की उपस्थिति हो तो जातक को स्त्री तथा व्यवसाय के पक्ष में शक्ति प्राप्त होने पर भी मंगल के व्ययेश होने के करण कुछ आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है । कुल मिलाकर जातक को जीवन भर चिंता बनी रहती है और प्राय: कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं । अष्टम भाव में मंगल के स्थित होने से जातक को स्त्री तथा व्यवसाय से सुख- लाभ नहीं मिलता । अपने स्थान से दूर, परदेश में उसे आजीविका उपार्जित करनी पड़ती है 1, विदेश से धन-लाभ होने की संभावना रहती है । पारिवारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । जातक की आर्थिक उन्नति परदेश में जाकर रहने पर होती है | यदि नवम (भाग्य तथा धर्म) स्थान में शनि की मकर राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक को स्त्रीपक्ष से लाभ होता है । भाग्य की शक्ति से व्यवसाय में भारी उन्नति होती है तथा धन का आशातीत लाभ होता है । साथ ही धर्म में आस्था बनी रहती है । यदि दशम भाव में कुंभ राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक को पिता एवं राज्य के संबंध में हानि तथा परेशानियों का सामना करना पड़ेगा । स्त्री से कुछ कटुता बनी रहेगी, मगर व्यवसाय में उन्नति होने से धनब्वलाभ होगा । शरीर में कमजोरी और रक्त-विकार आदि रोग होंगे । घरेलू सुख में कुछ कमी रहेगी । संतानपक्ष से अनबन रहेगी, किन्तु सम्मान की वृद्धि होगी ।
यदि एकादश भाव में मंगल की उपस्थिति हो तो जातक की आमदनी में वृद्धि होती है तथा स्त्रीपक्ष से लाभ होता है । परिवार की तरफ से असंतोष रहता है । ऐसा जातक स्वार्थी और चालक होता है । द्वादश भाव में मंगल की उपस्थिति होने पर जातक का खर्च अधिक रहता है, मगर बाहरी स्थानों के संबंध से बाधित प्राप्त होती रहती है । स्त्री, पुत्र तथा व्यवसाय के मामले में सामान्य सफलता मिलती है । पराक्रम एवं भाई-बहन के सुख में न्यूनता रहती है । शत्रुपक्ष में प्रभाव बना रहेगा ।
यदि तृतीय (पराक्रम) भाव में अपने मित्र चंद्रमा की कर्क राशि पर नीच का मंगल स्थित हो तो जातक पराक्रम तथा भाई/बहन के पक्ष में हानि उठानी पड़ती है । साथ ही स्त्री एवं व्यवसाय के क्षेत्र में भी हानि और कठिनाइयों का सामना करना पडता है । अगर चतुर्थ (माता तथा सुख) स्थान में अपने मित्र सूर्य की सिंह राशि में मंगल स्थित हो तो जातक को माता के सुख एवं भूमि-मकान आदि के संबंध में हानि का सामना करना पड़ता है । घरेलू सुख में अशांति बनी रहती है । व्यवसाय के क्षेत्र में अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है, मगर व्यय भी अधिक होता है । बाहरी संबंधों से विशेष सफलता मिलती है ।
यदि पंचम भाव में मंगल विराजमान हो तो जातक को विद्या, बुद्धि तथा संतान के क्षेत्र में भारी चिंता रहती है । स्त्री की तरफ से भी असंतोष रहता है । व्यवसाय में कुछ कठिनाइयों के साथ सफलता मिलती है । यदि षष्ठ भाव में मंगल को उपस्थिति हो तो जातक अपने शत्रुपक्ष पर प्रबल बना रहता है, किन्तु स्त्री तथा व्यवसाय के क्षेत्र में चिंता एवं हानियों का शिकार होना पड़ता है । भाग्य और धर्म की वृद्धि होती है । शरीर में दुर्बलता बनी रहेगी । वीर्य विकार तथा रक्त विकार विकार संबधी दोष उत्पन्न हो सकते हैं । यदि सप्तम भाव में स्वक्षेत्री मंगल की उपस्थिति हो तो जातक को स्त्री तथा व्यवसाय के पक्ष में शक्ति प्राप्त होने पर भी मंगल के व्ययेश होने के करण कुछ आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है । कुल मिलाकर जातक को जीवन भर चिंता बनी रहती है और प्राय: कठिनाइयां झेलनी पड़ती हैं । अष्टम भाव में मंगल के स्थित होने से जातक को स्त्री तथा व्यवसाय से सुख- लाभ नहीं मिलता । अपने स्थान से दूर, परदेश में उसे आजीविका उपार्जित करनी पड़ती है 1, विदेश से धन-लाभ होने की संभावना रहती है । पारिवारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । जातक की आर्थिक उन्नति परदेश में जाकर रहने पर होती है | यदि नवम (भाग्य तथा धर्म) स्थान में शनि की मकर राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक को स्त्रीपक्ष से लाभ होता है । भाग्य की शक्ति से व्यवसाय में भारी उन्नति होती है तथा धन का आशातीत लाभ होता है । साथ ही धर्म में आस्था बनी रहती है । यदि दशम भाव में कुंभ राशि पर मंगल स्थित हो तो जातक को पिता एवं राज्य के संबंध में हानि तथा परेशानियों का सामना करना पड़ेगा । स्त्री से कुछ कटुता बनी रहेगी, मगर व्यवसाय में उन्नति होने से धनब्वलाभ होगा । शरीर में कमजोरी और रक्त-विकार आदि रोग होंगे । घरेलू सुख में कुछ कमी रहेगी । संतानपक्ष से अनबन रहेगी, किन्तु सम्मान की वृद्धि होगी ।
यदि एकादश भाव में मंगल की उपस्थिति हो तो जातक की आमदनी में वृद्धि होती है तथा स्त्रीपक्ष से लाभ होता है । परिवार की तरफ से असंतोष रहता है । ऐसा जातक स्वार्थी और चालक होता है । द्वादश भाव में मंगल की उपस्थिति होने पर जातक का खर्च अधिक रहता है, मगर बाहरी स्थानों के संबंध से बाधित प्राप्त होती रहती है । स्त्री, पुत्र तथा व्यवसाय के मामले में सामान्य सफलता मिलती है । पराक्रम एवं भाई-बहन के सुख में न्यूनता रहती है । शत्रुपक्ष में प्रभाव बना रहेगा ।
Friday 28 October 2016
Astrological combinations for brothers and sisters
For instilling confidence of public in general in astrology and astrologers, certain principles described in the classics and ancient texts of astrology should be aptly kept in mind while describing any aspect of human life; specially about siblings. The prediction attains accuracy when dictums of classical text and learned scholar's analysis are taken cognisance of after a thorough research. This enhances the respect and goodwill of the people for astrology and astrologers. Thumb Rules for Siblings 1.Third house is considered for younger siblings whereas eleventh house is explored for the elder siblings. Third house lord in eleventh house or vice-versa indicates that the native is either the youngest in the family or the eldest. 2.In most of the cases if Rahu is posited in third house then the native is eldest in his sex. However, Rahu in eleventh makes him eldest in the family. 3.Elder sibling is denoted by Jupiter whereas the younger sibling is devoted by Mars. 4.Rahu or Jupiter, if posited in the eleventh house, the native may be either the youngest or the eldest. 5.If relationship of either Jupiter or Mars by position, conjunction or aspect is there in the horoscope with the third house, Native enjoys siblings. 6. If in the same manner, if benefic planets are related with third house in any manner, probability of siblings will be very high. 7. If either Mars or 3rd lord makes a relationship with the third house, it promises siblings. Mars denotes younger siblings while Jupiter denotes elder siblings. 8.If male planets (Sun, Jupiter, Mars) are posited in the third house or there is aspect of these planets on the third house, there may be siblings to the Native in all probability. 9. If the third house lord is in the lagna (Ascendant) being exalted whereas Venus is in 3rd aspected by Mars; Mars in turn aspected by Jupiter; give siblings to the native. 10.Ketu in the eleventh aspected by Mars and Saturn makes the native the eldest one. 11.Ketu and Mars in eleventh aspected by Saturn give the native two elder sisters. 12.Ketu's association with Saturn in the eleventh house by position or aspect makes the native the eldest. 13.Association of Jupiter and Ketu in eleventh house aspected by Saturn or Venus, Mercury in the third being the lord of eleventh aspected by either Moon or Sun, indicate that the eldest of the siblings will be a sister. 14.Mars being the natural Karaka (significator) of the third house, if relates itself to the concerned house by conjunction or aspect, there is a sibling in the family. 15.If the Dasa lord, Antardasa lord or Pratantyar Dasa lord makes a relationship with the third lord, this period gives siblings to the native. 16.If in any manner Jupiter and Saturn are related by conjunction or aspect, this promises siblings also. 17.If in the D-3 chart (Dreshkan), either the third house or its lord are influenced by Sun, Mars, Rahu, Mercury and Jupiter then a brother will be born and the influence of Moon, Venus and Ketu gives a sister. 18.Elder sibling's Mahadasa of male planet promises a brother, however elder sibling's mahadasa of a female planet gives. 19.If Saturn as third house lord sister is related to lagna by aspect or conjunction and aspects 5th lord Mars/Jupiter, it signifies the birth of a sibling. 20.If exalted Jupiter and Mars are in the angles and related to each other, then a sibling might be born. 21.The native has five siblings if the third lord is related with Jupiter and third house is aspected by exalted Saturn. 22.If the third lord Jupiter is posited in the Kendras being exalted, then two issues are promised after the native. However, debilitated Jupiter would give only one issue. Exalted Mars in angle here makes the native the youngest. 23.Ketu in the third indicates first sibling to be a female one. The second house tenanted by lagna lord, third lord and eleventh lord makes the native the eldest one. 24.The eleventh lord in the sixth is not good for the elder sibling. 25.If the lagna lord being debilitated, tenants the eleventh house whose dispositor is retrograde and aspected by Mars, then the sibling dies. 26.If the Jupiter is posited in eleventh house and in horoscope there is conjunction of eleventh lord and lagna lord, then the native is the eldest one. 27.If the eleventh lord is in the sixth house in the rasi chart as well as Dreskana chart, it indicates the native to be the eldest. 28.If the Mars aspects either the eleventh house or its lord, the native is the eldest one. 29.Rahu in the tenth house provides a brother and in the fourth gives a sister. 30.If in the transit Saturn/Jupiter or Mars make a relationship with third house or its lord, this period may facilitate the birth of a sibling. 31.If Ketu aspects eleventh house or its lord, the native might be the youngest one. 32.Jupiter aspects the third house from the eleventh, third lord is in third, fifth or seventh house, Mars in eighth with nodes, show that only one sibling remains alive.
Wednesday 26 October 2016
Vastu and Gemstones
Gemstones always work on basis of your astrological sign. Your sign will feature or tend to get compatible with a particular gemstone. The particular gemstone would be recommended in Vedic scriptures that help to dispel or combat any ill effects or unpredictable scenarios. You would hear of stories how gemstones changed the lives of certain individuals. The fact remains that every gemstone has a peculiar characteristic. This trait has to match to your mind and your birth sign. It is a process of understanding the human being, his life, wealth and then deciding on the final stone that would bring in unfulfilled expectations.
A Vaastu gemstone is similarly functional as an astrological gem. An astrological gem would be given basis your horoscope. In the similar tone, a Vaastu gemstone is given basis scanning your property. This stone also helps in bringing happiness, success and wealth in your lives. The Vaastu gemstone does help in bringing positivity to your daily life. But how can you decide on a particular gemstone? Well, your Vaastu counselor will first scrutify your career, wealth balance and accordingly plans a stone that will curtail all negativity and bring in peace and calmness. They would mention spectrum and radioactive effect. The Vaastu gemstones are also natural stones that are also mined from beneath the earth. All of them have great amplifying traits that bring in excessive energy. There is a mass amount of fatal energy that surrounds inside the gemstone and affects your emotional and mental side of your life. There are certain Vaastu gemstones that tend to get so active and powerful that you ought to wear them on certain auspicious days. There are stories of people turning from rags to riches after wearing one of these
The correct consultation would help in chalking down particular attributes and colour of Vaastu gemstones. They are also classified as cold and hot gemstones. The hot gemstones include red Coral, cat’s eye, Diamond, Ruby whereas the cold gemstones are Gomed, Topaz, Pearl and Blue Sapphire. Also ascertain that the Vaastu gemstone that you buy is original and contains some remedial factor. The original Vaastu gemstone must look original and not shiny. It won’t be available in every store. You will have to enquire about select stores that sell them exclusively. The original Vaastu gemstones will need cosmic energies to balance off your mind and combat negative energies at a fast pace.
Lastly, always remember that Vaastu gemstones will help you to carry on with life with peace. A sufficient amount of hard work needs to be exhibited in order to enjoy the beautiful moments and needs of life.
A Vaastu gemstone is similarly functional as an astrological gem. An astrological gem would be given basis your horoscope. In the similar tone, a Vaastu gemstone is given basis scanning your property. This stone also helps in bringing happiness, success and wealth in your lives. The Vaastu gemstone does help in bringing positivity to your daily life. But how can you decide on a particular gemstone? Well, your Vaastu counselor will first scrutify your career, wealth balance and accordingly plans a stone that will curtail all negativity and bring in peace and calmness. They would mention spectrum and radioactive effect. The Vaastu gemstones are also natural stones that are also mined from beneath the earth. All of them have great amplifying traits that bring in excessive energy. There is a mass amount of fatal energy that surrounds inside the gemstone and affects your emotional and mental side of your life. There are certain Vaastu gemstones that tend to get so active and powerful that you ought to wear them on certain auspicious days. There are stories of people turning from rags to riches after wearing one of these
The correct consultation would help in chalking down particular attributes and colour of Vaastu gemstones. They are also classified as cold and hot gemstones. The hot gemstones include red Coral, cat’s eye, Diamond, Ruby whereas the cold gemstones are Gomed, Topaz, Pearl and Blue Sapphire. Also ascertain that the Vaastu gemstone that you buy is original and contains some remedial factor. The original Vaastu gemstone must look original and not shiny. It won’t be available in every store. You will have to enquire about select stores that sell them exclusively. The original Vaastu gemstones will need cosmic energies to balance off your mind and combat negative energies at a fast pace.
Lastly, always remember that Vaastu gemstones will help you to carry on with life with peace. A sufficient amount of hard work needs to be exhibited in order to enjoy the beautiful moments and needs of life.
Saturday 22 October 2016
वास्तु के मूल सिद्धान्त
दस दिशाएँ … भारतीय शास्त्रीय ग्रंथो' में दस दिशाओं का सिद्धान्त बहुत लोकप्रिय हैं।
पूर्व : यह उगते सूर्य की दिशा है। इन्द्र और सूर्य क्रमश पूर्व दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैँ। पूर्व दिशा सत्ता, पद और समृद्धि देती है। 45 देवताओं में से चार-इन्द्र. आदित्य, सत्यक और आर्थक- पूर्वी क्षेत्र में अवस्थित हैं।
आग्नेय: यह प्रकाश और अग्नि की दिशा है। अग्नि और शुक्र क्रमश आग्नेय दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह हैं। यह ताप और प्रकाश प्रदान करती है, जो पकाते के प्रक्षालक कारक है। 45 देवताओं में से सात- भृशा , अतरिक्ष अग्नि, पूषन्, वितथ, सविन्द्र और साविन्द्र-आग्नेय क्षेत्र में अवस्थित हैं।
दक्षिण: यह सूर्य की तप्त किरणों की दिशा है। यम और मंगल क्रमश: इस दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह है। गर्मी के मौसम में दक्षिण दिशा अत्यधिक गमी देती है इसलिए इसे बन्द रखना चाहिए) 45 देवताओं में से चार-बृहरुक्षत, यम, गन्धर्व और विवस्वता दक्षिण दिशा में अवस्थित है।
नेत्रत्व: यह अपराह्न सूर्य की रेडियोधर्मी अवरक्त किरणों की दिशा है। पितर (पूर्वज) और राहु इस दिशा के क्रमश: दिकृपाल और स्वामी ग्रह हैं। हमेशा इसे ऊंचा, भारी और बन्द रखने की सलाह दी जाती है। 45 देवताओं में से सात-भृमराज़, मृक्षा, पितर, दौवारिक, सुग्रीव, इन्द्र और इन्द्रजय-नैत्रर्टत्य क्षेत्र में अवस्थित हैं।
पश्चिम: यह डूबते हुए सूर्य की दिशा है। वरुण और शनि क्रमश: इस दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह है। यहाँ मय अधिकतम समय तक प्राकृतिक प्रकाशा उपलब्ध रहता है। 45 देवताओं में से चार-पुष्यदन्त, वरुण, असुर और पित्र-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।
वायव्य : यह शुद्ध वायु के प्रवेश की दिशा है। वायु और चन्द्र कन्या: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-शोष, रोग, वायु, नाग, मुख्य, रुद्र और रुद्रराज-इस क्षेत्र में अवस्थित है।
उत्तर: यह सबसे ठंडी दिशा है। कुबेर और बुध क्रमश: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। यह दिशा घर में रहने वालों पर स्वास्थ्य और धन की वषा करती है। 45 देवताओं में से चार-भल्लाट, सोम, मृग और मूधर-इस क्षेत्र में रहते है।
ईशान: यह सबसे पवित्र दिशा है। ईष्ट और बृहस्पति क्रमश: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-आदिति, दिती, ईंष्टा, पर्जन्य, जयंत, आप और आपवत्स-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।
आकाश: इसे ऊर्ध्व दिशा या आकाश भी कहते है। यह अपार है। यह हमें सब और से घेरती है। इसके दिक्पाल ब्रह्मा है और बृहस्पति को इसका स्वामी ग्रह माना जाता है। बृहस्पति विस्तार का कारक ग्रह है। आकाश में शब्द व्याप्त है। आकाश ही नश्वर व शाश्वत दुनिया के मध्य सभी तरह के सम्पर्कों का अधिपति है।
पाताल: इसे अभी दिशा या पताल भी कहा जाता है। यह धरती का गहन आकार है। इसके दिकृपाल वासुकि है , जो नामों के राजा हैं। शनि अंधकार का स्वामी है और इसी कारण गहराइयों का ग्रह भी माना जाता है। पाताल भवन कं। एक स्थिर नीचे प्रदान करता है। आलस्य, निषिरुयता, सुस्ती और दृढ़ता पाताल की प्रमुख विशेषताएँ हैं। ये दसों दिशाएँ आवश्यक विशेषताओं के साथ तालिका 14 में दर्शाई गई है। उपर्युक्त चर्चा के अनुसार, आठों दिशाओं की अलग-अलग विशेषताएँ है। वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तो के अनुसार, भूमि की ढलान ईशान की और होनी चाहिए; परिणामस्वरूप, कमरे कौ ऊंचाई नैऋत्व् में न्यूनतम और ईशान में अधिकतम होगी। नैत्रहँत्य दिशा की निम्नतम ऊंचाई अपराह्न कै समय सूर्य की हानिकारक रेडियोधर्मीअवस्वत किरणों की कम से कम यानों में प्रवेश करने देगी। ईशान को अधिकतम ऊंचाई सुबह की अमृततुल्य पराबैगनी किरणों को अधिकाधिक मानों में आकर्षित करेगी। इन आठ दिशाओं को भार धारण क्षमता के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। नैत्रर्टत्य दिशा सबसे भारी होनी चाहिए; उसके बाद क्रमश: दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, वायव्य, उत्तर और पूर्व हों। ईशान दिशा जितनी हो सके, हल्की होनी चाहिए:। नैत्रहँत्य दिशा को भूतल को उक्ति करके, खिड़की व द्वारों के रूप मे खुली जगहो को कम करके, ठोस मोटी दीवारों व चंदोबे आदि के निर्माण द्वारा भारी किया जाता है। है दीवारों में सूली जगहों को आग्नेय हैं वायव्य और ईशान की और तप: बहाया जता है तकि वे ईशान में अधिकतम हों। ईशान को भूतल को नीचा करके, द्वार, खिड़कियों, स्वागत कक्ष व बरामदे के रूप में अधिकाधिक खुली जगहें छोड़कर, खोखली दीवारों (दृव्रम्भ/ प्राणि) तथा जलस्रोत की खुदाई आदि द्वारा हलका रखा जाता हैँ। सूर्यं पूर्व दिशा में उदय होता है और दक्षिण दिशा से चलते हुए पश्चिम में अस्त होता है। प्रधान पूर्व दिशा सूर्य की प्रथम किरणों की पाले प्राप्त नहीं करती। पृथ्वी के अपनी धुरी पर 23-50 के लगभग झुक्रै होने के कारण गर्मियों में सूर्य की पहली किरणे वस्तुत: विन दिशा में पड़ती हैं। यही बात अस्त होते सूर्य के लिए भी समझी जा सकती है। अत: हम ईशान सै नैत्रर्टत्य तक एक काल्पनिक रेखा खींच सकते है सकारात्मक ऊर्जायुवत आग्नेय भाग प्रकाशमान क्षेत्र है जबकि नकारात्मक ऊजायुवत्त वायव्य भाग अंधकार क्षेत्र बन जाता है। प्रकाशमान क्षेत्र का मध्यबिन्दु आग्नेय कोण है। यहाँ पूरे दिन रोशनी उपलब्ध रहती है, इसलिए यह रसोई के लिए प्रस्तावित दिशा है। अंधकार क्षेत्र का मध्यबिन्दु वायव्य है। यह उन गतिविधियों के लिए उपयुक्त है जिनके लिए कम रोशनी की आवश्यकता है जैसे पालतू जानवर, (गैराज) , नौकरों का कमरा और अतिधि कक्षा प्राताकालीन सूर्य की किरर्ण स्वाभाविक रूप से उषडी होती है। जैसे-जैसे सूर्य दक्षिण की और चलता है वैसे-वैसे किरणे गर्म होती जाती है। अपराह्न के समय सूर्य जब नैत्रर्टत्य में होता है तब सबसे ज्यादा गर्म होता है। वायव्य से आग्नेय तक एक '३ है काल्पनिक रेखा खींचने पर ये क्षेत्र बन जाते है। वायव्य और _ … आग्नेय गर्म व उडे क्षेत्रों के मिलन बिन्दु है। यै क्षेत्र उन गतिविधियों हेतु उपयुक्त है जहाँ रुस्तुलित ताप प्राथमिक आवश्यकता है। ठडै क्षेत्र का मध्य बिन्दु होने के कारण ईशान सबसे ठंडा क्षेत्र है। यह उन गतिविधियों के लिए उत्तम है जहाँ शांत स्वभाव की आवश्यकता है; जैसे ध्यान, योग, प्रार्थना अध्ययन, स्वारात-कक्ष तथा पीने योग्य जल नैत्रद्देत्य दिशा गर्म क्षेत्र का मध्य बिंदु होने के कारण सर्वाधिक गर्म क्षेत्र है। सूर्य की उत्तप्त किरणों से बचने के लिए इसे पूर्णतया बंद कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप यह शांत, हैं सुरक्षित, अंधकारपूर्ण और एकात क्षेत्र बन जाता है जो शयन
कक्ष हेतु सर्वथा उपयुक्त है। प्राचीनकाल में नैत्रर्टत्य क्षेत्र भारी, सुरक्षित और निरापद होने के कारण सस्त्रागर के लिए आरक्षित था। अपने हथियार जैसे तलवार बन्दूक और पिस्तोल को घर में " रहनेवाली की नज़रों से दूर नैत्रर्त्य क्षेत्र में रखिए। ये हथियार केवल सही समय पर, सही व्यक्ति द्वारा और के लिए ही प्रयोग होगे। इन आठ दिशाओं कं। तीन गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) और पाँच तत्वों (जल, अग्नि, धरती वायु और आकाश) के आधार पर भी विभाजित किया जाता है।
पूर्व : यह उगते सूर्य की दिशा है। इन्द्र और सूर्य क्रमश पूर्व दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैँ। पूर्व दिशा सत्ता, पद और समृद्धि देती है। 45 देवताओं में से चार-इन्द्र. आदित्य, सत्यक और आर्थक- पूर्वी क्षेत्र में अवस्थित हैं।
आग्नेय: यह प्रकाश और अग्नि की दिशा है। अग्नि और शुक्र क्रमश आग्नेय दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह हैं। यह ताप और प्रकाश प्रदान करती है, जो पकाते के प्रक्षालक कारक है। 45 देवताओं में से सात- भृशा , अतरिक्ष अग्नि, पूषन्, वितथ, सविन्द्र और साविन्द्र-आग्नेय क्षेत्र में अवस्थित हैं।
दक्षिण: यह सूर्य की तप्त किरणों की दिशा है। यम और मंगल क्रमश: इस दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह है। गर्मी के मौसम में दक्षिण दिशा अत्यधिक गमी देती है इसलिए इसे बन्द रखना चाहिए) 45 देवताओं में से चार-बृहरुक्षत, यम, गन्धर्व और विवस्वता दक्षिण दिशा में अवस्थित है।
नेत्रत्व: यह अपराह्न सूर्य की रेडियोधर्मी अवरक्त किरणों की दिशा है। पितर (पूर्वज) और राहु इस दिशा के क्रमश: दिकृपाल और स्वामी ग्रह हैं। हमेशा इसे ऊंचा, भारी और बन्द रखने की सलाह दी जाती है। 45 देवताओं में से सात-भृमराज़, मृक्षा, पितर, दौवारिक, सुग्रीव, इन्द्र और इन्द्रजय-नैत्रर्टत्य क्षेत्र में अवस्थित हैं।
पश्चिम: यह डूबते हुए सूर्य की दिशा है। वरुण और शनि क्रमश: इस दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह है। यहाँ मय अधिकतम समय तक प्राकृतिक प्रकाशा उपलब्ध रहता है। 45 देवताओं में से चार-पुष्यदन्त, वरुण, असुर और पित्र-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।
वायव्य : यह शुद्ध वायु के प्रवेश की दिशा है। वायु और चन्द्र कन्या: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-शोष, रोग, वायु, नाग, मुख्य, रुद्र और रुद्रराज-इस क्षेत्र में अवस्थित है।
उत्तर: यह सबसे ठंडी दिशा है। कुबेर और बुध क्रमश: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। यह दिशा घर में रहने वालों पर स्वास्थ्य और धन की वषा करती है। 45 देवताओं में से चार-भल्लाट, सोम, मृग और मूधर-इस क्षेत्र में रहते है।
ईशान: यह सबसे पवित्र दिशा है। ईष्ट और बृहस्पति क्रमश: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-आदिति, दिती, ईंष्टा, पर्जन्य, जयंत, आप और आपवत्स-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।
आकाश: इसे ऊर्ध्व दिशा या आकाश भी कहते है। यह अपार है। यह हमें सब और से घेरती है। इसके दिक्पाल ब्रह्मा है और बृहस्पति को इसका स्वामी ग्रह माना जाता है। बृहस्पति विस्तार का कारक ग्रह है। आकाश में शब्द व्याप्त है। आकाश ही नश्वर व शाश्वत दुनिया के मध्य सभी तरह के सम्पर्कों का अधिपति है।
पाताल: इसे अभी दिशा या पताल भी कहा जाता है। यह धरती का गहन आकार है। इसके दिकृपाल वासुकि है , जो नामों के राजा हैं। शनि अंधकार का स्वामी है और इसी कारण गहराइयों का ग्रह भी माना जाता है। पाताल भवन कं। एक स्थिर नीचे प्रदान करता है। आलस्य, निषिरुयता, सुस्ती और दृढ़ता पाताल की प्रमुख विशेषताएँ हैं। ये दसों दिशाएँ आवश्यक विशेषताओं के साथ तालिका 14 में दर्शाई गई है। उपर्युक्त चर्चा के अनुसार, आठों दिशाओं की अलग-अलग विशेषताएँ है। वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तो के अनुसार, भूमि की ढलान ईशान की और होनी चाहिए; परिणामस्वरूप, कमरे कौ ऊंचाई नैऋत्व् में न्यूनतम और ईशान में अधिकतम होगी। नैत्रहँत्य दिशा की निम्नतम ऊंचाई अपराह्न कै समय सूर्य की हानिकारक रेडियोधर्मीअवस्वत किरणों की कम से कम यानों में प्रवेश करने देगी। ईशान को अधिकतम ऊंचाई सुबह की अमृततुल्य पराबैगनी किरणों को अधिकाधिक मानों में आकर्षित करेगी। इन आठ दिशाओं को भार धारण क्षमता के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। नैत्रर्टत्य दिशा सबसे भारी होनी चाहिए; उसके बाद क्रमश: दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, वायव्य, उत्तर और पूर्व हों। ईशान दिशा जितनी हो सके, हल्की होनी चाहिए:। नैत्रहँत्य दिशा को भूतल को उक्ति करके, खिड़की व द्वारों के रूप मे खुली जगहो को कम करके, ठोस मोटी दीवारों व चंदोबे आदि के निर्माण द्वारा भारी किया जाता है। है दीवारों में सूली जगहों को आग्नेय हैं वायव्य और ईशान की और तप: बहाया जता है तकि वे ईशान में अधिकतम हों। ईशान को भूतल को नीचा करके, द्वार, खिड़कियों, स्वागत कक्ष व बरामदे के रूप में अधिकाधिक खुली जगहें छोड़कर, खोखली दीवारों (दृव्रम्भ/ प्राणि) तथा जलस्रोत की खुदाई आदि द्वारा हलका रखा जाता हैँ। सूर्यं पूर्व दिशा में उदय होता है और दक्षिण दिशा से चलते हुए पश्चिम में अस्त होता है। प्रधान पूर्व दिशा सूर्य की प्रथम किरणों की पाले प्राप्त नहीं करती। पृथ्वी के अपनी धुरी पर 23-50 के लगभग झुक्रै होने के कारण गर्मियों में सूर्य की पहली किरणे वस्तुत: विन दिशा में पड़ती हैं। यही बात अस्त होते सूर्य के लिए भी समझी जा सकती है। अत: हम ईशान सै नैत्रर्टत्य तक एक काल्पनिक रेखा खींच सकते है सकारात्मक ऊर्जायुवत आग्नेय भाग प्रकाशमान क्षेत्र है जबकि नकारात्मक ऊजायुवत्त वायव्य भाग अंधकार क्षेत्र बन जाता है। प्रकाशमान क्षेत्र का मध्यबिन्दु आग्नेय कोण है। यहाँ पूरे दिन रोशनी उपलब्ध रहती है, इसलिए यह रसोई के लिए प्रस्तावित दिशा है। अंधकार क्षेत्र का मध्यबिन्दु वायव्य है। यह उन गतिविधियों के लिए उपयुक्त है जिनके लिए कम रोशनी की आवश्यकता है जैसे पालतू जानवर, (गैराज) , नौकरों का कमरा और अतिधि कक्षा प्राताकालीन सूर्य की किरर्ण स्वाभाविक रूप से उषडी होती है। जैसे-जैसे सूर्य दक्षिण की और चलता है वैसे-वैसे किरणे गर्म होती जाती है। अपराह्न के समय सूर्य जब नैत्रर्टत्य में होता है तब सबसे ज्यादा गर्म होता है। वायव्य से आग्नेय तक एक '३ है काल्पनिक रेखा खींचने पर ये क्षेत्र बन जाते है। वायव्य और _ … आग्नेय गर्म व उडे क्षेत्रों के मिलन बिन्दु है। यै क्षेत्र उन गतिविधियों हेतु उपयुक्त है जहाँ रुस्तुलित ताप प्राथमिक आवश्यकता है। ठडै क्षेत्र का मध्य बिन्दु होने के कारण ईशान सबसे ठंडा क्षेत्र है। यह उन गतिविधियों के लिए उत्तम है जहाँ शांत स्वभाव की आवश्यकता है; जैसे ध्यान, योग, प्रार्थना अध्ययन, स्वारात-कक्ष तथा पीने योग्य जल नैत्रद्देत्य दिशा गर्म क्षेत्र का मध्य बिंदु होने के कारण सर्वाधिक गर्म क्षेत्र है। सूर्य की उत्तप्त किरणों से बचने के लिए इसे पूर्णतया बंद कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप यह शांत, हैं सुरक्षित, अंधकारपूर्ण और एकात क्षेत्र बन जाता है जो शयन
कक्ष हेतु सर्वथा उपयुक्त है। प्राचीनकाल में नैत्रर्टत्य क्षेत्र भारी, सुरक्षित और निरापद होने के कारण सस्त्रागर के लिए आरक्षित था। अपने हथियार जैसे तलवार बन्दूक और पिस्तोल को घर में " रहनेवाली की नज़रों से दूर नैत्रर्त्य क्षेत्र में रखिए। ये हथियार केवल सही समय पर, सही व्यक्ति द्वारा और के लिए ही प्रयोग होगे। इन आठ दिशाओं कं। तीन गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) और पाँच तत्वों (जल, अग्नि, धरती वायु और आकाश) के आधार पर भी विभाजित किया जाता है।
Thursday 20 October 2016
Vastu apects for designing rooms
Vaastu for Rooms
Vaastu Shastra is an important factor while deciding the structure of a bedroom since the alignment with the natural electromagnetic radiations should be perfect for the purpose a bedroom is used for- relaxing. If the bedroom has been designed according to the Vaastu, it has been scientifically proven that the brain waves are found to be in a relaxed state. Additionally, it has been a belief that if the bedroom is perfect according to the traditional Vaastu, money inflow would take place. Here are some advices which might help one while designing a bedroom.
Vaastu for the Master Bedroom
The bedroom which belongs to the owner of the house is known as the master bedroom. According to Vaastu Shastra, the master bedroom should occupy the south- west portion of the house since the direction reflects the heaviness of mother earth. It should be noted that this direction is reserved for the master bedroom only. Strict care should be taken so that no other room takes the place.
Placement of the Bed
The bed is the heart and soul of a bedroom and is the first thing that is noticed inside a bedroom. A bed should also follow the rules of Vaastu Shastra. According to the Shastra, the bed should be carved exclusively out of wood, should be at least four feet away from the wall and should never be placed right in front of the bedroom entrance. The bed should be in a rectangular shape and there should not be any beam passing over it. The quality of wood used for the bed should be good and it should not provide any creaking noise. The bedroom should be designed with soothing paintings and relieving colors.
Additional Vaastu Considerations for Bedroom
The cupboard should be in the south/ west or south-west direction. The floor of the bedroom should not be broken up into pieces. To ensure this, laminating the floor would be an excellent option. It should also be noted that if a bedroom has a double bed, there should be only one mattress for it. AC, TV and other electronic equipments find their place in the south-east corner of the bedroom. While sleeping, the master bedroom should not be in a pitch dark condition. At least there should be a night bulb glowing, which is a mark of the master showing light to the family in dark times. To ensure that the owner of the house has a higher standard than the rest of the family, the flooring in the master bedroom should be higher than that in the regular bedrooms. The entrance to the bedroom should be in the north-east corner.
Vaastu Advice for the Bathroom
The Vaastu Shastra is an amazing combination of belief and science which has been regarded as the most efficient way of designing different rooms of a house. When this is taken into account, the design for bathroom is also taken in consideration since it is the most important portion of any house. The bathroom is essentially used for keeping oneself clean and hygienic and getting rid of the wastes. The bathroom is not bounded as strictly by the rules of the Vaastu as other rooms, but still, there are still some rules which need to be adhered in order to get the most out of this ancient science of architecture and design. Ideally, the bathroom should not occupy the living region inside a house. It should be out of the house.
Location of the Bathroom
The bathroom, as said, should be located outside the house without any direct connection to it. If it is to be built inside the house, it can ideally be built in any direction- east, west, north or south. The bathroom floor should be depressed if it is in the north or east direction. If it is in the remaining two directions, it is advised that the flooring of the bathroom should be elevated when compared to the rest of the house. In the first case, the structure of the windows should be as large as possible while in the event of a bathroom in the south or west direction, the windows should be in the same direction and should be smaller in size. Cleanliness should be maintained since a bathroom is the only area in the house which attracts the guests at first. Cleanliness is next to godliness and it applies perfectly in the case of a bathroom.
Doors, Pipes and Corners
Taps and mirror should be on the northern side of a bathroom. In case a geyser is also required, it should be fitted in the south east corner of the bathroom. Bath tubs are essentially provided the north eastern portion of a bathroom. The used clothes should be hung in the western side of the bathroom so as to enable the infrared radiations of the sun to kill the bacteria. As with the other rooms, the color combination of the bathroom should be very light and relaxing. White or sky blue shade is always preferred. When it comes to the slope of the floor, it is good for the house if the water flows into the north east side of the bathroom. So the slopes should be due north and east. Along with the geyser, the provision of the wash-basin is in the north eastern direction.
Vaastu Shastra application in case of a bathroom is not much complicated and just requires the understanding of a few points such as the location of the taps, mirrors and bath tubs. Additionally, to ensure that the dirty water does not get into the house, the slope should be engineered properly too.
Vaastu Advice for the Pooja Room
Vaastu Shastra has become the most important aspect of room designing during recent times due to the scientifically proved effects it has on the life of the individual concerned. The whole science of Vaastu Shastra is based on the principle of electromagnetic interference and coherence. The right amount of alignment and deviation for the electromagnetic lines of force surrounding the earth has been extensively described by the Vaastu Shastra, originally practiced by the Indian royal families. Vaastu Shastra applies to the whole structure of the house and when one is concerned about the most sacred area of the house- the pooja room, some important things should be noted in order to get the most out of one’s faith and find peace of mind. It has been observed on a large scale that due to the decrease of time and space, people are forgetting the importance of the almighty in our day to day lives and hence, the pooja room often gets ignored due to non-availability of space. This might lead to an unseen disruption of mental and physical balance. Here are some of the Vaastu tips and advices which can come handy while deciding the structure of a pooja room.
Location of the Pooja Room
The location of the pooja room is responsible for the absorption of positive energies and deflection of negative energy which surrounds us in the universe. The pooja room should be in the North/ east or the North-east direction of the house. Never ever should a bedroom or a bathroom be built adjacent to the pooja room. Cleanliness should be a must while entering into the sacred place One should not enter the room without washing hands and legs properly.
Idols in the Pooja Room
If Vaastu Shastra is to be followed strictly, there should be no idols in the pooja room. But if it is a personal desire to idolize God, care should be taken that the height of the idol is somewhere in between two to nine inches. It should also be made sure that the feet of the idol are exactly at the chest of the person sitting in front of it. Particular care should be taken to ensure that nothing is kept above the idol of God.
Additional Vaastu Considerations for Pooja Room
The vessels used in the pooja room should be made up of copper. It should always be neat and clean. It is always advisable to have a tulsi plant in the pooja room since it is regarded as the most sacred of all herbs. The room should be simple and the walls should be elegantly colored with light paint, preferably white or sky blue. One should not sleep in the pooja room as it is exclusively for the supreme power. If sleeping in the pooja room becomes a necessity, the idols should be kept in the highest of all places in the room and should be covered at night. One can pray by uncovering the deity.
Vaastu Advice for the Locker Room
Vaastu Shastra is the science of designing the various parts of a house, i.e. the room design, direction and the shape, keeping in view the natural electromagnetic wave cycle of the earth and the impact it has on humans. Every room should be built as per the Vaastu advised for it. Disregarding the basic Vaastu advices might lead to impatience, irritability, unwanted tension and many mental, physical and financial downs. A house, in general has a master bedroom, bedrooms, kitchen and toilet. But one more thing not to forget while going for a Vaastu perfect home is the locker room. A locker room is a specific area which takes the least space in a house while keeping in possession the most important thing- the cash and . Unlike older times, when joint families used to live peacefully and in harmony, the present joint family, which has opted to discard the need for Vaastu, has many problems and suffers from clashes and conflicts. This is one of the most important reasons for the exponential increase in the number of families opting for a Vaastu perfect house.
The locker rooms should be strictly designed as per the Vaastu advised for it since it also is a shelter for valuable things, like cash and gold. In fact, the locker room today is being extensively used to store treasures and valuable things. The most important part of the locker room is the locker. It is the most guarded object in the house because it protects and supports the financial condition of the house.
Vaastu Shastra is as important for the locker room as it is for the rest of the house. It is important to get a perfectly designed house and stay happy while taking every possible benefit from nature. The locker room is indeed the most protected room in the house and by adding the essence of the ancient science of architecture to it; it becomes less vulnerable to the negative energy which usually surrounds money. Placing the almirahs is an option which might be considered while designing the locker room.
Vaastu Advice for the Dining Room
Vaastu has been gaining prominence to a large extent primarily due to ancestral depiction of values and traditions. This age old science has helps people to observe some kind of a harmonious setting in their habitat. The process of vaastu can be dated back to the period of Vedas. This is the primary reason people acknowledge vaastu shastra as a science that existed and was followed with ancient architecture too.
Vaastu Advice for Dining Room
This will ensure that the food cooked at your homes will have a positive effect on your health and family. The Vaastu advice for dining room has to follow certain rules and measurements. Hence your architect or designer will ensure that the location is selected perfectly thereby taking care of your health. The dining table will have to be placed properly; electronic gadgets will have to be properly plugged.
Vaastu advice for dining room will also include perfect manner of eating and proper planning of facing while eating food. The perfect direction for setting the dining room will be perhaps the southern or western direction. In case you would like to place a refrigerator inside the kitchen then position it towards the southeast direction. Ideally kitchen is the place to have your meals. However sometimes it becomes impossible due to lack of space. Hence never face southwards while eating food. Facing southwards will create unnecessary stomach infections, indigestion and bowel problems. Vaastu advice for dining room will also cover the washbasin. The washbasin should be placed towards the right hand side of the dining room. This means it will be placed towards the eastern side or northwest corners. The dining table should never stick to the wall. In case it is unavoidable, then face them towards south or west. At no point should it stick towards the northeast corner.
Vaastu advice for dining room also includes decoding the shape of dining table. You are required to select a square or a rectangle for the room. In case you prefer the round contemporary table, you could put the same. You should also try to manage the kitchen and dining room at one particular corner. Sometimes people have a small partition like a window to exchange foods. You could always ask your concerned vaastu expert to plan the area properly and suggest you for the same.
Another Vaastu advice for dining room would be that at least one member of the family should eat food facing the eastern direction. The other members of the family should take the south, west and northern directions. All of this should be harmoniously done or else it might lead to unnecessary fights. If you can make use of paintings and nature portraits, it might just deck up the whole atmosphere. You could also paint your walls in pink colour or sometimes orange. The family must also spend maximum time around the dining table to solve any unpredictable problems. Family members are requested not to speak about the weaknesses of any particular member while sitting on the dining table.
Eating Habits
Television is also an integral part of every dining room. Vaastu advice on dining room does cover television in a broad manner. It seems that television kills most of the conversation. Hence parents are often requested to have meals with their children and spend quality time accordingly. You could also plan a separate room for washing clothes or utensils besides your dining room. The other Vaastu advice for dining room would be by not crowding the dining room with unnecessary furniture. You must never have a toilet attached to the dining room as this might lead to health problems.
Vaastu Advice for the Guest Room
The Truth about Vaastu
Vaastu is an ancient form of structuring houses and planning directions. It has been related or associated with most architectural spaces. The aim to introduce this was to preserve and manage human welfare. The knowledge put together on decoding Vaastu depends on wealth, health, family and mental peace. This has now become an integral part of everyone’s life. Most early dwellings were planned based on Vaastu Shastra. This has been the main reason for understanding happiness and constructing certain rules in a habitat. Vaastu Shastra had a strong point mentioning joint family to be the core for happiness.
Guest Room Necessities
Every member prefers to organize a guestroom in their house. Bigger houses will design a separate room for the guests. The guest room gives your guest the privacy they need while they visit your place. This also avoids any kind of crowd or room alterations. Most guestrooms would be located away from the main master bedroom or the living room. The guestroom should definitely exhibit a feeling of calmness and peace. Your guest needs to be felt content with the atmosphere.
Vaastu for the Guest Room
The perfect Vaastu advice for guest room can be obtained only by a trained and experienced priest. He or she would be in a position to explain you minute details. However, today with respect to globalization and western mix of influences, Vaastu details are available everywhere. Ideally, the guestroom should face the Northwest region of the corner of any house. The bed inside the guest room should also face the southern or western part of the house. Most electronic items in the room must also face the Southeast wall. The bathroom should also not be exactly opposite to the bed. Most people might give a Vaastu advice for guest room indicating absence of beam over the bed area. The cabinets inside the room must always face the Western zone or at the most the Southern zone. Most architects will take help of Vaastu Shastra while planning or designing floor plans. Some of them might give you in-depth insights on the analysis of the room. The Vaastu advice for guest room includes patterns that depict worshipping guests and considering them as Gods.
Other points based on Vaastu Shastra
The guest room must always have a bathroom attached as that is the ideal way to preserve his or her privacy. At no point should he or she need to come out. Vaastu advice for guest room is always important as eventually you are known by the way you maintain their safety and privacy. The Guest room should always have the door opening from the right hand side.
You must always provide the window at the northeast corner so that it gels with the vaastu of the entire house. In case Northeast becomes difficult to implement you could shift it to the west direction too. All these amendments must be incorporated after consulting an expert in Vaastu Shastra. Also remember that there are always certain options available in case your house is not planned in a proper layout. These days it becomes difficult to implement rooms according to needs as space is a major constraint. Hence it is always advisable to clear your queries before setting up your entire house. The most important Vaastu advice for guest room would be pleasing the guests by painting the walls in a fresh warm colour that might lift up their moods. The room should have fruits or dry snacks kept as this might keep their taste buds in control and they might not feel like grubbing.
Vaastu Shastra is an important factor while deciding the structure of a bedroom since the alignment with the natural electromagnetic radiations should be perfect for the purpose a bedroom is used for- relaxing. If the bedroom has been designed according to the Vaastu, it has been scientifically proven that the brain waves are found to be in a relaxed state. Additionally, it has been a belief that if the bedroom is perfect according to the traditional Vaastu, money inflow would take place. Here are some advices which might help one while designing a bedroom.
Vaastu for the Master Bedroom
The bedroom which belongs to the owner of the house is known as the master bedroom. According to Vaastu Shastra, the master bedroom should occupy the south- west portion of the house since the direction reflects the heaviness of mother earth. It should be noted that this direction is reserved for the master bedroom only. Strict care should be taken so that no other room takes the place.
Placement of the Bed
The bed is the heart and soul of a bedroom and is the first thing that is noticed inside a bedroom. A bed should also follow the rules of Vaastu Shastra. According to the Shastra, the bed should be carved exclusively out of wood, should be at least four feet away from the wall and should never be placed right in front of the bedroom entrance. The bed should be in a rectangular shape and there should not be any beam passing over it. The quality of wood used for the bed should be good and it should not provide any creaking noise. The bedroom should be designed with soothing paintings and relieving colors.
Additional Vaastu Considerations for Bedroom
The cupboard should be in the south/ west or south-west direction. The floor of the bedroom should not be broken up into pieces. To ensure this, laminating the floor would be an excellent option. It should also be noted that if a bedroom has a double bed, there should be only one mattress for it. AC, TV and other electronic equipments find their place in the south-east corner of the bedroom. While sleeping, the master bedroom should not be in a pitch dark condition. At least there should be a night bulb glowing, which is a mark of the master showing light to the family in dark times. To ensure that the owner of the house has a higher standard than the rest of the family, the flooring in the master bedroom should be higher than that in the regular bedrooms. The entrance to the bedroom should be in the north-east corner.
Vaastu Advice for the Bathroom
The Vaastu Shastra is an amazing combination of belief and science which has been regarded as the most efficient way of designing different rooms of a house. When this is taken into account, the design for bathroom is also taken in consideration since it is the most important portion of any house. The bathroom is essentially used for keeping oneself clean and hygienic and getting rid of the wastes. The bathroom is not bounded as strictly by the rules of the Vaastu as other rooms, but still, there are still some rules which need to be adhered in order to get the most out of this ancient science of architecture and design. Ideally, the bathroom should not occupy the living region inside a house. It should be out of the house.
Location of the Bathroom
The bathroom, as said, should be located outside the house without any direct connection to it. If it is to be built inside the house, it can ideally be built in any direction- east, west, north or south. The bathroom floor should be depressed if it is in the north or east direction. If it is in the remaining two directions, it is advised that the flooring of the bathroom should be elevated when compared to the rest of the house. In the first case, the structure of the windows should be as large as possible while in the event of a bathroom in the south or west direction, the windows should be in the same direction and should be smaller in size. Cleanliness should be maintained since a bathroom is the only area in the house which attracts the guests at first. Cleanliness is next to godliness and it applies perfectly in the case of a bathroom.
Doors, Pipes and Corners
Taps and mirror should be on the northern side of a bathroom. In case a geyser is also required, it should be fitted in the south east corner of the bathroom. Bath tubs are essentially provided the north eastern portion of a bathroom. The used clothes should be hung in the western side of the bathroom so as to enable the infrared radiations of the sun to kill the bacteria. As with the other rooms, the color combination of the bathroom should be very light and relaxing. White or sky blue shade is always preferred. When it comes to the slope of the floor, it is good for the house if the water flows into the north east side of the bathroom. So the slopes should be due north and east. Along with the geyser, the provision of the wash-basin is in the north eastern direction.
Vaastu Shastra application in case of a bathroom is not much complicated and just requires the understanding of a few points such as the location of the taps, mirrors and bath tubs. Additionally, to ensure that the dirty water does not get into the house, the slope should be engineered properly too.
Vaastu Advice for the Pooja Room
Vaastu Shastra has become the most important aspect of room designing during recent times due to the scientifically proved effects it has on the life of the individual concerned. The whole science of Vaastu Shastra is based on the principle of electromagnetic interference and coherence. The right amount of alignment and deviation for the electromagnetic lines of force surrounding the earth has been extensively described by the Vaastu Shastra, originally practiced by the Indian royal families. Vaastu Shastra applies to the whole structure of the house and when one is concerned about the most sacred area of the house- the pooja room, some important things should be noted in order to get the most out of one’s faith and find peace of mind. It has been observed on a large scale that due to the decrease of time and space, people are forgetting the importance of the almighty in our day to day lives and hence, the pooja room often gets ignored due to non-availability of space. This might lead to an unseen disruption of mental and physical balance. Here are some of the Vaastu tips and advices which can come handy while deciding the structure of a pooja room.
Location of the Pooja Room
The location of the pooja room is responsible for the absorption of positive energies and deflection of negative energy which surrounds us in the universe. The pooja room should be in the North/ east or the North-east direction of the house. Never ever should a bedroom or a bathroom be built adjacent to the pooja room. Cleanliness should be a must while entering into the sacred place One should not enter the room without washing hands and legs properly.
Idols in the Pooja Room
If Vaastu Shastra is to be followed strictly, there should be no idols in the pooja room. But if it is a personal desire to idolize God, care should be taken that the height of the idol is somewhere in between two to nine inches. It should also be made sure that the feet of the idol are exactly at the chest of the person sitting in front of it. Particular care should be taken to ensure that nothing is kept above the idol of God.
Additional Vaastu Considerations for Pooja Room
The vessels used in the pooja room should be made up of copper. It should always be neat and clean. It is always advisable to have a tulsi plant in the pooja room since it is regarded as the most sacred of all herbs. The room should be simple and the walls should be elegantly colored with light paint, preferably white or sky blue. One should not sleep in the pooja room as it is exclusively for the supreme power. If sleeping in the pooja room becomes a necessity, the idols should be kept in the highest of all places in the room and should be covered at night. One can pray by uncovering the deity.
Vaastu Advice for the Locker Room
Vaastu Shastra is the science of designing the various parts of a house, i.e. the room design, direction and the shape, keeping in view the natural electromagnetic wave cycle of the earth and the impact it has on humans. Every room should be built as per the Vaastu advised for it. Disregarding the basic Vaastu advices might lead to impatience, irritability, unwanted tension and many mental, physical and financial downs. A house, in general has a master bedroom, bedrooms, kitchen and toilet. But one more thing not to forget while going for a Vaastu perfect home is the locker room. A locker room is a specific area which takes the least space in a house while keeping in possession the most important thing- the cash and . Unlike older times, when joint families used to live peacefully and in harmony, the present joint family, which has opted to discard the need for Vaastu, has many problems and suffers from clashes and conflicts. This is one of the most important reasons for the exponential increase in the number of families opting for a Vaastu perfect house.
The locker rooms should be strictly designed as per the Vaastu advised for it since it also is a shelter for valuable things, like cash and gold. In fact, the locker room today is being extensively used to store treasures and valuable things. The most important part of the locker room is the locker. It is the most guarded object in the house because it protects and supports the financial condition of the house.
Vaastu Shastra is as important for the locker room as it is for the rest of the house. It is important to get a perfectly designed house and stay happy while taking every possible benefit from nature. The locker room is indeed the most protected room in the house and by adding the essence of the ancient science of architecture to it; it becomes less vulnerable to the negative energy which usually surrounds money. Placing the almirahs is an option which might be considered while designing the locker room.
Vaastu Advice for the Dining Room
Vaastu has been gaining prominence to a large extent primarily due to ancestral depiction of values and traditions. This age old science has helps people to observe some kind of a harmonious setting in their habitat. The process of vaastu can be dated back to the period of Vedas. This is the primary reason people acknowledge vaastu shastra as a science that existed and was followed with ancient architecture too.
Vaastu Advice for Dining Room
This will ensure that the food cooked at your homes will have a positive effect on your health and family. The Vaastu advice for dining room has to follow certain rules and measurements. Hence your architect or designer will ensure that the location is selected perfectly thereby taking care of your health. The dining table will have to be placed properly; electronic gadgets will have to be properly plugged.
Vaastu advice for dining room will also include perfect manner of eating and proper planning of facing while eating food. The perfect direction for setting the dining room will be perhaps the southern or western direction. In case you would like to place a refrigerator inside the kitchen then position it towards the southeast direction. Ideally kitchen is the place to have your meals. However sometimes it becomes impossible due to lack of space. Hence never face southwards while eating food. Facing southwards will create unnecessary stomach infections, indigestion and bowel problems. Vaastu advice for dining room will also cover the washbasin. The washbasin should be placed towards the right hand side of the dining room. This means it will be placed towards the eastern side or northwest corners. The dining table should never stick to the wall. In case it is unavoidable, then face them towards south or west. At no point should it stick towards the northeast corner.
Vaastu advice for dining room also includes decoding the shape of dining table. You are required to select a square or a rectangle for the room. In case you prefer the round contemporary table, you could put the same. You should also try to manage the kitchen and dining room at one particular corner. Sometimes people have a small partition like a window to exchange foods. You could always ask your concerned vaastu expert to plan the area properly and suggest you for the same.
Another Vaastu advice for dining room would be that at least one member of the family should eat food facing the eastern direction. The other members of the family should take the south, west and northern directions. All of this should be harmoniously done or else it might lead to unnecessary fights. If you can make use of paintings and nature portraits, it might just deck up the whole atmosphere. You could also paint your walls in pink colour or sometimes orange. The family must also spend maximum time around the dining table to solve any unpredictable problems. Family members are requested not to speak about the weaknesses of any particular member while sitting on the dining table.
Eating Habits
Television is also an integral part of every dining room. Vaastu advice on dining room does cover television in a broad manner. It seems that television kills most of the conversation. Hence parents are often requested to have meals with their children and spend quality time accordingly. You could also plan a separate room for washing clothes or utensils besides your dining room. The other Vaastu advice for dining room would be by not crowding the dining room with unnecessary furniture. You must never have a toilet attached to the dining room as this might lead to health problems.
Vaastu Advice for the Guest Room
The Truth about Vaastu
Vaastu is an ancient form of structuring houses and planning directions. It has been related or associated with most architectural spaces. The aim to introduce this was to preserve and manage human welfare. The knowledge put together on decoding Vaastu depends on wealth, health, family and mental peace. This has now become an integral part of everyone’s life. Most early dwellings were planned based on Vaastu Shastra. This has been the main reason for understanding happiness and constructing certain rules in a habitat. Vaastu Shastra had a strong point mentioning joint family to be the core for happiness.
Guest Room Necessities
Every member prefers to organize a guestroom in their house. Bigger houses will design a separate room for the guests. The guest room gives your guest the privacy they need while they visit your place. This also avoids any kind of crowd or room alterations. Most guestrooms would be located away from the main master bedroom or the living room. The guestroom should definitely exhibit a feeling of calmness and peace. Your guest needs to be felt content with the atmosphere.
Vaastu for the Guest Room
The perfect Vaastu advice for guest room can be obtained only by a trained and experienced priest. He or she would be in a position to explain you minute details. However, today with respect to globalization and western mix of influences, Vaastu details are available everywhere. Ideally, the guestroom should face the Northwest region of the corner of any house. The bed inside the guest room should also face the southern or western part of the house. Most electronic items in the room must also face the Southeast wall. The bathroom should also not be exactly opposite to the bed. Most people might give a Vaastu advice for guest room indicating absence of beam over the bed area. The cabinets inside the room must always face the Western zone or at the most the Southern zone. Most architects will take help of Vaastu Shastra while planning or designing floor plans. Some of them might give you in-depth insights on the analysis of the room. The Vaastu advice for guest room includes patterns that depict worshipping guests and considering them as Gods.
Other points based on Vaastu Shastra
The guest room must always have a bathroom attached as that is the ideal way to preserve his or her privacy. At no point should he or she need to come out. Vaastu advice for guest room is always important as eventually you are known by the way you maintain their safety and privacy. The Guest room should always have the door opening from the right hand side.
You must always provide the window at the northeast corner so that it gels with the vaastu of the entire house. In case Northeast becomes difficult to implement you could shift it to the west direction too. All these amendments must be incorporated after consulting an expert in Vaastu Shastra. Also remember that there are always certain options available in case your house is not planned in a proper layout. These days it becomes difficult to implement rooms according to needs as space is a major constraint. Hence it is always advisable to clear your queries before setting up your entire house. The most important Vaastu advice for guest room would be pleasing the guests by painting the walls in a fresh warm colour that might lift up their moods. The room should have fruits or dry snacks kept as this might keep their taste buds in control and they might not feel like grubbing.
Vastu asects for marriage
Vaastu Shastra or Vaastu grid is an important model or element basis which a house is set or planned. This also applies to other forms of temporary arrangements too. The site for any arrangement is always planned after a proper scanning and examination. Today most people would agree to incorporate Vaastu Shastra before beginning any project. It is a way of pleasing and inviting God to offer his blessings and making the entire area positive. Most builders always practice Vaastu Shastra and follow it to the core. You will come to know the best location and direction after asking an expert to consult on the same. Hence in case you are planning to construct a house or a temporary arrangement, you must get in touch with an architect with sound knowledge of Vaastu Shastra.
Marriage Halls are an integral part of every marriage ceremony. Most people prefer to build large halls rather than settling for auditoriums and pre-arranged buildings. The fun is to celebrate it with friends and family. Marriage is always an occasion that requires larger than life atmosphere. But marriages also need proper planning and designing. In order to enjoy compliments and a lavish affair, you must ask an expert who recommends or consults on Vaastu Shastra for marriage halls. Vaastu advice for marriage hall would also include understanding the kind of marriage and customs involved. Sometimes marriage halls do not earn revenue due to shortfall of business. In case you own a marriage hall and do not earn profit, you need to think again.
This hall must be planned for a successful future. The halls should predominantly have direction mentions in every hook and corner. The main stage should be positioned towards the Western zone. This way the couple could be facing east while sitting on the pandal. The ideal location for an entrance would be Northern or eastern zones. The plot or area of the marriage hall should be in a very normal shape and no experimentation of any kind would be appreciated. Vaatsu advice for marriage halls also covers positioning electrical equipments in the perfect place. These equipments must be directed towards the South-eastern direction. All kinds of cooking arrangement must be placed towards the South-eastern direction. Any kind of parking can always be done towards the North-western or South-eastern direction. The food and snack counter can be positioned at North-western or Northern zone. The seating arrangement for guests must be made at the Northern or South-western zones. The main mandap should be also arranged in the North-eastern direction. The most integral part is including additional toilets to maintain hygiene. There must be ample supply of water. These toilets must be planned towards the western or North-western direction. The staircase if any should be planned towards the western, Southern or South-western zones.
Marriage Halls are an integral part of every marriage ceremony. Most people prefer to build large halls rather than settling for auditoriums and pre-arranged buildings. The fun is to celebrate it with friends and family. Marriage is always an occasion that requires larger than life atmosphere. But marriages also need proper planning and designing. In order to enjoy compliments and a lavish affair, you must ask an expert who recommends or consults on Vaastu Shastra for marriage halls. Vaastu advice for marriage hall would also include understanding the kind of marriage and customs involved. Sometimes marriage halls do not earn revenue due to shortfall of business. In case you own a marriage hall and do not earn profit, you need to think again.
This hall must be planned for a successful future. The halls should predominantly have direction mentions in every hook and corner. The main stage should be positioned towards the Western zone. This way the couple could be facing east while sitting on the pandal. The ideal location for an entrance would be Northern or eastern zones. The plot or area of the marriage hall should be in a very normal shape and no experimentation of any kind would be appreciated. Vaatsu advice for marriage halls also covers positioning electrical equipments in the perfect place. These equipments must be directed towards the South-eastern direction. All kinds of cooking arrangement must be placed towards the South-eastern direction. Any kind of parking can always be done towards the North-western or South-eastern direction. The food and snack counter can be positioned at North-western or Northern zone. The seating arrangement for guests must be made at the Northern or South-western zones. The main mandap should be also arranged in the North-eastern direction. The most integral part is including additional toilets to maintain hygiene. There must be ample supply of water. These toilets must be planned towards the western or North-western direction. The staircase if any should be planned towards the western, Southern or South-western zones.
कुंडली में प्रथम भाव में शनि
यदि जन्मकुंडली के प्रथम भाव (लग्न) में शनि उपस्थित हो या उसका प्रभाव हो तो जातक की आकृति अथवा प्रकृति चिन्तय होती है। वैद्यनाथ के अनुसार ऐसा जातक कईं प्रकार की व्याधि से ग्रस्त होता है। उसका कोई अंग अवश्य ही दोषयुक्त होता है । यदि ज्ञानि स्वगृही या उच्च का हो, तो जातक क्या व आव से चुन होता है । उसका आयुबंल प्रबल होता है । लेकिन आचार्य वशिष्ट के मतानुसार ऐसा जातक कफ-ग्रकृति प्रधान होता है, चर्म रोग से पीडित रहता है और अधोभाग में कोई विकृति होती है। वात रोग के कारण उसे कर्णपीड़। रहती है 1 शारीरिक संरचना घृक्याता लिए होती है। पानि के प्रभावमृके कारण ऐसा जातक अत्यधिक कामातुर और बुद्धि रहित होता है। जहां वैद्यनाथ ने ऐसे जातक का ठगयुर्बल प्रबल बताया है, वहीं आचार्य वशिष्ठ ने उसकी आयु अल्प मानी है । यदि लग्न में ज्ञानि की उपस्थिति के साथ-साथ तुला, धनु या मीन राशि हो तो जातक समृद्ध, वैभबयुबत्त, धनी, दीर्घायु तथा राजा की तरह पुती होता है । कोई अन्य राशि हो तो जातक रुष्ण, क्लेशित और साधन विहीन होता है । " भृगुसूत्र है के अनुसार यदि लग्न में पानि उपस्थित हो तो जातक द्धगत्रु-संहारकत्ततें, समृद्ध, सुखा , इस्थुलदेयी, तीक्ष्य दृष्टिवान एवं वात-पित्तप्रधान होता है । यदि शनि उच्च का हो तो जातक गाम प्रघान अथवा नगर प्रमुख होता है । मकरस्थ या कुंभस्थ शनि जातक को प्रचुर पैतृक संपत्ति प्रदान करता है । है बृहत्यवनजातक सूत्र है के अनुसार यदि लग्नस्थ पुनि मूलत्रिकोषास्थ हो तो जातक राष्ट्र प्रमुख अथवा पति प्रमुख की प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । इसके अतिरिक् राशियों में संस्थित शनि वाधि, विषमता और विपन्नता उत्पन्न करता है । 'जातक परिजात है के अनुदार यदि शनि दुर्बल हो तो जातक संधि-व्याधि से ग्रस्त, दारिद्रय एवं पिशाच प्रेरित होता है । वह दुष्कर्मों का फल भोगता है । उसकी संपत्ति चीर ले
जाते है । वह षचास रोग, शरीर पीडा, पार्श्व पीडा, गुप्त विकार, हदयताप, संधि रोग, कंपन एवं वात विकार आदि से पीडित रहता है । ज्योंतिर्विद जयदेव ने कुछ राशियों में शनि कौ श्रेष्ठ सिद्ध किया है । उनके
मतानुसार धनु, मीन, मकर, कुंभ एबं तुला राशिगत शनि पांडित्य, ऐश्वर्य तथा सुदर्शन शरीर प्रदान करता है, जबकि अन्य राशियों में जातक को दारिद्रय, हृदय रोग, अशुद्ध शरीर, कामावेग, रुष्णत्व और आलस्य प्राप्त होता है । पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक दृष्टियों से शनि के प्रभावों से अवगत कराया है । इन विद्वानों के अनुसार सामान्यत: प्रथम भावस्थ शनि जीवनभर जातक को दुख देता है । जातक तटस्थ, संकल्पवान, आग्रही, लज्जालु, एकांतस्वैवी, अपनी बात पर दृढ़ रहने वाला और स्वहित साधन में तल्लीन रहता है। यदि ज्ञानि शुभ संयोगयुक्ल हो तो भाग्य शीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है । जातक का प्रारंभिक काल संघर्षरत रहता है, किंतु अनवरत प्रयास से उच्च उपलब्धियों प्राप्त होती हैं । यदि शनि अशुभ संयोगयुवत हो तो जातक विवादित, पराश्रयी, तुच्छ कार्यों में संलग्न, दुखी, भयभीत, अविस्वासी, ईंष्यर्रेलु, ध्याकुल तथा जनभीरु होता है । ऐसा जातक बहुत समय पश्चात भी प्रतिशोध की अग्नि अपने अता में प्रज्वलित रखता है । अनेकानेक कारणों से लोकप्रियता का अभाव रहता है । जीवन में कष्ट, आपति, विघ्न, दैन्य तथा नैराश्य का गहरा प्रभाव होता है । शारीरिक रुग्याता बनीरहती है । शीतजनित रोग तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय रहता है । वृश्चिक, सिंह, कर्क और चुग राशि में क्रमश: अपच, यद्धाकोष्ठता, रक्तसंचार विकार तथा मूत्राषाय को जायाधि होती है। शनि द्वारा अग्निरक्तिनंडत होने पर जातक की प्रकृति में सरलता , विश्वसनीयता, आत्मीयता, विवाद हैं रोष, प्रपंच और साहस का समावेश होता है । शनि द्वारा पृथ्वीराशिगत होने पर आलस्य, संकीर्णता हैं प्रतिशोध, दुष्टता, संशय, धूर्तता, कद-विवाद में निपुणता, स्वार्थपरता, पश्चिम, लोलुपता, कृपदृगता, उद्विग्नता, अनावश्यक सतर्कता और क्रोध का समावेश होता है । शनि द्वारा अग्निराशिग्त होने पर जातक मै व्यावहारिकता, और सरलता आ जाती है
जाते है । वह षचास रोग, शरीर पीडा, पार्श्व पीडा, गुप्त विकार, हदयताप, संधि रोग, कंपन एवं वात विकार आदि से पीडित रहता है । ज्योंतिर्विद जयदेव ने कुछ राशियों में शनि कौ श्रेष्ठ सिद्ध किया है । उनके
मतानुसार धनु, मीन, मकर, कुंभ एबं तुला राशिगत शनि पांडित्य, ऐश्वर्य तथा सुदर्शन शरीर प्रदान करता है, जबकि अन्य राशियों में जातक को दारिद्रय, हृदय रोग, अशुद्ध शरीर, कामावेग, रुष्णत्व और आलस्य प्राप्त होता है । पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक दृष्टियों से शनि के प्रभावों से अवगत कराया है । इन विद्वानों के अनुसार सामान्यत: प्रथम भावस्थ शनि जीवनभर जातक को दुख देता है । जातक तटस्थ, संकल्पवान, आग्रही, लज्जालु, एकांतस्वैवी, अपनी बात पर दृढ़ रहने वाला और स्वहित साधन में तल्लीन रहता है। यदि ज्ञानि शुभ संयोगयुक्ल हो तो भाग्य शीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है । जातक का प्रारंभिक काल संघर्षरत रहता है, किंतु अनवरत प्रयास से उच्च उपलब्धियों प्राप्त होती हैं । यदि शनि अशुभ संयोगयुवत हो तो जातक विवादित, पराश्रयी, तुच्छ कार्यों में संलग्न, दुखी, भयभीत, अविस्वासी, ईंष्यर्रेलु, ध्याकुल तथा जनभीरु होता है । ऐसा जातक बहुत समय पश्चात भी प्रतिशोध की अग्नि अपने अता में प्रज्वलित रखता है । अनेकानेक कारणों से लोकप्रियता का अभाव रहता है । जीवन में कष्ट, आपति, विघ्न, दैन्य तथा नैराश्य का गहरा प्रभाव होता है । शारीरिक रुग्याता बनीरहती है । शीतजनित रोग तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय रहता है । वृश्चिक, सिंह, कर्क और चुग राशि में क्रमश: अपच, यद्धाकोष्ठता, रक्तसंचार विकार तथा मूत्राषाय को जायाधि होती है। शनि द्वारा अग्निरक्तिनंडत होने पर जातक की प्रकृति में सरलता , विश्वसनीयता, आत्मीयता, विवाद हैं रोष, प्रपंच और साहस का समावेश होता है । शनि द्वारा पृथ्वीराशिगत होने पर आलस्य, संकीर्णता हैं प्रतिशोध, दुष्टता, संशय, धूर्तता, कद-विवाद में निपुणता, स्वार्थपरता, पश्चिम, लोलुपता, कृपदृगता, उद्विग्नता, अनावश्यक सतर्कता और क्रोध का समावेश होता है । शनि द्वारा अग्निराशिग्त होने पर जातक मै व्यावहारिकता, और सरलता आ जाती है
शनिदेव की कथा
शिवजी के अमर अवतार भैरवजी, आदिशक्ति के प्रचंड स्वरूप भगवती महाकाली और मृत्यु के नियंत्रक यमराज के ममान ही देवाधिदेव शनिदेव के बारे में भी अनेक सांत घटरपगएं हमरि समाज में व्याप्त हैं । ग्रह के रूप में सर्वाधिक क्रूर और राहु-केतु के समान केवल अशुभ फलदायक ग्रह मानने की गलत धारणा के जहा अधिकांश व्यक्ति शिकार हैं, वहीं शनिदेव को क्रूर देव मानने की भावना भी जनसामान्य में इस प्रकार हावी हो चुकी है कि इनका नाम लेना तक लोग उक्ति नहीं समझते । वैसे इसका प्रमुख कारण हमारा अज्ञान ही है । वास्तव में सभी महानत्ताएं शनिदेव में निहित हैं । आप भगवान भास्कर अथरेंत्सूर्यद्वेव के पुल हैं और इस रूप में यमराज के सगे बड़े भाई हैं । भगवान शिव आपके गुरु और रक्षक हैं तथा भगवान शिव के आदेश पर ही दुष्ठों को दंड देने का कार्य आप नियमित रूप से करते हैं । फिर इसमें शनिदेव का क्या दोष ? इस बरि में स्वयं शनिदेव ने अपनी पत्नी से कहा-यह सत्य है कि मैं भगवान शिव के आदेश से दुष्ठों को दंड देता दूं। परंतु जो व्यक्ति पापी नहीं है, उसे में कभी त्रास नहीं करूंगा । जो व्यक्ति मेरी, मेरे गुरु शिवजी तथा मेरे मित्र हनुमानजी की नियमित आराधना-उपासना बनेगा; उसको इस लोक में मैं सभी सुख तो कूंज्वा ही, अंत में भगवान शिव के चरणों में उसे वास भी प्रात हो जाएगा ।
शनिदेव का अवतरण
सूर्यपुत्र, रबिनंदन, छायातनय, छायापूत, यमाग्रज और सूर्यसुवन भी शनिदेव के प्रमुख नामों में से कुछ हैं । कारण स्पष्ट है । भगवान सूर्यदेव आपके पिता हैं और छाया आपकी माताजी । आपके जन्य और बचपन के बारे में प्राचीन शास्वी में वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
भगवान सूर्यदेव को पांच पत्निया हैं-प्रभा, संज्ञा, रात्रि, बड़वा और छाया । इसमें से संज्ञा द्वारा वैवस्वत मनु यम और यमुना नाम को तीन संताने उत्पन्न हुई । संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज सहन नहीं कर या रही थी, अता अपने को अंत्तहिंत करने का विचार करने लगी । उसने अपने ही रूप को " छाया' नामक स्वी कंद्र उत्पन्न किया और उसे अपने स्थान पर रखकर स्वयं बड़वा अर्थात् घोडी का रूप धारण करके सुमैरुपबंत पर चली गई । जाते समय उसने छाया से कहा-गुप्त रहस्य को सूर्य से प्रकट मत करना । छाया ने कहा-मब तक सूर्य मेरा केश पकड़कर नहीं पूछेंगे, तब तक मैं नहीं कहूंगी । बहुत कल तक इस रहस्य का भेद नहीं खुला और सूर्य छाया को ही है संज्ञा' समझते रहे । छत्या से रावणि मनु शनैश्चर (शनि), ताल नदी और विष्टि नाम की चार संताने उत्पन्न हुई ।
यद्यपि सूर्यदेव और संज्ञा की तीनों संताने छाया को ही संज्ञा समझते थे, परंतु वह वास्तव में छाया थी । कुछ समय जीतने" छाया अपनी संतानों से अधिक प्रेम करने लगी और संज्ञा की संतानों का तिरस्कार करने लगी । इस विषमता को वैवस्वत मनु सहन नहीं कर सके । उन्होंने अपने पिता सूर्यदेव से शिकायत की- मा यया हममें और षानैघचर आदि में भेद का व्यवहार करती है । सूर्य ने अपनी
पत्नी छाया से इसका कारण पूछा । जब छाया की और से संतोषजनक उत्तर न मिल सका, तो सूर्य ने क्रोध में आकर उसके बाल पकड़ लिए और डांटते हुए ठीक-ठीक बात बताने के लिए उसको बाध्य किया । तब छाया ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार संज्ञा का रहस्य प्रकट कर दिया और कहा- आपकी वास्तविक पत्नी संज्ञा अपने स्थान पर मुझे रखकर स्वयं बड़बा का रूप धारण करके कहीं चली गई है । यह सुनकर सूर्यदेव वहुत क्रोधित हुए । उन्होंने न केवल छाया को धमकाया बल्कि छाया और उसके पुत्र शनि का निरंतर तिरस्कार करना भी प्रारंभ कर दिया ।
पिता और भाइयों से शनि का विरोध
सूर्यदेव को पांच पक्षियों में छाया और बड़बा तो संज्ञा के ही दो पृथक रूप हैं, जबकि राधि तथा प्रभा उनको दो अन्य पलिया हैं । इन दो पत्नियों से भी सूर्यदेव को कई संताने हुई । इनमें शनि और यम का रंग काले की सीमा तक गहरा नीला था । शनि बचपन से ही दुबला-पाला और धोड़ा कुरूप भी था । यहीं कारण है कि एक बार सूर्यदेव ने शनि को अपना पुत्र मानने से भी इन्कार कर दिया था । शनि की
माता छाया का भेद खुल जाने के बाद सूर्यदेव बानि से लगभग घृणा ही करने लगे थे । घृणा का उत्तर सदैव घृणा ही होता है, इसीलिए शनिदेव के हदय में भी अपने पिता सूर्यदेव के प्रति न तो कोई आदर था और न ही अन्य भाई-बहनों के प्रति प्रेम की कोई भावना थी । निरंतर इस दुर्भावना का प्रभाव यह पका कि-सदैव असंतुष्ट बने रहना शनिदेव का स्वभाव हो गया । वे अपनी जरा भी अवहेलना करने वाले को दंड देने से नहीं जूझते थे । परंतु इस प्रकार के व्यक्तियों का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने से
पार करने वालों से फूंग्र पार करते हैं । ठीक इसी प्रकार शनिदेव की धोडी-सौ भी उ-आराधना करने वाले व्यक्तियों पर शनिदेव अपनी कृपादृष्टि निरंतर बनाए रखते हैं । शनिदेव की कृपा से ष्टानि-आराधकों को सभी सुख तो मिलते ही रहते हैं, ३ अन्य ग्रह भी अपना दुष्प्रभाव उन पर नहीं डाल पाते । यही नहीं, यमराज शनिदेव के बड़े भाई हैं, अता अकाल मृत्यु और असाध्य रोगों के भय से भी शनि- आराधक
मुक्त रहता है । पृथ्वी अहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । इस बारे में शास्वी में वर्णित कथा इस प्रकार है-अपने पुत्रों के वयस्क हो जाने पर सूर्यदेव ने उन्हें एकच्चिएक ग्रह का स्वामित्व दे दिया । शनिदेव को उन्होंने शनि ग्रह का अधिपति नियुक्त किया । शनि ग्रह यद्यपि बृहस्पति के बाद सबसे विशाल और सुंदर या है, परंतु शनिदेव सभी ग्रहों पर अपना अधिकार चाहते थे । यही कारण है कि शनिदेव अन्य यहीं पर आक्रमण करके उन पर भी आधिपत्य जमाने की योजना बनाने लगे । सूर्यदेव ने शनिदेव को समझाने की बहुत चेष्टा की, परंतु शनिदेव नहीं माने । तब सूर्यदेव ने भगवान शिव से इस बात को शिकायत की और तब भगवान शिव को स्वयं यह कार्य करना पड़ा ।
शिवजी से युध्द एवं शिष्यत्व धारण
भगवान भास्कर द्वारा बारंबार समझाने पर भी शनिदेव नहीं याने । वे अन्य ग्रहों पर आक्रमण करने की योजना को मूर्तरूप देने के लिए अपने अनुचर तैयार करते रहे। सूर्यदेव जानते थे कि अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनिदेव बहुत अधिक शक्तिशाली हैं और वे अपने सभी भाइयों के राज्य छीन लेगे । अत: अपने अन्य पुत्रों की रक्षा हेतु सूर्यदेव ने आशुतोष भगवान शिव से शनिदेव को रोकने की पालना की । भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण नंदी और रोनापति बीरभद्र को अनेक गणों सहित षानिदेव को समझाने और न मानने यर दंड देने के लिए भेजा । शनिदेव ने उनसे युद्ध किया और सभी गणों के साथ वीरभद्र तथा नंदी तक को बन्दी बना लिया । यह देखकर शिवजी को अत्यधिक क्रोध आया । फिर स्वयं भगवान भोलेशक्रर ने युद्धभूमि में आकर अपने दिव्य विल से शनिदेव पर वार कर दिया । साक्षात् भगवान शिव के त्रिशूल के वार से शनिदेव अचेत हो गए और मृतक की भांति ग्याभूमि में गिर पड़े । पुत्र कितना ही उहंड और हठी हो, पिता फिर भी पिता होता है । सूर्यदेव शिवजी से प्रार्थना करने लगे कि शनि को उसकी उहंडता का दंड मिल चुका है, अत: उसे जीवित कर दे । भगवान शिव ने शनिदेव की सूच्छी हटाने के बाद अनेक उपदेश दिए। शनिदेव ने भगवान भोलेशकर को अपना गुरु और मार्गदर्शक मान लिया तथा भांति- बाति से शिवजी की स्तुति की । शिवजी ने शनिदेव को आदेश देया कि वे अपनी ज्ञाक्ति का व्यर्थ प्रदर्शन और अनुचित उपयोग न कों । संत- पुरुषों को कभी तंग न , परंतु जो दुष्ट पापी हैं, उन्हें उचित दंड अवश्य दें ।
शनिदेव का अवतरण
सूर्यपुत्र, रबिनंदन, छायातनय, छायापूत, यमाग्रज और सूर्यसुवन भी शनिदेव के प्रमुख नामों में से कुछ हैं । कारण स्पष्ट है । भगवान सूर्यदेव आपके पिता हैं और छाया आपकी माताजी । आपके जन्य और बचपन के बारे में प्राचीन शास्वी में वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
भगवान सूर्यदेव को पांच पत्निया हैं-प्रभा, संज्ञा, रात्रि, बड़वा और छाया । इसमें से संज्ञा द्वारा वैवस्वत मनु यम और यमुना नाम को तीन संताने उत्पन्न हुई । संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज सहन नहीं कर या रही थी, अता अपने को अंत्तहिंत करने का विचार करने लगी । उसने अपने ही रूप को " छाया' नामक स्वी कंद्र उत्पन्न किया और उसे अपने स्थान पर रखकर स्वयं बड़वा अर्थात् घोडी का रूप धारण करके सुमैरुपबंत पर चली गई । जाते समय उसने छाया से कहा-गुप्त रहस्य को सूर्य से प्रकट मत करना । छाया ने कहा-मब तक सूर्य मेरा केश पकड़कर नहीं पूछेंगे, तब तक मैं नहीं कहूंगी । बहुत कल तक इस रहस्य का भेद नहीं खुला और सूर्य छाया को ही है संज्ञा' समझते रहे । छत्या से रावणि मनु शनैश्चर (शनि), ताल नदी और विष्टि नाम की चार संताने उत्पन्न हुई ।
यद्यपि सूर्यदेव और संज्ञा की तीनों संताने छाया को ही संज्ञा समझते थे, परंतु वह वास्तव में छाया थी । कुछ समय जीतने" छाया अपनी संतानों से अधिक प्रेम करने लगी और संज्ञा की संतानों का तिरस्कार करने लगी । इस विषमता को वैवस्वत मनु सहन नहीं कर सके । उन्होंने अपने पिता सूर्यदेव से शिकायत की- मा यया हममें और षानैघचर आदि में भेद का व्यवहार करती है । सूर्य ने अपनी
पत्नी छाया से इसका कारण पूछा । जब छाया की और से संतोषजनक उत्तर न मिल सका, तो सूर्य ने क्रोध में आकर उसके बाल पकड़ लिए और डांटते हुए ठीक-ठीक बात बताने के लिए उसको बाध्य किया । तब छाया ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार संज्ञा का रहस्य प्रकट कर दिया और कहा- आपकी वास्तविक पत्नी संज्ञा अपने स्थान पर मुझे रखकर स्वयं बड़बा का रूप धारण करके कहीं चली गई है । यह सुनकर सूर्यदेव वहुत क्रोधित हुए । उन्होंने न केवल छाया को धमकाया बल्कि छाया और उसके पुत्र शनि का निरंतर तिरस्कार करना भी प्रारंभ कर दिया ।
पिता और भाइयों से शनि का विरोध
सूर्यदेव को पांच पक्षियों में छाया और बड़बा तो संज्ञा के ही दो पृथक रूप हैं, जबकि राधि तथा प्रभा उनको दो अन्य पलिया हैं । इन दो पत्नियों से भी सूर्यदेव को कई संताने हुई । इनमें शनि और यम का रंग काले की सीमा तक गहरा नीला था । शनि बचपन से ही दुबला-पाला और धोड़ा कुरूप भी था । यहीं कारण है कि एक बार सूर्यदेव ने शनि को अपना पुत्र मानने से भी इन्कार कर दिया था । शनि की
माता छाया का भेद खुल जाने के बाद सूर्यदेव बानि से लगभग घृणा ही करने लगे थे । घृणा का उत्तर सदैव घृणा ही होता है, इसीलिए शनिदेव के हदय में भी अपने पिता सूर्यदेव के प्रति न तो कोई आदर था और न ही अन्य भाई-बहनों के प्रति प्रेम की कोई भावना थी । निरंतर इस दुर्भावना का प्रभाव यह पका कि-सदैव असंतुष्ट बने रहना शनिदेव का स्वभाव हो गया । वे अपनी जरा भी अवहेलना करने वाले को दंड देने से नहीं जूझते थे । परंतु इस प्रकार के व्यक्तियों का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने से
पार करने वालों से फूंग्र पार करते हैं । ठीक इसी प्रकार शनिदेव की धोडी-सौ भी उ-आराधना करने वाले व्यक्तियों पर शनिदेव अपनी कृपादृष्टि निरंतर बनाए रखते हैं । शनिदेव की कृपा से ष्टानि-आराधकों को सभी सुख तो मिलते ही रहते हैं, ३ अन्य ग्रह भी अपना दुष्प्रभाव उन पर नहीं डाल पाते । यही नहीं, यमराज शनिदेव के बड़े भाई हैं, अता अकाल मृत्यु और असाध्य रोगों के भय से भी शनि- आराधक
मुक्त रहता है । पृथ्वी अहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । इस बारे में शास्वी में वर्णित कथा इस प्रकार है-अपने पुत्रों के वयस्क हो जाने पर सूर्यदेव ने उन्हें एकच्चिएक ग्रह का स्वामित्व दे दिया । शनिदेव को उन्होंने शनि ग्रह का अधिपति नियुक्त किया । शनि ग्रह यद्यपि बृहस्पति के बाद सबसे विशाल और सुंदर या है, परंतु शनिदेव सभी ग्रहों पर अपना अधिकार चाहते थे । यही कारण है कि शनिदेव अन्य यहीं पर आक्रमण करके उन पर भी आधिपत्य जमाने की योजना बनाने लगे । सूर्यदेव ने शनिदेव को समझाने की बहुत चेष्टा की, परंतु शनिदेव नहीं माने । तब सूर्यदेव ने भगवान शिव से इस बात को शिकायत की और तब भगवान शिव को स्वयं यह कार्य करना पड़ा ।
शिवजी से युध्द एवं शिष्यत्व धारण
भगवान भास्कर द्वारा बारंबार समझाने पर भी शनिदेव नहीं याने । वे अन्य ग्रहों पर आक्रमण करने की योजना को मूर्तरूप देने के लिए अपने अनुचर तैयार करते रहे। सूर्यदेव जानते थे कि अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनिदेव बहुत अधिक शक्तिशाली हैं और वे अपने सभी भाइयों के राज्य छीन लेगे । अत: अपने अन्य पुत्रों की रक्षा हेतु सूर्यदेव ने आशुतोष भगवान शिव से शनिदेव को रोकने की पालना की । भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण नंदी और रोनापति बीरभद्र को अनेक गणों सहित षानिदेव को समझाने और न मानने यर दंड देने के लिए भेजा । शनिदेव ने उनसे युद्ध किया और सभी गणों के साथ वीरभद्र तथा नंदी तक को बन्दी बना लिया । यह देखकर शिवजी को अत्यधिक क्रोध आया । फिर स्वयं भगवान भोलेशक्रर ने युद्धभूमि में आकर अपने दिव्य विल से शनिदेव पर वार कर दिया । साक्षात् भगवान शिव के त्रिशूल के वार से शनिदेव अचेत हो गए और मृतक की भांति ग्याभूमि में गिर पड़े । पुत्र कितना ही उहंड और हठी हो, पिता फिर भी पिता होता है । सूर्यदेव शिवजी से प्रार्थना करने लगे कि शनि को उसकी उहंडता का दंड मिल चुका है, अत: उसे जीवित कर दे । भगवान शिव ने शनिदेव की सूच्छी हटाने के बाद अनेक उपदेश दिए। शनिदेव ने भगवान भोलेशकर को अपना गुरु और मार्गदर्शक मान लिया तथा भांति- बाति से शिवजी की स्तुति की । शिवजी ने शनिदेव को आदेश देया कि वे अपनी ज्ञाक्ति का व्यर्थ प्रदर्शन और अनुचित उपयोग न कों । संत- पुरुषों को कभी तंग न , परंतु जो दुष्ट पापी हैं, उन्हें उचित दंड अवश्य दें ।
Monday 17 October 2016
मेष लग्न एवं धन योग
मेष लग्न में यदि मंगल लग्नगत हो तथा बृहस्पति एवं सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट्र हो, तो धनवान होने में संदेह नहीं करना चाहिए । इसके साथ यदि द्धितीयेश शुक्र तथा एकादशेश शनि के मध्य विनिमय-परिवर्तन रोग निर्मित हो रहा हो, तो अत्यधिक धनी-मानी होने की सृष्टि होती और सूर्य का संयोग हो रहा हो, तो जातक कै अथोंदूगम की कोई सीमा नहीं होती । यदि शनि और शुक्र लाभ अथवा द्वितीय भाव में संयुक्त न होकर, लग्न में लग्नेश मंगल, पंचमेश सूर्य एवं नवमेश वृहस्पति से युक्त हों अथवा शनि, मंगल, शुक्र लग्नगत होकर बृहस्पति और सूर्य द्धारा दुष्ट हों, तो भी जातक अपार धनवान होता हे । इस स्थिति से भी अधिक धनवान, धनार्जन, धनसंचय, धन संवर्द्धन, धनोदूगम एवं धनोत्पत्ति तब होती है जब लग्न पर मंगल, वृहस्पति और सूर्य का पूर्ण एवं प्रबट्ठा प्रभाव हो, शनि और शुक्र पंचम अथवा नवम भावस्थ हों अथवा केंद्र स्थानों में एक दूसरे से किसी न किसी रूप में सम्बद्ध डों । उल्लेखनीय है किं नवांश की महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा नहीँ की जानी चाहिए । यदि मेष लग्न हो तथा मंगल स्वनवांशस्थ हो अथवा सिंह या धनु राशि का नवांश प्राप्त कर रहा हो, तो मंगल की, धन प्रदान करने की क्षमता में अवश्य अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार यदि नवमेश बृहस्पति की दृष्टि लग्नस्थ वृहस्पति पर पड़ रहीहो और वह स्वनबांश, उच्व नवांश या फिर मेष, सिहे या धनु नवांश मेँ स्थित हो, तो धनयोग की प्रबलता स्वत: सिद्ध होती है । लग्नस्थ मंगल पर सूर्य की दृष्टि हो अथवा सूर्य से मंगल संयुक्त हो, तो धनयोग क्री श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होतीं है परन्तु सूर्य, यदि लग्नस्थ होकर मेष, सिंह व धनु नबांशरथ हो, तो प्रबल धनयोग की संसिद्धि, समस्त संदेहों को पराजित करती है उल्लेखनीय है कि सभी ग्रह स्थितियाँ एक जन्मांग में एक साथ निर्मित नहीँ हो सकती हैं अत: जिस जन्मग्रेग मेँ इन ग्रहयोगों की प्रबलता एवं अधिकता हो, वह व्यक्ति उतना ही समृद्ध, सम्पन्न, सम्पत्तिवान तवा धनवान होगा लग्न, त्रिकोण, लाभ भाव, धन भाव तथा थनकारक बृहस्पति का अध्ययन तो स्वाभाविक है परन्तु कतिपय भाव स्थितियों पर प्राय: पाठकों का ध्यान कैन्दित नहीं हो पाता हे और ये भाव भी अधोंपार्जन की दृष्टि ये पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं । धन भाव एवं लाभ भाव से त्रिकोण भावस्थ ग्रहों की अवहेलनाहै । यदि शनि और उ, लाभ या धन भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तथा लग्न में मंगल, बृहस्पतिग्रहों की अवहेलना करना मिथ्या परिणाम का प्रतिपादन करता है षष्ठ तथा दशम भाव, धन भाव के त्रिकोण स्थान होते हैं । इसी प्रकार लाभ भाव के त्रिकोण स्थान, तृतीय तथा सप्तम मय होते हैं इसीलिए तृतीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भावस्थ ग्रहों द्वारा वसुमति योग की संरचना होती है जो धनवान होने की संपुष्टि करती है मेष लग्न से तृतीय भाव मिथुन तथा षष्ठ भाव कन्या होता है । यदि मिथुन या कन्या राशि में बुध स्थित हो, शुक्र अथवा शनि से संयुक्त हो, तो धनयोग का निर्माण होता है । इसी प्रकार मेष लग्न के जातक के जन्मग्रेग में मिथुन अथवा कन्या राशि में बुध के साय सूर्य अथवा अति भी शुभ फल प्रदान करते हैं इसी विधान का अनुकरण करते हुए यदि सप्तम अथवा यम भाव में शुक अथवा शनि संस्थित हो या उनके मध्य विनिमय दुष्टिसम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो जातक धनवान होता है । यदि शनि और शुक्र के मध्य विनिमय नवांश परिवर्त्तन हो रहा हो, तो धनयोग की प्रबलता को आधार प्राप्त होता है मेष लग्न में पंचमस्थ सूर्य पर एकादशरथ शनि अथवा अति दुष्टिनिक्षेप बरि, तो अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होता है । यदि एकादश भाव में बृहस्पति तथा शनि संयुक्त रूप से संस्थित हों तथापंचम भाव में सूर्य, सिंह राशिंगत ही, तो जातक के ज़न्मा३ग में धनयोग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार से मेष लग्न में उत्पन्न होने वाले जातक के ज़न्मग्रेग के नवम भाव में बृहस्पति की स्थिति उत्वम भाग्य प्रदान करती है । वृहस्पति पर यदि सूर्य अथवा शुक्र हो, तो भी धन सम्बन्धी शुभ फलों में वृद्धि होती है । बृहस्पति, सूर्य और मंगल की नवम भाव मेँ युति की अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । क्योंकि तीनों त्रिक्रोणों के अधिपति के नवम भाव में स्थित होने से उत्तम भाग्य तथा धनयोग की संरचना होती हे पाठकगण भ्रमित न हों, इसलिए इस बिषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना कहना ही उपयुक्त होगा कि नक्षत्रों के बलाबल तथा शुभाशुभ पर विचार करना भी अपेक्षित है । नवम भाव में धनु राशिगत वृहस्पति, यदि धनु, कर्क, सिंह अथवा मेष नवांश में स्थित हो, तो निश्चित रूप से वृहस्पति के शुभत्व में वृद्धि होगी तथा जातक अत्यधिक भाग्यवान व्यक्ति वो रूप में प्रतिष्ठित और प्रशंसित होगा । इसी प्रकार से नवम भावस्थ बृहस्पति यदि उत्तराषाढ़ नक्षत्र कं प्रथम पद में स्थित हो, तो उसके शुभत्व का विस्तार होगा । यदि बृहस्पति दसवर्ग बल मेँ अधिक से अधिक स्ववर्ग अथवा उच्व राशि कै वर्गो को प्राप्त करेगा, तो उत्तमोत्तम फल प्रदान करने मेँ सफल होगा । यदि दसवर्ग बल की गणना न की गई हो, तो षडवर्ग बल के आधार पर बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शनि और कैतु के बलाबल पर विचार करने के उपरान्त ही जातक कै धन सम्बन्धी विषयों कं भविष्य कथन की अभिव्यक्ति करनी चाहिऐ
Friday 14 October 2016
प्रसिद्ध आर्किटेक्ट बनने के ज्योतिष्य योग
आज के शहरीकरण में हर व्यक्ति अपना एक स्वतंत्र रुप का घर चाहता है । घर बनवाने हेतु विभिन्न तरह के डिजाइन के अलग दिखने वाला घर आकेंटेक्ट के माध्यम से तैयार करवाता है। जिसके कारण ही शिक्षित व अनुभवी आर्किटेक्ट की मांग दिनों-दिन बढती जा रही है । समाज में धन और प्रतिष्ठा से जुड़कर इनकी अलग पहिचान हो रही है । इसी कारण आज का नवयुवक भी आकेंटेक्ट की पढाई कर इस व्यवसाय को अपनाना चाहता हैं । इस व्यवसाय से संबंधित शिक्षा व कार्य करने के लिए कुछ कारक ग्रह और ग्रहयोरा हमारे शोध में पहिचाने गये है । भूमि कारक शनि व मंगल एवं कलात्मक कारक शुक्र का कुंडली में वली होना आकेंटेक्ट शिक्षा के लिए कारक हैं। मंगल की राशि की लग्न या शनि की राशि की लग्न हो या शनि व मंराल में से किसी का भी लग्न पर प्रभाव हो और साथ ही शनि, संयत, शुक्र जैसे ग्रहों का पंचम, लग्न, दशम,धन,लाभ आदि में से किन्हें से संबंध हो रहा हो, तो भी जातक को आकेंटेक्ट की शिक्षा दिलाकर आकेंटेक्ट बनाता है ।यदि लग्नेश वाल का शुक्र के साथ युति या दुष्ट संबंध होब का संबंध केन्द्र या त्रिकोंण में भूमि कारक शनि से हो एवं बुध भी अच्छी स्थिति में हो और कर्मेश का संबंध भी यदि मंराल या शनि या शुक्र में से किसी भी रुप से बन रहा हो, तो जातक आकेंटेक्ट की पढाई कर आकेंटेक्ट का काम करता है । यदि लग्नेश के रुप में शनि पर गुरु की दृष्टि हो रही हो, भारयेष्टा के रुप में कारक शुक्र का संबंध यश मंगल के साथ होकर भाग्य या तान भाव में गुरू से दषदै ही रहा हो एवं बुध के साथ केन्द्र में वुधादित्व योग होकर शनि और " राहु जैसे यहीं से प्रभावित हो, तब भी जातक आकेंटेक्ट कार्य कर सकता है । यदि मंगल की राशि का लग्न होकर गुरू से दृष्ट हो, गुरु का शुक्र और शनि 1 जैसे ग्रहों पर दृष्टि प्रभाव हो व लग्नेश मंगल का भी शुक्र पर दृष्टि संबंध हो रहा हो और शुक्र की राशि में बुधाद्रित्य योग होकर रादूसे युति या दृष्टि द्वारा प्रभावित हो रहा हो, तो भी जातक आकेंटेक्ट के कार्य में दक्ष होता है । यदि मंगल लग्नेश होकर लग्न में राहू जैसे ग्रह से प्रभावित हो, शनि व शुक्र का मंगल की राशि मेष में युति या दृष्टि संबध हो रहा हो एंवं बुथादित्य योग केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो जातक भी आकेंटेक्ट प्रोफेज्ञान का कार्य करता है। यदि शनि लाभ या धन भाव में हो या धन भाव में बैठकर कर्मेश शुक्र व ताभभाव को प्रभावित को एवं भश्चयेश के रुप में मंगल पचंमेश गुरु व लग्नेश सूर्य के साथ होकर केन्द्र या त्रिकोंण में राहु से युति या दृष्ट द्वारा प्रभावित हो तो भी जातक भूति, भवन संबंधित कार्य का आर्केटेक्ट बनता है ।
उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनने के ग्रह योग
जब तक किसी जातक की जन्म कुंडली में ग्रह योग उच्व प्रशासनिक कार्य करने हेतु न बनते हों, तब तक जातक अथक प्रयास करने के बावजूद भी उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनकर राज्य पद प्राप्त नहीं कर पाता । यदि पत्रिका में ग्रहयोग उच्च राजकीय प्रशासनिक पद पर कार्य करते की ओर इंगित कर रहे हों, तो जातक को थेमृड़े प्रयास से ही राजकीय पद दिलाने वाले ग्रहों की महादशा व अंर्तरदरुग़ में अवश्य ही सफलता मिलती है । यदि इस बात का ज्ञान पूर्व से हो जावे, कि जातक को बसे राजकीय प्रशासनिक या आई.ए.एस. जैसे पद मिलने की संभावना है, तो जातक अपना सम्पूर्ण ध्यान उस ओर लगाकर सफलता प्राप्त कर सकता है । सतत् शोध द्वारा पाये गये कुछ ग्रहयोग, जो उच्च पदों पर अधीन आई.ए.एस. व अन्य राजकीय प्रशासनिक अधिकारियों की जन्म पत्रिकाओं में बहुधा पाया गया है, को यहीं दिया जा रहा हैं। इसके अतिरिक्त कुछ वरिष्ठ पदासीन जाई-एमस व अन्य उच्व प्रशासनिक अधिकरियों के कुंडलियों का विश्लेषण पाठकों के ज्ञानवर्धन हेतु दिया गया है, जिन्हें देखकर पाठकगण स्वंय विश्लेषण करते हुए अनुभव प्राप्त कर सकते हैं-
आई.ए.एस. जैसे प्रतिष्ठित सेवा में चयन हेतु कुंडली में तूर्य,गुरु,मंगल,रब्वहु एवं चंद्रमा जैसे यहीं का बलिष्ठ होना अनिवार्य पाया गया है । है .यदि भाव 11 का स्वामी भाव 9 में हो व भाव 10 के स्वामी से युति या दृष्ट-करता हो तो जातक आई.ए.एस. बन सकता है। 3 यदि पत्रिका में लग्नेश लग्न को देखे, साथ ही भानंयेश केन्द्र 1,4,7, 10 भाव या त्रिकोंण 5,9 भाव में हो, तो भी इस सर्विस का योग बनता है । ३ 4.भाव 2 का स्वामी यदि भाव 11 लाभ स्थान में होकर भाव 10 के स्वामी से दुष्ट हो अथवा भाव 10 के स्वामी के साथ हो, तो भी इस सर्विस में सफल होन ५ की संभावना होती है। 'रुआब 9 में उच्च का गुरु या शुक्र हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, सूर्य अच्छी स्थिति का हो, तो जातक इन्हें ग्रहों की दशा या अंर्तदशा में उच्च पदाधिकारी आईएएस आफीसर बनता है ।.भाव 10 का स्वामी यदि केन्द्र या त्रिकोंण में शुभ दृष्ट पर हो, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद दिलाता है |यदि लग्नेश और दशमेश स्वग्रही या उच्च के होकर केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु उच्च का या स्वग्रही हो, तो भी जातक की आईएएस अधिकारी बनने की प्रबल संभावना होती है । यदि तीन "या चार ग्रह उच्च या मूल त्रिकोंण में बलि हों, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद मिलने की संभावना रहती है । .यदि केन्द्र में, विशेषकर लग्न में सूर्य और बुध हों और गुरु की शुभ दृष्टि इन पर हो, तो जातक प्रशासनिक सेवा में उच्च पद प्राप्त करता है। .यदि मेष लग्न हो क्या चंद्रमा, मंगल,गुरु तीनों अच्छे अंशों में हों, तो भी जातक को राजकीय सेवा में उच्च पद दिलाते हैं । यदि इन्हें पर कहीं सूर्य की दृष्टि हो या इससे युति हो रही हो, तो भी जातक उच्च राजकीय सेवा में जाकर काफी नाम कमाता है । प्रत्रिका में सूर्य यहि गुरू, राहू के साथ बलवान होकर केन्द्र या त्रिकोंण में की हों, तो भी उच्च प्रशासनिक पद दिलाते है । यदि पत्रिका में राहू उच्च या मूल त्रिफोंण का भाव 10 में हो और सूर्य व गुरु भी-केन्द्र या त्रिकोंण में युति होकर देते हों, तो भी उच्च प्रशासनिक राजकीय पद मिलने के योग बनाते हैं । यदि मेष लग्न हो और लग्न में मंगल व गुरू का किस भी रुप में संबंघं हो रहा हो, तब भी जातक उच्च राजनीतिक प्रद प्राप्त करता है । मेष लग्न में ही यदि भाव 11 में चंद्र और गुरु हों तथा उनपर शुभ यहा की दृष्टि हो,तो जातक उच्च शासनाघिकारी बन यश प्राप्त करता है । मेष लग्न से स्थित चंद्रमा पर यदि गुरु पूर्ण दृष्टि डालता हो, तो जातक राजकीय उच्च पद प्राप्त करता है | मेष लग्न की कुंडली में बुध भाव 4 में है गुरु भाव 7 में एवं शुक्र भाव 10 में हो, तो जातक उच्च राजकीय पद प्राप्त करता है । मेष लग्न में पाल अथवा सूर्य लग्न में हो और समस्त शुभ ग्रह यदि केन्द्र में हो, तो जातक शासन में जाते उच्च पद को प्राप्त करता है । मेष लया की कुडैली में लग्नेश मंगल लग्न में हो अथवा लग्न पर दृष्टि डालता हो, और भाग्येश गुरु केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो भी जातक राजकीय उच्चपद प्राप्त करता है । वृष लग्न की कुंडली में यदि शुक्र, गुरु, बुथ यदि केन्द्र में हों एवं मंगल भाव 10 में हो, तो जातक उच्च राजकीय पद प्राप्त करता है । वृष लया हो एवं मंगल-शुक्र युति कर भाव 5 या 9 में हों और योगकारक शनि लग्न से हो, तो जातक को राजकीय उच्च पद प्राप्त होता है। वृष लग्न हो एवं शुक्र भाव 6 में है मंगल भाव 12 में क्या गुरु भाव 3 या 4 में हो तो भी जातक को उब ज्ञासकीय पद प्राप्त होता है। वृष लग्न में गुरु हो, मिथुन में चंद्रमा, मकर में मंगल, सिह में शनि, कन्या में बुथ-सूर्य की युति एवं तुला में शुक्र हो, तो उच्च शासकीय पद देता है। मिथुन लग्न हो एवं भाव 10 में पंचमेश शुक्र, लग्नेश बुध हैं दशमेश गुरु एवं मंगल की की हो रही हो, तो जातक को राज्य में उच्च पद देता है । मिथुन लग्न के भाव 5 में शुक्र, भाव 11 में मेष का पाल, उच्च का गुरु भाव है में हो, तो जातक को अवश्य ही उच्च पद देता है । मियुन लग्न में ही यदि वुघ,गुरु,शुक्र,चंद्र की युति हो तथा उस पर किसी पाप ग्रह की छाया न पड़ती हो, तो जातक अवश्य ही शासन में उच्च पद प्राप्त कर प्रतिष्ठित होता है ।
आई.ए.एस. जैसे प्रतिष्ठित सेवा में चयन हेतु कुंडली में तूर्य,गुरु,मंगल,रब्वहु एवं चंद्रमा जैसे यहीं का बलिष्ठ होना अनिवार्य पाया गया है । है .यदि भाव 11 का स्वामी भाव 9 में हो व भाव 10 के स्वामी से युति या दृष्ट-करता हो तो जातक आई.ए.एस. बन सकता है। 3 यदि पत्रिका में लग्नेश लग्न को देखे, साथ ही भानंयेश केन्द्र 1,4,7, 10 भाव या त्रिकोंण 5,9 भाव में हो, तो भी इस सर्विस का योग बनता है । ३ 4.भाव 2 का स्वामी यदि भाव 11 लाभ स्थान में होकर भाव 10 के स्वामी से दुष्ट हो अथवा भाव 10 के स्वामी के साथ हो, तो भी इस सर्विस में सफल होन ५ की संभावना होती है। 'रुआब 9 में उच्च का गुरु या शुक्र हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, सूर्य अच्छी स्थिति का हो, तो जातक इन्हें ग्रहों की दशा या अंर्तदशा में उच्च पदाधिकारी आईएएस आफीसर बनता है ।.भाव 10 का स्वामी यदि केन्द्र या त्रिकोंण में शुभ दृष्ट पर हो, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद दिलाता है |यदि लग्नेश और दशमेश स्वग्रही या उच्च के होकर केन्द्र या त्रिकोण में हों और गुरु उच्च का या स्वग्रही हो, तो भी जातक की आईएएस अधिकारी बनने की प्रबल संभावना होती है । यदि तीन "या चार ग्रह उच्च या मूल त्रिकोंण में बलि हों, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद मिलने की संभावना रहती है । .यदि केन्द्र में, विशेषकर लग्न में सूर्य और बुध हों और गुरु की शुभ दृष्टि इन पर हो, तो जातक प्रशासनिक सेवा में उच्च पद प्राप्त करता है। .यदि मेष लग्न हो क्या चंद्रमा, मंगल,गुरु तीनों अच्छे अंशों में हों, तो भी जातक को राजकीय सेवा में उच्च पद दिलाते हैं । यदि इन्हें पर कहीं सूर्य की दृष्टि हो या इससे युति हो रही हो, तो भी जातक उच्च राजकीय सेवा में जाकर काफी नाम कमाता है । प्रत्रिका में सूर्य यहि गुरू, राहू के साथ बलवान होकर केन्द्र या त्रिकोंण में की हों, तो भी उच्च प्रशासनिक पद दिलाते है । यदि पत्रिका में राहू उच्च या मूल त्रिफोंण का भाव 10 में हो और सूर्य व गुरु भी-केन्द्र या त्रिकोंण में युति होकर देते हों, तो भी उच्च प्रशासनिक राजकीय पद मिलने के योग बनाते हैं । यदि मेष लग्न हो और लग्न में मंगल व गुरू का किस भी रुप में संबंघं हो रहा हो, तब भी जातक उच्च राजनीतिक प्रद प्राप्त करता है । मेष लग्न में ही यदि भाव 11 में चंद्र और गुरु हों तथा उनपर शुभ यहा की दृष्टि हो,तो जातक उच्च शासनाघिकारी बन यश प्राप्त करता है । मेष लग्न से स्थित चंद्रमा पर यदि गुरु पूर्ण दृष्टि डालता हो, तो जातक राजकीय उच्च पद प्राप्त करता है | मेष लग्न की कुंडली में बुध भाव 4 में है गुरु भाव 7 में एवं शुक्र भाव 10 में हो, तो जातक उच्च राजकीय पद प्राप्त करता है । मेष लग्न में पाल अथवा सूर्य लग्न में हो और समस्त शुभ ग्रह यदि केन्द्र में हो, तो जातक शासन में जाते उच्च पद को प्राप्त करता है । मेष लया की कुडैली में लग्नेश मंगल लग्न में हो अथवा लग्न पर दृष्टि डालता हो, और भाग्येश गुरु केन्द्र या त्रिकोंण में हो, तो भी जातक राजकीय उच्चपद प्राप्त करता है । वृष लग्न की कुंडली में यदि शुक्र, गुरु, बुथ यदि केन्द्र में हों एवं मंगल भाव 10 में हो, तो जातक उच्च राजकीय पद प्राप्त करता है । वृष लया हो एवं मंगल-शुक्र युति कर भाव 5 या 9 में हों और योगकारक शनि लग्न से हो, तो जातक को राजकीय उच्च पद प्राप्त होता है। वृष लग्न हो एवं शुक्र भाव 6 में है मंगल भाव 12 में क्या गुरु भाव 3 या 4 में हो तो भी जातक को उब ज्ञासकीय पद प्राप्त होता है। वृष लग्न में गुरु हो, मिथुन में चंद्रमा, मकर में मंगल, सिह में शनि, कन्या में बुथ-सूर्य की युति एवं तुला में शुक्र हो, तो उच्च शासकीय पद देता है। मिथुन लग्न हो एवं भाव 10 में पंचमेश शुक्र, लग्नेश बुध हैं दशमेश गुरु एवं मंगल की की हो रही हो, तो जातक को राज्य में उच्च पद देता है । मिथुन लग्न के भाव 5 में शुक्र, भाव 11 में मेष का पाल, उच्च का गुरु भाव है में हो, तो जातक को अवश्य ही उच्च पद देता है । मियुन लग्न में ही यदि वुघ,गुरु,शुक्र,चंद्र की युति हो तथा उस पर किसी पाप ग्रह की छाया न पड़ती हो, तो जातक अवश्य ही शासन में उच्च पद प्राप्त कर प्रतिष्ठित होता है ।
मेष लग्न एवं धन योग
मेष लग्न में यदि मंगल लगनस्त हो तथा बृहस्पति एवं सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट्र हो, तो धनवान होने में संदेह नहीं करना चाहिए । इसके साथ यदि द्धितीयेश शुक्र तथा एकादशेश शनि के मध्य विनिमय-परिवर्तन रोग निर्मित हो रहा हो, तो अत्यधिक धनी-मानी होने की सृष्टि होती और सूर्य का संयोग हो रहा हो, तो जातक कै अथोंदूगम की कोई सीमा नहीं होती । यदि शनि और शुक्र लाभ अथवा द्वितीय भाव में संयुक्त न होकर, लग्न में लग्नेश मंगल, पंचमेश सूर्य एवं नवमेश वृहस्पति से युक्त हों अथवा शनि, मंगल, शुक्र लग्नस्त होकर बृहस्पति और सूर्य द्धारा दुष्ट हों, तो भी जातक अपार धनवान होता हे । इस स्थिति से भी अधिक धनवान, धनार्जन, धनसंचय,धन संवर्द्धन, धनोदूगम एवं धनोत्पत्ति तब होती है जब लग्न पर मंगल, वृहस्पति और सूर्य का पूर्ण एवं प्रबट्ठा प्रभाव हो, शनि और शुक्र पंचम अथवा नवम भावस्थ हों अथवा कैन्द्र स्थानों में एकदूसरे से किसी न किसी रूप में संबंधों उल्लेखनीय है किं नवांश की महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा नहीँ की जानी चाहिए । यदि मेष लग्न हो तया मंगल स्वनवांशस्थ डो अथवा सिंह या
धनु राशि का नवांश प्राप्त कर रहा हो, तो मंगल की, धन प्रदान करने की क्षमता में अवश्य अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार यदि नवमेश बृहस्पति की दृष्टि लग्नस्थ वृहस्पति पर पड़ रही हो और वह स्वनबांश, उच्व नवांश या फिर मेष, सिहे या धनु नवांश मेँ स्थित हो, तो धनयोग की प्रबलता स्वत: सिद्ध होती है । लग्नस्थ मंगल पर सूर्य की दृष्टि हो अथवा सूर्य से मंगल संयुक्त हो, तो धनयोग क्री श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होतीं है परन्तु सूर्य, यदि लग्नस्थ होकर मेष, सिंह व धनु नबांशरथ हो, तो प्रबल धनयोग की संसिद्धि, समस्त संदेहों को पराजित करती है उल्लेखनीय है कि सभी ग्रह स्थितियाँ एक जन्मग्रेग में एक साथ निर्मित नहीँ हो सकती हैं अत: जिस जन्मग्रेग मेँ इन ग्रहयोगों की प्रबलता एवं अधिकता हो, वह व्यक्ति उतना ही समृद्ध, सम्पन्न, सम्पत्तिवान तवा धनवान होगा लग्न, त्रिकोण, लाभ भाव, धन भाव तथा थनकारक बृहस्पति का अध्ययन तो स्वाभाविक है परन्तु कतिपय भाव स्थितियों पर प्राय: पाठकों का ध्यान कैन्दित नहीं हो पाता हे और ये भाव भी अधोंपार्जन की दृष्टि ये पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं । धन भाव एवं लाभ भाव से त्रिकोण भावस्थ ग्रहों की अवहेलनाहै । यदि शनि और उ, लाभ या धन भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तथा लग्न में मंगल, वृहस्पतिग्रहों की अवहेलना करना मिथ्या परिणाम का प्रतिपादन करता है षष्ठ तथा दशम भाव, धन भाव के त्रिकोण स्थान होते हैं । इसी प्रकार लाभ भाव के त्रिकोण स्थान, तृतीय तथा सप्तम मय होते हैं इसीलिए तृतीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भावस्थ ग्रहों
द्वारा वसुमति योग की संरचना होती है जो धनवान होने की संपुष्टि करती है मेष लग्न से तृतीय भाव मिथुन तथा षष्ठ भाव कन्या होता है । यदि मिथुन या कन्या राशि में बुध स्थित हो, शुक्र अथवा शनि से संयुक्त हो, तो धनयोग का निर्माण होता है । इसी प्रकार मेष लग्न के जातक के जन्मग्रेग में मिथुन अथवा कन्या राशि में बुध के साय सूर्य अथवा अति भी शुभ फल प्रदान करते हैं इसी विधान का अनुकरण करते हुए यदि सप्तम अथवा यम भाव में शुक अथवा शनि संस्थित हो या उनके मध्य विनिमय दुष्टिसम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो जातक धनवान होता है । यदि शनि और शुक्र के मध्य विनिमय नवांश परिवर्त्तन हो रहा हो, तो धनयोग की प्रबलता को आधार प्राप्त होता है मेष लग्न में पंचमस्थ सूर्य पर एकादशरथ शनि अथवा अति दुष्टिनिक्षेप बरि, तो अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होता है । यदि एकादश भाव में बृहस्पति तथा शनि संयुक्त रूप से संस्थित हों तथापंचम भाव में सूर्य, सिंह राशिंगत ही, तो जातक के ज़न्मा३ग में धनयोग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार से मेष लग्न में उत्पन्न होने वाले जातक के ज़न्मग्रेग के नवम भाव में बृहस्पति की स्थिति उत्वम भाग्य प्रदान करती है । वृहस्पति पर यदि सूर्य अथवा शुक्र हो, तो भी धन सम्बन्धी शुभ फलों में वृद्धि होती है । बृहस्पति, सूर्य और मंगल की नवम भाव मेँ युति की अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । क्योंकि तीनों त्रिक्रोणों के अधिपति के नवम भाव में स्थित होने से उत्तम भाग्य तथा धनयोग की संरचना होती हे पाठकगण भ्रमित न हों, इसलिए इस बिषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना कहना ही उपयुक्त होगा कि नक्षत्रों के बलाबल तथा शुभाशुभ पर विचार करना भी अपेक्षित है । नवम भाव में धनु राशिगत वृहस्पति, यदि धनु, कर्क, सिंह अथवा मेष नवांश में स्थित हो, तो निश्चित रूप से बृहस्पति के शुभत्व में वृद्धि होगी तथा जातक अत्यधिक भाग्यवान व्यक्ति वो रूप में प्रतिष्ठित और प्रशंसित होगा । इसी प्रकार से नवम भावस्थ बृहस्पति यदि उत्तराषाढ़ नक्षत्र कं प्रथम पद में स्थित हो, तो उसके शुभत्व का विस्तार होगा । यदि बृहस्पति दसवर्ग बल मेँ अधिक से अधिक स्ववर्ग अथवा उच्व राशि कै वर्गो को प्राप्त करेगा, तो उत्तमोत्तम फल प्रदान करने मेँ सफल होगा । यदि दसवर्ग बल की गणना न की गई हो, तो षडवर्ग बल के आधार पर बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शनि और केतु के बलाबल पर विचार करने के उपरान्त ही जातक कै धन सम्बन्धी विषयों के भविष्य कथन की अभिव्यक्ति करनी चाहिऐ |
धनु राशि का नवांश प्राप्त कर रहा हो, तो मंगल की, धन प्रदान करने की क्षमता में अवश्य अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार यदि नवमेश बृहस्पति की दृष्टि लग्नस्थ वृहस्पति पर पड़ रही हो और वह स्वनबांश, उच्व नवांश या फिर मेष, सिहे या धनु नवांश मेँ स्थित हो, तो धनयोग की प्रबलता स्वत: सिद्ध होती है । लग्नस्थ मंगल पर सूर्य की दृष्टि हो अथवा सूर्य से मंगल संयुक्त हो, तो धनयोग क्री श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होतीं है परन्तु सूर्य, यदि लग्नस्थ होकर मेष, सिंह व धनु नबांशरथ हो, तो प्रबल धनयोग की संसिद्धि, समस्त संदेहों को पराजित करती है उल्लेखनीय है कि सभी ग्रह स्थितियाँ एक जन्मग्रेग में एक साथ निर्मित नहीँ हो सकती हैं अत: जिस जन्मग्रेग मेँ इन ग्रहयोगों की प्रबलता एवं अधिकता हो, वह व्यक्ति उतना ही समृद्ध, सम्पन्न, सम्पत्तिवान तवा धनवान होगा लग्न, त्रिकोण, लाभ भाव, धन भाव तथा थनकारक बृहस्पति का अध्ययन तो स्वाभाविक है परन्तु कतिपय भाव स्थितियों पर प्राय: पाठकों का ध्यान कैन्दित नहीं हो पाता हे और ये भाव भी अधोंपार्जन की दृष्टि ये पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं । धन भाव एवं लाभ भाव से त्रिकोण भावस्थ ग्रहों की अवहेलनाहै । यदि शनि और उ, लाभ या धन भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तथा लग्न में मंगल, वृहस्पतिग्रहों की अवहेलना करना मिथ्या परिणाम का प्रतिपादन करता है षष्ठ तथा दशम भाव, धन भाव के त्रिकोण स्थान होते हैं । इसी प्रकार लाभ भाव के त्रिकोण स्थान, तृतीय तथा सप्तम मय होते हैं इसीलिए तृतीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भावस्थ ग्रहों
द्वारा वसुमति योग की संरचना होती है जो धनवान होने की संपुष्टि करती है मेष लग्न से तृतीय भाव मिथुन तथा षष्ठ भाव कन्या होता है । यदि मिथुन या कन्या राशि में बुध स्थित हो, शुक्र अथवा शनि से संयुक्त हो, तो धनयोग का निर्माण होता है । इसी प्रकार मेष लग्न के जातक के जन्मग्रेग में मिथुन अथवा कन्या राशि में बुध के साय सूर्य अथवा अति भी शुभ फल प्रदान करते हैं इसी विधान का अनुकरण करते हुए यदि सप्तम अथवा यम भाव में शुक अथवा शनि संस्थित हो या उनके मध्य विनिमय दुष्टिसम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो जातक धनवान होता है । यदि शनि और शुक्र के मध्य विनिमय नवांश परिवर्त्तन हो रहा हो, तो धनयोग की प्रबलता को आधार प्राप्त होता है मेष लग्न में पंचमस्थ सूर्य पर एकादशरथ शनि अथवा अति दुष्टिनिक्षेप बरि, तो अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होता है । यदि एकादश भाव में बृहस्पति तथा शनि संयुक्त रूप से संस्थित हों तथापंचम भाव में सूर्य, सिंह राशिंगत ही, तो जातक के ज़न्मा३ग में धनयोग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार से मेष लग्न में उत्पन्न होने वाले जातक के ज़न्मग्रेग के नवम भाव में बृहस्पति की स्थिति उत्वम भाग्य प्रदान करती है । वृहस्पति पर यदि सूर्य अथवा शुक्र हो, तो भी धन सम्बन्धी शुभ फलों में वृद्धि होती है । बृहस्पति, सूर्य और मंगल की नवम भाव मेँ युति की अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । क्योंकि तीनों त्रिक्रोणों के अधिपति के नवम भाव में स्थित होने से उत्तम भाग्य तथा धनयोग की संरचना होती हे पाठकगण भ्रमित न हों, इसलिए इस बिषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना कहना ही उपयुक्त होगा कि नक्षत्रों के बलाबल तथा शुभाशुभ पर विचार करना भी अपेक्षित है । नवम भाव में धनु राशिगत वृहस्पति, यदि धनु, कर्क, सिंह अथवा मेष नवांश में स्थित हो, तो निश्चित रूप से बृहस्पति के शुभत्व में वृद्धि होगी तथा जातक अत्यधिक भाग्यवान व्यक्ति वो रूप में प्रतिष्ठित और प्रशंसित होगा । इसी प्रकार से नवम भावस्थ बृहस्पति यदि उत्तराषाढ़ नक्षत्र कं प्रथम पद में स्थित हो, तो उसके शुभत्व का विस्तार होगा । यदि बृहस्पति दसवर्ग बल मेँ अधिक से अधिक स्ववर्ग अथवा उच्व राशि कै वर्गो को प्राप्त करेगा, तो उत्तमोत्तम फल प्रदान करने मेँ सफल होगा । यदि दसवर्ग बल की गणना न की गई हो, तो षडवर्ग बल के आधार पर बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शनि और केतु के बलाबल पर विचार करने के उपरान्त ही जातक कै धन सम्बन्धी विषयों के भविष्य कथन की अभिव्यक्ति करनी चाहिऐ |
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