Monday 4 July 2016

जीवन धन को कैसे करें सुरक्षित- जाने कुंडली से

संसार में जितने भी धन हैं उन सबसे श्रेष्ठ जीवन- धन है। जीवन- धन के लिए ही अन्य सारे धन की उपयोगिता एवं आवश्यकता है। जीवन-धन ना रहा तो अन्य धन किसके लिए और किस काम के। जीवन-धन के सामने अन्य सारे धन तुच्छ हैं। कहा जाता है हीरा सरीखा जीवन, संसार का संपूर्ण ऐश्वर्य इसके मामने तुच्छ है। रुपये, पैसे, जमीन-जायदाद आदि जो धन माने गये हैं मनुष्य उनकी कीमत तो समझता है, परंतु जिस जीवन- धन के लिए इन धनों की आवश्यकता है उसकी कीमत नहीं समझता। बाहरी धन का एक-एक पैसा मनुष्य बहुत सोच-समझकर खर्च करता है, किन्तु जीवन-धन को बिना सोचे खर्च करता रहता है। इसे व्यर्थ ही नहीं अनर्थकारी कर्मों में लगाता रहता है। अन्य धनों की तो मनुष्य बहुत सुरक्षा करता है, परंतु जीवन- धन की सुरक्षा के लिए वह चिंतित नहीं होता। जीवन-धन को बेहतर तरीके से प्रयोग करने एवं सुरक्षित रखने के लिए व्यक्ति को अपनी कुंडली का विश्लेषण कराना चाहिए। इसमें विशेष कर लग्न, तृतीयेश, पंचमेंष, सप्तेश, भाग्येश एवं एकादशेष के ग्रह एवं इन स्थानों के ग्रह स्वामी की स्थिति यदि अनुकूल होती है तो व्यक्ति का स्वास्थ्य, मन, एकाग्रता, साथ, भाग्य एवं दैनिक जीवन के सुख-दुख अनुकूल होता है और यदि प्रतिकूल हो तो जीवन में इनसे संबंधित कष्ट आता है। जीवन में सभी सुख तथा साधन हेतु इन स्थानों में से जो स्थान अथवा ग्रह प्रतिकूल हों तो उसे अनुकूल करने हेतु ग्रह शांति कराने के लिए संबंधित ग्रह का मंत्रजाप, दान एवं हवन-पूजन कराना चाहिए।

जाने पारिवारिक कलह का कारण: जाने ज्योतिष्य कारण और उपाय

परिवार रूपी रथ के पहिए हैं पति और पत्नी। यदि इनके मध्य वैचारिक एवं शारीरिक संबंध अच्छे नहीं होंगे तो परिवार में कलह होना निश्चित है। पारिवारिक कलह गृहस्थ-सुख को नष्ट कर देती है। इसके पीछे पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों का अच्छा न होना अथवा परिवार के अन्य सदस्यों के मध्य वैचारिक असमानता मूल कारण होती है। भरपूर पारिवारिक सुख तभी मिल पाता है जब पति-पत्नी एक दूसरे को भली-भांति समझें, उनमें वैचारिक समानता हो, शारीरिक रूप से भी एक दूसरे को जानें और एक दूसरे को भरपूर सहयोग दें। कैसे जानें कि पति-पत्नी के मध्य संबंध कैसे होंगे? जब आप यह जान जाएंगे कि पति-पत्नी के मध्य पारस्परिक संबंध कैसे होंगे, तो यह भी निश्चित कर सकेंगे कि पारिवारिक कलह होगी या नहीं। यदि आपके पास वर-वधू अथवा पति-पत्नी की कुंडलियां हों तो आप पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पांच प्रकार से कर सकते हैं- - लग्नेश व सप्तमेश की स्थिति से - लग्नेश, जन्म राशीश व सप्तमेश की स्थिति से - नवमांश कुंडली के विश्लेषण से - अष्टक वर्ग द्वारा - मेलापक द्वारा लग्नेश व सप्तमेश की स्थिति से पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार करने के लिए कुंडली में अधोलिखित पांच ज्योतिषीय योगों का विश्लेषण करें। - लग्नेश सप्तम भाव में एवं सप्तमेश लग्न भाव में स्थित हो तो पति-पत्नी के बीच उत्तम प्रीति रहती है। - लग्नेश एवं सप्तमेश के मध्य परस्पर दृष्टि संबंध हो तो पति-पत्नी के संबंध मधुर रहते हैं। - लग्नेश एवं सप्तमेश परस्पर युत संबंध अच्छे रहेंगे। यदि लग्नेश और सप्तमेश के स्वामियों के मध्य परस्पर पंचधा मैत्री विचार करने पर अधिमित्र या मित्र संबंध हों, तो सोने में सुहागे वाली स्थिति हो जाएगी और परस्पर सहयोग बढ़ जाएगा। इसके विपरीत यदि अधोलिखित चार स्थितियां कुंडली में हों, तो परिवार में परेशानियां, कलह, बाधाएं, संकट आदि आते हैं। फलस्वरूप अपमान, अपयश, मानसिक एवं शारीरिक कष्ट के साथ-साथ आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है और संतान का भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है। - लग्नेश एवं सप्तमेश परस्पर छठे-आठवें या दूसरे-बारहवें में स्थित हों, तो गृहस्थ जीवन में परेशानियां आती हैं। - लग्नेश व सप्तमेश में से एक नीच राशि में या त्रिक भाव में स्थित हो तो गृहस्थ जीवन में अनेक कष्ट आते हैं। - यदि पति का लग्नेश अशुभ स्थिति में हो तो स्वयं की ओर से तथा यदि सप्तमेश अशुभ स्थिति में हो तो पत्नी की ओर से अनेक संकट उत्पन्न होते हैं। - गृहस्थ सुख के लिए सप्तमेश का द्वितीय भाव में स्थित होना उतना ही हानिकारक है जितना द्वितीयेश का सप्तम भाव में स्थित होना। लग्नेश, जन्म राशीश व सप्तमेश की स्थिति से पति-पत्नी के पारस्परिक संबंध का विचार लग्नेश या जन्म राशीश स्वयं जातक का एवं सप्तमेश जीवनसाथी का परिचायक है। यदि इन दोनों ग्रहों में मित्रता हो तो दाम्पत्य जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। नवमांश कुंडली द्वारा पारिवारिक कलह का विचार नवमांश कुंडली से स्त्री सुख एवं पति-पत्नी के पारस्परिक संबंधों व जीवनसाथी के गुणादि का विचार किया जाता है। नवमांश कुंडली द्वारा फल विचारते समय नवमांश लग्न एवं नवमांशेश का भी ध्यान रखना चाहिए। लग्नेश एवं नवमांश स्वामी में परस्पर मैत्री हो तो पति-पत्नी के संबंध मधुर, यदि शत्रुता हो तो कटु और सम हो तो सामान्य रहते हैं। नवमांशेश अपने नवमांश में हो या स्वराशिस्थ अथवा उच्चस्थ हो, शुभ ग्रहों से दृष्ट या युत हो तो जातक श्रेष्ठ गुणों से युक्त व उत्तम स्वभाव वाला होता है तथा सुन्दर स्त्री का सुख बिना परिश्रम के ही प्राप्त कर लेता है। नवमांश कंुडली में जो ग्रह स्ववर्ग में, वर्गोत्तमी या उच्च का होकर केन्द्र या त्रिकोण में शुभ राशि में स्थित हो, उस ग्रह से संबंधित समस्त सुख मिलते हैं और स्त्री व परिवार का पूर्ण सुख प्राप्त होता है। इसके विपरीत हो तो व्यक्ति को उस ग्रह से संबंधित ऋणात्मक फल मिलता है और पारिवारिक सुख भी नहीं मिलता । यदि नवमांश स्वामी जन्मकुंडली में स्वगृही हो या 3, 5, 7, 9 या 10 वें भाव में स्थित हो तो जातक को सुंदर, गुणी और भाग्यशाली स्त्री का सुख मिलता है। पुरुष या स्त्री की नवमांश कुंडली में सप्तम भाव में शुभ ग्रह अर्थात बली चंद्र, गुरु या शुक्र हो तो जातक और जातका भाग्यशाली, सुखी एवं स्त्री या पुरुष का सुख पाने वाले होते हैं। नवमांशेश पाप ग्रह हो, पापग्रह या क्रूर ग्रह से युत या दृष्ट हो तो जातक की स्त्री कलह करने वाली होती है और उससे निभाव मुश्किल होता है। जन्मकुंडली का लग्नेश अर्थात लग्न का स्वामी नीच या शत्रु नवमांश में स्थित हो तो स्त्री के कारण कलह, क्लेश, कष्ट आदि का सामना करना पड़ता है और विवाह आदि शुभ कार्यों में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। नवमांश कुंडली का सप्तम भाव पापग्रहों से युत या दृष्ट हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि का अभाव हो तो जातक या जातका के जीवनसाथी की अकाल मृत्यु की संभावना रहती है अथवा विवाह सुख में कमी रहती है। यदि नवमांश स्वामी पाप ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो जितने ग्रहों से दृष्ट या युत हो उतनी स्त्रियों से कष्ट मिलता है या संबंध बिगड़ते हैं। इसी प्रकार स्त्री की कुंडली में पुरुषों का विचार करना चाहिए। किसी पुरुष या स्त्री की नवमांश कुंडली में शुक्र-मंगल परस्पर राशि परिवर्तन करें तो उसके विवाहेतर प्रेम संबंध होने की प्रबल संभावना रहती है। यदि नवमांश स्वामी जन्म कुंडली में छठे भाव में स्थित हो तो स्त्री को कष्ट या स्त्री संबंधी परेशानियां मिलती हैं, आठवें भाव में स्थित हो तो पारिवारिक कलह, क्लेश एवं वियोग तक हों तो पति-पत्नी में आजीवन उत्तम सामंजस्य बना रहता है। - लग्नेश सप्तम भाव में स्थित हो तो जातक पत्नी का भक्त होता है और उसके अनुसार चलता है। - सप्तमेश लग्न में हो तो पत्नी पति की आज्ञाकारिणी होती है। यदि इन योगों में से दो या दो से अधिक योग कुंडली में हों तो समझ लें कि पति-पत्नी के मध्य का दुख भोगना पड़ता है। बारहवें भाव में स्थित हो तो धन की हानि होती है और आय से अधिक व्यय होता है। नवमांश लग्नेश राहु या केतु के साथ हो तो जातक की स्त्री पति के विरुद्ध आचरण करने वाली, कलहकारी एवं कठोर वाणी का प्रयोग करने वाली होती है। नवमांश स्वामी बारहवें भाव में हो तो जातक अपनी स्त्री से संतुष्ट नहीं रहता है। यदि नवमांश स्वामी पापग्रह हो और पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो उसकी स्त्री कटु वचन बोलने वाली एवं कलहकारी होती है। मेलापक द्वारा पारिवारिक कलह का विचार मेलापक अर्थात कुंडली मिलान करते समय दैवज्ञ सावधानी नहीं रखते हैं। कुंडलियों में परस्पर गुण मिलान करके मेलापक की इति कर देते हैं। मेलापक करते समय परस्पर कुंडलियों का भी मिलान करते हुए इन तथ्यों पर विचार करना चाहिए कि पति या पत्नी संन्यास तो नहीं ले लेगी, उनकी कुंडलियों में तलाक या अलगाव का योग तो नहीं, अल्पायु योग तो नहीं, वैधव्य योग तो नहीं? यह भी देखना चाहिए कि दोनों परस्पर एक दूसरे को सहयोग करेंगे या नहीं। इस पर भी ध्यान दें कि वाद-विवाद, झगड़े, आत्महत्या, हत्या, सन्तानहीनता, चरित्र से भ्रष्ट होना आदि से संबंधित योग तो नहीं है। विवाह पूर्व ही वर-कन्या की कुंडलियों का विश्लेषण कर लिया जाए तो पारिवारिक कलह से बचा जा सकता है। सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव व द्वितीयेश एवं लग्नेश व नवमांश लग्नेश परस्पर सुसंबंध न बनाएं, पापग्रहों से दृष्ट या युत हों एवं निर्बल हों तो पारिवारिक सुख नहीं मिलता, अपितु कलह ही रहती है। पारिवारिक कलह से मुक्त होने की सरल रीति उचित ढंग से मेलापक करना है।

योग्य संतान हेतु करें सूर्य की शांति.....



वास्तव में योग्य संतान, ऐसी विभूति है जिसपर ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिए। योग्य संतान, अच्छे प्रशिक्षण के बिना संभव नहीं है। बच्चे वास्तव में ईश्वर की अनुकंपा हैं। वे वास्तव में एक ऐसे सांचे की भांति है जिसे आप जिस रूप में चाहें परिवर्तित कर सकते हैं। बच्चे अच्छे संस्कावार बनें, बुराइयों से दूर रहें तथा कर्मक्षेत्र में सफल होते हैं इसके लिए मां-बाप या प्रशिक्षण करने वालों का दायित्व बनता है कि वे उनका उचित प्रशिक्षण करके उन्हें बुराई से दूर रखें। पति-पत्नी के रिश्ते में समर्पण, प्रेम और कर्तव्य का भाव ना हो तो गृहस्थी सफल नहीं हो सकती। प्रेम और सद्कर्मों से ही संतानों के संस्कार और भविष्य दोनों जुड़े हैं। गांधारी अगर यह सोचकर आंखों पर पट्टी नहीं बांधती कि संतानों का क्या होगा, उनके लालन-पालन की व्यवस्था कौन देखेगा तो शायद महाभारत का युद्ध होने से रुक जाता। अतः संस्कारवान तथा आज्ञाकारी संतान के लिए व्यक्ति को अपनी कुंडली का विश्लेषण कराकर देखना चाहिए कि किसी जातक का पंचम भाव व पंचमेश किस स्थिति में है। यदि पंचम स्थान का स्वामी सौम्य ग्रह है और उस पर किसी भी कू्रर ग्रह की दृष्टि नहीं है तो संतान से संबंधित सुख प्राप्त होता है वहीं क्रूर ग्रह हो अथवा पंचमेश छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो संतान से संबंधित कष्ट बना रहता है। यदि कोई जातक लगातार संतान से संबंधित चिंतित है तो पंचम तथा पंचमेश की शांति करानी चाहिए उसके साथ पंचम भाव का कारक सूर्य से संबंधित मंत्रजाप, दान करने से भी संतान से संबंधित सुख प्राप्त होता है।

भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना का पर्व.......

भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है। यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है।
हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, भाई दूज का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास शुक्लपक्ष की द्वितीया को मनाया जाता है। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। भविष्योत्तर पुराण में भाईदूज की जो कथा मिलती है उसके अनुसार यमराज अपने कामकाज में इतने व्यस्त हो गए कि उन्हें अपनी बहन यमुना की याद भी नहीं रही। एक दिन यमुना ने यमराज को संदेशा भिजवाया। बहन का संदेशा मिलते ही यमराज बहन से मिलने निकल पड़े। यह दिन है कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि। इस तिथि को यमद्वितीया और भाईदूज के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व मुख्यतः भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है।

संपूर्ण रोगनाशक मंत्र

शरीरं व्याधि मंदिरम् इस प्राचीन शास्त्र वाक्य के अनुसार हमारा शरीर रोगों का घर है। संपूर्ण जीवन काल में मनुष्य किसी न किसी व्याधि से ग्रसित रहता है। चाहे शारीरिक रोग हों या मानसिक, हमारे शरीर पर अपना प्रभाव डालते हैं। विज्ञान ने निस्संदेह बड़ी उन्नति की है और उसकी उपलब्धियां और आविष्कार मानव सभ्यता के विकास में बहुत सहायक सिद्ध हुए हैं। किंतु दूसरी तरफ इन उपलब्धियों का मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ा है और परिणामतः आज प्रायः हर व्यक्ति किसी मानसिक या शारीरिक रोग से ग्रस्त है। आज नई-नई और असाध्य बीमारियां जन्म ले रही हैं जो मानव जीवन के लिए चुनौती बन गई हैं। ऐसे में जहां आधुनिक चिकित्सा प्रणाली अक्षम होती है, वहंा हमारे प्राचीन ऋषियों के द्वारा विकसित यंत्र, मंत्र और ज्योतिष चिकित्सा प्रणालियां काम करती हैं। हमारे वेद शास्त्रों में सभी रोगों से मुक्ति के लिए महामृत्युंजय यंत्र और मंत्र की साधना का विशेष महत्व है। इस यंत्र के नित्य दर्शन-पूजन से कोई भी व्यक्ति जीवन में आरोग्य प्राप्त कर सकता है। संपूर्ण रोगनाशक महामृत्युंजय यंत्र के नित्य पूजन-दर्शन से व्यक्ति मन और शरीर से स्वस्थ रहता है। यंत्र के मध्य स्थापित महामृत्युंजय यंत्र के चारों ओर अन्य यंत्र स्थापित कर इसकी शक्ति में वृद्धि की गई है। इसकी साधना से रोग से मुक्ति मिलती है और स्वास्थ्य उत्तम रहता है। इसमें स्थापित अन्य यंत्रों की अपनी-अपनी महिमा है। दुर्गा यंत्र मां दुर्गा का प्रतीक है। इसके दर्शन-पूजन से पारिवारिक सुख तथा शांति प्राप्त होती है। गीता यंत्र के दर्शन मात्र से भगवान कृष्ण मनुष्य की काम, क्रोध और लोभ से रक्षा करते ह और उसमें सतोगुण का संचार होता है। महाकाली यंत्र साधक की अकाल मृत्यु से रक्षा करता है। मत्स्य यंत्र के नित्य दर्शन से शत्रुओं के षडयंत्र से रक्षा होती है। कालसर्प यंत्र से जीवन में राहु, केतु जनित शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है। हनुमान यंत्र की साधना से शारीरिक शक्ति प्रबल होती है, जिससे व्यक्ति को रोग होने की संभावना नहीं रहती है। वाहनदुर्घटनानाशक यंत्र व्यक्ति की दुर्घटना से रक्षा करता है। शनि यंत्र की साधना से असाध्य बीमारियों से रक्षा होती है। सूर्य यंत्र के दर्शन मात्र से व्यक्ति नीरोग और उसका जीवन सुखमय रहता है। नवग्रह यंत्र के दर्शन-पूजन से जीवन में ग्रह दोष से होने वाली व्याधियों से मुक्ति मिलती है। गायत्री यंत्र की साधना से मन हमेशा शांत रहता है और मानसिक शक्ति दृढ़ बनी रहती है। गणपति यंत्र के पूजन से व्यक्ति का स्वास्थ्य उत्तम रहता है और किसी रोग की संभावना नहीं रहती है। पूजन विधि: सोमवार अथवा गुरुवार को प्रातःकाल के समय स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें। यंत्र को गंगाजल से धोकर और लकड़ी की चैकी पर लाल या सफेद स्वच्छ कपड़ा बिछाकर उस पर यंत्र स्थापित करके उसका चंदन, अक्षत, धूप, दीप से पूजन करें। तत्पश्चात यंत्र को घर के पूजा स्थान में अथवा पूर्व-उत्तर दिशा में स्थापित करें। शीघ्र फलप्राप्ति के लिए अपनी सुविधा के अनुसार निम्न मंत्रों में से किसी एक का नित्य एक माला जप करें। मंत्र: ॐ नमः शिवाय ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्, उर्वारुकमिवबंधनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।

क्या आपका रियल स्टेट में कैरियर हो सकता है- जाने ज्योतिषीय गणना से

रियल-एस्टेट जहाँ व्यक्ति को शानदार करियर प्रदान करता है वहीं उस स्थान की सूरत बदल देता है। हालांकि यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा हुआ है पर साथ ही उच्च पारितोषिक भी देता है। इस क्षेत्र में ढेर सारा धन कमाने के साथ-साथ कुछ करने का संतोष भी प्राप्त होता है.
रियल-एस्टेट क्षेत्र में करियर बनाने के लिए उन सभी गुणों और कौशल की आवश्यकता होती है जो की एक बिजनेस स्थापित करने के लिए जरूरी होते हैं। इसके लिए आपको लगातार लोगों से अपनी जान-पहचान तो चाहिए ही होता है साथ ही रीयल एस्टेट को ज्योतिष विवेचना द्वारा जाना जा सकता है कि आपको रीयल एस्टेट में कितना लाभ है। यदि चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण में हो, मंगल त्रिकोण में हो, चतुर्थेश स्वगृही, वर्गोत्तम, स्व नवांश या उच्च का हो तो भूमि व रीयल एस्टेट के काम में लाभ होता है। यदि व्यक्ति का चतुर्थेश बलवान हो और लग्न से उसका संबंध हो तो भवन सुख की प्राप्ति होती है। यदि चतुर्थ भाव पर दो शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति भवन का स्वामी बनता है व रीयल एस्टेट में मुनाफा कमाता है। अत यदि रियल-एस्टेट में कार्य कर रहें हैं और लगातार सफलता आपसे दूर है तो उपर्युक्त ग्रहों को अनुकूल कराया जाकर उन्नति प्राप्त की जा सकती है।

ग्रहों की अशुभ प्रभाव देते हैं ह्रदय विकार.......

हृदय प्राणियों का वह महत्वपूर्ण अंग है जिसके माध्यम से जीवनी शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। शिराएं अनुपयुक्त रक्त लेकर हृदय में आती हैं और हृदय उस रक्त को शुद्ध कर उसे संवेग के साथ धमनियों के द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में भेजता है और इस प्रकार शरीर के अंग प्रत्यंग को जीवन ऊर्जा प्राप्त होती है। जब हृदय की धड़कन रुक जाती है तो जीवनी शक्ति (प्राण) शरीर में नहीं रहती और प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है। सौर मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारांे ओर परिक्रमा करते हैं और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। चूंकि सूर्य ऊर्जा (प्राण) का स्रोत है इसलिए वह हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र मन एवं मन से उत्पन्न विचार, भाव, संवेदना, लगाव का परिचायक है तो शुक्र प्रेम, आसक्ति व भोग का। काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली में चतुर्थ भाव कर्क राशि का है जिसका स्वामी चंद्र है। पंचम भाव सिंह राशि का है जिसका स्वामी सूर्य है। चंद्र मन का कारक होने के कारण मन में उत्पन्न विचार एवं भावनाओं का सृजनकर्ता है जिनका संचयन किसी के प्रति प्रेम, चाहत, आसक्ति, लगाव या फिर घृणा उत्पन्न करता है और इसीलिए चतुर्थ भाव से द्वितीय (धन) अर्थात पंचम भाव प्रेम, स्नेह, अनुराग का है। इसी बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि षष्ठम भाव शत्रुता और मनमुटाव का है और इसका व्यय स्थान (इससे द्वादश भाव) अर्थात पंचम भाव शत्रुता के व्यय (नाश) का अर्थात मेल मिलाप, प्रेम व लगाव का भाव है। जब प्रेम आसक्ति में निराशा मिलती है या वांछित परिणाम परिलक्षित नहीं होते, तो मानसिक आघात लगता है जो हृदय संचालन को असंतुलित करता है। इससे हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति रोगग्रस्त होता है। इसलिए पंचम से द्वादश अर्थात चतुर्थ भाव हृदय संबंधी विकारों का भाव हुआ। सूर्य और चंद्र का सम्मिलित प्रभाव हृदय की धड़कन गति एवं रक्त संचार को नियंत्रित करता है। सूर्य, चंद्र और उनकी राशियां क्रमशः सिंह व कर्क, चतुर्थ भाव व चतुर्थेश तथा पंचम भाव व पंचमेश पर क्रूर पापी ग्रहों (मंगल, शनि, राहु, केतु) का प्रभाव आदि हृदय को पीड़ा देते हैं। षष्ठेश व अष्टमेश तथा द्वादशेश का इन पर अशुभ प्रभाव भी रोगकारक व आयुनाशक ही होता है। राहु-केतु का स्वभाव आहृदय प्राणियों का वह महत्वपूर्ण अंग है जिसके माध्यम से जीवनी शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। शिराएं अनुपयुक्त रक्त लेकर हृदय में आती हैं और हृदय उस रक्त को शुद्ध कर उसे संवेग के साथ धमनियों के द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में भेजता है और इस प्रकार शरीर के अंग प्रत्यंग को जीवन ऊर्जा प्राप्त होती है। जब हृदय की धड़कन रुक जाती है तो जीवनी शक्ति (प्राण) शरीर में नहीं रहती और प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है। सौर मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारांे ओर परिक्रमा करते हैं और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। चूंकि सूर्य ऊर्जा (प्राण) का स्रोत है इसलिए वह हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र मन एवं मन से उत्पन्न विचार, भाव, संवेदना, लगाव का परिचायक है तो शुक्र प्रेम, आसक्ति व भोग का। काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली में चतुर्थ भाव कर्क राशि का है जिसका स्वामी चंद्र है। पंचम भाव सिंह राशि का है जिसका स्वामी सूर्य है। चंद्र मन का कारक होने के कारण मन में उत्पन्न विचार एवं भावनाओं का सृजनकर्ता है जिनका संचयन किसी के प्रति प्रेम, चाहत, आसक्ति, लगाव या फिर घृणा उत्पन्न करता है और इसीलिए चतुर्थ भाव से द्वितीय (धन) अर्थात पंचम भाव प्रेम, स्नेह, अनुराग का है। इसी बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि षष्ठम भाव शत्रुता और मनमुटाव का है और इसका व्यय स्थान (इससे द्वादश भाव) अर्थात पंचम भाव शत्रुता के व्यय (नाश) का अर्थात मेल मिलाप, प्रेम व लगाव का भाव है। जब प्रेम आसक्ति में निराशा मिलती है या वांछित परिणाम परिलक्षित नहीं होते, तो मानसिक आघात लगता है जो हृदय संचालन को असंतुलित करता है। इससे हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति रोगग्रस्त होता है। इसलिए पंचम से द्वादश अर्थात चतुर्थ भाव हृदय संबंधी विकारों का भाव हुआ। सूर्य और चंद्र का सम्मिलित प्रभाव हृदय की धड़कन गति एवं रक्त संचार को नियंत्रित करता है। सूर्य, चंद्र और उनकी राशियां क्रमशः सिंह व कर्क, चतुर्थ भाव व चतुर्थेश तथा पंचम भाव व पंचमेश पर क्रूर पापी ग्रहों (मंगल, शनि, राहु, केतु) का प्रभाव आदि हृदय को पीड़ा देते हैं। षष्ठेश व अष्टमेश तथा द्वादशेश का इन पर अशुभ प्रभाव भी रोगकारक व आयुनाशक ही होता है। राहु-केतु का स्वभाव आकस्मिक एवं अप्रत्याशित रूप से परिणाम देने का है इसलिए राहु-केतु की युति या प्रभाव का अचानक एवं अप्रत्याशित हृदयाघात, दिल का दौरा आदि की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। सामान्यतः सूर्य व चंद्र पर अशुभ प्रभाव के साथ-साथ चतुर्थ भाव पर अशुभ प्रभाव हृदय से संबंधित विकार एवं रोगों की स्थिति उत्पन्न करता है जबकि पंचम भाव पर अशुभ प्रभाव प्रेम, आसक्ति, चाहत से संबंधित स्थिति बताता है। इसलिए हृदय विकार, प्रेम, भावनाओं एवं उनके परिणामों के संबंध में फलादेश करने के पूर्व वर्णित भावों, राशियों एवं ग्रहों की स्थिति और उन पर शुभ-अशुभ प्रभावों का सही आकलन एवं विश्लेषण कर लेना चाहिए। निम्नलिखित ग्रह स्थितियां हृदय विकार एवं मानसिक संताप उत्पन्न कर सकती हैं: चतुर्थ भाव में मंगल, शनि तथा गुरु का क्रूर ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में गुरु, सूर्य तथा शनि की युति का अशुभ प्रभाव में होना। चतुर्थ भाव में षष्ठेश का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना और लग्नेश का पाप दृष्ट होकर बलहीन होना या शत्रु राशि या नीच राशि में होना। मंगल का चतुर्थ भाव में होना और शनि का पापी ग्रहों से दृष्ट होना। शनि का चतुर्थ भाव में होना और षष्ठेश सूर्य का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना तथा चतुर्थेश का पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना या पापी ग्रहों के मध्य (पाप कर्तरी योग में) होना। चतुर्थेश का द्वादश भाव में द्वादशेश (व्ययेश) के साथ होना। पंचम भाव, पंचमेश, सिंह राशि तीनों का पापी ग्रहों से युक्त, दृष्ट या घिरा होना। पंचमेश तथा द्वादशेश का एक साथ छठे, आठवें, 11वें या 12 वें भाव में होना। पंचमेश तथा षष्ठेश दोनों का षष्ठम भाव में होना तथा पंचम या सप्तम भाव में पापी ग्रह का होना।अष्टमेश का चतुर्थ या पंचम भाव में स्थित होकर पाप प्रभाव में होना। चंद्र और मंगल का अस्त होकर पाप युक्त होना। सूर्य, चंद्र व मंगल का शत्रुक्षेत्री एवं पाप प्रभाव में होना। शनि व गुरु का अस्त, नीच या शत्रुक्षेत्री होना तथा सूर्य व चंद्र पर पाप प्रभाव होना।की सप्तम व केतु की नवम दृष्टि है। पंचम भाव पर षष्ठेश व एकादशेश मंगल तथा अष्टमेश शनि की दृष्टि है। लग्नेश और चतुर्थेश बुध द्वादश भाव में अस्त है। पंचम भाव एवं पंचमेश पर प्रबल पाप प्रभाव ने जातका को उसकी एक मात्र संतान से वंचित किया। इस संतान से उसका बहुत गहरा लगाव था। जातका इस वियोग को सहन नहीं कर सकी और मन कारक चंद्र पर अशुभ प्रभाव के कारण उसे गहरे मानसिक आघात एवं संताप से गुजरना पड़ा जिससे वह कुछ दिन तक कोमा जैसी स्थिति में भी रही। शुभ ग्रह स्वराशिस्थ गुरु की चतुर्थ भाव पर दृष्टि ने उसे जीवन दान दिया किंतु केतु की दृष्टि व चतुर्थेश बुध पर अशुभ प्रभाव ने उसे हृदय विकार भी दिया यद्यपि वह घातक नहीं रहा। कुंडली 4 एक ऐसे युवक की है जिसका विजातीय लड़की से प्रेम संबंध स्थापित तो हुआ किंतु परिवारजनों द्वारा उसे स्वीकार नहीं करने के फलस्वरूप उसने सल्फास खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त की। यहां सप्तमेश मंगल पंचम स्थान में शुक्र, चंद्र, बुध व केतु के साथ है जिन पर शनि की सप्तम दृष्टि है। शुक्र (प्रेम कारक) एवं सप्तमेश मंगल पर विजातीय ग्रहों के प्रभाव ने प्रेम संबंध तो स्थापित कराया, किंतु शुक्र के अष्टमेश बुध के द्वादशेश होकर पंचम में चंद्र के साथ होने व उन पर विच्छेदक ग्रहों का प्रभाव होने से प्रेम की परिणति विवाह के रूप में नहीं हो पाई। मन के कारक चंद्र पर मंगल, शनि, राहु व केतु के अशुभ प्रभाव ने उसे आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। मंगल ने उसे सल्फास विष खाने को विवश किया। इस दिशा में हृदय कारक सूर्य का षष्ठम भाव में चले जाना, अष्टम भाव पर मारकेश की दृष्टि, मारकेश मंगल का शुक्र के साथ संयोग आदि ने भी प्रतिकूल परिस्थितियों का सृजन किया और राहु-केतु ने इस कार्य को अप्रत्याशित रूप से तुरंत क्रियान्वित किया।

ज्योतिष के मिथक ‘‘नाड़ी दोष’ की पुनः व्याख्या क्यों नहीं ???

ज्योतिषषास्त्र के बहुत से मिथक हैं, जिनमें से एक प्रमुख है जिसपर खुली बहस होनी चाहिए वह है ‘‘नाड़ी दोष’’। खासकर जब ज्योतिष को विज्ञान मानते हों तो फिर तर्क की कसौटी पर मान्यताओ को कसना चाहिए। जहाँ पर 18 गुन विवाह का न्यूनतम पैमाना हो वहाॅ 28 और 32 गुणों में तलाक होना एक विडम्बना ही है..... नाड़ी की व्याख्या करने वाले बड़े गर्व से इसे संतान की वजह और कभी वैचारिक ऐक्यता की वजह बना कर बहुत से अच्छे सम्बन्धों को मना कर देते है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि सिर्फ ब्राम्हणो में ही नाड़ी दोष क्यों ? बाकि जातियो पर ये असर कारक क्यों नहीं होता? क्या विवाह के मेलापक में जातिगत आधार इसे विज्ञान की जगह मान्यता की श्रेणी में नहीं खड़े नहीं कर रहे है ? इस पर भी समाधान कराने से ये दोष दूर भी हो सकते है ! बहुत सारे प्रश्न लोग मुझसे करते है मैं वही प्रश्न ज्यो का त्यों समाज के सामने रख रहा हूॅ। विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्म नामानुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है। गुण मिलान नही होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्व नही होगी और नंबर के आधार पर नकार दिया जाता है। गुण मिलाने हेतु मुख्य रुप से अष्टकूटों का मिलान किया जाता है। ये अष्टकुट है वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण, राशि, नाड़ी। विवाह के लिए भावी वर-वधू की जन्मकुंडली मिलान करते नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हे गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाडी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष एवं नाडी दोष - इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6़7़8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1़2़3़4़5=15) 15 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अकेले नाडी के 8 गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक हैं। इसलिए मेलापक में नाड़ी दोष एक महादोष माना गया है। समाज में होते लगातार तलाक इस वर्षो से स्थापित धारणा, पर पुनः विचार करने को मजबूर कर रहे है। आप कहेंगे की समाज में बदलते परिवेश मान्यताए और कानून इसके लिए दोषी है, पर इससे बात नहीं बनती। बल्कि हमें भी अपने ज्योतिषीय नियमो में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करती हैं। जैसे ज्यादातर सामाजिक कानूनो की इन दिनों समीक्षा हो रही है हमे भी एक बार फिर से चिंतन करना होगा, नियमो की पुनः व्याख्या करनी होगी, और गुण मेलापक को अर्थात् ज्योतिष को विज्ञान साबित करने के लिए यह करना आवष्यक भी है।

पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज......

पॅचभूतो का संतुलन ही है स्वास्थ्य का राज -
वात, पित्त, कफ का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। प्रकृति के पाँच तत्वों से मिल कर ही बने हैं, कफ, पित्त और वात। कफ में धरती और जल है, पित्त में अग्नि और जल है, वात में वायु है, इन तत्वों की अनुपस्थिति आकाश है। प्रकृति में जिस प्रकार ये संतुलन में रहते हैं, हमारे शरीर में भी इन्हें संतुलित होना चाहिए। वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ उपचय का, वात अपचय का और पित्त चयापचयी का संचालन करता है। आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त, यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है और यहीं शारीरिक व्याधियाॅ आती हैं। जिंदगी मे वात्त, पित्त और कफ संतुलित रखना ही सबसे अच्छी कला और कौशल्य है।
विशेष रूप से कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में तथा वात नाभि के नीचे वाले भाग में रहता है। सुबह कफ, दोपहर को पित्त और शाम को वात (वायु) का असर होता है। बाल्य अवस्था में कफ का असर, युवा अवस्था में पित्त का असर व आयु के अन्त में अर्थात वृद्धावस्था में वायु (वात) का प्रकोप होता है। आधि, व्याधि एवं उपाधि। आधि से अर्थ है - मानसिक कष्ट, व्याधि से अर्थ है शारीरिक कष्ट एवं उपाधि से मतलब है - प्रकृति जन्य व समाज द्वारा पैदा किया गया दुःख। ‘मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्षयोः‘ मन ही बन्धन तथा मुक्ति का साधन है।
पश्यमौषध सेवा च क्रियते येन रोगिणा। आरोग्यसिद्धिदप्टास्य नान्यानुष्ठित कर्नणा॥
पथ्य और औषधि को सेवन करने वाला रोगी ही आरोग्य प्राप्त करते देखा गया है न कि किसी और के द्वारा किये हुए (औषधादि सेवन) कर्मों से वह निरोग होता है। इसी प्रकार आत्म कल्याण के लिए स्वयं ही प्रयास करना होता है। ठीक इसी प्रकार ज्योतिष में अग्नि कारक नक्षत्र से पित्त, जल कारक नक्षत्र से कफ एवं वायु कारक नक्षत्र से वात रोग होते हैं। इसी प्रकार किसी का तृतीय, पंचम या दसम भाव या भावेश विपरीत कारक हो तो उसे पित्त, लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान का स्वामी या इन स्थानों का प्रतिकूल होना कफ एवं चतुर्थ, अष्टम या दसम का विपरीत होना अथवा इन स्थानों पर शनि जैसे ग्रहों का होना वात प्रकृति का कारण बनता है। इसी प्रकार यदि लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान में राहु, शनि होतो वात या लग्न में राहु मंगल हो जाए तो वातपित्तज का कारण बनता है।
उपाय कहा भी गया है कि
वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।
शयनं पित्तनाशाय ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।
अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त नाश के शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। इसी प्रकार यदि कुंडली में ग्रहों का अनुकूल प्रभाव प्राप्त करना हो तो सबसे पहले मन को ठीक करना चाहिए। जिसके लिए मंत्रों का जाप तथा ग्रह शांति, इसके अलावा चिकित्सकीय अनुदान प्राप्त करने से जीवन में संतुलन प्राप्त कर स्वस्थ्य रहा जा सकता है।

वाणी का करें सदुपयोग जाने ज्योतिषीय कारण.....

अनुपम वरदान है आपकी वाणी, इस शक्ति का करें सदुपयोग जाने ज्योतिषीय कारण -
प्राणीजगत में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो अपने अंतस के विचारो एवं भावों को शब्दों के माध्यम से प्रकट कर सकता है। मानव के अतिरिक्त अन्य प्राणियों में यह क्षमता नहीं होती। मानव की उन्नति में शब्दों का बहुत महत्व है परंतु जो शक्ति जितना उपयोगी एवं कल्याणकारी होती है, दुरूपयोग करने पर वह उतना ही दुखप्रद एवं हानिकारक हो जाती है। शब्दों का गलत प्रयोग करने, समय-कुसमय का ध्यान ना रखने एवं परिस्थिति के अनुरूप कम या ज्यादा बोलने का हुनर ना हो तो व्यवहार खराब हो सकता है, मानसिक शांति भंग हो सकती है या दुख मिल सकता है। इस संबंध में कबीर की सीख है -‘बोल तो अमोल है, जो कोई बोले जान। हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आन।। अतः शब्द से अपने व्यवहार, रिष्तों एवं संस्कार को प्रदर्षित करने के लिए अपने ग्रहों को परखकर अपने व्यक्तित्व को निखारा जा सकता है, इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली का दूसरा स्थान उसकी वाणी का स्थान होता है, जिसका कालपुरूष की कुंडली में ग्रहस्वामी शुक्र है, जो मीठे बोल के लिए लिया गया है। किंतु प्रत्येक जातक की कुंडली में उसके दूसरे स्थान का स्वामी अलग हो सकता है अतः यदि आपकी कुंडली में दूसरा स्थान दूषित हो अथवा पाप ग्रहों से आक्रांत हो तो आपके बोल दुष्मन पैदा कर सकते हैं वहीं यदि अनुकूल हो तो बोल ही प्रसिद्ध बनाते हैं। अतः दूसरे स्थान के ग्रह को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए। इसके लिए शुक्र की शांति हेतु सुहाग की सामग्री का दान, दुर्गा कवच का पाठ तथा कुंवारी कन्याओं को भोज कराना चाहिए।

कुंडली अनुसार अपना दृष्टिकोण बदले और रहे सुखी.......

अधिक संपन्न एबं समृद्ध लोगों की सुख-सुविधाओं पर दृष्टि केन्दित करने एबं उनसे अपनी तुलना करने वाले लोग कभी सुखी-संतुष्ट नहीं हो सकते, उन्हें सदैव अभाव का अनुभव खटकता रहेगा। दूसरों की संपन्नता, पद-प्रतिष्ठा एवं भौतिक उपलब्धियों से अपनी स्थिति की बराबर तुलना करते रहने से अपने में हीन भावना आती है और अपनी समझ, शक्ति एवं योग्यता पर अविश्वास होने लगता है। हमें अपने को दूसरों से अधिक समझदार एवं योग्य तो नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि इससे अहंकार बढने लगता है, परंतु हम उस दिशा में आगे बढने के लिए प्रयास करते है। परंतु हमें यह भी समझना चाहिए कि किसी दिशा में हम चाहे कितना हो संपन्न क्यों न हो जाये, हमें अपने से अधिक संपन्न और समृद्ध लोग दिखाई पडेगे हम दुखी रहेंगे और हमें अभाव का अनुभव होता रहेगा। इसलिए हमेँ अपनी दृष्टि बदलनी होगी और अपनी समझ, प्राप्ति और योग्यतानुसार श्रम करते हुए संतोष करना होगा । यदि हमेँ अपनी समझ, शक्ति और योग्यता का संपूर्ण उपयोग करने हेतु अपनी कुंडली के अनुसार समझ बढ़ाने के लिए अपने तीसरे एवं पंचम स्थान के ग्रहों को अनुकूल करने का प्रयास करना चाहिए। इसी प्रकार अपनी शक्ति और योग्यता के लिए लग्न, तीसरे, पंचम, दसम एवं एकादष स्थान के ग्रहों को अनुकूल करने हेतु मंत्रजाप, दान तथा रत्नधारण करना चाहिए। जीवन में अपने प्रारब्ध के अनुरूप प्राप्ति हेतु अपने पित्रों का आर्षीवाद तथा अनुकूलता प्राप्ति हेतु पितृषांति कराना चाहिए। सूक्ष्म जीवों की सेवा करनी चाहिए इसके साथ अपने अनुकूल ग्रहों का रत्न धारण करने से जीवन में साकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर सुख प्राप्त कर सकते हैं।

Sunday 3 July 2016

आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्णय का विकास कैसे......जाने ज्योतिष्य तथ्यों से

यह सच है कि मनुष्य को एक दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है किंतु मनुष्य का सबसे बड़ा संबल उसका आत्मविष्वास ही होता है। निष्चित ही बच्चे को माता-पिता गुरू का संरक्षण एवं सहयोग आवष्यक है किंतु चलने के अभ्यास हेतु। चलना तथा गिरना तो बच्चे के विकास का अभिन्न अंग है। केवल माता-पिता, गुरू के सहयोग से आत्मविष्वास जागृत करें तथा स्वयं अपना दीपक बने और अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी तथा आत्मविष्वास पैदा कर अपना, अपनो तथा समाज के हित में कार्य करें अर्थात् अप्प दीपो भव अथवा अपना दीपक स्वयं बनें। क्यो किसी जातक के इसकी क्षमता है अथवा कम क्षमता को विकसित कैसें करें कि आत्मविष्वास तथा आत्मनिर्णय का विस्तार हो सके इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली में लग्न, दूसरे, तीसरे तथा एकादष स्थान के ग्रहों तथा इन स्थानों पर मौजूद ग्रहों का आकलन करने से ज्ञात होता है अगर किसी जातक की कुंडली में लग्न या तीसरा स्थान स्वयं विपरीत हो जाए अथवा इस स्थान पर क्रूर ग्रह हो तो ऐसे जातक के जीवन में आत्मविष्वास तथा आत्मसंयम की कमी के कारण जीवन में सफलता दूर रहती है इसी प्रकार एकादष स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से पापक्रांत हो अथवा छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो ऐसे लोग अनियमित दिनचर्या के कारण अपनी योग्यता का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते अर्थात् स्वयं अपने जीवन में प्रकाष का समय तथा आवष्यकतानुसार उपयोग नहीं कर पाते जिसके कारण परेषान रहते हैं। इन सभी स्थितियों से बचने के लिए जीवन में आत्मसंयम तथा अनुषासन के साथ ग्रह शांति करनी चाहिए। बाल्य अवस्था में मंगल के मंत्रजाप तथा बड़ो का आदर तथा युवा अवस्था में शनि के मंत्रों का जाप, दान तथा अनुषाासन रखना चाहिए

जाने अहंकार का ज्योतिष्य कारण और उपाय............

आदर प्राप्ति हेतु करें अहं का त्याग-जाने अहंकार का ज्योतिषीय कारण -
प्रातः हर मनुष्य में अपने को बड़ा मानने की प्रवृत्ति सहज ही होती है और यह प्रवृत्ति बुरी भी नहीं है। किंतु अकसर अहं स्वयं को सही और दूसरो को गलत साबित करता है। आत्मसम्मान और स्वाभिमान के बीच बारीक रेखा होती है जिसमें अहंकार का कब समावेष होता है पता भी नहीं चलता। कोई कितना भी योग्य हो यदि वह अपनी योग्यता का स्वयं मूल्यांकन करता है तो आदर का पात्र नहीं बन पाता अतः बड़ा बनकर आदर का पात्र बनने हेतु अहंकार का त्याग जरूरी है। अहंकार का अतिरेक किसी जातक की कुंडली से देखा जा सकता है। यदि किसी जातक के लग्न, तीसरे, एकादष स्थान का स्वामी होकर सूर्य, शनि जैसे ग्रह छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाएं तो ऐसे जातक अहंकार के कारण रिष्तों में दूरी बना लेते हैं वहीं अगर इन स्थानों का स्वामी होकर गुरू जैसे ग्रह हों तो बड़प्पन कायम होता है। अतः यदि लोगों का आपके प्रति सच्चा आदर ना दिखाई दे और आदर का पात्र होते हुए भी आदर प्राप्त न कर पा रहें हो तो कुंडली का आकलन कराकर पता लगा लें कि कहीं जीवन में अहंकार का भाव प्रगाढ़ तो नहीं हो रहा। अथवा सूर्य की उपासना, अध्र्य देकर तथा सूक्ष्म जीवों के साथ असमर्थ की मदद कर अपने जीवन से अहंकार को कम कर जीवन में आदर तथा सम्मान प्राप्त किया जा सकता है।

क्या शनि पर जिव है???ज्योतिष्य तथ्य...

सौर मंडल में गुरु के बाद शनि ग्रह स्थित है जो भूमि से एक तारे के समान दिखाई देता है, परंतु उसका रंग काला सा है। इसके पूर्व-पश्चिम व्यास की अपेक्षा दक्षिणोŸार व्यास लगभग 7.5 हजार मील कम है। अतः यह पूर्णतः गोल न होकर चपटा है। इसके समान चपटा अन्य कोई ग्रह नहीं है। इसके पिंड का व्यास 75 हजार मील से भी ज्यादा है जो पृथ्वी के व्यास से 9 गुना अधिक है। इसका पृष्ठ भाग पृथ्वी की अपेक्षा 81 गुना और आकार 700 गुना अधिक है, परंतु इसके आकार के हिसाब से वहां द्रव्य नहीं है। शनि का प्राकृतिक वातावरण: शनि का घनत्व अन्य सभी ग्रहों से कम है, वह पृथ्वी के घनत्व का सातवां हिस्सा है। शनि पर द्रव्य पदार्थ पृथ्वी के पानी से भी पतला है। वहां उष्णता अधिक है इस कारण वहां भाप उठती है। उसका वातावरण वायु रूप अवस्था में होने के कारण प्रवाही है। शनि का वातावरण प्राणियों के अनुकूल नहीं है, इसलिए वहां जीवन नहीं है। शनि के पृष्ठभाग पर नाना प्रकार के रंग चमकते हैं, ध्रुव की ओर नीला, अन्य भाग मंे पीला और मध्य भाग में सफेद रेत का पट्टा तथा बीच-बीच में बिन्दु दिखाई देते हैं। शनि ग्रह पृथ्वी से बिल्कुल भिन्न है। धूल के कणों और गैस से बने अभ्र इसके वातावरण में व्याप्त है। इस अपारदर्शी अभ्र के कारण ही उसका अपना थोड़ा सा प्रकाश है, वह बाहर नहीं आ पाता है, इसलिए वह निस्तेज दिखाई देता है। सूर्य पुत्र शनि: शनि अपने पिता सूर्य से 88 करोड़ मील की दूरी पर स्थित है। इस अत्यधिक दूरी के कारण ही सूर्य का बहुत कम प्रकाश शनि तक पहंुच पाता है। इसलिए वहां अंधेरा रहता है। पृथ्वी के चंद्र को जितना सूर्य का प्रकाश मिलता है, शनि को उसका 90 वां हिस्सा ही मिल पाता है। शनि के 7 चंद्र प्रकाशवान होने के बावजूद पृथ्वी के चंद्रमा से जो प्रकाश हमें मिलता है, उसकी तुलना में 16 वां भाग ही शनि को उसके चंद्रों से मिल पाता है। इन कारणों से वहां ज्यादातर अंधेरा ही छाया रहता है। शनि की उष्णता उसके घटक द्रव्यों को ऊर्जा देने के लिए काफी है, ऐसी स्थिति में वह निस्तेज होकर भी तेजस्वी है। शनि कैलेंडर: पृथ्वी के एक सौर मास के बराबर शनि का 1 दिन होता है, पृथ्वी के ढाई (2.6) वर्ष के बराबर शनि का 1 सौर मास होता है, इतने समय तक शनि एक राशि में भ्रमण करता है। इस दौरान वह कई बार वक्री और मार्गी हो जाता है, इस कारण उसका प्रभाव पिछली और अगली राशियों में भी बराबर बना रहता है। पृथ्वी के साढे़ 29 वर्षों के बराबर शनि का 1 सौर वर्ष होता है। इतन वर्षों में शनि सूर्य की सिर्फ एक परिक्रमा पूरी कर पाता है। इसकी मंद गति के कारण ही शास्त्रों में इसे ‘मंदसौरी’ कहा गया है। और शायद इसी कारण इसे शनैश्चरः भी कहते हैं। शनि के वलय: शनि के पृष्ठभाग के चारों ओर 16000 कि.मी. का स्थान खाली है। शनि के भव्य पिंड के चारों ओर कुछ छल्ले हैं, जिन्हें वलय कहा जाता है। इन्हें शनि का रक्षा कवच कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इन वलयों के कारण ही शनि की आकृति शिवलिंग की भांति दिखाई देती है। ये वलय शनि के विषुववृŸा के चारों ओर फैले हुए हैं। शनि की कक्षा अपने विषुववृŸा से 27 अंश का कोण बनाती है। शनि के विषुववृŸा पर सूर्य साढ़े 29 वर्ष में दो बार आता है। जब शनि उत्तरी गोलार्द्ध में होता है तब वलय का दक्षिणी भाग और जब दक्षिणी गोलार्द्ध में होता है तो तब वलय का उत्तरी पृष्ठ भाग दिखाई देता है। कृष्ण पक्ष की अंधेरी रात में ही इसे देख पाना संभव है। आंतरिक वलय का व्यास 2,33,000 कि.मी. तथा बाहरी का 2,81,000 कि.मी. है, इसके बाहर की कला के मध्य बिन्दु से 133000 कि.मी. दूरी पर है। कैसिनी द्वारा भेजी गई तस्वीरों का अध्ययन करके जेट प्रोपल्शन लैब के प्रमुख डोनाल्ड शेमानस्की ने कहा है कि शनि के वलयों का क्षरण हो रहा है और अगले 10 अरब वर्षों में वलयों का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। ग्रहों की ज्योतिषीय गणना के आधार पर हम कह सकते हैं कि दो अरब चैंतीस करोड़ वर्ष बाद शनि के वलयों के साथ-साथ शनि और संपूर्ण ब्रह्मांड का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा अर्थात संपूर्ण ब्रह्मांड शून्य में विलीन हो जाएगा। धर्मशास्त्रों में इसे जगत का परमात्मा में लय (सृष्टि विनाश) कहा गया है। प्राचीन भारतीय खगोलविदों के अनुसार शनि का वलय चक्र बढ़ते-बढ़ते शनि के पृष्ठभाग के चारों ओर फैलता जा रहा है अर्थात शनि के पिंड और आंतरिक वलय के बीच 16000 कि.मी. की दूरी का जो खाली स्थान है, उस शून्य की ओर ये वलय बढ़ रहे हैं। सप्तचन्द्र, शनि की चमकती आंखेंः शनि के 8 उपग्रह अर्थात चंद्र हैं, जो उसके चारों ओर घूमते हैं। इनमें से 7 चंद्रों की कक्षा वलयांतर्गत ही है। इन 7 प्रकाशवान चंद्रों के कारण ही शनि को सप्त नेत्रों वाला कहा गया है। शनि के अंदर का चंद्र शनि से मात्र 1,92,000 कि.मी. की दूरी पर है जबकि पृथ्वी का चन्द्र पृथ्वी से इसकी अपेक्षा दोगुनी दूरी पर स्थित है। वलय पर स्थित 7 चंद्रों में से एक बुध से भी बड़ा है, हो सकता है कि वह मंगल के बराबर हो। वैज्ञानिकों ने इसका नाम ‘टाइटन’ रखा है। ये चंद्र परस्पर निकट होने से अलग-अलग दृश्यमान नहीं होते। वैसे प्रत्येक चंद्र स्वतंत्र रूप से शनि के चारों ओर घूमता है। शनि के चारों ओर वलयों में चमकते हुए चंद्र ऐसे लगते हैं, मानो शनि ने चमकते हुए सफेद मोतियों का हार पहन लिया हो। यह चंद्रहार ही उसे सभी ग्रहों में अनूठा बनाता है। शनि के चंद्र पृथ्वी से अधिक दूरी पर होने के कारण बारीक तारे के समान नजर आते हैं। इन चंद्रों की कक्षा के मध्य 28 अंश का कोण है, इस कारण ग्रहण आदि कदाचित ही होते हैं। शनि ग्रह का वातावरण प्राणियों के रहने योग्य नहीं है किंतु अनुमान है कि शनि के चंद्रों पर किन्हीं सूक्ष्म जीवों का वास है और शनि उनका पोषण करने में समर्थ है। शनि के चन्द्रों का प्राकृतिक वातावरण सूखा व ठंडा है। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की पहले मान्यता थी कि शनि के 42 चंद्र है किंतु अभी तक केवल 31 चंद्रों की ही खोज हो पाई है। शनि के चंद्रों और वलयों की संख्या को लेकर विवाद हो सकता है। किंतु यह तो तय है कि शनि एक रहस्यमय ग्रह है एक अनसुलझी पहेली की तरह जिसकी गुत्थी सुलझाने में वैज्ञानिक दिन रात लगे हुए हैं। वे इसमें कहां तक सफल होंगे, यह तो समय ही बताएगा।

विवाह विलंभ में शनि महत्वपूर्ण ग्रह



सप्तम भावस्थ प्रत्येक ग्रह अपने स्वभावानुसार जातक-जातका के जीवन में अलग-अलग फल प्रदान करता है। वैसे तो जन्मकुंडली का प्रत्येक भाव का अपना विशिष्ट महत्व है, किंतु सप्तम भाव जन्मांग का केंद्रवर्ती भाव है, जिसके एक ओर शत्रु भाव और दूसरी ओर मृत्यु भाव स्थित है। जीवन के दो निर्मम सत्यों के मध्य यह रागानुराग वाला भाव सदैव जाग्रत व सक्रिय रहता है। पराशर ऋषि के अनुसार इस भाव से जीवन साथी, विवाह, यौना चरण और संपत्ति का विचार करना चाहिए। सप्तम भावस्थ शनि के फल: आमयेन बल हीनतां गतो हीनवृत्रिजनचित्त संस्थितिः। कामिनीभवनधान्यदुःखितः कामिनीभवनगे शनैश्चरै।। अर्थात सप्तम भाव में शनि हो, तो जातक आपरोग से निर्बल, नीचवृत्ति, निम्न लोगों की संगति, पत्नी व धान्य से दुखी रहता है। विवाह के संदर्भ में शनि की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि आकाश मंडल के नवग्रहों में शनि अत्यंत मंदगति से भ्रमण करने वाला ग्रह है। वैसे सप्तम भाव में शनि बली होता है, किंतु सिद्धांत व अनुभव के अनुसार केंद्रस्थ क्रूर ग्रह अशुभ फल ही प्रदान करते हैं। जातक का जीवन रहस्यमय होता है। शनि हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का ज्ञान करा ही देता है एवं दंडस्वरूप इस जन्म में विवाह-विलंब व विवाह प्रतिबंध योग, संन्यास-योग तक देता है। शनि सप्तम भाव में यदि अन्य ग्रहों के दूषित प्रभाव में अधिक हो, ता जातक अपने से उम्र में बड़ी विवाहिता विधवा या पति से संबंध विच्छेद कर लेने वाली पत्नी से रागानुराग का प्रगाढ़ संबंध रखेगा। ऐसे जातक का दृष्टिकोण पत्नी के प्रति पूज्य व सम्मानजनक न होकर भोगवादी होगा। शनि सप्तम भाव में सूर्य से युति बनाए, तो विवाह बाधा आती है और विवाह होने पर दोनों के बीच अंतर्कलह, विचारों में अंतर होता है। शनि व चंद्र सप्तमस्थ हों, तो यह स्थिति घातक होती है। जातक स्वेच्छाचारी और अन्य स्त्री की ओर आसक्त होता है। पत्नी से उसका मोह टूट जाता है। शनि और राहु सप्तमस्थ हों, तो जातक दुखी होता है और इस स्थिति से द्विभार्या-योग निर्मित होता है। वह स्त्री जाति से अपमानित होता है। शनि, मंगल व केतु जातक को अविवेकी और पशुवत् बनाते हैं। और यदि शुक्र भी सह-संस्थित हो, तो पति पत्नी दोनों का चारित्रिक पतन हो जाता है। जातक पूर्णतया स्वेच्छाचारी हो जाता है। आशय यह कि सप्तम भावस्थ शनि के साथ राहु, केतु, सूर्य, मंगल और शुक्र का संयोग हो, तो जातक का जीवन यंत्रणाओं के चक्रव्यूह में उलझ ही जाता है। सप्तमस्थ शनि के तुला, मकर या कुंभ राशिगत होने से शश योग निर्मित होता है। और जातक उच्च पद प्रतिष्ठित होकर भी चारित्रिक दोष से बच नहीं पाता। सप्तम भावस्थ शनि किसी भी प्रकार से शुभ फल नहीं देता। विवाह विलंब में शनि की विशिष्ट भूमिका: शनि व सूर्य की युति यदि लग्न या सप्तम में हो, तो विवाह में बाधा आती है। विलंब होता है और यदि अन्य क्रूर ग्रहों का प्रभाव भी हो, तो विवाह नहीं होता।सप्तम में शनि व लग्न में सूर्य हो, तो विवाह में विलंब होता है। कन्या की जन्मपत्री में शनि, सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट होकर लग्न या सप्तम में संस्थित हो, तो विवाह नहीं होगा। शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तम में हो, तो विवाह टूट जाएगा अथवा विवाह में विलंब होगा। शनि व चंद्र की युति सप्तम में हो या नवमांश चक्र में या यदि दोनों सप्तमस्थ हों, तो विवाह में बाधा आएगी। शनि लग्नस्थ हो और चंद्र सप्तमेश हो और दोनों परस्पर दृष्टि-निक्षेप करें, तो विवाह में विलंब होगा। यह योग कर्क व मकर लग्न की जन्मकुंडली में संभव है। शनि लग्नस्थ और सूर्य सप्तमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। शनि की दृष्टि सूर्य या चंद्र पर हो एवं शुक्र भी प्रभावित हो, तो विवाह विलंब से होगा। शनि लग्न से द्वादश हो व सूर्य द्वितीयेश हो तो, लग्न निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। इसी तरह शनि षष्ठस्थ और सूर्य अष्टमस्थ हो तथा सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह नहीं होगा। लग्न सप्तम भाव या सप्तमेश पापकर्तरि योग के मध्य आते हैं तो विवाह में विलंब बहुत होगा। शनि सप्तम में राहु के साथ अथवा लग्न में राहु के साथ हो और पति-पत्नी स्थान पर संयुक्त दृष्टि पड़े, तो विवाह वृद्धावस्था में होगा। अन्य क्रूर ग्रह भी साथ हांे, तो विवाह नहीं होगा। शनि व राहु कि युति हो, सप्तमेश व शुक्र निर्बल हों तथा दोनों पर उन दोनों ग्रहों की दृष्टि हो, तो विवाह 50 वर्ष की आयु में होता है। सप्तमेश नीच का हो और शुक्र अष्टम में हो, तो उस स्थिति में भी विवाह वृद्धावस्था में होता है। यदि संयोग से इस अवस्था के पहले हो भी जाए तो पत्नी साथ छोड़ देती है। समाधान शनिवार का व्रत विधि-विधान पूर्वक रखें। शनि मंदिर में शनिदेव का तेल से अभिषेक करें व शनि से संबंधित वस्तुएं अर्पित करें। अक्षय तृतीया के दिन सौभाग्याकांक्षिणी कन्याओं को व्रत रखना चाहिए। रोहिणी नक्षत्र व सोमवार को अक्षय तृतीया पड़े, तो महा शुभ फलदायक मानी जाती है। इस दिन का दान व पुण्य अत्यंत फलप्रद होते हैं। यदि अक्षय तृतीया शनिवार को पड़े, तो जिन कन्याओं की कुंडली में शनि दोष हो, उन्हें इस दिन शनि स्तोत्र और श्री सूक्त का पाठ 11 बार करना चाहिए, विवाह बाधा दूर होगी। यह पर्व बैसाख शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन प्रतीक के रूप में गुड्डे-गुड़ियों का विवाह किया जाता है ताकि कुंआरी कन्याओं का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो सके। शनिवार को छाया दान करना चाहिए। ू दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ नित्य करें। ू शनिदेव के गुरु शिव हैं। अतः शिव की उपासना से प्रतिकूल शनि अनुकूल होते हैं, प्रसन्न होते हैं। शिव को प्रसन्न करने हेतु 16 सोमवार व्रत विधान से करें व निम्न मंत्र का जप (11 माला) करें: ‘‘नमः शिवाय’’ मंत्र का जप शिवजी के मंदिर में या घर में शिव की तस्वीर के समक्ष करें। ू हनुमान जी की पूजा उपासना से भी शनिदेव प्रसन्न व अनुकूल होते हैं क्योंकि हनुमान जी ने रावण की कैद से शनि को मुक्त किया था। शनिदेव ने हनुमान जी को वरदान दिया था कि जो आपकी उपासना करेगा, उस पर मैं प्रसन्न होऊंगा। सूर्य उपासना भी शनि के कोप को शांत करती है क्योंकि सूर्य शनि के पिता हैं। अतः सूर्य को सूर्य मंत्र या सूर्य-गायत्री मंत्र के साथ नित्य प्रातः जल का अघ्र्य दें।शनि व सूर्य की युति सप्तम भाव में हो, तो आदित्य-हृदय स्तोत्र का पाठ करें। जिनका जन्म शनिवार, अमावस्या, शनीचरी अमावस्या को या शनि के नक्षत्र में हुआ हो, उन्हें शनि के 10 निम्नलिखित नामों का जप 21 बार नित्य प्रातः व सायं करना चाहिए, विवाह बाधाएं दूर होंगी। कोणस्थः पिंगलो बभू्रः कृष्णो रौद्रान्तको यमः। सौरि शनैश्चरो मंदः पिप्पलादेव संस्तुतः।। हरितालिका व्रतानुष्ठान: जिनके जन्मांग में शनि व मंगल की युति हो, उन्हें यह व्रतानुष्ठान अवश्य करना चाहिए। इस दिन कन्याएं ‘‘पार्वती मंगल स्तोत्र’’ का पाठ रात्रि जागरण के समय 21 बार करें। साथ ही शनि के निम्नलिखित पौराणिक मंत्र का जप जितना संभव हो, करें विवाह शीघ्र होगा। ‘‘नीलांजन समाभासं, रविपुत्रं यामाग्रजं। छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्।।’’ ू शनिवार को पीपल के वृक्ष को मीठा जल चढ़ाएं व 7 बार परिक्रमा करें। शनिवार को काली गाय व कौओं को मीठी रोटी और बंदरों को लड्डू खिलाएं। सुपात्र, दीन-दुखी, अपाहिज भिखारी को काले वस्त्र, उड़द, तेल और दैनिक जीवन में काम आने वाले बरतन दान दें। शुक्रवार की रात को काले गुड़ के घोल में चने भिगाएं। शनिवार की प्रातः उन्हें काले कपड़े में बांधकर सात बार सिर से उतार कर बहते जल में बहाएं। ू बिच्छू की बूटी अथवा शमी की जड़ श्रवण नक्षत्र में शनिवार को प्राप्त करें व काले रंग के धागे में दायें हाथ में बांधें। शनि मंत्र की सिद्धि हेतु सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण के दिन शनि मंत्र का जप करें। फिर मंत्र को अष्टगंधयुक्त काली स्याही से कागज पर लिख कर किसी ताबीज में बंद कर काले धागे में गले में पहनें। व्रतों की साधना कठिन लगे, तो शनि पीड़ित लोगों को शनि चालीसा, ‘‘शनि स्तवराज’’ अथवा राजा दशरथ द्वारा रचित ‘‘शनि पीड़ा हरण स्तोत्र’’ का पाठ नित्य करना चाहिए।बहुत पुराने काले गुड़ के घोल म उड़द और आटे को गूंधकर थोड़े से काले तिल मिलाएं और 23 शनिवार तक प्रति शनिवार आटे की 23 गोलियां बनाएं। गोलियां बनाते समय निम्नलिखित मंत्र जपें। अनुष्ठान पूरा हो जाने के बाद इन मीठी गोलियों को बहते जल में प्रवाहित करें। ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः’’ विवाह में आने वाली बाधा को दूर करने हेतु शनि के दस नामों के साथ जातक को शनि पत्नी के नामों का पाठ करना चाहिए। ‘‘ध्वजिनी धामिनी चैव कंकाली कलह प्रिया। कंटकी कलही चाऽपि महिषी, तुरंगमा अजा।। नामानि शनिमार्यायाः नित्यंजपति यः पुमान तस्य दुःखनि तश्यन्ति सुखमसौभाग्यमेधते। शनि मंत्र: (1) ¬ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय। ;2द्ध ¬ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नमः ;3द्ध ¬ शं शनैश्चराय नमः जप संख्या 23 हजार ;4द्ध ¬ नमो भगवते शनैश्चराय सूर्य पुत्राय नम ¬। पौराणिक मंत्र (जप संख्या 92 हजार) ¬ शन्नोदेवीरभिष्टयआपो भवंतु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तुनः ¬ शनैश्चराय नमः ;महामंत्राद्ध शनि प्रतिमा के समक्ष शनि पीड़ानुसार उक्त किसी एक मंत्रा का 23 हजार बार जप करें। शनि का दान: लोहा, उड़द दाल, काला वस्त्र, काली गाय, काली भैंस, कृष्ण वर्ण पुष्प, नीलम, तिल कटैला, नीली दक्षिणा आदि। यदि किसी भी प्रकार विवाह नहीं हो पा रहा हो, तो इस अनुभूत उपाय को अपनाएं। कार्तिक मास की देव-उठनी एकादशी (प्रबोधिनी एकादशी) के दिन तुलसी और शालिग्राम का विवाह किया जाता है, यह शास्त्र में वर्णित है। कहीं-कहीं यह विवाह बड़ी धूम-धाम से किया जाता है। इस दिन कन्याएं सौभाग्य कामना हेतु व्रत लें। तुलसी-शालिग्राम के विवाह के पूर्व गौरी गणपति का आह्वान और षोडशोपचार पूजन कर कुंआरी कन्याओं को चाहिए कि तुलसी माता को हल्दी और तेल चढ़ाएं। माता एवं शालिग्राम जी को कंकण बांध, मौर बांध, विवाह गांठ बांधें व तुलसी माता का सोलह शृंगार करें। पंचफल एवं मिष्टान्न से तुलसी माता की विधिवत् गोद भराई करें। पंडित के द्वारा विवाह मंत्रोच्चारण के साथ पूर्ण विवाह की रस्म निभाएं। ल् आकार की हल्दी में सात बार कच्चा धागा लपेट कर, एक सुपारी और सवा रुपया सहित लेकर बायें हाथ की मुट्ठी में कन्या रखे व दायें हाथ में 108 भीगे हरे चने रखे। सोलह शृंगारित तुलसी माता सहित शालिग्राम की परिक्रमा मंत्र सहित 108 बार करे एवं हर परिक्रमा में एक चना तुलसी माता की जड़ में अर्पण करती चले। माता तुम जैसी हरी-भरी हो, हमें भी हरा-भरा कर दो, हमें एक से दो कर दो की मनोकामना के साथ परिक्रमा करें। इसके बाद बायें हाथ में पकड़ी हल्दी, सुपारी और रुपया तुलसी की जड़ में दबा दे। सौभाग्य कामना से हल्दी में लपेटा गया कच्चा सूत कन्या को दाहिने हाथ में बंधाना चाहिए। उस दिन कन्या सिर्फ जल ग्रहण कर। चबाने वाली चीजें न खाएं। शृंगार की वस्तुएं कन्या स्वयं पहने, जो तुलसी को अपर्ण की थीं। विवाह संस्कार में हल्दी-रस्म के समय ल् आकार की जो हल्दी तुलसी की जड़ में दबाई गई थी, उसे सर्वप्रथम गणेश जी को अर्पण करें और सिर्फ कन्या को ही लगाई जाए। इसे ‘‘सौभाग्य कामना हल्दी’’ कहते हैं। अंततः शनि पीड़ित व्यक्ति को शनि उपासना करनी चाहिए किंतु जिनका शनि शुभ है एवं शनि दशा, अंतर्दशा, साढ़ेसाती, ढैया आदि नहीं चल रहे हों उन्हें भी शनिदेव की आराधना उपासना करते रहनी चाहिए। सुंदर, सुनहरे भविष्य हेतु शनि की आराधना उपासना-मंत्र पाठ अवश्य करें।

भाग्य रेखा और शनि ग्रह



भाग्य रेखा जातक के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे जीवनचर्या, धन-दौलत, संतान, स्वास्थ्य सभी के बारे में बतलाती है। हथेली में शनि पर्वत पर जाने वाली रेखा को भाग्य रेखा कहा जाता है। इसे हस्तरेखा शास्त्र की भाषा में शनि रेखा भी कहते हैं। इसके अलावा सूर्यरेखा मनुष्य की जीवनचर्या में विशेष उच्च पद, मान-प्रतिष्ठा धन प्राप्ति की स्थिति आदि बतलाती है। यदि हथेली में शनि रेखा (भाग्य रेखा) और सूर्य रेखा दोनों विद्यमान हों तो व्यक्ति को अत्यंत उच्च अधिकार वाला पद, ख्याति और विशाल संपत्ति प्राप्त होती है। जिस प्रकार मनुष्य की कुंडली में भाग्येश (नवमेश) और दशमेश दोनों बलवान हों तो राजयोग बनता है, ठीक उसी प्रकार हथेली में शनि और सूर्य रेखाएं दोनों बलवान (स्पष्ट, लंबी) हों तो हथेली में राजयोग बनता है। मनुष्य की कुंडली और हथेली के सम्मिलित विश्लेषण से हम यह पाते हैं कि जातक की भाग्य रेखा (शनि रेखा) का संबंध जातक की कुंडली के भाग्येश (नवमेश) से तथा सूर्य रेखा का संबंध दशम भाव के स्वामी ग्रह से होता है। इस प्रकार भाग्य रेखा के बली या निर्बल होने को केवल शनि ग्रह के बली या निर्बल होने के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। क्योंकि जातक की कुंडली में भाग्य का स्वामी शनि को छोड़कर कोई भी ग्रह (सूर्य से शनि तक) हो सकता है। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि शनि रेखा के निर्बल होने पर ज्योतिषी नीलम धारण करने की सलाह दे देते हैं, जबकि आवश्यकता नवमेश का रत्न को धारण करने की होती है इस प्रकार जातक की समस्या और बढ़ जाती है। यही स्थिति सूर्य रेखा के साथ भी उत्पन्न होती है। प्राकृतिक रूप से जातक की हथेली में चार ऊध्र्व उंगलियां और पर्वत क्रमशः गुरु पर्वत, शनि पर्वत, सूर्य पर्वत और बुध पर्वत होते हैं। इसी प्रकार जातक की कुंडली में चार त्रिकोण-प्रथम धर्म त्रिकोण, द्वितीय अर्थ त्रिकोण, तृतीय काम त्रिकोण और चतुर्थ मोक्ष त्रिकोण होते हैं। हथेली की चारांे ऊध्र्व रेखाओं का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इनका संबंध जातक की जन्म कुंडली के इन्हीं चारों त्रिकोणों के स्वामी ग्रहों के फलों का सम्मिश्रण होता है। हाथ की रेखाएं वास्तव में प्रकृति की कूट भाषा या कूट संकेत हैं, जिन्हें समझना ही दैवज्ञ का कार्य है। हम देखते हैं कि हाथ की भाग्य रेखा जिसे शनि रेखा भी कहते है, का संबंध कुंडली के प्रथम धर्म त्रिकोण अर्थात लग्न, पंचम और नवम ग्रहों क स्वामियों से है। नवम भाव को धर्म भाव भी कहते हैं। इस प्रकार भाग्य रेखा स्वास्थ्य, शिक्षा, संतान, भाग्य आदि सभी के विषय में बतलाती है। अतः भाग्य रेखा यदि निर्बल हो तो धर्म त्रिकोण के स्वामी ग्रहों के रत्न धारण करने चाहिए। हाथ की सूर्य रेखा कुंडली के दूसरे त्रिकोण (अर्थ त्रिकोण) अर्थात दूसरे, छठे और दसवें भावों के स्वामियों से संबंधित है। इस प्रकार जातक की सूर्य रेखा संचित धन, विद्या, शत्रु से रक्षा, पद, प्रतिष्ठा आदि के बारे में बतलाती है। इस प्रकार सूर्य रेखा केवल सूर्य से संबंधित नहीं होती बल्कि उसका संबंध कुंडली के अर्थ त्रिकोण के स्वामी किसी भी अन्य ग्रह से हो सकता है। हाथ की बुध रेखा का संबंध जातक की कुंडली के तीसरे काम त्रिकोण अर्थात तृतीय, सप्तम और एकादश भावों से होता है। कुंडली के सप्तम भाव से स्त्री सुख के अलावा साझा व्यापार एवं एकादश भाव से धन लाभ का विचार किया जाता है। इस प्रकार हाथ की बुध रेखा जातक की व्यावसायिक क्षमता को बतलाती है। जबकि जातक की विवाह रेखाओं, जिन्हें काम रेखा भी कहते हैं, की शुभ और अशुभ स्थितियों का विचार हाथ के बुध पर्वत पर इन रेखाओं की स्थिति के अनुरूप किया जाता है। अंत में, हथेली में यदि गुरु रेखा भी हो तो उसका संबंध चतुर्थ मोक्ष त्रिकोण अर्थात चैथे, आठवें और बारहवें भाव के स्वामी ग्रहों के अनुरूप होता है।

पितृदोष और संतान बाधा

संसार में सबसे अधिक गौरवशाली उपाधि मां की ही है। और भारतवर्ष में तो प्रत्येक स्त्री मां बनना अपना परम सौभाग्य समझती है। किंतु कई बार भाग्य साथ नहीं देता। कई मां-बाप ग्रहों की प्रतिकूलता के कारण संतान सुख से वंचित रह जाते हैं। ग्रहों की प्रतिकूलता में एक महत्वपूर्ण योग है ‘पितृ दोष योग’। लग्न कुंडली में किन ग्रहों की स्थिति से पितृ दोष बनता है यह सामान्यतः सभी जानते हैं। किंतु अलग-अलग ग्रहों की स्थिति से निर्मित पितृदोष के उपाय भी पृथक -पृथक प्रणाली से किए जाने चाहिए। संतान प्राप्ति में बाधक पितृदोष कारक ग्रह का प्रभाव लग्न, पंचम, सप्तम एवं नवम भाव पर पड़ता है। पंचम भाव के साथ-साथ सप्तम भाव का विचार शुक्राणु एवं रज के लिए तथा भावत भावम सिद्धांत के अनुसार पंचम से पंचम नवम का अध्ययन आवश्यक है। धर्म एवं भाग्य से ही संतान प्राप्ति होती है अतः नवम भाव का अध्ययन अत्यंत आवश्यक हो जाता है। पितृदोष कारक ग्रहों की निम्न स्थितियों में पितृदोष होता है। - राहु का नवम भाव से संबंध, दृष्टि एवं राशि या नवमेश से संबंध। - बुध का नवम भाव से संबंध। - सूर्य एवं शनि का दृष्टि-युति संबंध अथवा राशि से संबंध। - चंद्र और बुध का राशि दृष्टि या युति संबंध - मेष, वृश्चिक, लग्न और लग्नस्थ मंगल। - गुरु एवं राहु का दृष्टि युति संबंध या राशि संबंध। इनके अतिरिक्त भी कुछ और योग हैं जो पितृदोष के कारक होते हैं। पितृदोष योग के सिद्धांतों पर गौर करें तो ज्ञात होता है कि ऐसे ग्रहों की परिस्थतियों से पितृदोष बनता है जो ग्रह पिता-पुत्र हैं जैसे सूर्य एवं शनि चंद्र एवं बुध, लग्न एवं मंगल (उल्लेखनीय है कि लग्न को पृथ्वी माना जाता है और मंगल को पृथ्वी पुत्र) तथा पापी ग्रह राहु एवं केतु। सूर्य जब मकर या कुंभ राशि में हो, शनि से दृष्ट हो या शनि के साथ हो तो सूर्य जनित पितृदोष होता है। बुध का नवम भाव से संबंध हो तो बुध जनित राहु का संबंध हो तो। राहु जनित पितृ दोष का अध्ययन करके उसके संतान प्राप्ति में बाधा कारक प्रभावों को जानना चाहिए।

ज्योतिष शास्त्र में नामकरण संस्कार का महत्व..........

सोलह संस्कारों में नामकरण संस्कार का अपना एक विशेष महत्व है, किसी भी पदार्थ, स्थान या व्यक्ति के गुण अथवा अवगुण आदि के निर्णय में उसका नाम महत्वपूर्ण स्थान रखता है। धार्मिक तथा सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों के चरित्र नायकों, खलनायकों तथा अन्यान्य पात्रों के नाम देखकर अचंभा होता है कि कैसे इनके चरित्रानुरूप नाम पूर्व में ही रख दिए गए थे। दुर्योधन के नाम से अकस्मात एक ऐसे योद्धा की छवि उतरकर सामने आ जाती है जो अन्यायपूर्ण युद्ध में विश्वास रखता हो। भीम नाम से भीमकाय तथा महाबली योद्धा का रूप सामने आ जाता है, अर्जुन नाम से ऐसे व्यक्ति का बोध होता है जो कठिन से कठिन परिस्थिति में भी स्थिर चित्त रहे। दुस्शासन नाम सुनते ही मन ग्लानि तथा धिक्कार से भर उठता है। जहां राम, कृष्ण, शिव, सीता, ईसा, गुरु नानक आदि मर्यादा के आदर्शपालक होने के कारण स्वतः प्रत्येक प्राणी के मन में रमण करने लगते हैं वहीं रावण, कंस, भस्मासुर, मंथरा, कैकेयी आदि नाम सुनते ही मन विषाक्त हो उठता है। तात्पर्य यह है कि आर्य जाति में पूर्व में नामकरण से पहले गुण-अवगुण तथा चरित्र का खूब अच्छी तरह से विचार कर लिया जाता था। यथा नाम चारित्रिक गुण भी व्यक्ति में वैसे ही भर जाते थे। यदि किसी अल्प बुद्धि बालक को धूर्त कहीं का, पागल, भैंसे, गुड़गोबर सिंह, काहिल, सूअर, पाजी आदि नाम उपनामों से निरंतर संबोधित किया जाता है, तो कुछ समय बाद वह यथा नाम वैसे ही व्यवहार करने लगता है। अर्थात वैसा ही बन जाता है। कायरता, वीरता, प्रेम रस, भक्ति रस आदि का प्रतीक किसी प्राचीन चरित्र का नाम यदि नियमित रूप से किसी के लिए प्रयोग किया जाता है तो उस चरित्र की छवि नाम के साथ हृदय में उतरने लगती है। व्यक्ति के भविष्य निर्माण में नाम एक प्रमुख भूमिका निभाता है। नाम की सार्थकता के साथ-साथ उसमें ध्वनि सौकर्य का भी ध्यान रखना चाहिए। कोई नाम भले ही सुंदर से सुंदर अर्थ वाला हो, यदि उसके उच्चारण में क्लिष्टता के कारण कठिनाई आती हो तो वह नाम लोकप्रिय नहीं हो पाता। सैकड़ों फिल्मी चरित्रों के बदले हुए नाम इस बात की स्वतः पुष्टि कर देंगे यथा दिलीप कुमार, प्रदीप कुमार, किशोर कुमार, निम्मी, मधुबाला, मीना कुमारी, लता, माधुरी, नौशाद आदि। शास्त्रकारों ने इसीलिए नाम चयन के लिए कुछ वैज्ञानिक तथा विवेचनात्मक नियम सुनिश्चित किए हैं। इन सबका वर्णन सर्वथा ध्वनि विज्ञान तथा मनोविज्ञान के आधार पर किया गया है। सुझाव दिया गया है कि दो, तीन अथवा चार अक्षर वाले एसे नाम रखे जाएं जिनके अंत में घोष- ग घ, ज झ, ड ढ, द ध न, ब भ म, य र ल व ह में से कोई अक्षर होना चाहिए। मध्य में अंतस्थ य र ल व में से कोई तथा अंत में दीर्घ स्वर संयुक्त, कृदंत नाम रखें तद्धित नहीं। स्त्रियों के नाम विषम अक्षर के अकारांत होने चाहिए जिससे पुरुषों की तुलना में उनसे अधिक कोमलता ध्वनित हो। कृदन्त का अर्थ है धातुओं से विकार लगाकर बने हुए शब्द जैसे राम, चंद्र, प्रकाश, आनंद आदि शब्द रम, चदि, कासृ, नदि आदि धातुओं से विकृत होकर बने हैं। इसलिए नाम ऐसे हों जिनके अंत में उपर्युक्त शब्द आएं। तद्धित का अर्थ है संज्ञावाचक शब्दों से विकृत होकर बने शब्द यथा पांडव, वासुदेव, भगवान दयालु, कृपालु आदि। ये पांडु, वसु, भग, दया, कृपा आदि शब्दों से तद्धित प्रत्यय लगाकर बने शब्द हैं। तद्धित नाम क्लिष्ट होने के कारण ही त्याज्य माने गए हैं।

Saturday 2 July 2016

Sitare Hamare Saptahik Rashifal 4 10 July2016

अज्ञात पितृदोष शांति


अनिष्ट की आंशका दूर करने हेतु करें रवि योग में रवि की पूजा -

ज्योतिष के अनुसार अगर कोई भी कार्य शुभ योग-संयोग देखकर किया जाए तो सफलता निश्चित रूप से मिलती है। शुभ कार्य संपन्न करने या मंगल कार्य को बिना किसी बाधा के करने के लिए के लिए सिद्धि योग एवं शुभ मुहुर्त देख कर ही किए जाने चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस तरह हिमालय का हिम सूर्य के उगने पर गल जाता है और सैकडों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है, उसी तरह से रवि योग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात इस योग में सभी शुभ कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण होते हैं। रवि-योग को सूर्य का अभीष्ट प्राप्त होने के कारण प्रभावशाली योग माना जाता है। सूर्य की पवित्र ऊर्जा से भरपूर होने से इस योग में किया गया कार्य अनिष्ट की आंशका को नष्ट करके शुभ फल प्रदान करता है। यह संयोग खरीदी एवं कोई भी शुभ कार्य की शुरुआत के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त माने जाते हैं। आज किए जाने वाले शुभ कार्य विशेष फलदायी होंगे क्योंकि आज सर्वार्थसिद्ध योग भी है। अतः रवियोग के संयोग में बाजार से खरीदी स्थायित्व प्रदान करने वाली होगी अतः स्थाथी संपत्ति क्रय हेतु सूर्य की पूजा के साथ किए गए कार्य आज शुभ फलदायी है।

Thursday 30 June 2016

Relation between Knowledge, Education, and Astrology......

All education should primarily lead to upliftment of human beings. Education stems from two basic roots namely (a) Attainment of knowledge and (b) Proper utilization of that knowledge. The former again depends on (i) The ability of the individual- which in turn rests upon the mental faculty he/she possesses at birth and (ii) The interest one develops during the course of his journey in life. The latter could again be either transient or progressive and lasting. Somewhere hidden in ones interest being constructive and long lasting is an inert force known as Talent. It would immediately be apparent that this force is so strong and benign that when it is exhibited and harmonized in a practical mode, optimal contentment and satisfaction is reached. This is known as ‘Manushya Nama Anandam’ and forms the first of the eleven Anandams that lead to Bramhanandam. Knowledge by itself may be good or bad. This very function of relativity in its applicability to living and non- living beings makes it so vast that one rightly feels its complete attainment is a stupendous task. This inherent quality in acquiring knowledge makes the fulfillment of (b) i.e. the proper utilization of knowledge a difficult task indeed. Surely, the human brain is roaming in an ocean of knowledge without knowing where the destination is. This process eats up a high percentage of the human resources that one possesses, and leaves him/her null and void at the end of the day. Should then we not acquire any knowledge? This unfortunately is out of people's scope, as the human mind even in its most deformed state at birth, as per medical terms, thirsts for the attainment of that complete knowledge which is so difficult to attain. The MIND is known as MANN in Sanskrit, which means Ego. The reverse of Mann is Namm which term is a yoga used in Hindu rituals to automatically remove that stressful ego and enable us to tread a more constructive journey in life. This realization of inability to attainment of total knowledge has dawned on the Human race, though belatedly and given rise to what is today so explosively termed as Expertise. This term is just like the Wolf that termed the Grapes as Sour, as it was not able to attain them—in this case the attainment of total knowledge. When viewed from Man made functionaries, Expertise may seem to a certain extent appropriate; but not so if applied to Human Beings, which works holistically and must be so analysed. No wonder Expertise in a particular medical field has left the Medical doctors roaming wild and leaving the poor patient stranded not knowing where he has to go to find the real cause of his distress within his system. Acquirement of knowledge falls into two categories, namely Sruthi and Smrithi. While Sruthi literally means, “what is heard”, Smrithi denotes “what is remembered”. The laws and byelaws for social upliftment are Smrithis. The principals enumerated by Parasara, Manu, Bhaskara and Jaimini are some Smrithis which form the basis to formulate fruitful and constructive modes to better living. It may be mentioned that every thing that is heard need not necessarily be remembered. In fact only those items that have a deep internal effect upon the individual is carried to the Human memory plane. All students hear from the same teacher; but some remember more than the others! Obviously, the inert field of talent one possesses has a large part to play in this vital function. On the other hand the sound vibrations that one hears, affect the system directly and cause divertive motions within the human body. These may be negative, transient or positive. Their reaction on the human breathing system is extensive and is many times a cause for improper and unstable functioning of an individual. The harmonization of Sruthi and Smrithi leads to inner satisfaction and contentment and optimal utilization of human energy. The daily cycle of life is an apt exposition of the working of the human system, which had been so well propagated by our erstwhile SAGES. These are ‘Dwaitha’ by Madhwacharya, ‘Vishishta Adwaitha’ by Ramunaja and ‘Adwaitha’ by Shankara. When the Sun rises Dwaitha or duality comes into play. Each individual feels that the other is different to what he is and therefore the world is immersed into an ocean of competitiveness, selfishness and hatred. As the evening sets, the tired body seeks refuge but the Mind has yet not relented. The body is traveling through semi sleep or dream state. This may be termed as ‘Krishna Vishista Adwaitha’. In this period, the Mind wanders into the happenings of the day, tries to analyze it, relative to past conducts and in the process draws conclusions which may elate or depress one's feelings. In both cases it leads to large-scale loss of ones energy resources. The Mind thereby also tires and seeks revitalization in deep sleep. The human being is running through a state known as ‘Adwaitha’- the feeling of oneness within oneself and with the world. In this state the human body revives its lost energy, conserves and optimizes utilization of its energy resources. Clearly good sleep is an indication of vitality in health. From this state, one again reaches a semi wake or dream position. In this state the body with its high available energy resources feels confident to take up any task whatsoever. This can be termed as ‘Shukla Vishishta Adwaitha’. The dreams during this state are said to come true and verily so, as the body has emerged from the most optimal stage of available energy resources. Ones it wakes up it again falls into the Dwaitha or Duality state and the cycle continues. This cycle clearly indicates the need for proper remodulation of energy resources for integration of the Jivathma and Parmathma or in other words attaining lasting Bliss. The above elaborate exposition of acquirement of knowledge, its proper utilization keeping in view the ultimate constructive target of attainment of steadfast happiness - known as Education and the process of remodulation of available Human resources indicated by ones horoscope, to attain the same, is to enable stringent astrologers, the path they should adopt to guide the public in this most important sphere to harmonious living.

Saturn role in making discipline in life........

Preliminary approach to the science of Vedic astrology tells us that out of seven main planets and the additional two shadow ones, clear benefics are only Jupiter and Venus. The behaviour of Moon and Mercury depends on several factors, before these can be classified as benefics. The remaining five, namely Sun, Mars, Saturn, Rahu and Ketu belong to the clan of malefics. In terms of mathematical calculations, the share of benefics computes to just 44 percent in human life. When we cut across the demagogical divide of the population, it is seen that the affluents pass through the nature’s metal detector as the elite of the society. They appear to be unaffected by the vicissitudes of life. They pose as if they have no ups and downs. We are not here to dissect the actual type of life they lead and the less said the better.
In this essay, the attempt is to see and establish the true role of these so called malefics, particularly Saturn and realistically quantify all prevailing misgivings. In doing so, let us quickly run through the brief pen sketches of Sun, Mars, Rahu and Ketu, before embarking upon the detailed expose on Saturn.
SUN : It is associated with causing haughtiness among natives. Their nature gets pickled with a false sense of ego. Drunk with this false intoxication, an adversely placed Sun causes separation in married lives and in business partners.
MARS : Its significations are to cause mass scale destruction through fires, accidents, natural catastrophes etc. Characteristically, Mars creates and nurtures tensions in mutual relations and if badly placed in the birth chart, it even causes the demise of the spouse.
RAHU & KETU : Ever since the churning of the ocean, these are endowed with powers to promote ill will. Never satisfied with any bounty of nature, these are proverbially the trouble-makers of the zodiac. The eclipse to Sun and Moon is considered to be their handiwork. Epidemics are commonly associated with these astral bodies. They attack in a highly clandestine manner. The native pines for happiness and becomes a recluse, always cursing his/her fate.
The application of this curse is further to be found in the classics where the stage has been set for celebrations in the abode of Lord Shiva on the birth of Ganesha. To partake in this great celestial event, all the bigwigs of heaven, including lord Brahma, Lord Vishnu, Lord Shiva, Yama, Surya, Indra etc assembled at the entrance to welcome the guests. Saturn simply paid obeisance and never looked at the child. Divine mother Parvati persisted and insisted that he must look at Ganesha and appreciate the halo around his face. Thus impelled by Parvati, Satrun cast a glance at the child and Lo! the child’s head got severed from his body. Parvati fainted. There was mayhem all around. In order to restore normalcy, Lord Vishnu lost no time to fly out on his Garuda and spotted a herd of elephants. Using his Sudershan Chakra He flew back with the head of an elephant, which was placed in position on Ganesha’s body. Parvati accepted this ‘marvel of surgery’ with all humility but she,too, hurled a curse on hapless Saturn : “BE THOU A CRIPPLE.” All major Gods and Goddesses beseeched Parvati to take back the curse.
This small but interesting tale from the legends typifies the temperament and disposition of Saturn. The price for having a look at Ganesha resulted in the afore mentioned curse. But because the curse comes from the senior hierarchy of the Hindu pantheon, Saturn could do precious little. We all lead tasked lives on this earth. This contains the temper of destiny, which Saturn received for no fault of his. Through divine intervention, Saturn earned the sobriquet of a master Yogi and the king among the Grahas. Now we know Saturn as the planet of detachment. Its own suffering has become the scion of human tribulations and has come to be accepted as a signification of the planet Saturn . The rule of law eternally prevails in the regime of Saturn. High or low, no compunction is shown to anyone. The law of Saturn appears to be that everyone reaps the rewards of his Karmas. Omar Khayyam, the astronomer-poet of the 11th century in Persia seems to have been impressed by the tinge of Saturnian law to pen down his famous quartet :-
Saturn is also associated with the adage : “It delays, but does not deny.” Being the unquestioned king of melancholy, every human being essentially develops a philosophical trait in their thinking that the Karma leads to Destiny. Definitely, though invisibly, a link exists between what one does and what one reaps. The exalted chair of Chief Justice is definitely occupied by Saturn in his court. By his diktat, man has come to possess the temper not to tolerate injustice or cause injustice, to any one. The whip rod of the master Yogi is ever ready to administer justice to all and sundry. Saturn tumbles and humbles the mighty.
One hidden beauty in the Indian mythology is the use of parables. In Jaimini astrology, if the Atmakaraka falls in Aquarius Navamsha, the native shows charities in the form of constructing wells, gardens, temples, inns etc for the maximum good of the maximum people. This Rashi is lorded by the great Yogi Saturn. Modern day political science is all about aiming at the maximum good of maximum numbers. Today Saturn governs general masses, elected, legislatures, parliaments etc.
Saturn, willy or nilly, flashes one clear message that human life is an ongoing seminar. It is the theatre of suffering, which acts as the ultimate teacher and eye-opener. The seminal influence of Saturn is so immense that one tends to get over the side effects of even big tragedies of life. These are Yogic powers in full play. Every suffering brings discipline alongwith. Human beings who have graduated in life through such seminal influence of Saturn cultivate the habit of facing the rough and the tumble of life with equanimity and poise and without doubt, or debate. Human beings close ranks in adversity. Not so in comfort. Gold becomes purified after passing through fire. Human beings emulate the example of gold. They are known to shed their impurities, like vanity or ego. Man is the student and Saturn is the teacher, the master Yogi, the terse disciplinarian. His ways are inscrutable. A grain of corn will not create hundreds more of such grains, without dissolving itself in the soil.
In a Dreshkana chart, when Saturn aspects Moon (and vice versa) the native acquires the powers to become a saint of high order. Saturn invests the person with a fillip to meditate. The Moon installs the person’s mind in the ultimate Lord – PARMATMA.
Saturn is also packed with the power to open one’s third eye – the Gyan Chakshu.
In the great hall of fame, Shani rules over longevity, Moksha, detach-ment etc. The sledge hammer of Shani Dev does not spare any one. Rulers, monarchs, ministers, wrong doers of any hue are shown the path to righteous attitude by Shani Dev. He rules. All others simply obey. Such is the impeccable discipline of Saturn. This is more why his name has come to be associated with fear, despair, loss of fame and what not. He is the dreaded one. He commands respect by being ruthless. He possesses the powers to delay. He never denies, though. Justice is Saturn’s most flaunted badge.

मनोवांछित संतान कैसे...जाने ज्योतिष्य विश्लेषण द्वारा

नवग्रह को प्रसन्न करने से निश्चित ही आने वाले शिशु के ग्रह उसे आशीर्वाद देंगे तथा उसकी कुंडली में अच्छी स्थिति का निर्माण करेंगे। प्रारब्ध के ग्रह उसके कुछ अनुकूल बन सकते हैं। यह माता के हाथ में है। इस नश्वर संसार में जो आया है उसे जाना ही पड़ता है। उसके बाद जीव का अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म होता है। जरूरी नहीं कि बार-बार उसे मनुष्य का तन ही प्राप्त हो। यह तो उसके कर्मो के अनुसार परमात्मा निश्चित करता है। इस लौकिक जगत में मनुष्य देह के समान कोई शरीर नहीं, कोई योनि नहीं है। सभी जीव मानव देह ही प्राप्त करना चाहते हैं। मानव योनि सर्वश्रेष्ठ योनि है। इसी तन से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। प्रभू का भजन एवं भक्ति की जा सकती है। प्रभु को पाया जा सकता है। यह शरीर ही स्वर्ग तथा मोक्ष की सीढ़ी है। नर तन सम नहि कवनिऊ देही, जीव चराचर जाचत तेही नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी, ग्यान विराग भगति सुभदेनी रामचरितमानस व्यास जी ने भी भागवत पुराण में कहा है- सवार्थ सम्भवोदेहः भागवत पुराण 10/65/51 देह ही समस्त अर्थों की प्राप्ति का साधन है। मनुष्य देह दुलर्भ है। देह धारण करने के लिए जीव को माता की आवश्यकता होती है। बिना माता पिता के संयोग के जीव को शरीर नहीं प्राप्त हो सकता है। पुरूष का एकादश भाव स्त्री का उदर है। उदर के अंतर्गत ही गर्भाशय है। गर्भधारण करने पर माता का उदर बढ़ता है। यदि इस उदर पर एकादश भाव शनि का प्रभाव है तो माता का पेट ज्यादा उभार न लेकर दबा रहता है। यदि इस पर गुरु का प्रभाव है ता ज्यादा उभार विस्तृत स्वरूप होता है। स्त्री जीव को जनम देने के लिए अपनी ओर आकर्षित करती है इसी लिए ये हिरण्यगर्भा है। श्रेष्ठ माता के गर्भ से श्रेष्ठ पुत्र का जन्म होता है। जिसकी भी संतान श्रेश्ठ है तो यह अनुमान लगा लिया जाता है कि माता श्रेष्ठ है। जीव को जब तक उसके संस्कारों के अनुरूप गर्भ नहीं मिलता है वह अंतरिक्ष में भटकता है। उपयुक्त गर्भ की प्राप्ति होने पर वह जीवात्मा गर्भ में प्रवेश करती है। ज्योतिष का एक सूत्र यह है कि गर्भाधान के समय चंद्रमा जिस राशि में होता है जातक के जन्म के समय उसकी लग्न वही होती है। जैस्े-गर्भाधान के समय चंद्रमा वृष राशि में है तो जातक की राशि भी वृष ही होगी। यदि व्यक्ति इच्छित संतान चाहता है, सुंदर, योग्य और गुणवान संतान चाहता है, अच्छे चरित्रवान एवं दीर्घायु संतान चाहता है तो चावल पकाकर उसमें घी डालकर दही के साथ सपत्नीक खाये। ऐसा करने के बाद ही संतान प्राप्त करने की इच्छा रखें। गर्भाधान के समय पुरूष का सूर्य स्वर चलता है तो पुत्र संतान पैदा होती है। पुरुश का चंद्र स्वर चलता है तो कन्या संतान पैदा होती है। यदि पुरुष का दोनों स्वर चलता है तो नपुंसक संतान पैदा होती है। यदि गर्भाधान काल में स्त्री का दोनों स्वर चलता है तो नपुंसक कन्या पैदा होती है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि पत्नी को पति के बायीं तरफ सोना चाहिए। स्त्री के मासिक धर्म की सम राशियों में जब चंद्र स्वर चले तो उस समय गर्भाधान करने से पुत्र संतान पैदा होती है एवं विषम राशियों राशियों में सूर्य स्वर चल रहा हो तो कन्या संतान पैदा होती है। मनोनुकूल, इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु दंपति को चाहिए कि उपरोक्त नियमों का ध्यान यदि रखेंगे तो निश्चित ही श्रेष्ठ एवं गुणगान संतान प्राप्त होगी। उपनिषद कहता है कि - ‘अथ य इच्छेत पुत्रों में कपिल: पिंगलो जायते द्वौ। वेदाबनुब्रवीत सर्वभायुरियादिति दध्योदनं पाचायित्वा।। सर्पिष्यन्तयश्नीयातामीश्वरौ जनयितवै। जब तक बालक गर्भ में रहता है, सिर्फ माता के संपर्क में रहता है। इसलिए शास्त्र कहता है कि रेष्ठ माता ही श्रेष्ठ बालक को जन्म देती है। माता ही बालक की प्रथम गुरु होती है। गर्भाधान से लेकर प्रसव पर्यंत वह गर्भस्थ जीव में संस्कार डालती है। माता का खाया हुआ अन्न एवं पिया हुआ जल ही नाड़ी जाल के द्वारा गर्भस्थ शिशु का निर्माण होता रहता है। गर्भ में जीव को अपने पूर्व जन्म का स्मरण रहता है। अपने शुभ एवं अशुभ कर्मों को वह जानता रहता है। गर्भ में उसे घोर पीड़ा भी रहती है। तब वह सोचता है कि यदि मैं इस पीड़ा रूपी गर्भ से बाहर आ गया तो सारे बुरे कर्म छोड़ प्रभु का ध्यान करूंगा। परंतु गर्भ के बाहर आते ही वैष्णवी वायु के स्पर्श से सभी बातें भूल जाता है। माता के गर्भ में संतान रहने पर तीसरे महीने से पांचवें महीने के बीच में इसीलिए गर्भ पूजन अथवा पुंसवन संस्कार कराया जाता है ताकि श्रेष्ठ संस्कारों वाली संतान का जन्म हो। सारे ग्रहों का आशीर्वाद उसे प्राप्त हो, नवग्रह अनुकूल बने। गुरुजनों का बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त हो। जिससे उसका भविष्य सुखद हो। आने वाले जीव को सभी आशीर्वाद देते हैं उसका जीवन मंगलमय हो। गर्भ से बाहर आने में उसे घोर पीड़ा नहीं उठानी पड़े। माता के गर्भ से ही बालक के सारे ग्रहों का निर्माण हो जाता है। क्योंकि हमारा पूर्व जन्म में किया पाप पुण्य ही हमारा प्रारब्ध है। उसी के अनुसार व्यक्ति की कुंडली भी तैयार होती है। बालक के पूर्वकृत्य कर्म को उसकी कुंडली को माता नहीं बदल सकती। परंतु गर्भावस्था के दौरान प्रथम से नौवें माह तक माता निम्न बातों को ध्यान में रखें तो निश्चित रूप से मेधावी संतान बनेगी। क्योंकि गर्भावस्था के दौरान प्रथम माह से नौवें माह तक कोई न कोई ग्रह का अधिपत्य रहता है। माता-पिता यदि उन नियमों का पालन करें तो वह ग्रह अवश्य रूप से उसके शरीर निर्माण में अपनी अनुकूलता प्रदान करेंगे। क्योंकि विज्ञान कहता है कि बालक के मस्तिष्क का 70 प्रतिशत विकास माता के गर्भ में हो जाता है। बालक अपना सुंदर आकार कैसे ग्रहण करता है यह माता पर निर्भर करता है। माता क्या सोचती है ? क्या करती है ? क्या खाती है, इसका सीधा असर बालक पर पड़ता है। माता को गर्भावस्था के दौरान पेट पर कभी-कभी ज्यादा गंभीर चोट लग जाती है तो वह बच्चा मस्तिष्क से विकलांग पैदा होता है। शारिरिक रूप से भी विकलांग हो सकता है। इसी प्रकार ग्रहण का भी सीधा असर बच्चे पर होता है। जिस राशि में चंद्र ग्रहण होता है अथवा जिस राशि पर सूर्य ग्रहण होता है उस राशि का शरीर के जिस अंग से संबंध होता है। ग्रहण काल में किये गये गर्भाधान से मानसिक रूप से विकलांग बच्चे पैदा होते हैं। ऐसा विशेषरूप से चंद्र ग्रहण के दौरान होता है। क्योंकि चंद्रमा को राहु ग्रसता है। मन ही चंद्रमा है। सूर्य ग्रहण काल में किये गर्भाधान से शारीरीक विकलांगता आती है। स्वास्थ्य खराब रहता है। क्योंकि सूर्य आत्मा एवं देह है। अब बारी आती है कि माता गर्भवती हो गयी तो नौ माह तक माता क्या करे कि श्रेष्ठ संतान का जन्म हो वह निम्नलिखित है। प्रत्येक माह के गर्भ के देवता को प्रसन्न करे। प्रथम मास: यह शुक्र का महीना होता है। माता के रज पिता के बीज से अंड का निषेचन होता है। शुक्र अधिपत्य इस माह में माता-पिता का शुक्र या आने वाले जीव का शुक्र कमजोर है तो गर्भपात हो जायेगा। यदि गर्भाधान के समय, गर्भधारण करते समय माता-पिता का शुक्र अच्छा है तो बच्चा सुंदर होगा। दूसरा महीना: गर्भावस्था का दूसरा महीना मंगल का होता है। इस महीने का मालिक मंगल है यदि माता-पिता का मंगल गोचर में गर्भाधान के समय अच्छा है तो बच्चा बलशाली, पराक्रमी, वीर होगा नहीं तो रक्ताल्पता का रोगी होगा। उसे रक्त विकार की बीमारियां हो सकती है इस महीने में मां को गुड़ का दान करना चाहिए। गरम मसाला नहीं खाना चाहिए। सुंदरकांड का पाठ करना चाहिए। नारियल, सौंफ, मिश्री, खोया डाला दूध पीना चाहिए। जिससे बालक का मंगल मजबूत हो सके एवं बच्चा बलशाली पराक्रमी, निरोग बने। इस महीने हनुमत अराधना परमावश्यक है। तीसरा महीना: इस महीने में गर्भस्थ शिशु पर बृहस्पति का अधिपत्य रहता है। ज्ञान, बुद्धि तथा नेत्रों का निर्माण इस महीने में होता है। माता को चंदन, केसर का तिलक लगाना चाहिए। गुरु के सान्निध्य में रहना चाहिए। ज्ञान विज्ञान की पुस्ताकें का अध्ययन करना चाहिए। जिससे बच्चा धार्मिक विचारों का, संस्कारवान, आज्ञाकारी, तेजस्वी, मेधावी तथा विद्वानों का सम्मान करने वाला गोरा एवं सुंदर हो। चतुर्थ माह: इस महीने का मालिक सूर्य है। इस महीने सूर्य को अघ्र्य देने, सूर्य का मंत्र जाप करने, उनका दर्शन अराधना करने, गायत्री मंत्र का जाप करने से गर्भस्थ शिशु को सूर्य का आशीर्वाद प्राप्त होता है। तांबे के गिलास से पानी पीना चाहिए। इस समय शरीर के सारे अंगों का निर्माण हो जाता है। नमक कम खाना चाहिए। गुड़ थोड़ा खाना चाहिए। पानी में गुलाब जल डालकर स्नान करना चाहिए। जिससे बालक का शरीर कांतीमय, तेजस्विता, ओजस्विता, आत्मबल मजबूत बने। पांचवा महीना: पांचवां महीना चंद्र का महीना होता है। माता को चांदी के गिलास में पानी पीना चाहिए। चांदी का टुकड़ा पास रखे या चांदी की अंगूठी पहनें। ठंडा पानी, ठंडे पेय पदार्थ, ठंडी वस्तुओं का सेवन न करें। सुबह-शाम गाय के दूध में गाय का घी डालकर ऊं नमः शिवाय का जप कर उस दूध को पीयें। इस पूरे महीने के बीच में एक बार शिवजी का रूद्राभिषेक करवा लेना चाहिए। मां न कर सके तो कोई भी उसके निमित्त करें। चंद्र मजबूत होगा एवं गर्भस्थ शिशु आगे चलकर अपनी बातों को अपने विचारों को स्पष्ट कह सकेगा। प्रसन्नचित रहेगा, गौर वर्ण का होगा। इस महीने में पूरी चमड़ी बन जाती है। दूध को पानी या गंगाजल में डालकर पूरे उदर पर लगायें। माता की सेवा करें उनका चरण स्पर्श करें। छठवां महीना: इस महीने का मालिक शनि होता है। माता पिता का शनि खराब है तो बच्चा कमजोर होगा। अतः घर की साफ सफाई का ध्यान रखें। इस महीने घर गंदा न रहे। अस्तव्यस्त न रहे। इस महीने में शिशु के बालों एवं भौहों का निर्माण होता है। आंख, कान, नाक, गला का निर्माण मजबूत होता है। पूजा स्थल, मंदिर की साफ-सफाई पति पत्नी मिलकर करें। नशीली चीज, मांसाहार का सेवन नहीं करें। ऐसा करने से शनि एवं राहु खराब हो जाएंगे। देश एवं समाज की चर्चा करे, पीपल का पेड़ लगाकर सेवा करें। नौकरों को उपहार दें एवं कुष्ठ रोगी को दान दें। बादी चीजों का सेवन नहीं करें। लोहे का छल्ला पहनें। पानी में बेलपत्र, डालकर नहायें। झूठ नहीं बोलें। नाखून साफ रखें। इससे शिशु के शनि मजबूत होंगे। सातवां महीना: सातवें महीने का मालिक बुध है। बुध कमजोर होने से फेफड़ा कमजोर, सांस की बीमारी, स्नायुतंत्र कमजोर, पेट कमजोर होगा। माता-पिता का बुध कमजोर होने पर भी बालक को उपरोक्त बीमारियां हो सकती है। अतः मां-बाप नाड़ी शोधन करें। हरी घास पर टहलें। पत्तेदार हरी सब्जियों का सेवन करें। बहन एवं बुआ का सम्मान करें। बुध कमजोर होने से गणित कमजोर हो जायेगा। घर की उत्तर दिशा स्वच्छ रखें। आठवां महीना: इस महीने में मणिबंध के पास अंगूठे के नीचे एवं कनिष्ठिका अंगुली के प्रथम एवं द्वितीय पोर को दबाते रहें। नींद की दवाई नहीं लें। घर की नाली साफ रखें। नवग्रह मंत्र का जप एवं पूजन करें। कुत्ते को रोटी दें। गहरी सांस लेकर ‘ऊं’ का जप करें। गणित की पढ़ाई न आये तब भी सरल रूप में करें। सूर्यास्त के बाद गरिष्ठ भोजन नहीं लें। इस महीने लोहे का कड़ा उतार दें। दूध में केला डालकर ग्रहण करें। जल में बेलपत्र डालकर नहाएं। गायत्री मंत्र का जप करें। पिता का सुबह शाम चरण स्पर्श करें, इससे सूर्य मजबूत होंगे। माता का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लें, इससे चंद्र मजबूत होगा। भाईयों से प्रेम रखें। बड़े भाई का चरण छूकर आशीर्वाद लें। इससे मंगल बलवान होगा। बहन, बुआ, बेटी का सम्मान करें, उपहार दें। लटजीरा की तीन पत्तियां किसी बुधवार को गर्भिणी को खिला दें। बुध बलवान होगा। गुरु, ब्राह्मण, विद्वान का सम्मान करें। सदैव गुरु का चिंतन करें। बृहस्पति बलवान होगा। स्त्री का सम्मान करें। गाय को रोटी दें। शुक्र मजबूत होगा। नौकर, सेवक एवं अधीनस्थों को प्रसन्न रखें। उनकी दुआएं लें। शनि बलवान होगा। भंगी, मेहतर को दान देते रहें। भैरव मंदिर में प्रसाद चढ़ावें, कुत्ते को रोटी दें। इससे राहु बलवान होंगे। इस प्रकार नवग्रह को प्रसन्न करने से निश्चित ही आने वाले शिशु के ग्रह उसे आशीर्वाद देंगे तथा उसकी कुंडली में अच्छी स्थिति का निर्माण करेंगे। प्रारब्ध के ग्रह उसके कुछ अनुकूल बन सकते हैं। यह माता के हाथ में है। जीव को तो अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। चाहे वह शंकराचार्य हों या स्वामी रामकृष्ण परमहंस हों। भगवान भी मानवतन धारण किये तो कुछ कष्ट उन्हें भी सहने पड़ें। नौवा महीना: नौवें माह में ‘ऊं’ का जाप करते रहें। महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। अपने इष्ट का ध्यान करें। चांदी का छल्ला पहने रहें। दूध, केला लेते रहें। गर्भ में बालक के रहने पर माता को नवग्रह मंत्र का जप अवश्य करना चाहिए। यदि संभव हो तो ‘विष्णुसहस्रनाम’ का पाठ करें। क्योंकि यह पाठ सारे पापों का विनाशक है। यदि गर्भिणी सारे नियमों का उपरोक्तानुसार पालन करती है तो निश्चित रूप से उसके गर्भ में जो जीव है उसके संचित या प्रारब्ध के पापों का क्षय हो जायेगा क्योंकि एक ही उपाय है इश्वर की भक्ति तथा संत की शरण। उसके शिशु को गर्भ से ही नवग्रहों का आशीर्वाद प्राप्त होता रहेगा। इस प्रकार जो जीव जनम लेगा वह स्वयं के लिए तो भाग्यशाली होगा, साथ ही साथ माता-पिता के लिए भी एवं राष्ट्र के लिए महान व्यक्ति होगा।

कुंडली में शनि से बनने वाले विभिन्न ग्रह योग.......

शनि का नाम सुनकर ही जातक भयभीत/चिंताग्रस्त हो जाते हैं, जबकि ऐसा सोचना हमेशा सत्य नहीं होता। शनि देव को भगवान शिव ने न्यायाधीश का पद दिया है और उसका दायित्व शनिदेव पूर्ण निष्ठा से व बिना किसी दुराग्रह के संपादित करते हैं। साढ़ेसाती व ढैय्या के समय जरूर कष्ट प्रदान करते हैं परंतु पूर्ण समय तक नहीं, उसमें भी प्रभाव मित्र राशि में है या शत्रु राशि में तथा उन पर किसी शुभ ग्रह का प्रभाव है या अशुभ ग्रह का, तदनुसार शुभ-अशुभ फल प्राप्त होते हैं। शनि से बनने वाले विभिन्न योगों का क्रमानुसार वर्णन इस प्रकार हैः 1. शशयोग: अगर शनि देव केंद्र स्थानों में स्वराशि का होकर बैठे हां (मकर, कुंभ) तो यह योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक नौकरों से अच्छी तरह काम लेता है, किसी संस्थान समूह या कस्बे का प्रमुख और राजा होता है एवं वह सब गुणों से युक्त सर्वसंपन्न होता है। 2. राजयोग: अगर वृष लग्न में चंद्रमा हो, दशम में शनि हो, चतुर्थ में सूर्य तथा सप्तमेश गुरु हो तो यह योग बनता है। ऐसा जातक सेनापति/पुलिस कप्तान या विभाग का प्रमुख होता है। 3. दीर्घ आयु योग: लग्नेश, अष्टमेश, दशमेश व शनि केंद्र त्रिकोण या लाभ भाव में (11वां भाव) हो तो दीर्घ आयु योग होता है। 4. रवि योग: अगर सूर्य दशम भाव में हो और दशमेश तीसरे भाव में शनि के साथ बैठा है तो यह योग बनता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक उच्च विचारों वाला और सामान्य आहार लेने वाला होता है। जातक सरकार से लाभान्वित, विज्ञान से ओतप्रोत, कमल के समान आंखों व भरी हुई छाती वाला होता है। 5. पशुधन लाभ योग: यदि चतुर्थ में शनि के साथ सूर्य तथा चंद्रमा नवम भाव में हो, एकादश स्थान में मंगल हो तो गाय भैंस आदि पशु धन का लाभ होता है। 6. अपकीर्ति योग: अगर दशम में सूर्य व श्न हो व अशुभ ग्रह युक्त या दृष्ट हो तो इस योग का निर्माण होता है। इस प्रकार के जातक की ख्याति नहीं होती वरन् वह कुख्यात होता है। 7. बंधन योग: अगर लग्नेश और षष्टेश केंद्र में बैठे हों और शनि या राहु से युति हो तो बंधन योग बनता है। इसमें जातक को कारावास काटना पड़ता है। 8. धन योग: लग्न से पंचम भाव में शनि अपनी स्वराशि में हो और बुध व मंगल ग्यारहवें भाव में हों तो यह योग निर्मित होता है। इस योग में जन्म लेने वाला जातक महाधनी होता है। अगर लग्न में पांचवे घर में शुक्र की राशि हो तथा शुक्र पांचवे या ग्यारहवें भाव में हो तो धन योग बनता है। ऐसा जातक अथाह संपत्ति का मालिक होता है। 9. जड़बुद्धि योग: अगर पंचमेश अशुभ ग्रह से दृष्ट हो या युति करता हो, शनि पंचम में हो तथा लग्नेश को शनि देखता हो तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाले जातक की बुद्धि जड़ होती है। 10. कुष्ठ योग: यदि मंगल या बुध की राशि लग्न में हो अर्थात मेष, वृश्चिक, मिथुन, कन्या लग्न में हो एवं लग्नेश चंद्रमा के साथ हो, इनके साथ राहु एवं शनि भी हो तो कुष्ठ रोग होता है। षष्ठ स्थान में चंद्र, शनि हो तो 55वें वर्ष में कुष्ठ की संभावना रहती है। 11. वात रोग योग: यदि लग्न में एवं षष्ठ भाव में शनि हो तो 59 वर्ष में वात रोग होता है। जब बृहस्पति लग्न में हो व शनि सातवें में हो तो यह योग बनता है। 12. दुर्भाग्य योग: (क) यदि नवम में शनि व चंद्रमा हो, लग्नेश नीच राशि में गया हो तो मनुष्य भीख मांग कर गुजारा करता है। (ख) यदि पंचम भाव में तथा पंचमेश या भाग्येश अष्टम में नीच राशिगत हो तो मनुष्य भाग्यहीन होता है। 13. पापकर्म से धनार्जन योग: यदि द्वादश भाव में शनि-राहु के साथ मंगल हो तथा शुभ ग्रह की दृष्टि नहीं हो तो पाप कार्यों से धन लाभ होता है। 14. अंगहीन योग: दशम में चंद्रमा हो सप्तम में मंगल हो सूर्य से दूसरे भाव में शनि हो तो यही योग बनता है। इस योग में जातक अंगहीन हो जाता है। 15. सदैव रोगी योग: यदि षष्ठभाव तथा षष्ठेश दोनों ही पापयुक्त हां और शनि राहु साथ हों तो सदैव रोगी होता है। 19. मतिभ्रम योग: शनि लग्न में हो मंगल नवम पंचम या सप्तम में हो, चंद्रमा शनि के साथ बारहवं भाव में हों एवं चंद्रमा कमजोर हो तो यह योग बनता है। 20. बहुपुत्र योग: अगर नवांश में राहु पंचम भाव में हो व शनि से संयुक्त हो तो इस योग का निर्माण होता है। इस योग में जन्म लेने वाले जातक के बहुत से पुत्र होते हैं। 21. युद्धमरण योग: यदि मंगल छठे या आठवें भाव का स्वामी होकर छठे, आठवें या बारहवें भाव में शनि या राहु से युति करे तो जातक की युद्ध में मृत्यु होती है। 22. नरक योग: यदि 12वें भाव में शनि, मंगल, सूर्य, राहु हो तथा व्ययेश अस्त हो तो मनुष्य नरक में जाता है और पुनर्जन्म लेकर कष्ट भोगता है। 23. सर्प योग: यदि तीन पापग्रह शनि, मंगल, सूर्य कर्क, तुला, मकर राशि में हो या लगातार तीन केंद्रों में हो तो सर्पयोग होता है। यह एक अशुभ योग है। 24. दत्तक पुत्र योग: शनि-मंगल यदि पांचवें भाव में हों तथा सप्तमेश 11वें भाव में हो, पंचमेश शुभ हो तो यह योग बनता है। नवम भाव में चर राशि में शनि से दृष्ट हो, द्वादशेश बलवान हो, तो जातक गोद जायेगा। यदि पांचवें भाव में ग्रह हो तथा पंचमेश व्यय स्थान में हो, लग्नेश व चंद्र बली हो तो जातक को गोद लिया पुत्र होगा।

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स्थिरप्रज्ञ बनें और पायें सफलता -



कुछ लोगों का स्वाभाव होता है कि वे जल्दी-जल्दी अपना काम बदलते रहते हैं। एक काम को ठीक से किये बिना असफलता के डर से कार्य बदल देते हैं या उस कार्य को छोड़कर दूसरे काम में ध्यान देने लगते हैं। काम को अच्छे से किए बिना बदलने से स्थायी सफलता मिलने तथा विष्वास प्राप्त करने में भी अवरोध आता है। अतः अपनी रूचि और योग्यतानुसार किसी एक लक्ष्य तथा दिषा का चुनाव कर उस कार्य को तत्परतापूर्वक स्थायी रूप से करने से सफलता निष्चित ही प्राप्त होगी। यदि किसी के जीवन में स्थिरप्रज्ञ होना हो तो उसे अपनी कुंडली का अध्ययन कराया जाना चाहिए और अस्थिरता को रोकने के लिए कुंडली के तीसरे एवं एकादष स्थान का अध्ययन कर देखना चाहिए कि कहीं तीसरे स्थान का स्वामी कमजोर है तो कमजोर मानसिकता के कारण आत्मविष्वास की कमी के चलते स्थिरता में बाधक होता है वहीं यदि एकादष स्थान का स्वामी विपरीत हो तो दैनिक-दैनिंदन कार्य में स्थिरता केा कम कर देता है। इसी प्रकार यदि दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्य स्थान में राहु हो या इन स्थानों का स्वामी राहु से पापाक्रांत हो जाए तो भी जीवन में स्थाईत्व की कमी हो सकती है। अतः अगर अस्थाईत्व प्रकृति ही सफलता में बाधक हो तो तीसरे, एकादष एवं राहु की शांति कराना, मंत्र का जाप करना तथा सूक्ष्म जीवों की सेवा करना चाहिए, जिससे स्थिरप्रज्ञ बन जा सकता है और जीवन में स्थाई सफलता प्राप्त की जा सकती है।

अनिष्ट की आंशका दूरने हेतु करें रवि योग में रवि की पूजा -

ज्योतिष के अनुसार अगर कोई भी कार्य शुभ योग-संयोग देखकर किया जाए तो सफलता निश्चित रूप से मिलती है। शुभ कार्य संपन्न करने या मंगल कार्य को बिना किसी बाधा के करने के लिए के लिए सिद्धि योग एवं शुभ मुहुर्त देख कर ही किए जाने चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस तरह हिमालय का हिम सूर्य के उगने पर गल जाता है और सैकडों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है, उसी तरह से रवि योग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात इस योग में सभी शुभ कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण होते हैं। रवि-योग को सूर्य का अभीष्ट प्राप्त होने के कारण प्रभावशाली योग माना जाता है। सूर्य की पवित्र ऊर्जा से भरपूर होने से इस योग में किया गया कार्य अनिष्ट की आंशका को नष्ट करके शुभ फल प्रदान करता है। यह संयोग खरीदी एवं कोई भी शुभ कार्य की शुरुआत के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त माने जाते हैं। आज किए जाने वाले शुभ कार्य विशेष फलदायी होंगे क्योंकि आज सर्वार्थसिद्ध योग भी है। अतः रवियोग के संयोग में बाजार से खरीदी स्थायित्व प्रदान करने वाली होगी अतः स्थाथी संपत्ति क्रय हेतु सूर्य की पूजा के साथ किए गए कार्य आज शुभ फलदायी है।