Thursday 13 October 2016

सम्मोहन की ज्योतिष्य अवधारणा

मानव-मस्तिष्क की रचना बहुत जटिल है। शरीर की समस्त चेतनाओं का केंद्र मस्तिष्क है। यह अपनी गतिविधियों को तंत्रिका-तन्त्र के माध्यम से स्वचालित करता है। मनुष्य के ऐच्छिक एबं अनैच्छिक कार्यों का नियन्त्रण तंत्रिका-तंत्र ही करता है। इस तन्त्र के अभाव में शरीर के सभी अंग कार्य करना बंद कर देते है। शरीर में विभिन्न संवेदनाओं की उत्पत्ति, मांसपेशियों का स्वचालन, सोचना,विचारना, जटिल मानसिक क्रियाएं, इच्छाओं का स्त्रोत और उनकी पूर्ति की अनुभूति इसी तन्त्र के द्वारा होती है।
मस्तिष्क के ‘मेरुशीर्ष’ या ‘सुंषुम्ना शीर्ष’ से निकलने वाली 31 जोड़ी नसें शरीर के समस्त हिस्सों तक फैली रहती हैं। जिस प्रकार बिजली या टेलीफोन के तार पावर हाउस से निकलकर घर-घर फैले रहते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क से निकलकर 31 जोड़ी प्रधान नाडिय़ा शरीर में सर्वत्र फैली रहती हैं। इनका पावरहाउस या ऊर्जा-स्त्रोत मस्तिष्क होता है। तंत्रिका-तंत्र में तीन प्रकार की नाडिय़ाँ होती हैं। उनके कार्य और प्रकृति को देखते हुए तंत्रिका-तंत्र को तीन भागों में बाटाजा सकता है-
1. परिधीय तंत्रिका-तंत्र:
इस तंत्र मे दो प्रकार की नाडिय़ां होती हैं-
(अ) ज्ञानवाही
(ब) गतिवाही
ज्ञानवाही नाडिय़ां बाहर की क्रियाओं से संवेदना ग्रहण करके मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं और उन गृहित संवेदनाओं का विश्लेषण करके मस्तिष्क गतिवाहीनाडिय़ों द्वारा स्थिति से निपटने या प्रतिक्रिया के ढंग के बारे में सम्बन्धित अंग तक सन्देश भेजता है।
उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति के पैर में कांटा चुभ जाता है, तो ज्ञानवाही नाडिय़ां मस्तिष्क तक इस घटना का सन्देश ले जाती हैं। फिर मस्तिष्क गतिवाही नाडिय़ां के माध्यम से पैर को उस जगह से तुरन्त हटाने का निर्देश देता है। लेकिन यहीं पर यह जान लेना आवश्यक है कि जब उत्तेजनाएं गतिवाही नाडिय़ों से मस्तिष्क की ओर न जाकर सीधी शारीरिक प्रतिक्रियाओं में परिणीत हो जाती हैं, तो क्रियाओं का स्वचालन सीधे मेरुदण्ड से होता है। ऐसी क्रियाओं को सहज क्रियाएं कहते हैं।
2. केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र:
केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र दो भागों में विभक्त रहता है-
(अ) मेरुदण्ड
(ब) मस्तिष्क
मेरुदण्ड सुषुम्ना शीर्ष का नीचे का हिस्सा है, जो रीढ़ की हड्डियों में सुरक्षित होता हुआ नीचे तक जाता है। इसमें से 31 जोड़ी ज्ञानवाही तथा गतिवाही नाडिय़ां दायीं तथा बांयी ओर निकलती हैं। ज्ञानवाही तथा गतिवाही नाडिय़ां मेरुदण्ड के आगे-पीछे के दोनों भागों से निकलती हैं। नीचे के भागों से स्नायु-तन्तु निकलते हैं, जिनका कार्य गति प्रदान करना होता है। चालक स्नायु ऊपर के भाग से निकलते है। ज्ञानवाही स्नायु का कार्य अनुभव-वेग को मेरुदण्ड तक ले जाना और गतिवाही स्नायुओं का कार्य उस अनुभव-वेग को मसिंपेशियों तक ले जाकर उनसे सहज कार्य कराना होता है।
मस्तिष्क के चार भाग है:
1. बड़ा मस्तिष्क
2. मध्यम मस्तिष्क
3. सेतु
4. मेरुदण्ड शीर्ष (लघु मस्तिष्क)।
बड़ा मस्तिष्क, मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है, जो दो गोलार्धों (दायें-बायें) से मिलकर बना होता है। बड़ा मस्तिष्क सिंताओं द्वारा अनेक भागों में विभक्त रहता है। बड़ा मस्तिष्क शरीर की समस्त क्रियाओं को सांचालित करता है। यदि किसी आघात या दुर्घटना के कारण मस्तिष्क व मेरुदण्ड का सम्बन्ध टूट जाता है, तो शरीर की समस्त क्रियाएं तुरन्त बन्द हो जाती हैं। इस बड़े मस्तिष्क का प्रधान कार्य ज्ञानवाही तन्तुओं से ज्ञान प्राप्त करना तथा गतिवाही तन्तुओं से ज्ञान को क्रियारूप देना है । बृहत् मस्तिष्क में अंग-विशेष के ज्ञान और संचालन के लिए अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित हैं। मस्तिष्क के इन विशिष्ट क्षेत्रों के द्वारा उस अंग विशेष की समस्त चेष्टाएं व गतिविधियां संचालित होती हैं। बृहत् मस्तिष्क में ही विभिन्न संवेगों का जन्म होता है तथा समस्त क्रियाएं व चेष्टाएं नियंत्रित होती है।
मध्य मस्तिष्क बृहत् मस्तिष्क के ठीक नीचे स्थित रहता है। यह शारीरिक गतिविधियों को समता प्रदान करता है तथा मसिपेशियों के कार्यं को नियंत्रित करता है। यदि यह कार्यं करना बन्द कर दे, तो शारीरिक गति असन्तुलित हो जाती है।
सेतु लधु मस्तिष्क के दोनों भागों के बीच श्वेत स्नायु सूत्रों की पट्टी के रूप में विद्यमान रहता है। यह सुषुम्ना शीर्ष का सम्बन्थ बड़े मस्तिष्क से जोड़ता है। बड़े मस्तिष्क को जाने वाले सभी स्नायु यहीं से होकर जाते हैं। इसका प्रमुख कार्य भिन्न-भिन्न भागों से सम्बन्ध स्थापित करना है।
मेरुशीर्ष या सुषुम्ना शीर्ष स्नायु सुत्रों द्वारा बना हुआ वह गड्ढा हैं, जो बृहत्मस्तिष्क के नीचे स्थित रहता है। इसके पीछे लधु मस्तिष्क होता है। सभी स्नायुसूत्र, जो सुषुम्ना से होकर बृहत् या लघु मस्तिष्क को जाते हैं, मेरुदण्ड शीर्ष से होकर ही जाते हैं। इसके मध्य में रक्त-परिभ्रमण, श्वसन एवं निगलने आदि क्रियाओं के केन्द्र विद्यमान हैं। इस प्रकार यह मस्तिष्क का महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें आघात से मनुष्य की तुरन्त मृत्यु को जाती है। यदि इस पर हलका आघात भी लग जाये, तो मनुष्य तुरन्त चेतनाशून्य (बेहोश) हो जाता है।
3. स्वतन्त्र तंत्रिका:
तंत्र-मेरूदण्ड से सीधा तथा बायीं ओर गर्दन तक फैला हुआ है। इसका आकार डोरियों के समान होता है। यह थूक, मूत्राशय आदि क्रियाओं को नियंत्रित करता है। हदय की धडक़न, नाडिय़ों की गति व फेफड़ों की श्वास-प्रश्वाश प्रक्रियाएं भी स्वतन्त्र तंत्रिका-तन्त्र द्वारा ही नियंत्रित होती हैं। इस तन्त्र में दो प्रकार की नाडिय़ां काम करती हैं- अनुकम्पी या सहायनी और परानकम्पी या अतिसहायनी। दोनों प्रकार की नाडिय़ां एक-दूसरे के विपरीत कार्य करती हैं। जब पहली सक्रिय होती है, तो दूसरी निक्रिय होने लगती है। इन नाडिय़ों में रस उत्पन्न होने से उत्तेजना उत्पन्न होती है तथा शरीर में शक्ति का संचार होने लगता है। जिन कार्यों को हम सामान्य अवस्था में करने में असमर्थ रहते हैं, उन्हें उत्तेजना की अवस्था में सहज ही कर लेते हैं।
इस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क और तंत्रिका-तंत्र की क्रियाविधि अत्यन्त सुनियोजित व सुव्यवस्थित है।
जब किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाता है, तो सम्मोहनकर्ता उसे किसी चमकीली वस्तु, काले बिन्दु या शक्ति-चक्र में एकटक देखने के लिए कहता है। वह व्यक्ति जब लक्ष्य को बिना पलक झपकाये कुछ देर तक देखता रहता है, तो निम्नलिखित क्रियाएँ घटित होती हैं-
1. ज्ञानवाही व गतिवाही नाडिय़ों में दबाव उत्पन्न होने लगता है।
2. मस्तिष्क के दृश्य क्षेत्र में दबाव उत्पन्न होने से मस्तिष्क थकान अनुभव करने लगता है।
3. मस्तिष्क का शेष भाग विचार शून्य रहता है।
4. हदय की गति मन्द पड़ जाती है।
5 सांस धीमी गति से चलने लगती है।
6. उस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर मनोवैज्ञानिक दबाव पडऩे लगता है। इसीलिए उपर्युक्त परिस्थितियों में जब सम्मोहनकर्ता अपने माध्यम को पलके बन्द करने व सो जाने का निर्देश देता है, तो वह निर्देशों को सहजता से स्वीकार कर लेता है।
यह परिस्थिति अकस्मात् दो मिनट के अन्दर घटित होती है। इसलिए चेतन मन धीरे-धीरे सम्मोहन की कृत्रिम नींद की अवस्था में चला जाता है, किन्तु शारीरिक क्रियाएं फिर भी सामान्य व सक्रिय बनी रहती हैं। ऐसी परिस्थिति में अवचेतन मन, चेतन मन का स्थान ले लेता है। चेतन मन के निष्क्रिय हो जाने पर अवचेतन मन सक्रिय हो उठता है। अवचेतन मन की सक्रियता की इस अवस्था को ही सम्मोहन कहा जाता है।
इस सन्दर्भ में यहा यह बता देना आवश्यक है कि चेतन मन शरीर के किसी अंग या भाग से आने वाली ज्ञानवाही संवेदनाओं का विश्लेषण करता है और तत्पश्चात् गतिवाही नाडिय़ों द्वारा कार्यनीति का निर्देश देता है, जिससे अंगों में किसी कार्य की प्रतिक्रिया का प्रभाव तुरन्त दिखाई देता है, किन्तु अवचेतन मन ज्ञानवाही तन्तुओं से प्राप्त संवेदनाओं अथवा संकेतों का विश्लेषण स्वयं नहींं कर सकता, इसलिए इस कार्य को स्वयं सम्मोहनकर्ता सम्पादित करता है। अवचेतन मन की विशेषता यह है कि वह सम्मोहन कर्ता के प्रति पूर्णत: समर्पित और दृढ़ आस्थावान होता है। सम्मोहनकर्ता उसे जैसी आज्ञा देता है, वैसा ही सब कुछ उसे सत्य और साकार दिखाई देता है।
अवचेतन मन के सक्रिय हो जाने से परिधीय तंत्रिका-तन्त्र और केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र को ज्ञानवाही नाडिय़ों द्वारा प्राप्त होने वाले संवेदना-संकेतों का विश्लेषण कार्य मस्तिष्क के भीतर नहींं होता; क्योंकि यह कार्य चेतन मन का है तथा इस अवस्था में चेतन मन निष्क्रिय रहता है और अवचेतन जागृत रहता है। इसलिए तथ्यों के विश्लेषण व तर्क-वितर्क की प्रक्रिया पूर्णत: बन्द पड़ी रहती हैं। यही कारण है कि सम्मोहनकर्ता जैसी भावना देता है, अवचेतन को वैसा ही सत्य दिखाई देता है।
अवचेतन मन की सक्रियता के करण गतिवाही नाडिय़ां सम्मोहनकर्ता से प्राप्त निर्देशों का पालन करने के लिए विवश होती हैं। इसीलिए जब सम्मोहनकर्ता सम्मोहित व्यक्ति को कहता है कि, तुम्हारा हाथ संवेदना शून्य हो गया है, तो गतिवाही नाडिय़ां उसे संवेदना शून्य बना देती हैं। साथ ही ज्ञानवाही नाडिय़ों से प्राप्त संकेतों के विश्लेषण करने और ग्रहण करने में अवचेतन मन अक्षम हो जाता है, जिससे उस व्यक्ति के हाथों में सचमुच संवेदना शून्यता की स्थिति आ जाती है। यह सब अवचेतन के तर्क-वितर्कहित होने के कारण होता है।
यदि कोई व्यक्ति दर्दनिवारक दवाइयां खा लेता है, तो उसे अपने शरीर में होनेवाली पीड़ा का आभास नहींं होता। वास्तव में पीड़ाहर दवाइयां अंगों की पीड़ा को समाप्त नहींं करती, अपितु मस्तिष्क तक संवेदना पहुंचाने वाली ज्ञानवाही नाडिय़ों को निष्क्रिय बना देती है, जिससे मस्तिष्क तक पीड़ा को संवेदनाएं नहींं पहुंच पाती और रोगी को पीड़ा से छुटकारा मिल पाता है। ठीक यही प्रक्रिया सम्मोहन की अवस्था में भी होती है। सम्मोहन की अवस्था में पीड़ाहर दवाइयों का काम सम्मोहनकर्ता द्वारा दी गयी भावनाएं करती हैं।
दु:ख, सुख, पीड़ा, बेचैनी, सर्दी-गर्मी, पेशीय क्रियाएं, स्वाद, दृष्टि, गन्ध आदि का कारण हमारा मस्तिष्क है, इसलिए सम्मोहन की अवस्था में इन सभी अनुभूतियों की प्रतीति अथवा भ्रम की स्थिति उत्पन्न की जा सकती है।
परिधीय तंत्रिका-तंत्र पर सम्मोहन का प्रभाव:
परिधीय तंत्रिका-तंत्र का कार्य स्थानीय संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाना तथा मस्तिष्क के निर्देशों के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करना है। यदि किसी व्यक्ति के पैर में सुई चुभाई जाये, तो परिधीय तंत्रिका-तंत्र की ज्ञानवाही नाडिय़ां मस्तिष्क तक यह सन्देश पहुंचाती हैं कि उस स्थान पर सुंईं चुभायी गयी है। प्राप्त संकेतों का तुरन्त अध्ययन व विश्लेषण करके, मस्तिष्क गतिवाही नाडिय़ों के माध्यम से यह निर्देश पेशियों को देगा कि उस जगह से पैर को तुरन्त हटाया जाये और पैर तुरन्त यहीं से हट जायेगा। इस सम्मूर्ण क्रिया का सम्पादन पलक झपकते हो जायेगा।
सम्पोहन के प्रभाव से चेतन मन निष्क्रिय हो जाता है। इसलिए परिधीय तंत्रिका-तन्त्र की क्रियाएं भी प्रभावित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में अवचेतन मस्तिष्क में जो भावनाएं विद्यमान रहती हैं, यहीं परिधीय तंत्रिकाओं को चिंतित करती हैं, अर्थात् यदि सम्मोहित व्यक्ति को यह कहा जाये कि सुई चुभने से उसे दर्द नहींं होगा, तो उसे दर्द नहींं होता। लेकिन यदि उसे यह भावना दी जाये कि उसके पैर में सुई चुभ गयी है, तो उसे सुई चुभने का दर्द महसूस होगा, क्योंकि अवचेतन में सुई चुभने की अनुभूति साकार हो जायेगी तथा गतिवाही नाडिय़ां उस दिशा में सक्रिय हो उठेगी। यहीं कारण है कि सम्मोहन की अवस्था में दर्द की अनुभूति नहींं होती।
केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र पर सम्मोहन का प्रभाव:
केन्द्रीय पेशियों का संचालन, पलक झपकना, स्वाद, गन्ध एवं रंगों की अनुभूति, शरीर एवं अंगों का संचालन, मनोवेग से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का संचालन, शरीर में विद्यमान संवेदना की अनुभूति आदि करता है। केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र के निष्क्रिय हो जाने से सम्पूर्ण शरीर चेतनाशून्य हो जाता है।
सम्मोहन की अवस्था में केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र की सम्पूर्ण क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं अवचेतन मन के नियन्त्रण में आ जाती हैं । इसलिए संवेदनाओं की अनुभूति, मांसपेशियों की गति-संचालन, स्वाद, गन्ध, रंगों की अनुभूति व मनोवेग का प्रभाव आदि सभी कुछ अवचेतन को दी गयी भावनाओं व उसकी अनुभूतियों पर निर्भर करता है। यहीं कारण है कि इन सभी अनुभूतियों व मनोवेगों के विषय में सम्मोहित व्यक्ति को भ्रमित किया जा सकता है और सम्मोहित व्यक्ति भ्रम को ही सत्य स्वीकार करके अपनी चेष्टाएं करेगा, क्योंकि उसके अवचेतन मन में तर्क-वितर्क या विश्लेषण की क्षमता ही नहींं रह जाती। जब सम्मोहित व्यक्ति को कहा जाता है कि उसके हाथ-पैर की पेशियां अकड़ गयी हैं तो उसका अवचेतन मन इस भावना को स्वीकार कर लेता है और गतिवाही नाडिया अपने संकेतों द्वारा मसिंपेशियों में अकडऩ उत्पन्न कर देती हैं। इसी प्रकार स्वाद, गन्ध, तापमान व रंग आदि का भ्रम उत्पन्न होने से शरीर-क्रिया प्रभावित होती है ।
स्वचालित तंत्रिका-तन्त्र परसम्मोहन का प्रभाव:
स्वचालित तंत्रिका-तन्त्र शरीर में विद्यमान अनैच्छिक पेशियों, जैसे मूत्राशय, हदय एवं फेफड़ों की पेशियां व अन्त: स्त्रावी ग्रन्थियां, आँतों की गति आदि से सम्बद्ध होती हैं। सम्मोहन की अवस्था में शरीर के तापमान, नाड़ी को गति, हृदय की धडक़न एवं सांस लेने की गति-आवृति को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए अवचेतन मन को ऐसी अनुभूति करनी पड़ती हैं कि उसके फेफड़ों या ह्रदय की धडक़न धीरे-धीरे बढ़ रही हैं, जब यह कहा जायेगा कि धडक़न बढ़ रही हैं, तो आवचेतन मन धडक़न बढऩे की अनुभूति करेगा, जिससे उस अंग विशेष की नाडिय़ा में रस उत्पन्न होगा। नाडिय़ों मे उत्पन्न रस उत्तेजना की वृद्धि या शमन करके स्थानीय क्रियाओं मे असाधारण स्थिति पैदा कर देता हैं, जिसके फलस्वरूप शरीर-क्रिया प्रभावीत होती हैं। इस प्रकार स्वचालित तंत्रिका-तंत्र पर सम्मोहन का सीधा और कारगर प्रभाव पड़ता है।

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