शिवजी के अमर अवतार भैरवजी, आदिशक्ति के प्रचंड स्वरूप भगवती महाकाली और मृत्यु के नियंत्रक यमराज के ममान ही देवाधिदेव शनिदेव के बारे में भी अनेक सांत घटरपगएं हमरि समाज में व्याप्त हैं । ग्रह के रूप में सर्वाधिक क्रूर और राहु-केतु के समान केवल अशुभ फलदायक ग्रह मानने की गलत धारणा के जहा अधिकांश व्यक्ति शिकार हैं, वहीं शनिदेव को क्रूर देव मानने की भावना भी जनसामान्य में इस प्रकार हावी हो चुकी है कि इनका नाम लेना तक लोग उक्ति नहीं समझते । वैसे इसका प्रमुख कारण हमारा अज्ञान ही है । वास्तव में सभी महानत्ताएं शनिदेव में निहित हैं । आप भगवान भास्कर अथरेंत्सूर्यद्वेव के पुल हैं और इस रूप में यमराज के सगे बड़े भाई हैं । भगवान शिव आपके गुरु और रक्षक हैं तथा भगवान शिव के आदेश पर ही दुष्ठों को दंड देने का कार्य आप नियमित रूप से करते हैं । फिर इसमें शनिदेव का क्या दोष ? इस बरि में स्वयं शनिदेव ने अपनी पत्नी से कहा-यह सत्य है कि मैं भगवान शिव के आदेश से दुष्ठों को दंड देता दूं। परंतु जो व्यक्ति पापी नहीं है, उसे में कभी त्रास नहीं करूंगा । जो व्यक्ति मेरी, मेरे गुरु शिवजी तथा मेरे मित्र हनुमानजी की नियमित आराधना-उपासना बनेगा; उसको इस लोक में मैं सभी सुख तो कूंज्वा ही, अंत में भगवान शिव के चरणों में उसे वास भी प्रात हो जाएगा ।
शनिदेव का अवतरण
सूर्यपुत्र, रबिनंदन, छायातनय, छायापूत, यमाग्रज और सूर्यसुवन भी शनिदेव के प्रमुख नामों में से कुछ हैं । कारण स्पष्ट है । भगवान सूर्यदेव आपके पिता हैं और छाया आपकी माताजी । आपके जन्य और बचपन के बारे में प्राचीन शास्वी में वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
भगवान सूर्यदेव को पांच पत्निया हैं-प्रभा, संज्ञा, रात्रि, बड़वा और छाया । इसमें से संज्ञा द्वारा वैवस्वत मनु यम और यमुना नाम को तीन संताने उत्पन्न हुई । संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज सहन नहीं कर या रही थी, अता अपने को अंत्तहिंत करने का विचार करने लगी । उसने अपने ही रूप को " छाया' नामक स्वी कंद्र उत्पन्न किया और उसे अपने स्थान पर रखकर स्वयं बड़वा अर्थात् घोडी का रूप धारण करके सुमैरुपबंत पर चली गई । जाते समय उसने छाया से कहा-गुप्त रहस्य को सूर्य से प्रकट मत करना । छाया ने कहा-मब तक सूर्य मेरा केश पकड़कर नहीं पूछेंगे, तब तक मैं नहीं कहूंगी । बहुत कल तक इस रहस्य का भेद नहीं खुला और सूर्य छाया को ही है संज्ञा' समझते रहे । छत्या से रावणि मनु शनैश्चर (शनि), ताल नदी और विष्टि नाम की चार संताने उत्पन्न हुई ।
यद्यपि सूर्यदेव और संज्ञा की तीनों संताने छाया को ही संज्ञा समझते थे, परंतु वह वास्तव में छाया थी । कुछ समय जीतने" छाया अपनी संतानों से अधिक प्रेम करने लगी और संज्ञा की संतानों का तिरस्कार करने लगी । इस विषमता को वैवस्वत मनु सहन नहीं कर सके । उन्होंने अपने पिता सूर्यदेव से शिकायत की- मा यया हममें और षानैघचर आदि में भेद का व्यवहार करती है । सूर्य ने अपनी
पत्नी छाया से इसका कारण पूछा । जब छाया की और से संतोषजनक उत्तर न मिल सका, तो सूर्य ने क्रोध में आकर उसके बाल पकड़ लिए और डांटते हुए ठीक-ठीक बात बताने के लिए उसको बाध्य किया । तब छाया ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार संज्ञा का रहस्य प्रकट कर दिया और कहा- आपकी वास्तविक पत्नी संज्ञा अपने स्थान पर मुझे रखकर स्वयं बड़बा का रूप धारण करके कहीं चली गई है । यह सुनकर सूर्यदेव वहुत क्रोधित हुए । उन्होंने न केवल छाया को धमकाया बल्कि छाया और उसके पुत्र शनि का निरंतर तिरस्कार करना भी प्रारंभ कर दिया ।
पिता और भाइयों से शनि का विरोध
सूर्यदेव को पांच पक्षियों में छाया और बड़बा तो संज्ञा के ही दो पृथक रूप हैं, जबकि राधि तथा प्रभा उनको दो अन्य पलिया हैं । इन दो पत्नियों से भी सूर्यदेव को कई संताने हुई । इनमें शनि और यम का रंग काले की सीमा तक गहरा नीला था । शनि बचपन से ही दुबला-पाला और धोड़ा कुरूप भी था । यहीं कारण है कि एक बार सूर्यदेव ने शनि को अपना पुत्र मानने से भी इन्कार कर दिया था । शनि की
माता छाया का भेद खुल जाने के बाद सूर्यदेव बानि से लगभग घृणा ही करने लगे थे । घृणा का उत्तर सदैव घृणा ही होता है, इसीलिए शनिदेव के हदय में भी अपने पिता सूर्यदेव के प्रति न तो कोई आदर था और न ही अन्य भाई-बहनों के प्रति प्रेम की कोई भावना थी । निरंतर इस दुर्भावना का प्रभाव यह पका कि-सदैव असंतुष्ट बने रहना शनिदेव का स्वभाव हो गया । वे अपनी जरा भी अवहेलना करने वाले को दंड देने से नहीं जूझते थे । परंतु इस प्रकार के व्यक्तियों का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने से
पार करने वालों से फूंग्र पार करते हैं । ठीक इसी प्रकार शनिदेव की धोडी-सौ भी उ-आराधना करने वाले व्यक्तियों पर शनिदेव अपनी कृपादृष्टि निरंतर बनाए रखते हैं । शनिदेव की कृपा से ष्टानि-आराधकों को सभी सुख तो मिलते ही रहते हैं, ३ अन्य ग्रह भी अपना दुष्प्रभाव उन पर नहीं डाल पाते । यही नहीं, यमराज शनिदेव के बड़े भाई हैं, अता अकाल मृत्यु और असाध्य रोगों के भय से भी शनि- आराधक
मुक्त रहता है । पृथ्वी अहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । इस बारे में शास्वी में वर्णित कथा इस प्रकार है-अपने पुत्रों के वयस्क हो जाने पर सूर्यदेव ने उन्हें एकच्चिएक ग्रह का स्वामित्व दे दिया । शनिदेव को उन्होंने शनि ग्रह का अधिपति नियुक्त किया । शनि ग्रह यद्यपि बृहस्पति के बाद सबसे विशाल और सुंदर या है, परंतु शनिदेव सभी ग्रहों पर अपना अधिकार चाहते थे । यही कारण है कि शनिदेव अन्य यहीं पर आक्रमण करके उन पर भी आधिपत्य जमाने की योजना बनाने लगे । सूर्यदेव ने शनिदेव को समझाने की बहुत चेष्टा की, परंतु शनिदेव नहीं माने । तब सूर्यदेव ने भगवान शिव से इस बात को शिकायत की और तब भगवान शिव को स्वयं यह कार्य करना पड़ा ।
शिवजी से युध्द एवं शिष्यत्व धारण
भगवान भास्कर द्वारा बारंबार समझाने पर भी शनिदेव नहीं याने । वे अन्य ग्रहों पर आक्रमण करने की योजना को मूर्तरूप देने के लिए अपने अनुचर तैयार करते रहे। सूर्यदेव जानते थे कि अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनिदेव बहुत अधिक शक्तिशाली हैं और वे अपने सभी भाइयों के राज्य छीन लेगे । अत: अपने अन्य पुत्रों की रक्षा हेतु सूर्यदेव ने आशुतोष भगवान शिव से शनिदेव को रोकने की पालना की । भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण नंदी और रोनापति बीरभद्र को अनेक गणों सहित षानिदेव को समझाने और न मानने यर दंड देने के लिए भेजा । शनिदेव ने उनसे युद्ध किया और सभी गणों के साथ वीरभद्र तथा नंदी तक को बन्दी बना लिया । यह देखकर शिवजी को अत्यधिक क्रोध आया । फिर स्वयं भगवान भोलेशक्रर ने युद्धभूमि में आकर अपने दिव्य विल से शनिदेव पर वार कर दिया । साक्षात् भगवान शिव के त्रिशूल के वार से शनिदेव अचेत हो गए और मृतक की भांति ग्याभूमि में गिर पड़े । पुत्र कितना ही उहंड और हठी हो, पिता फिर भी पिता होता है । सूर्यदेव शिवजी से प्रार्थना करने लगे कि शनि को उसकी उहंडता का दंड मिल चुका है, अत: उसे जीवित कर दे । भगवान शिव ने शनिदेव की सूच्छी हटाने के बाद अनेक उपदेश दिए। शनिदेव ने भगवान भोलेशकर को अपना गुरु और मार्गदर्शक मान लिया तथा भांति- बाति से शिवजी की स्तुति की । शिवजी ने शनिदेव को आदेश देया कि वे अपनी ज्ञाक्ति का व्यर्थ प्रदर्शन और अनुचित उपयोग न कों । संत- पुरुषों को कभी तंग न , परंतु जो दुष्ट पापी हैं, उन्हें उचित दंड अवश्य दें ।
शनिदेव का अवतरण
सूर्यपुत्र, रबिनंदन, छायातनय, छायापूत, यमाग्रज और सूर्यसुवन भी शनिदेव के प्रमुख नामों में से कुछ हैं । कारण स्पष्ट है । भगवान सूर्यदेव आपके पिता हैं और छाया आपकी माताजी । आपके जन्य और बचपन के बारे में प्राचीन शास्वी में वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
भगवान सूर्यदेव को पांच पत्निया हैं-प्रभा, संज्ञा, रात्रि, बड़वा और छाया । इसमें से संज्ञा द्वारा वैवस्वत मनु यम और यमुना नाम को तीन संताने उत्पन्न हुई । संज्ञा अपने पति सूर्य का तेज सहन नहीं कर या रही थी, अता अपने को अंत्तहिंत करने का विचार करने लगी । उसने अपने ही रूप को " छाया' नामक स्वी कंद्र उत्पन्न किया और उसे अपने स्थान पर रखकर स्वयं बड़वा अर्थात् घोडी का रूप धारण करके सुमैरुपबंत पर चली गई । जाते समय उसने छाया से कहा-गुप्त रहस्य को सूर्य से प्रकट मत करना । छाया ने कहा-मब तक सूर्य मेरा केश पकड़कर नहीं पूछेंगे, तब तक मैं नहीं कहूंगी । बहुत कल तक इस रहस्य का भेद नहीं खुला और सूर्य छाया को ही है संज्ञा' समझते रहे । छत्या से रावणि मनु शनैश्चर (शनि), ताल नदी और विष्टि नाम की चार संताने उत्पन्न हुई ।
यद्यपि सूर्यदेव और संज्ञा की तीनों संताने छाया को ही संज्ञा समझते थे, परंतु वह वास्तव में छाया थी । कुछ समय जीतने" छाया अपनी संतानों से अधिक प्रेम करने लगी और संज्ञा की संतानों का तिरस्कार करने लगी । इस विषमता को वैवस्वत मनु सहन नहीं कर सके । उन्होंने अपने पिता सूर्यदेव से शिकायत की- मा यया हममें और षानैघचर आदि में भेद का व्यवहार करती है । सूर्य ने अपनी
पत्नी छाया से इसका कारण पूछा । जब छाया की और से संतोषजनक उत्तर न मिल सका, तो सूर्य ने क्रोध में आकर उसके बाल पकड़ लिए और डांटते हुए ठीक-ठीक बात बताने के लिए उसको बाध्य किया । तब छाया ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार संज्ञा का रहस्य प्रकट कर दिया और कहा- आपकी वास्तविक पत्नी संज्ञा अपने स्थान पर मुझे रखकर स्वयं बड़बा का रूप धारण करके कहीं चली गई है । यह सुनकर सूर्यदेव वहुत क्रोधित हुए । उन्होंने न केवल छाया को धमकाया बल्कि छाया और उसके पुत्र शनि का निरंतर तिरस्कार करना भी प्रारंभ कर दिया ।
पिता और भाइयों से शनि का विरोध
सूर्यदेव को पांच पक्षियों में छाया और बड़बा तो संज्ञा के ही दो पृथक रूप हैं, जबकि राधि तथा प्रभा उनको दो अन्य पलिया हैं । इन दो पत्नियों से भी सूर्यदेव को कई संताने हुई । इनमें शनि और यम का रंग काले की सीमा तक गहरा नीला था । शनि बचपन से ही दुबला-पाला और धोड़ा कुरूप भी था । यहीं कारण है कि एक बार सूर्यदेव ने शनि को अपना पुत्र मानने से भी इन्कार कर दिया था । शनि की
माता छाया का भेद खुल जाने के बाद सूर्यदेव बानि से लगभग घृणा ही करने लगे थे । घृणा का उत्तर सदैव घृणा ही होता है, इसीलिए शनिदेव के हदय में भी अपने पिता सूर्यदेव के प्रति न तो कोई आदर था और न ही अन्य भाई-बहनों के प्रति प्रेम की कोई भावना थी । निरंतर इस दुर्भावना का प्रभाव यह पका कि-सदैव असंतुष्ट बने रहना शनिदेव का स्वभाव हो गया । वे अपनी जरा भी अवहेलना करने वाले को दंड देने से नहीं जूझते थे । परंतु इस प्रकार के व्यक्तियों का सहज स्वभाव होता है कि वे अपने से
पार करने वालों से फूंग्र पार करते हैं । ठीक इसी प्रकार शनिदेव की धोडी-सौ भी उ-आराधना करने वाले व्यक्तियों पर शनिदेव अपनी कृपादृष्टि निरंतर बनाए रखते हैं । शनिदेव की कृपा से ष्टानि-आराधकों को सभी सुख तो मिलते ही रहते हैं, ३ अन्य ग्रह भी अपना दुष्प्रभाव उन पर नहीं डाल पाते । यही नहीं, यमराज शनिदेव के बड़े भाई हैं, अता अकाल मृत्यु और असाध्य रोगों के भय से भी शनि- आराधक
मुक्त रहता है । पृथ्वी अहित सभी ग्रहों की उत्पत्ति सूर्य से हुई है । इस बारे में शास्वी में वर्णित कथा इस प्रकार है-अपने पुत्रों के वयस्क हो जाने पर सूर्यदेव ने उन्हें एकच्चिएक ग्रह का स्वामित्व दे दिया । शनिदेव को उन्होंने शनि ग्रह का अधिपति नियुक्त किया । शनि ग्रह यद्यपि बृहस्पति के बाद सबसे विशाल और सुंदर या है, परंतु शनिदेव सभी ग्रहों पर अपना अधिकार चाहते थे । यही कारण है कि शनिदेव अन्य यहीं पर आक्रमण करके उन पर भी आधिपत्य जमाने की योजना बनाने लगे । सूर्यदेव ने शनिदेव को समझाने की बहुत चेष्टा की, परंतु शनिदेव नहीं माने । तब सूर्यदेव ने भगवान शिव से इस बात को शिकायत की और तब भगवान शिव को स्वयं यह कार्य करना पड़ा ।
शिवजी से युध्द एवं शिष्यत्व धारण
भगवान भास्कर द्वारा बारंबार समझाने पर भी शनिदेव नहीं याने । वे अन्य ग्रहों पर आक्रमण करने की योजना को मूर्तरूप देने के लिए अपने अनुचर तैयार करते रहे। सूर्यदेव जानते थे कि अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनिदेव बहुत अधिक शक्तिशाली हैं और वे अपने सभी भाइयों के राज्य छीन लेगे । अत: अपने अन्य पुत्रों की रक्षा हेतु सूर्यदेव ने आशुतोष भगवान शिव से शनिदेव को रोकने की पालना की । भगवान शिव ने अपने प्रमुख गण नंदी और रोनापति बीरभद्र को अनेक गणों सहित षानिदेव को समझाने और न मानने यर दंड देने के लिए भेजा । शनिदेव ने उनसे युद्ध किया और सभी गणों के साथ वीरभद्र तथा नंदी तक को बन्दी बना लिया । यह देखकर शिवजी को अत्यधिक क्रोध आया । फिर स्वयं भगवान भोलेशक्रर ने युद्धभूमि में आकर अपने दिव्य विल से शनिदेव पर वार कर दिया । साक्षात् भगवान शिव के त्रिशूल के वार से शनिदेव अचेत हो गए और मृतक की भांति ग्याभूमि में गिर पड़े । पुत्र कितना ही उहंड और हठी हो, पिता फिर भी पिता होता है । सूर्यदेव शिवजी से प्रार्थना करने लगे कि शनि को उसकी उहंडता का दंड मिल चुका है, अत: उसे जीवित कर दे । भगवान शिव ने शनिदेव की सूच्छी हटाने के बाद अनेक उपदेश दिए। शनिदेव ने भगवान भोलेशकर को अपना गुरु और मार्गदर्शक मान लिया तथा भांति- बाति से शिवजी की स्तुति की । शिवजी ने शनिदेव को आदेश देया कि वे अपनी ज्ञाक्ति का व्यर्थ प्रदर्शन और अनुचित उपयोग न कों । संत- पुरुषों को कभी तंग न , परंतु जो दुष्ट पापी हैं, उन्हें उचित दंड अवश्य दें ।
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