Thursday 20 October 2016

कुंडली में प्रथम भाव में शनि

यदि जन्मकुंडली के प्रथम भाव (लग्न) में शनि उपस्थित हो या उसका प्रभाव हो तो जातक की आकृति अथवा प्रकृति चिन्तय होती है। वैद्यनाथ के अनुसार ऐसा जातक कईं प्रकार की व्याधि से ग्रस्त होता है। उसका कोई अंग अवश्य ही दोषयुक्त होता है । यदि ज्ञानि स्वगृही या उच्च का हो, तो जातक क्या व आव से चुन होता है । उसका आयुबंल प्रबल होता है । लेकिन आचार्य वशिष्ट के मतानुसार ऐसा जातक कफ-ग्रकृति प्रधान होता है, चर्म रोग से पीडित रहता है और अधोभाग में कोई विकृति होती है। वात रोग के कारण उसे कर्णपीड़। रहती है 1 शारीरिक संरचना घृक्याता लिए होती है। पानि के प्रभावमृके कारण ऐसा जातक अत्यधिक कामातुर और बुद्धि रहित होता है। जहां वैद्यनाथ ने ऐसे जातक का ठगयुर्बल प्रबल बताया है, वहीं आचार्य वशिष्ठ ने उसकी आयु अल्प मानी है । यदि लग्न में ज्ञानि की उपस्थिति के साथ-साथ तुला, धनु या मीन राशि हो तो जातक समृद्ध, वैभबयुबत्त, धनी, दीर्घायु तथा राजा की तरह पुती होता है । कोई अन्य राशि हो तो जातक रुष्ण, क्लेशित और साधन विहीन होता है । " भृगुसूत्र है के अनुसार यदि लग्न में पानि उपस्थित हो तो जातक द्धगत्रु-संहारकत्ततें, समृद्ध, सुखा , इस्थुलदेयी, तीक्ष्य दृष्टिवान एवं वात-पित्तप्रधान होता है । यदि शनि उच्च का हो तो जातक गाम प्रघान अथवा नगर प्रमुख होता है । मकरस्थ या कुंभस्थ शनि जातक को प्रचुर पैतृक संपत्ति प्रदान करता है । है बृहत्यवनजातक सूत्र है के अनुसार यदि लग्नस्थ पुनि मूलत्रिकोषास्थ हो तो जातक राष्ट्र प्रमुख अथवा पति प्रमुख की प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । इसके अतिरिक् राशियों में संस्थित शनि वाधि, विषमता और विपन्नता उत्पन्न करता है । 'जातक परिजात है के अनुदार यदि शनि दुर्बल हो तो जातक संधि-व्याधि से ग्रस्त, दारिद्रय एवं पिशाच प्रेरित होता है । वह दुष्कर्मों का फल भोगता है । उसकी संपत्ति चीर ले
जाते है । वह षचास रोग, शरीर पीडा, पार्श्व पीडा, गुप्त विकार, हदयताप, संधि रोग, कंपन एवं वात विकार आदि से पीडित रहता है । ज्योंतिर्विद जयदेव ने कुछ राशियों में शनि कौ श्रेष्ठ सिद्ध किया है । उनके
मतानुसार धनु, मीन, मकर, कुंभ एबं तुला राशिगत शनि पांडित्य, ऐश्वर्य तथा सुदर्शन शरीर प्रदान करता है, जबकि अन्य राशियों में जातक को दारिद्रय, हृदय रोग, अशुद्ध शरीर, कामावेग, रुष्णत्व और आलस्य प्राप्त होता है । पाश्चात्य विद्वानों ने भी अनेक दृष्टियों से शनि के प्रभावों से अवगत कराया है । इन विद्वानों के अनुसार सामान्यत: प्रथम भावस्थ शनि जीवनभर जातक को दुख देता है । जातक तटस्थ, संकल्पवान, आग्रही, लज्जालु, एकांतस्वैवी, अपनी बात पर दृढ़ रहने वाला और स्वहित साधन में तल्लीन रहता है। यदि ज्ञानि शुभ संयोगयुक्ल हो तो भाग्य शीघ्र अपना प्रभाव दिखाता है । जातक का प्रारंभिक काल संघर्षरत रहता है, किंतु अनवरत प्रयास से उच्च उपलब्धियों प्राप्त होती हैं । यदि शनि अशुभ संयोगयुवत हो तो जातक विवादित, पराश्रयी, तुच्छ कार्यों में संलग्न, दुखी, भयभीत, अविस्वासी, ईंष्यर्रेलु, ध्याकुल तथा जनभीरु होता है । ऐसा जातक बहुत समय पश्चात भी प्रतिशोध की अग्नि अपने अता में प्रज्वलित रखता है । अनेकानेक कारणों से लोकप्रियता का अभाव रहता है । जीवन में कष्ट, आपति, विघ्न, दैन्य तथा नैराश्य का गहरा प्रभाव होता है । शारीरिक रुग्याता बनीरहती है । शीतजनित रोग तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय रहता है । वृश्चिक, सिंह, कर्क और चुग राशि में क्रमश: अपच, यद्धाकोष्ठता, रक्तसंचार विकार तथा मूत्राषाय को जायाधि होती है। शनि द्वारा अग्निरक्तिनंडत होने पर जातक की प्रकृति में सरलता , विश्वसनीयता, आत्मीयता, विवाद हैं रोष, प्रपंच और साहस का समावेश होता है । शनि द्वारा पृथ्वीराशिगत होने पर आलस्य, संकीर्णता हैं प्रतिशोध, दुष्टता, संशय, धूर्तता, कद-विवाद में निपुणता, स्वार्थपरता, पश्चिम, लोलुपता, कृपदृगता, उद्विग्नता, अनावश्यक सतर्कता और क्रोध का समावेश होता है । शनि द्वारा अग्निराशिग्त होने पर जातक मै व्यावहारिकता, और सरलता आ जाती है

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