किसी भी मानवीय जीवन की छह घटनाओं के बारे में कहा जाता है कि इनके बारे में केवल ईश्वर ही जानता है, कोई साधारण मनुष्य इसकी पूर्ण गणना नहीं कर सकता। इन छह घटनाओं में से पहली दो घटनाएं न केवल किसी भी आत्मा के पृथ्वी पर प्रवास का समय निर्धारित करती है, बल्कि ज्योतिषी के समक्ष हमेंशा प्रथम चुनौती के रूप में खड़ी रहती है।
एक ज्योतिषी के लिए किसी जातक के जन्म समय का निर्धारण ज्योतिषीय कोण से भी बहुत मुश्किल रीति है। सामान्य तौर पर बच्चे के जन्म का समय वही माना जाता है, जो अस्पताल के कार्ड में लिखा होता है। संस्थागत प्रसव से पूर्व तो इतनी शुद्धता भी नहीं थी, केवल अनुमान से ही सुबह, दोपहर, शाम या रात का समय बताया जाता था, गोधूली बेला होने या सूर्य उदय के बाद का समय होने जैसी संभावनाओं के साथ कुण्डली बनाने का प्रयास किया जाता था। हाल के वर्षों में आम लोगों में ज्योतिष के प्रति रुचि बढऩे के साथ अस्पतालों पर भी बच्चे के जन्म समय को शुद्ध रखने का दबाव आने लगा है।
कृष्णामूर्ति पद्धति के अनुसार गणना की जाए तो जुड़वां पैदा हुए बच्चों के जन्म समय में चार मिनट या इससे अधिक का अंतर होने पर उनके लिए सटीक फलादेश किए जा सकते हैं। परम्परागत षोडषवर्ग पद्धति में भी एक लग्न यानी दो घंटे के साठवें हिस्से तक की गणना का प्रावधान रहा है। अब समस्या यह आती है कि बच्चे का जन्म समय कौनसा माना जाए? अगर सामान्य डिलीवरी हो तो बच्चे के जन्म की चार सामान्य अवस्थाएं हो सकती हैं। पहली कि बच्चा गर्भ से बाहर आए, दूसरी बच्चा सांस लेना शुरू करे, तीसरी बच्चा रोए और चौथी जब नवजात के गर्भनाल को माता से अलग किया जाए। इन चार अवस्थाओं में भी सामान्य तौर पर पांच से दस मिनट का अंतर आ जाता है। अगर कुछ जटिलताएं हों तो इस समय की अवधि कहीं अधिक बढ़ जाती है।
दूसरी ओर सिजेरियन डिलीवरी होने की सूरत में भी माता के गर्भ से बाहर आने और गर्भनाल के काटे जाने, पहली सांस लेने और रोने के समय में अंतर तो रहेगा ही, यहां बस संतान के बाहर आने की विधि में ही फर्क आएगा। जहां ज्योतिष में चार मिनट की अवधि से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के सटीक भविष्य कथन का आग्रह रहता है, वहां जन्म समय का यह अंतर कुण्डली को पूरी तरह बदल भी सकता है। कई बार संधि लग्नों की स्थिति में कुण्डलियां गलत भी बन जाती है। ऐसे में जन्म समय को लेकर हमेंशा ही शंका बनी रहती है। मेरे पास आई हर कुण्डली का मैं अपने स्तर पर बर्थ टाइम रेक्टीफिकेशन करने का प्रयास करता हूं। अगर छोटा मोटा अंतर हो तो तुरंत पकड़ में आ जाता है। वरना केवल लग्न के आधार पर फौरी विश्लेषण ही जातक को मिल पाता है। फलादेश में समय की सर्वांग शुद्धि का आग्रह नहीं किया जा सकता।
ज्योतिषी कोण से मृत्यु:
इसी प्रकार मृत्यु को लेकर भी ज्योतिषीय दृष्टिकोण में कई जटिलताएं सामने आती हैं। सामान्य तौर पर किसी जातक की मृत्यु का समय देखने के लिए मारक ग्रहों और बाधकस्थानाधिपति की स्थिति की गणना की जाती है। लग्न कुण्डली में आठवां भाव आयु स्थान कहा गया है और आठवें से आठवां यानी तीसरा स्थान आयु की अवधि के लिए माना गया है। किसी भी भाव से बारहवां स्थान उस भाव का क्षरण करता है। ऐसे में आठवें का बारहवां यानी सातवां तथा तीसरे का बारहवां यानी दूसरा भाव जातक कुण्डली में मारक बताए गए हैं। इन भावों में स्थित राशियों के अधिपति की दशा, अंतरदशा, सूक्ष्म आदि जातक के जीवन के लिए कठिन साबित होते हैं।
इसी प्रकार बाधक स्थानाधिपति की गणना की जाती है। चर लग्नों यानी मेष, कर्क, तुला और मकर राशि के लिए ग्यारहवें भाव का अधिपति बाधकस्थानाधिपति होता है। द्विस्वभाव लग्नों यानी मिथुन, कन्या, धनु और मीन के लिए सातवां घर बाधक होता है। स्थिर लग्नों यानी वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए नौंवा स्थान बाधक होता है। मारक भाव के अधिपति और बाधक स्थान के अधिपति की दशा में जातक को शारीरिक नुकसान होता है। अब मृत्यु का समय ज्ञात करने के लिए इन दोनों स्थानों की तीव्रता को देखना होता है। सामान्य परिस्थितियों में इन स्थानों पर गौर करने पर जातक के शरीर पर आए नुकसान की गणना की जा सकती है।
लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। अगर इंसान के साथ दो ही परिस्थितियां हों कि या तो वह जिंदा है, या मर गया है तो संभवत: इस प्रकार की गणनाएं सटीक निर्णय दे दें कि जातक की मृत्यु कब होगी। व्यवहारिक तौर पर शारीरिक अक्षमताओं से लेकर जातक के स्थानच्युत होने तक की कई अवस्थाएं होती हैं। मसलन मारक और बाधक की दशा के दौरान जातक को ऐसी चोट लगे कि वह स्थाई तौर पर अक्षम हो जाए और अपने बिस्तर से हिलना भी बंद कर दे। कोई जातक लंबी अवधि के लिए कोमा में जा सकता है, कोई जातक किसी निश्चित अवधि के लिए गायब हो सकता है, यह अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों तक हो सकती है।
कोई जातक अज्ञातवास में रहने लग सकता है, जिसमें उसका परिवार और समाज तक से संबंध कट जाता है। कुछ जातक बुरी तरह बीमार होते हैं, इतना अधिक कि शरीर के अधिकांश अंग काम करना बंद कर देते हैं, लेकिन चिकित्सकों द्वारा लगाए गए जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से जातक पूर्णत अक्षम होने के बावजूद जिंदा रहता है।
इन सभी मामलों में ज्योतिषीय कोण से जातक अनुपस्थित अथवा अक्षम हो चुका होता है, लेकिन तकनीकी रूप से जातक या तो जिंदा है या अज्ञातवास में है। ऐसे में हम देखते हैं कि एक ज्योतिषी जातक को होने वाले नुकसान के बारे में तो स्पष्ट बता सकता है, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु के बारे में नहीं कहा जा सकता। जीवन रक्षक उपकरणों और अक्षम हो चुके जातक को भी एक निश्चित अवधि तक जीवित बनाए रखने की संभावनों के चलते मृत्यु की परिभाषा में भी बदलाव आ रहा है।
सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु के इतर कुछ स्थितियां पराभौतिक भी होती हैं। किसी जातक को अपने संचित कर्मों से मिले प्रारब्ध के भाग को वर्तमान जीवन में जीना होता है, लेकिन वह उसे जी नहीं पाता। उस सूरत में अकाल मृत्यु के बाद ऐसी आत्माएं कुछ अर्से तक अटकी रहती हैं। किसी जातक के जन्म-मृत्यु की शृंखला में तीन प्रकार के कर्म प्रमुख रूप से बताए गए हैं। पहले हैं संचित कर्म। आपने किसी भी जन्म में कुछ भी किया हो, वह हमेंशा संचित होता रहता है। इन्हीं कर्म बंधनों को पूरा करने के लिए हम जन्म लेते हैं। अब संचित कर्म का कौनसा हिस्सा हमेंं वर्तमान जीवन में पूरा करना है, उसका आवंटन ईश्वर करते हैं और हमेंं आवंटित कर्म अर्थात प्रारब्ध के साथ धरती पर भेज देते हैं।
तीसरा कर्म हम इस जीवन में अपने सक्रिय प्रयासों से करते हैं, इन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है। कुण्डली में लग्न हमारे संचित कर्मों का लेखा जोखा है, पंचम भाव हमारे प्रारब्ध के बारे में जानकारी देता है और दशम भाव हमारे क्रियमाण कर्म के बारे में बताता है। ज्योतिष के भावात भावम् सिद्धांत के अनुसार बारहवां भाव अगर क्षय का है तो क्रियमाण कर्म के खर्च होने का भाव नौंवा भाव है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में भाग्य भाव कहा जाता है। अगर जातक अपने प्रारब्ध का हिस्सा पूरा नहीं कर पाता है और क्रियमाण कर्मों के चलते अपना शरीर शीघ्र छोड़ देता है तो उसे मानव जीवन के इतर योनियों में उस समय को पूरा करते हुए अपने हिस्से का प्रारब्ध जीना होता है। जब तक हमारे सामनेचिकित्सकीय कोण से जीवित शरीर दिखाई देता है, हम यह मानकर चलते हैं कि जातक जीवित है, लेकिन ज्योतिषीय कोण यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता है। ऐसे में ज्योतिषीय योग यह तो बताते हैं कि जातक के साथ चोट कब होगी अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट कब होगा, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु की तारीख तय करना गणित की दृष्टि से दुष्कर कार्य है।
एक ज्योतिषी के लिए किसी जातक के जन्म समय का निर्धारण ज्योतिषीय कोण से भी बहुत मुश्किल रीति है। सामान्य तौर पर बच्चे के जन्म का समय वही माना जाता है, जो अस्पताल के कार्ड में लिखा होता है। संस्थागत प्रसव से पूर्व तो इतनी शुद्धता भी नहीं थी, केवल अनुमान से ही सुबह, दोपहर, शाम या रात का समय बताया जाता था, गोधूली बेला होने या सूर्य उदय के बाद का समय होने जैसी संभावनाओं के साथ कुण्डली बनाने का प्रयास किया जाता था। हाल के वर्षों में आम लोगों में ज्योतिष के प्रति रुचि बढऩे के साथ अस्पतालों पर भी बच्चे के जन्म समय को शुद्ध रखने का दबाव आने लगा है।
कृष्णामूर्ति पद्धति के अनुसार गणना की जाए तो जुड़वां पैदा हुए बच्चों के जन्म समय में चार मिनट या इससे अधिक का अंतर होने पर उनके लिए सटीक फलादेश किए जा सकते हैं। परम्परागत षोडषवर्ग पद्धति में भी एक लग्न यानी दो घंटे के साठवें हिस्से तक की गणना का प्रावधान रहा है। अब समस्या यह आती है कि बच्चे का जन्म समय कौनसा माना जाए? अगर सामान्य डिलीवरी हो तो बच्चे के जन्म की चार सामान्य अवस्थाएं हो सकती हैं। पहली कि बच्चा गर्भ से बाहर आए, दूसरी बच्चा सांस लेना शुरू करे, तीसरी बच्चा रोए और चौथी जब नवजात के गर्भनाल को माता से अलग किया जाए। इन चार अवस्थाओं में भी सामान्य तौर पर पांच से दस मिनट का अंतर आ जाता है। अगर कुछ जटिलताएं हों तो इस समय की अवधि कहीं अधिक बढ़ जाती है।
दूसरी ओर सिजेरियन डिलीवरी होने की सूरत में भी माता के गर्भ से बाहर आने और गर्भनाल के काटे जाने, पहली सांस लेने और रोने के समय में अंतर तो रहेगा ही, यहां बस संतान के बाहर आने की विधि में ही फर्क आएगा। जहां ज्योतिष में चार मिनट की अवधि से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के सटीक भविष्य कथन का आग्रह रहता है, वहां जन्म समय का यह अंतर कुण्डली को पूरी तरह बदल भी सकता है। कई बार संधि लग्नों की स्थिति में कुण्डलियां गलत भी बन जाती है। ऐसे में जन्म समय को लेकर हमेंशा ही शंका बनी रहती है। मेरे पास आई हर कुण्डली का मैं अपने स्तर पर बर्थ टाइम रेक्टीफिकेशन करने का प्रयास करता हूं। अगर छोटा मोटा अंतर हो तो तुरंत पकड़ में आ जाता है। वरना केवल लग्न के आधार पर फौरी विश्लेषण ही जातक को मिल पाता है। फलादेश में समय की सर्वांग शुद्धि का आग्रह नहीं किया जा सकता।
ज्योतिषी कोण से मृत्यु:
इसी प्रकार मृत्यु को लेकर भी ज्योतिषीय दृष्टिकोण में कई जटिलताएं सामने आती हैं। सामान्य तौर पर किसी जातक की मृत्यु का समय देखने के लिए मारक ग्रहों और बाधकस्थानाधिपति की स्थिति की गणना की जाती है। लग्न कुण्डली में आठवां भाव आयु स्थान कहा गया है और आठवें से आठवां यानी तीसरा स्थान आयु की अवधि के लिए माना गया है। किसी भी भाव से बारहवां स्थान उस भाव का क्षरण करता है। ऐसे में आठवें का बारहवां यानी सातवां तथा तीसरे का बारहवां यानी दूसरा भाव जातक कुण्डली में मारक बताए गए हैं। इन भावों में स्थित राशियों के अधिपति की दशा, अंतरदशा, सूक्ष्म आदि जातक के जीवन के लिए कठिन साबित होते हैं।
इसी प्रकार बाधक स्थानाधिपति की गणना की जाती है। चर लग्नों यानी मेष, कर्क, तुला और मकर राशि के लिए ग्यारहवें भाव का अधिपति बाधकस्थानाधिपति होता है। द्विस्वभाव लग्नों यानी मिथुन, कन्या, धनु और मीन के लिए सातवां घर बाधक होता है। स्थिर लग्नों यानी वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए नौंवा स्थान बाधक होता है। मारक भाव के अधिपति और बाधक स्थान के अधिपति की दशा में जातक को शारीरिक नुकसान होता है। अब मृत्यु का समय ज्ञात करने के लिए इन दोनों स्थानों की तीव्रता को देखना होता है। सामान्य परिस्थितियों में इन स्थानों पर गौर करने पर जातक के शरीर पर आए नुकसान की गणना की जा सकती है।
लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। अगर इंसान के साथ दो ही परिस्थितियां हों कि या तो वह जिंदा है, या मर गया है तो संभवत: इस प्रकार की गणनाएं सटीक निर्णय दे दें कि जातक की मृत्यु कब होगी। व्यवहारिक तौर पर शारीरिक अक्षमताओं से लेकर जातक के स्थानच्युत होने तक की कई अवस्थाएं होती हैं। मसलन मारक और बाधक की दशा के दौरान जातक को ऐसी चोट लगे कि वह स्थाई तौर पर अक्षम हो जाए और अपने बिस्तर से हिलना भी बंद कर दे। कोई जातक लंबी अवधि के लिए कोमा में जा सकता है, कोई जातक किसी निश्चित अवधि के लिए गायब हो सकता है, यह अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों तक हो सकती है।
कोई जातक अज्ञातवास में रहने लग सकता है, जिसमें उसका परिवार और समाज तक से संबंध कट जाता है। कुछ जातक बुरी तरह बीमार होते हैं, इतना अधिक कि शरीर के अधिकांश अंग काम करना बंद कर देते हैं, लेकिन चिकित्सकों द्वारा लगाए गए जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से जातक पूर्णत अक्षम होने के बावजूद जिंदा रहता है।
इन सभी मामलों में ज्योतिषीय कोण से जातक अनुपस्थित अथवा अक्षम हो चुका होता है, लेकिन तकनीकी रूप से जातक या तो जिंदा है या अज्ञातवास में है। ऐसे में हम देखते हैं कि एक ज्योतिषी जातक को होने वाले नुकसान के बारे में तो स्पष्ट बता सकता है, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु के बारे में नहीं कहा जा सकता। जीवन रक्षक उपकरणों और अक्षम हो चुके जातक को भी एक निश्चित अवधि तक जीवित बनाए रखने की संभावनों के चलते मृत्यु की परिभाषा में भी बदलाव आ रहा है।
सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु के इतर कुछ स्थितियां पराभौतिक भी होती हैं। किसी जातक को अपने संचित कर्मों से मिले प्रारब्ध के भाग को वर्तमान जीवन में जीना होता है, लेकिन वह उसे जी नहीं पाता। उस सूरत में अकाल मृत्यु के बाद ऐसी आत्माएं कुछ अर्से तक अटकी रहती हैं। किसी जातक के जन्म-मृत्यु की शृंखला में तीन प्रकार के कर्म प्रमुख रूप से बताए गए हैं। पहले हैं संचित कर्म। आपने किसी भी जन्म में कुछ भी किया हो, वह हमेंशा संचित होता रहता है। इन्हीं कर्म बंधनों को पूरा करने के लिए हम जन्म लेते हैं। अब संचित कर्म का कौनसा हिस्सा हमेंं वर्तमान जीवन में पूरा करना है, उसका आवंटन ईश्वर करते हैं और हमेंं आवंटित कर्म अर्थात प्रारब्ध के साथ धरती पर भेज देते हैं।
तीसरा कर्म हम इस जीवन में अपने सक्रिय प्रयासों से करते हैं, इन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है। कुण्डली में लग्न हमारे संचित कर्मों का लेखा जोखा है, पंचम भाव हमारे प्रारब्ध के बारे में जानकारी देता है और दशम भाव हमारे क्रियमाण कर्म के बारे में बताता है। ज्योतिष के भावात भावम् सिद्धांत के अनुसार बारहवां भाव अगर क्षय का है तो क्रियमाण कर्म के खर्च होने का भाव नौंवा भाव है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में भाग्य भाव कहा जाता है। अगर जातक अपने प्रारब्ध का हिस्सा पूरा नहीं कर पाता है और क्रियमाण कर्मों के चलते अपना शरीर शीघ्र छोड़ देता है तो उसे मानव जीवन के इतर योनियों में उस समय को पूरा करते हुए अपने हिस्से का प्रारब्ध जीना होता है। जब तक हमारे सामनेचिकित्सकीय कोण से जीवित शरीर दिखाई देता है, हम यह मानकर चलते हैं कि जातक जीवित है, लेकिन ज्योतिषीय कोण यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता है। ऐसे में ज्योतिषीय योग यह तो बताते हैं कि जातक के साथ चोट कब होगी अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट कब होगा, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु की तारीख तय करना गणित की दृष्टि से दुष्कर कार्य है।
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