Saturday 22 October 2016

वास्तु के मूल सिद्धान्त

दस दिशाएँ … भारतीय शास्त्रीय ग्रंथो' में दस दिशाओं का सिद्धान्त बहुत लोकप्रिय हैं।
पूर्व : यह उगते सूर्य की दिशा है। इन्द्र और सूर्य क्रमश पूर्व दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैँ। पूर्व दिशा सत्ता, पद और समृद्धि देती है। 45 देवताओं में से चार-इन्द्र. आदित्य, सत्यक और आर्थक- पूर्वी क्षेत्र में अवस्थित हैं।
आग्नेय: यह प्रकाश और अग्नि की दिशा है। अग्नि और शुक्र क्रमश आग्नेय दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह हैं। यह ताप और प्रकाश प्रदान करती है, जो पकाते के प्रक्षालक कारक है। 45 देवताओं में से सात- भृशा , अतरिक्ष अग्नि, पूषन्, वितथ, सविन्द्र और साविन्द्र-आग्नेय क्षेत्र में अवस्थित हैं।
दक्षिण: यह सूर्य की तप्त किरणों की दिशा है। यम और मंगल क्रमश: इस दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह है। गर्मी के मौसम में दक्षिण दिशा अत्यधिक गमी देती है इसलिए इसे बन्द रखना चाहिए) 45 देवताओं में से चार-बृहरुक्षत, यम, गन्धर्व और विवस्वता दक्षिण दिशा में अवस्थित है।
नेत्रत्व: यह अपराह्न सूर्य की रेडियोधर्मी अवरक्त किरणों की दिशा है। पितर (पूर्वज) और राहु इस दिशा के क्रमश: दिकृपाल और स्वामी ग्रह हैं। हमेशा इसे ऊंचा, भारी और बन्द रखने की सलाह दी जाती है। 45 देवताओं में से सात-भृमराज़, मृक्षा, पितर, दौवारिक, सुग्रीव, इन्द्र और इन्द्रजय-नैत्रर्टत्य क्षेत्र में अवस्थित हैं।
पश्चिम: यह डूबते हुए सूर्य की दिशा है। वरुण और शनि क्रमश: इस दिशा के दिकृपाल और स्वामी ग्रह है। यहाँ मय अधिकतम समय तक प्राकृतिक प्रकाशा उपलब्ध रहता है। 45 देवताओं में से चार-पुष्यदन्त, वरुण, असुर और पित्र-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।
वायव्य : यह शुद्ध वायु के प्रवेश की दिशा है। वायु और चन्द्र कन्या: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-शोष, रोग, वायु, नाग, मुख्य, रुद्र और रुद्रराज-इस क्षेत्र में अवस्थित है।
उत्तर: यह सबसे ठंडी दिशा है। कुबेर और बुध क्रमश: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। यह दिशा घर में रहने वालों पर स्वास्थ्य और धन की वषा करती है। 45 देवताओं में से चार-भल्लाट, सोम, मृग और मूधर-इस क्षेत्र में रहते है।
ईशान: यह सबसे पवित्र दिशा है। ईष्ट और बृहस्पति क्रमश: इस दिशा के दिकपाल और स्वामी ग्रह हैं। 45 देवताओं में से सात-आदिति, दिती, ईंष्टा, पर्जन्य, जयंत, आप और आपवत्स-इस क्षेत्र में अवस्थित हैं।
आकाश: इसे ऊर्ध्व दिशा या आकाश भी कहते है। यह अपार है। यह हमें सब और से घेरती है। इसके दिक्पाल ब्रह्मा है और बृहस्पति को इसका स्वामी ग्रह माना जाता है। बृहस्पति विस्तार का कारक ग्रह है। आकाश में शब्द व्याप्त है। आकाश ही नश्वर व शाश्वत दुनिया के मध्य सभी तरह के सम्पर्कों का अधिपति है।
पाताल: इसे अभी दिशा या पताल भी कहा जाता है। यह धरती का गहन आकार है। इसके दिकृपाल वासुकि है , जो नामों के राजा हैं। शनि अंधकार का स्वामी है और इसी कारण गहराइयों का ग्रह भी माना जाता है। पाताल भवन कं। एक स्थिर नीचे प्रदान करता है। आलस्य, निषिरुयता, सुस्ती और दृढ़ता पाताल की प्रमुख विशेषताएँ हैं। ये दसों दिशाएँ आवश्यक विशेषताओं के साथ तालिका 14 में दर्शाई गई है। उपर्युक्त चर्चा के अनुसार, आठों दिशाओं की अलग-अलग विशेषताएँ है। वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तो के अनुसार, भूमि की ढलान ईशान की और होनी चाहिए; परिणामस्वरूप, कमरे कौ ऊंचाई नैऋत्व् में न्यूनतम और ईशान में अधिकतम होगी। नैत्रहँत्य दिशा की निम्नतम ऊंचाई अपराह्न कै समय सूर्य की हानिकारक रेडियोधर्मीअवस्वत किरणों की कम से कम यानों में प्रवेश करने देगी। ईशान को अधिकतम ऊंचाई सुबह की अमृततुल्य पराबैगनी किरणों को अधिकाधिक मानों में आकर्षित करेगी। इन आठ दिशाओं को भार धारण क्षमता के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। नैत्रर्टत्य दिशा सबसे भारी होनी चाहिए; उसके बाद क्रमश: दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, वायव्य, उत्तर और पूर्व हों। ईशान दिशा जितनी हो सके, हल्की होनी चाहिए:। नैत्रहँत्य दिशा को भूतल को उक्ति करके, खिड़की व द्वारों के रूप मे खुली जगहो को कम करके, ठोस मोटी दीवारों व चंदोबे आदि के निर्माण द्वारा भारी किया जाता है। है दीवारों में सूली जगहों को आग्नेय हैं वायव्य और ईशान की और तप: बहाया जता है तकि वे ईशान में अधिकतम हों। ईशान को भूतल को नीचा करके, द्वार, खिड़कियों, स्वागत कक्ष व बरामदे के रूप में अधिकाधिक खुली जगहें छोड़कर, खोखली दीवारों (दृव्रम्भ/ प्राणि) तथा जलस्रोत की खुदाई आदि द्वारा हलका रखा जाता हैँ। सूर्यं पूर्व दिशा में उदय होता है और दक्षिण दिशा से चलते हुए पश्चिम में अस्त होता है। प्रधान पूर्व दिशा सूर्य की प्रथम किरणों की पाले प्राप्त नहीं करती। पृथ्वी के अपनी धुरी पर 23-50 के लगभग झुक्रै होने के कारण गर्मियों में सूर्य की पहली किरणे वस्तुत: विन दिशा में पड़ती हैं। यही बात अस्त होते सूर्य के लिए भी समझी जा सकती है। अत: हम ईशान सै नैत्रर्टत्य तक एक काल्पनिक रेखा खींच सकते है सकारात्मक ऊर्जायुवत आग्नेय भाग प्रकाशमान क्षेत्र है जबकि नकारात्मक ऊजायुवत्त वायव्य भाग अंधकार क्षेत्र बन जाता है। प्रकाशमान क्षेत्र का मध्यबिन्दु आग्नेय कोण है। यहाँ पूरे दिन रोशनी उपलब्ध रहती है, इसलिए यह रसोई के लिए प्रस्तावित दिशा है। अंधकार क्षेत्र का मध्यबिन्दु वायव्य है। यह उन गतिविधियों के लिए उपयुक्त है जिनके लिए कम रोशनी की आवश्यकता है जैसे पालतू जानवर, (गैराज) , नौकरों का कमरा और अतिधि कक्षा प्राताकालीन सूर्य की किरर्ण स्वाभाविक रूप से उषडी होती है। जैसे-जैसे सूर्य दक्षिण की और चलता है वैसे-वैसे किरणे गर्म होती जाती है। अपराह्न के समय सूर्य जब नैत्रर्टत्य में होता है तब सबसे ज्यादा गर्म होता है। वायव्य से आग्नेय तक एक '३ है काल्पनिक रेखा खींचने पर ये क्षेत्र बन जाते है। वायव्य और _ … आग्नेय गर्म व उडे क्षेत्रों के मिलन बिन्दु है। यै क्षेत्र उन गतिविधियों हेतु उपयुक्त है जहाँ रुस्तुलित ताप प्राथमिक आवश्यकता है। ठडै क्षेत्र का मध्य बिन्दु होने के कारण ईशान सबसे ठंडा क्षेत्र है। यह उन गतिविधियों के लिए उत्तम है जहाँ शांत स्वभाव की आवश्यकता है; जैसे ध्यान, योग, प्रार्थना अध्ययन, स्वारात-कक्ष तथा पीने योग्य जल नैत्रद्देत्य दिशा गर्म क्षेत्र का मध्य बिंदु होने के कारण सर्वाधिक गर्म क्षेत्र है। सूर्य की उत्तप्त किरणों से बचने के लिए इसे पूर्णतया बंद कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप यह शांत, हैं सुरक्षित, अंधकारपूर्ण और एकात क्षेत्र बन जाता है जो शयन
कक्ष हेतु सर्वथा उपयुक्त है। प्राचीनकाल में नैत्रर्टत्य क्षेत्र भारी, सुरक्षित और निरापद होने के कारण सस्त्रागर के लिए आरक्षित था। अपने हथियार जैसे तलवार बन्दूक और पिस्तोल को घर में " रहनेवाली की नज़रों से दूर नैत्रर्त्य क्षेत्र में रखिए। ये हथियार केवल सही समय पर, सही व्यक्ति द्वारा और के लिए ही प्रयोग होगे। इन आठ दिशाओं कं। तीन गुणों (सत्त्व, रजस और तमस) और पाँच तत्वों (जल, अग्नि, धरती वायु और आकाश) के आधार पर भी विभाजित किया जाता है।

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