Thursday 13 October 2016

भगवान श्रीकृष्ण और ज्योतिष

जब अधर्म का बोलबाला हो जाता है धर्म का नाश होने लगता है, सज्जन पीड़ा से तड़प उठते है दुर्जन अतिचारी हो जाते है तो प्रकृति अपना सन्तुलन बनाने के लिये महापुरुष को पैदा करती है। वह राम के रूप में हों कृष्ण के रूप मेंं हो या अन्य किसी अवतार के रूप मेंं हों, आते हैं। चार युग कही युग पर्यन्त नहीं है, चारों युग इसी शरीर में इसी जीवन में इसी संसार में है। पिता खुद और आगे आने वाली पीढ़ी धर्म रूपी सतयुग है, कुटुम्ब ननिहाल और पिता का राज्य द्वापर है, पत्नी परिवार छोटे-बड़े भाई बहिन आदि सभी त्रेता के युग के रूप में है, माता और पिता का खानदान अधर्म मृत्यु तथा मोक्ष को प्राप्त करने का युग ही कलयुग है। कुंडली को देखने के बाद पता लगता है कि लगन पंचम और नवम भाव सतयुग की मीमांशा करते है, दूसरा छठा और दसवा भाव द्वापर युग की मीमांसा करते हैं, तीसरा, सातवा और ग्यारहवा भाव त्रेता युग की मीमांसा करते है, चौथा, आठवा और बारहवा भाव कलयुग की मीमांसा करते है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुया था इसलिये जो भी कार्य व्यवहार समय आदि रहा वह सभी दूसरे भाव छठे भाव और दसवे भाव से सम्बन्धित रहा। शनिदेव का केतु के साथ इन्ही भावों में होना श्रीकृष्ण भक्ति की तरफ जाने का इशारा करता है। देवकी माता के रूप में और महाराज उग्रसेन पिता के रूप मेंं, दूसरे भाव का शनि केतु माता के बड़े भाई के रूप में और दूसरे भाव का शनि केतु दत्तक पुत्र की तरह से दूसरी जाति के अन्दर जाकर पालना होना। अष्टम राहु, बारहवा राहु, चौथा राहु तभी अपना काम राक्षस की तरह से करेगा जब शनि केतु दूसरे छठे या दसवे भाव में अपना बल दे रहे होंगे। माता यशोदा की गोद चौथे भाव के लिये शनि केतु की मीमांसा करती है, शनि केतु का दूसरा प्रभाव यमुना जी के रूप में भी मिलता है, शनि जो यम है और केतु जो यम की सहयोगी सूर्य पुत्री के रूप में जानी जाती है। शनि काम करने वाले लोगो से और केतु को हल के रूप में भी देखा जाता है शनि का रंग काला है और केतु का रूप बांसुरी से लेते हंै तो भी भगवान श्रीकृष्ण की छवि उजागर होती है। यही नहीं शनि मंत्र के उच्चारण के लिये जब शनि बीज मंत्र का रूप देखा जाता है तो ‘शँ’ बीज भगवान श्रीकृष्ण की एक पैर मोड कर बांसुरी को बजाने के रूप में दिखाई देता है। अगर इस बीज अक्षर को सजा दिया जाये भगवान श्रीकृष्ण का रूप ही प्रदर्शित होगा।
आदिकाल से मूर्ति की पूजा नहीं की जाती थी यह तो ऋग्वेद से भी देखा जा सकता है, बीज मंत्रो का बोलबाला था। अग्नि, वायु, जल, भूमि और इनके संयुक्त तत्वों को माना जाता था लेकिन इन्हीं बीजो को सजाने के बाद जो रूप बना, वह मूर्ति के रूप में स्थापित किया जाने लगा और पत्थर धातु अथवा किसी भी अचल तत्व पर मूर्ति के रूप में इन्ही बीजों को सजाया जाने लगा भावना से भगवान की उत्पत्ति हुयी और मूर्ति भी बीज अक्षर के रूप में अपना असर दिखाने लगी।
मथुरा नगर को भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली माना जाता है। मथुरा के राजा उग्रसेन को जो श्रीकृष्ण के नाना थे उनके पुत्र कंस ने कैद में डालकर अपने को बरजोरी राजा बना लिया था और अपने को लगातार बल से पूर्ण करने के लिये जो भी अनैतिक काम होते थे सभी को करने लगा था। प्रजा के ऊपर इतने कर लगा दिये थे कि प्रजा में त्राहि त्राहि मची हुयी थी। जब कंस अपने बहनोई वासुदेव को और बहिन देवकी को लेकर रथ से जा रहा था तो आकाशवाणी हुयी कि जिस बहिन को तू इतने प्रेम से लेकर जा रहा है उसी के गर्भ से आठवी संतान उसकी मौत के रूप में पैदा होगी। कंस ने रथ को वापस किया और वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया, तथा उनकी सात सन्तानों को मार दिया था, आठवी संतान के रूप मेंं श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिस समय जन्म हुआ उस समय जो भी कारागार के दरवाजे प्रहरी आदि कंस ने देवकी और वसुदेव की सुरक्षा के लिये स्थापित किये थे सभी साधन निष्क्रिय हो गये और वसुदेव अपने हाल के जन्में पुत्र को लेकर उनके मित्र नंद के घर छोड़ आये और उनकी पुत्री को वापस लाकर देवकी की गोद में सुला दिया, कंस को जब पता लगा तो उसने उस कन्या को मारने के लिये जैसे ही पत्थर पर पटकना चाहा वह कन्या कंस के हाथ से छूट कर आसमान में चली गयी और आर्या नाम की शक्ति के रूप मेंं अद्रश्य बादलों की बिजली की तरह से अपना रूप लेकर बोली कि जो तेरी मौत का कारण है वह तो पैदा हो चुका है और बड़े आराम से पाला भी जा रहा है, कंस ने इतना सुनकर आसपास के गांवो में अपने दूत भेज दिये, जब पता लगा कि श्रीकृष्ण नन्द के घर में यशोदा मैया की गोद में पल रहे हंै तो कंस ने अपनी आसुरी शक्तियों को यशोदा के घर पूतना के रूप मेंं, बकासुर के रूप मेंं और कितनी ही आसुरी शक्तियों को भेजा लेकिन श्रीकृष्ण भगवान का बाल भी बांका नहीं हुया। अपनी लीलाओं को दिखाते हुये उन्होने मथुरा की ब्रज भूमि को तपस्थली भूमि को बना दिया और अपनी शक्ति से अपने मामा कंस को मारकर अपने नाना को राजगद्दी पर बैठाकर अपने स्थान द्वारका की तरफ प्रस्थान कर गये।
मथुरा में शनि-केतु माता का घर था और कारागार का रूप भी राहु के रूप में था, चौथे, बारहवे और आठवे भाव का सीधा मिश्रण होने के कारण दूसरे भाव का असर भी शामिल था। वहीं शनि केतु नन्दगांव मेंं यशोदा के द्वारा पाले जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का रूप था, चौथा भाव माता के साथ दूध और दूध के साधनों से भी जोड़ कर देखा जाता है। मथुरा नगर के उत्तर पूर्व में यमुना नदी बहती है इस नदी का रूप भी श्यामल है, साथ ही यही शनि केतु राहु का रूप रखने के बाद यमुना में कालिया नाग के रूप में प्रकट हुआ जो भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा वश में करने के बाद उसे क्षीर सागर में भेज दिया। पूतना जो राक्षसी रूप में थी वही अपने वक्ष पृष्ठ पर जहर लगाकर भगवान श्रीकृष्ण को दूध पिलाने आयी थी उसका दूध पीने के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना के प्राणों को भी पी लिया था। दूध और जहर दोनों राहु और चन्द्रमा की निशानी है। राहु चन्द्रमा के साथ मिलकर जहरीले दूध के लिये अपने रूप को प्रस्तुत करता है। उसी स्थान पर बकासुर जो बुध राहु के रूप में अपना रूप लेकर भगवान श्रीकृष्ण की मौत लेकर आया था उसे भी भगवान श्रीकृष्ण ने शनि केतु की सहायता से मार गिराया था। राहु शुक्र का मिला हुआ रूप ही रासलीला के रूप में जाना जाता है राहु जब सूर्य को आने कब्जे में करता है कीर्ति का फैलना होता है।
मथुरा नगर की सिंह राशि है यह राशि राज्य सें सम्बन्ध रखती है। नन्दगांव की वृश्चिक राशि का है इसलिये जान जोखिम और खतरे वाले काम करने के लिये तथा मौत जैसे कारण पैदा करने के लिये माना जाता है। वृंदावन वृष और तुला के मिश्रण का रूप है इसलिये धन सम्पत्ति और प्रेम सम्बन्ध शुक्र से मिलते है। बरसाना भी श्री राधा के लिये तथा सत्यभामा कुम्भ राशि के लिये जो मित्र के रूप में ही अपने कारणो को आजीवन प्रस्तुत करती रही। रुकमिणी जो तुला राशि की होकर और राधा भी तुला राशि की होकर अपने को मित्र तथा प्रेम के रूप में प्रस्तुत करने के बाद श्रीकृष्ण की शक्ति के रूप में साथ रही। अक्षर कृ मेंं मिथुन और तुला है और अक्षर कं मेंं मिथुन और वृश्चिक का रूप शामिल है,मिथुन तुला की धर्म और भाग्य के साथ साथ पूज्य बनाने के लिये मानी जाती है जबकि मिथुन और वृश्चिक षडाष्टक योग का निर्माण करने के लिये तथा शत्रुता मौत वाले कारण पैदा करने के लिये जासूसी अवैध्य रूप से धन प्राप्त करने के लिये केवल भौतिक सुखो को भोगने के लिये अहम में आकर अपने को ही भगवान समझने के लिये मानना भी एक प्रकार से माना जा सकता है। यही बात यमुना जी के लिये भी जानी जा सकती है वृश्चिक सिंह और वृश्चिक राशि का मिश्रण भी यमुना जी के लिये अपनी गति को प्रदान करता है चौथे भाव मेंं शनि केतु का रूप पानी के स्थान पर एक काली लकीर या जो पूर दिशा में जाकर राहु यानी समुद्र से मिले। आदि बातों से भी माना जा सकता है।
हरिवंश पुराण में भगवान श्रीकृष्ण सहित गुरु का कारण प्रस्तुत किया गया है और सम्पूर्ण ज्योतिष की जानकारी जीव के रूप में उपस्थित करने के लिये बतायी गयी है। इसी प्रकार से महाभारत पुराण के तेरह पर्व एक लगन और बाकी के बारह भाव प्रस्तुत किये गये है जो ज्योतिष से सटीक रूप से मिलते है। पांच पांडव और छठे नारायाण यानी श्रीकृष्ण भगवान पांच तत्व और एक आत्मा के रूप में आधयत्मिक रूप में तथा पांच तत्व और एक आत्मा के रूप में द्रोपदी के रूप में जो पांच तत्व का भार ग्रहण करती है के प्रति भी आस्था रखना ज्योतिष के रूप में माना जाता है। सौ कौरव दूसरे शुक्र और बारहवे सूर्य की कल्पना को प्रस्तुत करते है। वही शनि केतु कौरवो के लिये कीड़े मकौड़े के रूप में प्रस्तुत करता है तो कुन्ती के विवाह से पहले के पुत्र कर्ण को छठे भाव के शनि केतु के रूप में प्रस्तुत करता है,जो पांचों तत्वों के मिश्रण का संयुक्त रूप था और बारहवे सूर्य की निशानी था,कहा जाता है कि कुंती ने सन्तान प्राप्ति के मंत्र को क्वारे में सूर्य की साधना करने से अंजवाया था भगवान सूर्य उपस्थित हुये और कुंती को पुत्र प्राप्ति के लिये वर दे गये तथा कानो के कुंडल और कवच कुंती को दे गये। विवाह नहीं होने के कारण और क्वारे मेंं सन्तान को प्राप्त करने के कारण कर्ण को यमुना में मय कुंडल और कवच के बहा दिया गया जो किसी मल्लाह ने प्राप्त करने के बाद उन्हे पाला और सूत पुत्र के नाम से कर्ण को जाना जाने लगा। यही चौथे भाव का शनि केतु यानी केतु पतवार और शनि पानी का वाहन यानी नाव के रूप में भी समझा जा सकता है।
इस प्रकार से समझा जा सकता है कि ज्योतिष और भगवान श्रीकृष्ण की कथा में केवल उनकी कथा को प्रस्तुत करने के बाद जो भी कारण पांच तत्व और एक आत्मा के साथ पैदा होते है उन्हे वृहद रूप में वर्णित किया गया है। यह कथाये इसलिये बनायी गयी थी कि पुराने जमाने में लिखकर सुरक्षित रखने का कोई साधन नहीं था और कथा के रूप में गाथा हमेशा चलती रहती थी कोई इस गाथा को भूल नहीं जाये इसलिये ही भागवत पुराण की रचना की गयी थी और नवग्रह तथा जीवन के सभी ग्रहों की शांति के लिये लोग समय समय पर भागवत कथा का आयोजन करवाते थे।

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