Monday 19 September 2016

गया का प्रसिद्ध "मुक्तिधाम मंदिर"

पितृों के तर्पण के लिए प्रसिद्ध 'मुक्तिधाम' मंदिर गया में स्थित है और यह वही जगह है जहां पर माता सीता ने भगवान श्रीराम के पिता और अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान किया था.
पूरे देश से लोग पहुंचते हैं यहां
बिहार के गया को विश्व में मुक्तिधाम के रूप में जाना जाता है और ऐसी मान्यता है कि गयाजी में पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. बिहार में गया धाम का जिक्र गरूड़ पुराण समेत ग्रंथों में भी दर्ज है. कहा जाता है कि गयाजी में श्राद्ध करने मात्र से ही आत्मा को विष्णुलोक प्राप्त हो जाता है.
पौराणिक कथा के अनुसार
एक पौराणिक कथा के अनुसार वनवास काल के दौरान भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचते हैं. पिंडदान के लिए राम और लक्ष्मण जरूरी सामान लेने जाते हैं और माता सीता उनका इंतजार करती हैं. काफी समय बीत जाने के बावजूद दोनों भाई वापस नहीं लौटते तभी अचानक राजा दशरथ की आत्मा माता सीता के पास आकर पिंडदान की मांग करती है.
राजा दशरथ की मांग पर माता सीता फल्गू नदी के किनारे बैठकर वहां लगे केतकी के फूलों और गाय को साक्षी मानकर बालू के पिंड बनाकर उनके लिए पिंडदान करती हैं. कुछ समय बाद जब भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर लौटते हैं, तब सीता उन्हें बताती है कि वे महाराज दशरथ का पिंडदान कर चुकी हैं. इस पर श्रीराम बिना साम्रगी पिंडदान को मानने से इंकार करते हुए उन्हें इसका प्रमाण देने को कहते हैं.
भगवान राम के प्रमाण पर सीता ने केतकी के फूल, गाय और बालू मिट्टी से गवाही देने के लिए कहा, लेकिन वहां लगे वटवृक्ष के अलावा किसी ने भी सीताजी के पक्ष में गवाही नहीं दी. इसके बाद सीताजी ने महाराज दशरथ की आत्मा का ध्यान कर उन्हीं से गवाही देने की प्रार्थना की. उनके आग्रह पर स्वयं महाराज दशरथ की आत्मा प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सीता ने उनका पिंडदान कर दिया है. अपने पिता की गवाही पाकर भगवान राम आश्वस्त हो गए. वहीं फल्गू नदी और केतकी के फूलों के झूठ बोलने पर क्रोधित माता सीता ने फल्गू नदी को सूख जाने का श्राप दे दिया.
श्राप के कारण आज भी फल्गू नदी का पानी सूखा हुआ है और केवल बारिश में दिनों में इसमें कुछ पानी होता है. फल्गू नदी के दूसरे तट पर मौजूद सीताकुंड का पानी सूखा ही रहता है इसलिए आज भी यहां बालू मिट्टी या रेत से ही पिंडदान किया जाता है.
दूसरी मान्यता के अनुसार
ऐसी भी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष का पखवाड़ा सिर्फ पितरों अर्थात पूर्वजों के पूजन और तर्पण के लिए सुनिश्चित होता है. पितृपक्ष या महालय पक्ष में पिंडदान अहम कर्मकांड है. पिंडदान के लिए गया को सर्वोत्तम स्थल माना जाता है. वैसे तो पूरे वर्ष यहां पिंडदान किया जाता है लेकिन पितृपक्ष के दौरान पिंडदान का विशेष महत्व कहा गया है.

Sunday 18 September 2016

पुत्रदा एकादशी

पद्म पुराण के अनुसार सांसारिक सुखों की प्राप्ति और पुत्र इच्छुक भक्तों के लिए पुत्रदा एकादशी व्रत को फलदायक माना जाता है। यह व्रत पौष और श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। संतानहीन या पुत्र हीन जातको के लिए इस व्रत को बेहद अहम माना जाता है। पौष और श्रावण माह की एकादशी को पुत्रदा एकादशी व्रत किया जाता है।
पुत्रदा एकादशी व्रत विधि 
पुत्रदा एकादशी व्रत रखने वाले व्यक्ति को दशमी के दिन लहसुन, प्याज आदि नहीं खाना चाहिए। साथ ही दशमी के दिन किसी प्रकार का भोग-विलास नहीं करना चाहिए। पुत्रदा एकादशी के दिन सुबह स्नानादि से शुद्ध होकर उपवास करना चाहिए। भगवान विष्णु और विशेषकर विष्णु जी के बाल गोपाल रूप की पूजा करनी चाहिए। द्वादशी को भगवान विष्णु की अर्घ्य देकर पूजा संपन्न करनी चाहिए। द्वादशी के दिन ब्राह्मण को भोजन करवाने के बाद उनसे आशीर्वाद प्राप्त करके स्वयं भोजन करना चाहिए।
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा
महाराज युधिष्ठिर ने पूछा- हे भगवान! आपने सफला एकादशी का माहात्म्य बताकर बड़ी कृपा की। अब कृपा करके यह बतलाइए कि पौष शुक्ल एकादशी का क्या नाम है उसकी विधि क्या है और उसमें कौन-से देवता का पूजन किया जाता है। 
भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण बोले- हे राजन! इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। इसमें भी नारायण भगवान की पूजा की जाती है। इस चर और अचर संसार में पुत्रदा एकादशी के व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और लक्ष्मीवान होता है। इसकी मैं एक कथा कहता हूँ सो तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
भद्रावती नामक नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके कोई पुत्र नहीं था। उसकी स्त्री का नाम शैव्या था। वह निपुत्री होने के कारण सदैव चिंतित रहा करती थी। राजा के पितर भी रो-रोकर पिंड लिया करते थे और सोचा करते थे कि इसके बाद हमको कौन पिंड देगा। राजा को भाई, बाँधव, धन, हाथी, घोड़े, राज्य और मंत्री इन सबमें से किसी से भी संतोष नहीं होता था। 
वह सदैव यही विचार करता था कि मेरे मरने के बाद मुझको कौन पिंडदान करेगा। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं का ऋण मैं कैसे चुका सकूँगा। जिस घर में पुत्र न हो उस घर में सदैव अँधेरा ही रहता है। इसलिए पुत्र उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। 
जिस मनुष्य ने पुत्र का मुख देखा है, वह धन्य है। उसको इस लोक में यश और परलोक में शांति मिलती है अर्थात उनके दोनों लोक सुधर जाते हैं। पूर्व जन्म के कर्म से ही इस जन्म में पुत्र, धन आदि प्राप्त होते हैं। राजा इसी प्रकार रात-दिन चिंता में लगा रहता था। 
एक समय तो राजा ने अपने शरीर को त्याग देने का निश्चय किया परंतु आत्मघात को महान पाप समझकर उसने ऐसा नहीं किया। एक दिन राजा ऐसा ही विचार करता हुआ अपने घोड़े पर चढ़कर वन को चल दिया तथा पक्षियों और वृक्षों को देखने लगा। उसने देखा कि वन में मृग, व्याघ्र, सूअर, सिंह, बंदर, सर्प आदि सब भ्रमण कर रहे हैं। हाथी अपने बच्चों और हथिनियों के बीच घूम रहा है। 
इस वन में कहीं तो गीदड़ अपने कर्कश स्वर में बोल रहे हैं, कहीं उल्लू ध्वनि कर रहे हैं। वन के दृश्यों को देखकर राजा सोच-विचार में लग गया। इसी प्रकार आधा दिन बीत गया। वह सोचने लगा कि मैंने कई यज्ञ किए, ब्राह्मणों को स्वादिष्ट भोजन से तृप्त किया फिर भी मुझको दु:ख प्राप्त हुआ, क्यों?
राजा प्यास के मारे अत्यंत दु:खी हो गया और पानी की तलाश में इधर-उधर फिरने लगा। थोड़ी दूरी पर राजा ने एक सरोवर देखा। उस सरोवर में कमल खिले थे तथा सारस, हंस, मगरमच्छ आदि विहार कर रहे थे। उस सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम बने हुए थे। उसी समय राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे। राजा शुभ शकुन समझकर घोड़े से उतरकर मुनियों को दंडवत प्रणाम करके बैठ गया। 
राजा को देखकर मुनियों ने कहा- हे राजन! हम तुमसे अत्यंत प्रसन्न हैं। तुम्हारी क्या इच्छा है, सो कहो। राजा ने पूछा- महाराज आप कौन हैं, और किसलिए यहाँ आए हैं। कृपा करके बताइए। मुनि कहने लगे कि हे राजन! आज संतान देने वाली पुत्रदा एकादशी है, हम लोग विश्वदेव हैं और इस सरोवर में स्नान करने के लिए आए हैं।
यह सुनकर राजा कहने लगा कि महाराज मेरे भी कोई संतान नहीं है, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो एक पुत्र का वरदान दीजिए। मुनि बोले- हे राजन! आज पुत्रदा एकादशी है। आप अवश्य ही इसका व्रत करें, भगवान की कृपा से अवश्य ही आपके घर में पुत्र होगा। 
मुनि के वचनों को सुनकर राजा ने उसी दिन एकादशी का ‍व्रत किया और द्वादशी को उसका पारण किया। इसके पश्चात मुनियों को प्रणाम करके महल में वापस आ गया। कुछ समय बीतने के बाद रानी ने गर्भ धारण किया और नौ महीने के पश्चात उनके एक पुत्र हुआ। वह राजकुमार अत्यंत शूरवीर, यशस्वी और प्रजापालक हुआ।

श्रीकृष्ण बोले- हे राजन! पुत्र की प्राप्ति के लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत करना चाहिए। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ता या सुनता है उसे अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।


सोमवार व्रत

सोमवार व्रत की विधि:
नारद पुराण के अनुसार सोमवार व्रत में व्यक्ति को प्रातः स्नान करके शिव जी को जल और बेल पत्र चढ़ाना चाहिए तथा शिव-गौरी की पूजा करनी चाहिए. शिव पूजन के बाद सोमवार व्रत कथा सुननी चाहिए. इसके बाद केवल एक समय ही भोजन करना चाहिए. साधारण रूप से सोमवार का व्रत दिन के तीसरे पहर तक होता है. मतलब शाम तक रखा जाता है. सोमवार व्रत तीन प्रकार का होता है प्रति सोमवार व्रत, सौम्य प्रदोष व्रत और सोलह सोमवार का व्रत. इन सभी व्रतों के लिए एक ही विधि होती है.
एक समय की बात है, किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसके घर में धन की कोई कमी नहीं थी लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी इस कारण वह बहुत दुखी था. पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार व्रत रखता था और पूरी श्रद्धा के साथ शिव मंदिर जाकर भगवान शिव और पार्वती जी की पूजा करता था.
उसकी भक्ति देखकर एक दिन मां पार्वती प्रसन्न हो गईं और भगवान शिव से उस साहूकार की मनोकामना पूर्ण करने का आग्रह किया. पार्वती जी की इच्छा सुनकर भगवान शिव ने कहा कि 'हे पार्वती, इस संसार में हर प्राणी को उसके कर्मों का फल मिलता है और जिसके भाग्य में जो हो उसे भोगना ही पड़ता है.' लेकिन पार्वती जी ने साहूकार की भक्ति का मान रखने के लिए उसकी मनोकामना पूर्ण करने की इच्छा जताई.
माता पार्वती के आग्रह पर शिवजी ने साहूकार को पुत्र-प्राप्ति का वरदान तो दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि उसके बालक की आयु केवल बारह वर्ष होगी. माता पार्वती और भगवान शिव की बातचीत को साहूकार सुन रहा था. उसे ना तो इस बात की खुशी थी और ना ही दुख. वह पहले की भांति शिवजी की पूजा करता रहा.
कुछ समय के बाद साहूकार के घर एक पुत्र का जन्म हुआ. जब वह बालक ग्यारह वर्ष का हुआ तो उसे पढ़ने के लिए काशी भेज दिया गया. साहूकार ने पुत्र के मामा को बुलाकर उसे बहुत सारा धन दिया और कहा कि तुम इस बालक को काशी विद्या प्राप्ति के लिए ले जाओ और मार्ग में यज्ञ कराना. जहां भी यज्ञ कराओ वहां ब्राह्मणों को भोजन कराते और दक्षिणा देते हुए जाना.
दोनों मामा-भांजे इसी तरह यज्ञ कराते और ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते काशी की ओर चल पड़े. रात में एक नगर पड़ा जहां नगर के राजा की कन्या का विवाह था. लेकिन जिस राजकुमार से उसका विवाह होने वाला था वह एक आंख से काना था. राजकुमार के पिता ने अपने पुत्र के काना होने की बात को छुपाने के लिए एक चाल सोची.
साहूकार के पुत्र को देखकर उसके मन में एक विचार आया. उसने सोचा क्यों न इस लड़के को दूल्हा बनाकर राजकुमारी से विवाह करा दूं. विवाह के बाद इसको धन देकर विदा कर दूंगा और राजकुमारी को अपने नगर ले जाऊंगा. लड़के को दूल्हे के वस्त्र पहनाकर राजकुमारी से विवाह कर दिया गया. लेकिन साहूकार का पुत्र ईमानदार था. उसे यह बात न्यायसंगत नहीं लगी.
उसने अवसर पाकर राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिखा कि 'तुम्हारा विवाह तो मेरे साथ हुआ है लेकिन जिस राजकुमार के संग तुम्हें भेजा जाएगा वह एक आंख से काना है. मैं तो काशी पढ़ने जा रहा हूं.'
जब राजकुमारी ने चुन्नी पर लिखी बातें पढ़ी तो उसने अपने माता-पिता को यह बात बताई. राजा ने अपनी पुत्री को विदा नहीं किया जिससे बारात वापस चली गई. दूसरी ओर साहूकार का लड़का और उसका मामा काशी पहुंचे और वहां जाकर उन्होंने यज्ञ किया. जिस दिन लड़के की आयु 12 साल की हुई उसी दिन यज्ञ रखा गया. लड़के ने अपने मामा से कहा कि मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है. मामा ने कहा कि तुम अंदर जाकर सो जाओ.
शिवजी के वरदानुसार कुछ ही देर में उस बालक के प्राण निकल गए. मृत भांजे को देख उसके मामा ने विलाप शुरू किया. संयोगवश उसी समय शिवजी और माता पार्वती उधर से जा रहे थे. पार्वती ने भगवान से कहा- स्वामी, मुझे इसके रोने के स्वर सहन नहीं हो रहा. आप इस व्यक्ति के कष्ट को अवश्य दूर करें.
जब शिवजी मृत बालक के समीप गए तो वह बोले कि यह उसी साहूकार का पुत्र है, जिसे मैंने 12 वर्ष की आयु का वरदान दिया. अब इसकी आयु पूरी हो चुकी है. लेकिन मातृ भाव से विभोर माता पार्वती ने कहा कि हे महादेव, आप इस बालक को और आयु देने की कृपा करें अन्यथा इसके वियोग में इसके माता-पिता भी तड़प-तड़प कर मर जाएंगे.
माता पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उस लड़के को जीवित होने का वरदान दिया. शिवजी की कृपा से वह लड़का जीवित हो गया. शिक्षा समाप्त करके लड़का मामा के साथ अपने नगर की ओर चल दिया. दोनों चलते हुए उसी नगर में पहुंचे, जहां उसका विवाह हुआ था. उस नगर में भी उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया. उस लड़के के ससुर ने उसे पहचान लिया और महल में ले जाकर उसकी खातिरदारी की और अपनी पुत्री को विदा किया.
इधर साहूकार और उसकी पत्नी भूखे-प्यासे रहकर बेटे की प्रतीक्षा कर रहे थे. उन्होंने प्रण कर रखा था कि यदि उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो वह भी प्राण त्याग देंगे परंतु अपने बेटे के जीवित होने का समाचार पाकर वह बेहद प्रसन्न हुए. उसी रात भगवान शिव ने व्यापारी के स्वप्न में आकर कहा- हे श्रेष्ठी, मैंने तेरे सोमवार के व्रत करने और व्रतकथा सुनने से प्रसन्न होकर तेरे पुत्र को लम्बी आयु प्रदान की है. इसी प्रकार जो कोई सोमवार व्रत करता है या कथा सुनता और पढ़ता है उसके सभी दुख दूर होते हैं और समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं.

गणेश प्रतिमा की विसर्जन कथा

हर साल गणेश चतुर्थी से शुरू होकर 10 दिन तक चलने वाले गणेशोत्सव की शुरुआत श्री बाल गंगाधर तिलक ने आज से 100 से अधिक वर्ष पूर्व की थी. इस त्योहार को मानने के पीछे का मुख्य उद्देशय अंग्रेजों के खिलाफ भारतीयों को एकजुट करना था जो धीरे-धीरे पूरे राष्ट्र में मनाया जाने लगा है.
गणेश प्रतिमा की विसर्जन कथा 
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार श्री वेद व्यास ने गणेश चतुर्थी से महाभारत कथा श्री गणेश को लगातार 10 दिन तक सुनाई थी जिसे श्री गणेश जी ने अक्षरश: लिखा था. 10 दिन बाद जब वेद व्यास जी ने आंखें खोली तो पाया कि 10 दिन की अथक मेहनत के बाद गणेश जी का तापमान बहुत बढ़ गया है. तुरंत वेद व्यास जी ने गणेश जी को निकट के सरोवर में ले जाकर ठंडे पानी से स्नान कराया था. इसलिए गणेश स्थापना कर चतुर्दशी को उनको शीतल किया जाता है.
इसी कथा में यह भी वर्णित है कि श्री गणपति जी के शरीर का तापमान ना बढ़े इसलिए वेद व्यास जी ने उनके शरीर पर सुगंधित सौंधी माटी का लेप किया. यह लेप सूखने पर गणेश जी के शरीर में अकड़न आ गई. माटी झरने भी लगी. तब उन्हें शीतल सरोवर में ले जाकर पानी में उतारा. इस बीच वेदव्यास जी ने 10 दिनों तक श्री गणेश को मनपसंद आहार अर्पित किए तभी से प्रतीकात्मक रूप से श्री गणेश प्रतिमा का स्थापन और विसर्जन किया जाता है और 10 दिनों तक उन्हें सुस्वादु आहार चढ़ाने की भी प्रथा है.
दूसरी मान्यता के अनुसार 
मान्‍यता है कि गणपति उत्‍सव के दौरान लोग अपनी जिस इच्‍छा की पूर्ति करना चाहते हैं, वे भगवान गणपति के कानों में कह देते हैं. गणेश स्‍थापना के बाद से 10 दिनों तक भगवान गणपति लोगों की इच्‍छाएं सुन-सुनकर इतना गर्म हो जाते हैं कि चतुर्दशी को बहते जल में विसर्जित कर उन्‍हें शीतल किया जाता है.
गणपति बप्‍पा से जुड़े मोरया नाम के पीछे गण‍पति जी का मयूरेश्‍वर स्‍वरूप माना जाता है. गणेश-पुराण के अनुसार सिंधु नामक दानव के अत्‍याचार से बचने के लिए देवगणों ने गणपति जी का आह्वान किया. सिंधु का संहार करने के लिए गणेश जी ने मयूर को वाहन चुना और छह भुजाओं का अवतार धारण किया. इस अवतार की पूजा भक्‍त गणपति बप्‍पा मोरया के जयकारे के साथ करते हैं.

मोती रत्न

वैदिक ज्योतिष के अनुसार मोती, चन्द्र गृह का प्रतिनिधित्व करता है! कुंडली में यदि चंद्र शुभ प्रभाव में हो तो मोती अवश्य धारण करना चाहिए ! चन्द्र मनुष्य के मन को दर्शाता है, और इसका प्रभाव पूर्णतया हमारी सोच पर पड़ता है! हमारे मन की स्थिरता को कायम रखने में मोती अत्यंत लाभ दायक सिद्ध होता है! इसके धारण करने से मात्री पक्ष से मधुर सम्बन्ध तथा लाभ प्राप्त होते है! मोती धारण करने से आत्म विश्वास में बढहोतरी भी होती है ! हमारे शरीर में द्रव्य से जुड़े रोग भी मोती धारण करने से कंट्रोल किये जा सकते है जैसे ब्लड प्रशर और मूत्राशय के रोग , लेकिन इसके लिए अनुभवी ज्योतिष की सलाह लेना अति आवशयक है, क्योकि कुंडली में चंद्र अशुभ होने की स्तिथि में मोती नुक्सान दायक भी हो सकता है! पागलपन जैसी बीमारियाँ भी कुंडली में स्थित अशुभ चंद्र की देंन होती है , इसलिए मोती धारण करने से पूर्व यह जान लेना अति आवशयक है की हमारी कुंडली में चंद्र की स्थिति क्या है! छोटे बच्चो के जीवन से चंद्र का बहुत बड़ा सम्बन्ध होता है क्योकि नवजात शिशुओ का शुरवाती जीवन , उनकी कुंडली में स्थित शुभ या अशुभ चंद्र पर निर्भर करता है! यदि नवजात शिशुओ की कुंडली में चन्द्र अशुभ प्रभाव में हो तो बालारिष्ठ योग का निर्माण होता है! फलस्वरूप शिशुओ का स्वास्थ्य बार बार खराब होता है, और परेशानिया उत्त्पन्न हो जाती है , इसीलिए कई ज्योतिष और पंडित जी अक्सर छोटे बच्चो के गले में मोती धारण करवाते है! द्रव्य से जुड़े व्यावसायिक और नोकरी पेशा लोगों को मोती अवश्य धारण करना चाहिए , जैसे दूध और जल पेय आदि के व्यवसाय से जुड़े लोग , लेकिन इससे पूर्व कुंडली अवश्य दिखाए !
सादगी, पवित्रता और कोमलता की निशानी माने जाने वाला मोती एक चमत्कारी ज्योतिषीय रत्न माना जाता है। इसे मुक्ता, शीशा रत्न और पर्ल (Pearl) के नाम से भी जाना जाता है। मोती सिर्फ एक रंग का ही नहीं होता बल्कि यह कई अन्य रंगों जैसे गुलाबी, लाल, हल्के पीले रंग का भी पाया जाता है। मोती, समुद्र के भीतर स्थित घोंघे नामक कीट में पाए जाते हैं। 
मोती के तथ्य 
* मोती के बारे में बताया जाता है कि यह रत्न, बाकी रत्नों से कम समय तक ही चलता है क्योंकि यह रत्न रूखेपन, नमी तथा एसिड से अधिक प्रभावित हो जाता है।
* प्राचीनकाल में मोती (Pearl or Moti) को सुंदरता निखारने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था तथा इसे शुद्धता का प्रतीक माना जाता था।
मोती के लिए राशि 
कर्क राशि के जातकों के लिए मोती धारण करना अत्याधिक लाभकारी माना जाता है । चन्द्रमा से जनित बीमारियों और पीड़ा की शांति के लिए मोती धारण करना लाभदायक माना जाता है। 
मोती के फायदे 
* मोती धारण करने से आत्मविश्वास में वृद्धि होती है। जो जातक मानसिक तनाव से जूझ रहें हों उन्हें मोती को धारण कर लेना चाहिए।
* जिन लोगों को अपनी राशि ना पता हो या कुंडली ना हो, वह भी मोती धारण कर सकते हैं। 
स्वास्थ्य में मोती का लाभ 
* मानसिक शांति, अनिद्रा आदि की पीड़ा में मोती बेहद लाभदायक माना जाता है। 
* नेत्र रोग तथा गर्भाशय जैसे समस्या से बचने के लिए मोती धारण किया जाता है।
* मोती, हृदय संबंधित रोगों के लिए भी अच्छा माना जाता है।
कैसे धारण करें मोती 
ज्योतिषानुसार मोती सोमवार के दिन धारण करना शुभ होता है। मोती धारण करते समय चन्द्रमा का ध्यान और उनके मंत्रों का जाप करना चाहिए। चांदी की अंगूठी में मोती धारण करना अत्यधिक श्रेष्ठ माना जाता है। 
मोती के उपरत्न 
मान्यता है कि मोती नहीं खरीद पाने की स्थिति में जातक मूनस्टोन, सफेद मूंगा या ओपल भी पहन सकते हैं। 
नोट: किसी भी रत्न को धारण करने से पहले रत्न ज्योतिषी की सलाह अवश्य ले लेनी चाहिए।


पुखराज रत्न

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार अखिल ब्राह्मण मे विचरण कर रहे ग्रहो का रत्नों (रंगीन मूल्यवान पत्थरों ) से निकटता का संबंध होता है ।  मनुष्य के जीवन पर आकाशीय ग्रहों व उनकी बदलती चालों का प्रभाव अवश्य पड़ता है, ऐसे मे यदि कोई मनुष्य अपनी जन्म-कुंडली मे स्थित पाप ग्रहों की मुक्ति अथवा अपने जीवन से संबन्धित किसी अल्पसामर्थ्यवान ग्रह की शक्ति मे वृद्धि हेतु उस ग्रह का प्रतिनिधि रत्न धारण करता है तो उस मनुष्य के जीवन तथा भाग्य मे परिवर्तन अवश्यभावी हो जाता है । बशर्ते की उसने वह रत्न असली ओर दोष रहित होने के साथ-साथ पूर्ण विधि-विधान से धारण किया हो ।
ज्योतिष के नवग्रहों मे एकमात्र प्रमुख ग्रह वृहस्पति को देवताओं का गुरु होने का कारण ‘गुरु’ कहा जाता है । यही वह मुख्य ग्रह है जिसके अनुकूल रहने पर जन्मकुंडली के अन्य पापी अथवा क्रूर ग्रहों का दुष्प्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता है । अतयव योगी ज्योतिषी किसी भी जातक की कुंडली का अध्ययन करने से पूर्व उस कुंडली मे वृहस्पति की स्थिति ओर बलाबल पर सर्वप्रथम ध्यान देता है ।
नवग्रहों के नवरत्नों मे से वृहस्पति का रत्न ‘पुखराज’ होता है । इसे ‘गुरु रत्न’ भी कहा जाता है । पुखराज सफ़ेद, पीला, गुलाबी, आसमानी, तथा नीले रंगों मे पाया जाता है । किन्तु वृहस्पति गृह के प्रतिनिधि रंग ‘पीला’ होने के कारण ‘पीला पुखराज’ ही इस गृह के लिए उपयुक्त और अनुकूल रत्न माना गया है । प्रायः पुखराज विश्व के अधिकांश देशों मे न्यूनाधिक्य पाया जाता है , परंतु सामान्यतः ब्राज़ील का पुखराज क्वालिटी मे सर्वोत्तम माना जाता है । वैसे भारत मे भी उत्तम किस्म का पुखराज पाया गया है ।
वृहस्पति के इस प्रतिनिधि रत्न को हिन्दी मे – पुखराज, पुष्यराज , पुखराज ; संस्कृत मे – पुष्यराज ; अँग्रेजी मे – टोपाज अथवा यलो सैफायर ; इजीप्शियन मे – टार्शिश ; फारसी मे – जर्द याकूत ; बर्मी मे – आउटफ़िया ; लैटिन मे – तोपजियों ; चीनी मे – सी लेंग स्याक ; पंजाबी मे – फोकज ; गुजराती मे – पीलूराज ; देवनागरी मे – पीत स्फेटिक माठी ; अरबी मे – याकूत अल अजरक और सीलोनी मे – रत्नी पुष्परगय के नाम से पहचाना व जाना जाता है ।
असली पुखराज की पहचान कैसे करें 
1. चौबीस घंटे तक पुखराज को दूध मे पड़ा रहने पर भी उसकी चमक मे कोई अंतर नही आए तो उसे असली जाने ।
2. जहरीले कीड़े ने जिस जगह पर काटा हो वहाँ पुखराज घिसकर लगाने से यदि जहर तुरंत उतार जाये तो पुखराज असली जाने ।
3. असली पुखराज पारदर्शी व स्निग्ध  होने के साथ हाथ मे लेने पर वजनदार प्रतीत होता है ।
4. गोबर से रगड़ने पर असली पुखराज की चमक मे वृद्धि हो जाती है ।
5. धूप मे सफ़ेद कपड़े पर रख देने से असली पुखराज मे से पीली आभा (किरणे) फूट पड़ती है ।
6. आग मे तपाने पर असली पुखराज तड़कता नहीं है साथ ही उसका रंग बदलकर एकदम सफ़ेद हो जाता है ।
7. असली पुखराज मे कोई न कोई रेशा अवश्य होता है चाहे वह छोटा-सा ही क्यों न हो ?
पुखराज की विशेषताएँ तथा धारण करने से लाभ
वृहस्पति का प्रतिनिधि रत्न होने के कारण चिकना , चमकदार , पानीदार, पारदर्शी ओर अच्छे पीले रंग का पुखराज धारण करने से व्यापार तथा व्यवसाय मे वृद्धि होती है । यह अध्ययन तथा शिक्षा के क्षेत्र मे भी उन्नति का कारक माना गया है । वृहस्पति जीव अर्थात पुत्रकारक गृह होने के कारण इसे धारण करने से वंशवृद्धि होती है । पुत्र अथवा संतान की कामना के इच्छुक दम्पतियों को दोषरहित पीला पुखराज अवश्य ही धारण कर लेना चाहिए । यह भूत-प्रेत बाधा से भी धारण कर्ता की रक्षा करता है । इसे धारण करने से धन-वैभव और ऐश्वर्य की सहज मे ही प्राप्ति होती है  ।
निर्बल वृहस्पति की स्थिति मे निर्दोष पुखराज धारण करना परम कल्याणकारी होता है । यह रत्न अविवाहित जातको (विशेषकर कन्याओं को) विवाह सुख, गृहिणियों को संतान सुख व पति सुख, दंपत्तियों को वैवाहिक जीवन मे सुख एवं व्यापारियों को अत्यधिक लाभ देता है । इसे धारण कर लेने से अनेकानेक प्रकार के शारीरिक , मानसिक , बौद्धिक ओर दैवीय कष्टों से मुक्ति मिल जाती है ।
पुखराज से रोगोपचार
पुखराज हड्डी का दर्द, काली खांसी , पीलिया , तिल्ली, एकांतरा ज्वर मे धारण करना लाभप्रद है । इसे कुष्ठ रोग व चर्म रोग नाशक माना गया है । इसके अलावा इस रत्न को सुख व संतोष प्रदाता, बल-वीर्य व नेत्र ज्योतिवर्धक माना गया है । आयुर्वेद मे इसको जठराग्नि बढ़ाने वाला , विष का प्रभाव नष्ट करने वाला, वीर्य पैदा करने वाला, बवासीर नाशक , बुद्धिवर्धक , वातरोग नाशक, और चेहरे की चमक मे वृद्धि करने वाला लिखा गया है ।  जवान तथा सुंदर युवतियाँ अपने सतीत्व को बचाने के लिए प्राचीन काल मे इसे अपने पास रखती थी क्योंकि इसे पवित्रता का प्रतीक माना जाता है । पेट मे वायु गोला की शिकायत अथवा पांडुरोग मे भी पुखराज धारण करना लाभकारी रहता है ।
पुखराज के उपरत्न
हैं । इन्हे पुखराज की अपेक्षाकृत ज्यादा वजन मे तथा अधिक समय तक धारण करने पर ही प्र्याप्त लाभ परिलक्षित होता है ।
पुखराज के उपरत्न इस प्रकार है – सुनैला (सुनहला ) , केरु, घीया , सोनल , केसरी, फिटकरी व पीला हकीक इत्यादि । इनमे से भी मेरे व्यक्तिगत अनुभवानुसार पीला हकीक तथा सुनैला ही सर्वाधिक प्रभावी पाये गए है ।
पुखराज किसे धारण करना चाहिए
जन्मकुंडली मे वृहस्पति की शुभ भाव मे स्थिति होने पर प्रभाव मे वृद्धि हेतु और अशुभ स्थिति अथवा नीच राशिगत होने पर दोष निवारण हेतु पीला पुखराज धारण करना चाहिए । वृहस्पति की महादशा तथा अंतर्दशा मे भी इसे धारण अवश्य करना चाहिए  ।
धनु, कर्क, मेष, वृश्चिक तथा मीन लग्न अथवा राशि वाले जातक भी इसे धारण करके लाभ उठा सकते हैं । यदि जन्मदिन गुरुवार ठठा पुष्य नक्षत्र हो अथवा जन्म नक्षत्र पुनर्वसु , विशाखा या पूर्वभाद्रपद हो तभी पुखराज धारण करने से लाभ होता है । जिनकी कुंडली मे वृहस्पति केन्द्र अथवा त्रिकोणस्थ अथवा इन स्तनों का स्वामी हो अथवा जन्मकुंडली मे गुरु लग्नेश या प्रधान गृह हो तो उन जातकों को निर्दोष व पीला पुखराज धारण करके अवश्य लाभ उठाना चाहिए ।
पुखराज धारण करने की विधि
पुखराज को सोने की अंगूठी मे जड़वाकर तथा शुक्लपक्ष मे गुरुवार को प्रायः स्नान-ध्यान के पश्चात दाहिने हाथ की तर्जनी उंगली मे धारण करना चाहिए । अंगूठी मे पुखराज इस प्रकार इस प्रकार से जड़वाएँ की रत्न का निचला सिरा खुला रहे तथा अंगुली से स्पर्श करता रहे ।
अंगूठी बनवाने के लिए कम से कम चार कैरट अथवा चार रत्ती के वजन अथवा उससे अधिक वजन का पारदर्शी , स्निग्ध तथा निर्दोष पुखराज लेना चाहिए ।
गुरुवार के दिन अथवा गुरुपुष्य  नक्षत्र मे प्रायः सूर्योदय से ग्यारह बजे के मध्य पुखराज की अंगूठी बनवाणी चाहिए । तत्पश्चात अंगूठी को सर्वप्रथम गंगाजल से, फिर कच्चे दूध से तथा पुनः गंगाजल से धोकर वृहस्पति के मंत्र (ॐ बृं बृहस्पतये नमः ) अथवा (ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः ) का जाप करते हुए धारण करनी चाहिए । अंगूठी धारण करने के पश्चात ब्राह्मण को यथायोग्य दक्षिणा (पीला वस्त्र, चने की दाल, हल्दी, शक्कर, पीला पुष्प तथा गुरु यंत्र इत्यादि) का दान अवश्य देना चाहिए ।

माणिक रत्न

वैदिक ज्योतिष के अनुसार माणिक्य रत्न, सूर्य का प्रतिनिधित्व करता है!  इस रत्न पर सूर्य का स्वामित्व है! यह लाल या हलके गुलाबी रंग का होता है! यह एक मुल्वान रत्न होता है, यदि जातक की कुंडली में सूर्य शुभ प्रभाव में होता है तो माणिक्य रत्न धारण करना चाहिए, इसके धारण करने से धारण करता को अच्छे स्वास्थ्य के साथ साथ पद-प्रतिष्ठा, अधिकारीयों से लाभ प्राप्त होता है! शत्रु से सुरक्षा, ऋण मुक्ति, एवं आत्म स्वतंत्रता प्रदान होती है! माणिक्य एक भहुमुल्य रत्न है और यह उच्च कोटि का मान-सम्मान एवम पद की प्राप्ति करवाता है! सत्ता और राजनीती से जुड़े लोगो को माणिक्य अवश्य धारण करना चाहिए क्योकि यह रत्न सत्ता धारियों को एक उचे पद तक पहुचाने में बहुत सहायता कर सकता है!
माणिक रत्न धारण करने की विधि 
यदि आप माणिक्य धारण करना चाहते है तो 5 से 7 कैरेट का लाल या हलके गुलाबी रंग का पारदर्शी माणिक्य ताम्बे की या स्वर्ण अंगूठी में जड्वाकर किसी भी शुक्लपक्ष के प्रथम रविवार के दिन सूर्य उदय के पश्चात् अपने दाये हाथ की अनामिका में धारण करे! अंगूठी के शुधिकरण और प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए सबसे पहले अंगूठी को दूध, गंगाजल, शहद, और शक्कर के घोल में डुबो कर रखे, फिर पांच अगरबत्ती सूर्य देव के नाम जलाए और प्रार्थना करे की हे सूर्य देव मै आपका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए आपका प्रतिनिधि रत्न धारण कर रहा हूँ! मुझे आशीर्वाद प्रदान करे ! तत्पश्चात अंगूठी को जल से निकालकर ॐ घ्रणिः सूर्याय नम: मन्त्र का जाप 108 बारी करते हुए अंगूठी को अगरबती के ऊपर से घुमाये और 108 बार मंत्र जाप के बाद अंगूठी को विष्णु या सूर्य देव के चरणों से स्पर्श करवा कर अनामिका में धारण करे! माणिक्य धारण तिथि से बारह दिन में प्रभाव देना प्रारंभ करता है और लगभग चार वर्ष तक पूर्ण प्रभाव देता है फिर निषक्रिय हो जाता है! अच्छे प्रभाव के लिए बन्कोक का पारदर्शी माणिक्य 5 से 7 कैरेट वजन में धारण करे |

क्या माणिक को दुसरे रत्नों के साथ पहन सकते है 
माणिक को मोती के साथ पहन सकते हैं और पुखराज के साथ भी पहन सकते हैं। मोती के साथ पहनने से पूर्णिमा नाम का योग बनता है। जबकि माणिक व पुखराज प्रशासनिक क्षेत्र में उत्तम सफलता का कारक होता है। माणिक व मूंगा भी पहन सकते हैं, ऐसा जातक प्रभावशाली व कोई प्रशासनिक क्षेत्र में सफलता पाता है। 
इसे पुखराज, मूंगा के साथ भी पहना जा सकता है। पन्ना व माणिक भी पहन सकते है, इसके पहनने से बुधादित्य योग बनता है। जो पहनने वाले को दिमागी कार्यों में सफल बनाता है। 
माणिक, पुखराज व पन्ना भी साथ पहन सकते हैं। माणिक के साथ नीलम व गोमेद नहीं पहना जा सकता है। सिंह लग्न में जब सूर्य पंचम या नवम भाव में हो तब माणिक पहनना शुभ रहता है। वृषभ लग्न में सूर्य केंद्र से चतुर्थ का स्वामी होता है अत: सूर्य की स्थितिनुसार इस लग्न के जातक भी माणिक पहन सकते हैं। 

Friday 16 September 2016

ज्योतिष शास्त्र में विवाह विलम्ब का कारण....

ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से विवाह में विलम्ब होने के प्रमुख कारण हैं जन्म कुण्डली के सप्तम भाव में अशुभ, अकारक एवं क्रूर ग्रहों का स्थित होना तथा सप्तमेश एवं उसके कारक ग्रह बृहस्पति/ शुक्र एवं भाग्येश का निर्बल होना । यदि पृथकतावादी ग्रह सूर्य, शनि, राहु, केतु सप्तम भाव को प्रभावित करते हैं तो विवाह में विलम्ब के साथ-साथ वैवाहिक जीवन में कलह, तनाव, अलगाव, संबंध विच्छेद जैसी अनेक परेशानियां उत्पन्न होती हैं । लग्न कुण्डली के प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश में से किसी भाव में मंगल स्थित होने पर मंगली दोष निर्मित होता है। इसके कारण भी विवाह में विलम्ब हो सकता है । ज्योतिष विद्वानों के मतानुसार मंगली दोष होने पर विवाह योग 28 वर्ष के पश्चात् बनता है । मंगली दोष में विवाह के पूर्व कुण्डली का मिलान एवम् मंगल ग्रह की शांति हेतु दान, जाप एवं पूजन करना आवश्यक है । जन्म कुण्डली में वैधव्य योग होने पर विद्वान पंडित के मार्गदर्शन मंे भगवान शालिगराम या पीपल के वृक्ष के साथ कन्या का विवाह कराने पर वैधव्य योग नष्ट हो जाता है । शीघ्र विवाह के लिए निम्नानुसार उपाय करना चाहिए:- 1. कुण्डली में बृहस्पति निर्बल होने पर उसका व्रत, जाप,पूजन एवं स्वर्ण धातु में सवा 5 रत्ती का पुखराज धारण करना चाहिए । 2. 101 साबूत चावल के दाने चंदन में डुबोकर ऊँ नमः शिवाय मंत्र के जाप के साथ शिवलिंग पर चढावें । 3. गुरूवार का व्रत करें एवं केले के वृक्ष का पूजन करें । 4. कुण्डली में सप्तमेश निर्बल होने पर उसका नग धारण करें । 5. सोमवार को शिवलिंग पर दुग्ध मिश्रित जल से अभिषेक करें । 6. पार्वती मंगल स्तोत्रम का पाठ करें । 7. भृंगराज या केले के वृक्ष की जड़ को अभिमंत्रित कर धारण करें । 8. मनोवांछित जीवन साथी की प्राप्ति के लिए दुर्गा सप्तशती के निम्न मंत्र का जाप करें । ’’पत्नि मनोरमा देहि, मनोवृतानुसारिणीम्। तारिणी दुर्गसंसार सागरस्य कुलोद्ववाम्’’। यदि स्त्री जातक पाठ करें तो पत्नी की जगह पति पढं़े । विवाह में विलंब के कारण व निवारण प्रवीण जोशी पुरूष जातक के विवाह में विलम्ब होने पर शुक्ल पक्ष में मंगलवार को प्रातः हनुमान जी का ध्यान करते हुए 21 दिन तक निम्न श्लोक का 108 बार पाठ करें एवं हनुमान जी को चोला चढ़ाएं । ’’स देवि नित्य परित्यामानस्त्वामेव सीतेत्यभिभाषमाण: घृतव्रतो राजसुतो महात्मा तवैव लाभाय कृत प्रयत्नः’’ दुर्गा सप्तशती में वर्णित अर्गला स्तोत्रम् एवम् क्षमा प्रर्थना का पाठ प्रतिदिन करने से विवाह में आने वाली बाधाएं दूर होकर सुख, समृद्धि एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है । यदि उपरोक्तानुसार उपाय श्रद्धा एवं विश्वास के साथ योग्य एवं विद्वान पंडित के मार्गदर्शन में विधि विधान से किये जायं तो प्रभावी परिणाम प्राप्त होकर शीघ्र विवाह का योग बनता है ।

क्या है बंधन दोष जाने......

बंधन दोष मंगलवार को 3 किलो पालक, सूर्यास्त से पहले, ला कर घर में किसी परात आदि में रख दें। बुधवार के दिन प्रातः, पालक किसी थैले में रख कर, घर से बाहर जा कर, किसी गाय को खिला दें। यदि गाय पालक सूंघ कर छोड़ दे, या थोड़ा खा कर छोड़ दे, तो समझें कि बंधन दोष है। व्यापार एवं कारोबार के लिए अगर आप को किसी काम से जाना हो, तो एक नींबू ले कर उस पर चार लौंग गाड़ दें तथा इस मंत्र का जाप करें:- ‘ओम श्री हनुमते नमः‘ 21 बार जाप करने के बाद उस को साथ ले कर चले जाएं। काम में किसी प्रकार कि बाधा नहीं आएगी। कर्मचारी टिके रहें कई बार कर्मचारी नहीं टिकते, तो किसी शनिवार को घर से निकलते समय, या काम पर जाते समय, किसी जगह रास्ते से कोई कील उठा लें। उसे गंगा जल में धो कर, जहां कर्मचारी काम करते हैं, ठोक दें। इस कील के प्रभाव से कर्मचारी भागने नहीं पाएंगे। भय दूर करने के लिए घर में मां काली का चित्र लगाएं, तो घर पर किसी के जादू-टोने का असर नहीं होगा; होगा भी तो खत्म हो जाएगा। मां काली के आगे जल रख कर उस जल का छिड़काव घर में करें। सभी प्रकार की बाधाएं दूर हो जाएंगी। घर में षांति के लिए एक मुट्ठी गुड़, एक मुट्ठी नमक डलिया वाला, एक मुट्ठी गेहूं, दो तांबे के सिक्के डाल कर सफेद कपडे में बांध कर, घर में रखें, तो घर में शांति रहेगी। इसे सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, ्युक्रवार, रविवार को करें। अगर तांबे के सिक्के की जगह चांदी के सिक्के रखें, तो पति-पत्नी में लड़ाई झगड़े नहीं होते। दवाई न लगती हो अगर दवाई न लगती हो, तो रोगी की दवाइयों को मंदिर में (घर के) रख कर रोगी को दें, तो दवाई राम बाण की तरह काम करेगी तथा रोगी जल्दी ठीक हो जाएगा। लड़कीे की शादी हेतु गुरुवार को लक्ष्मी नारायण के मंदिर में जा कर भगवान विष्णु को कलंगी चढ़ावें तथा शुद्ध घी से बने पांच लड्डुओं का भोग लगावें। उन्हें प्रणाम कर मन की अभिलाषा व्यक्त करें, तो निष्चय ही तीन माह से एक साल के भीतर कन्या की ्यादी संपन्न होती है। जिन महिलाओं को पति पर शक हो वह महिलाऐं अपनी शादी के समय पर पति के लिए जो वस्त्र उपहार में पिता के परिवार से मिले थे उनमें से किसी भी एक वस्त्र में एक जोड़ा 3 मुखी तथा एक जोड़ा 7 मुखी, असली नेपाली रूद्राक्ष बांधकर किसी भी बृहस्पतिवार के दिन अपनी कपड़ों की अलमारी या संदूक में रख दें और हर वर्ष अपनी विवाह वाली तिथि को इसमें एक जोड़ा लौंग अवष्य डाल दिया करें इस प्रकार से आपके विवाह संबंध आपस में न बंधती हो तब भी मजबूत रहेंगे। और यदि दूसरी ओर पति का ध्यान हैं तो वहां से उसका ध्यान हमेशा के लिए हट जायेगा। धन लाभ के लिए रात्रि में चावल, दही और सत्तू का सेवन करने से लक्ष्मी का निरादर होता है। अतः समृद्धि के चाहने वालों को तथा जिन व्यक्तियों को आर्थिक कष्ट रहते हों, उन्हें इनका सेवन रात्रि भोज में नहीं करना चाहिए। यदि पैतृक धन एवं कुटंुब से जुड़ी परे्यानियां चल रही हों तो प्रतिदिन, सूर्याेदय के समय, तांबे के पात्र में स्वच्छ जल भर कर, उसमें कुछ दाने चीनी और लाल पुष्प डाल कर, सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए। यह टोटका शुक्ल पक्ष के रविवार से ्युरू करना चाहिए तथा अघ्र्य देते समय सच्चे मन से कार्य हो जाने की प्रार्थना करनी चाहिए।

सिर दर्द का ज्योतिष्य कारण और निवारण

मनुष्य को रोग का पूर्वाभास हो जाता है क्योंकि रोग आने से पहले मानव शरीर में कुछ ऐसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं जिनसे उसे आभास हो जाता है कि रोग उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है। ऐसा ही एक रोग है ‘सिर दर्द’ जो रोगों के आने का सूचक है। सिर दर्द एक ऐसा विकार है जो लगभग सभी में कम या अधिक मात्रा में होता है जिसकी ओर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। मस्तिष्क की जानलेवा बीमारियों का आगमन सिर दर्द से ही होता है। सिर दर्द के कई कारण होते हैं। जैसे बुखार; बुखार चाहे जैसा भी हो वह सिर दर्द का कारण बनता है। दृष्टि के कमजोर हो जाने से, दांतों के विकार, सिर की मांसपेशियों में जकड़न आ जाने से, सिर में लगी चोट, कान के भीतर संक्रमण, मस्तिष्क के भीतर संक्रमण, सिर के भीतर की गांठ या रसौली की शुरूआत भी सिर दर्द से ही होती है। इसी तरह आधा सीसी का दर्द सिर से उठता है। मानसिक रोग जैसे चिंता, भय इत्यादि, हारमोन का असंतुलन, उच्च रक्तचाप, गर्दन की हड्डियों का घिसाव, जबड़े और सिर की हड्डियों के जोड़ का विकार भी सिर दर्द के कारण हो सकते हैं। ज्योतिषीय दृष्टि में सिर दर्द: ज्योतिषीय दृष्टि में प्रथम भाव जन्मकुंडली में मस्तिष्क, अर्थात् सिर का प्रतिनिधित्व करता है। प्रथम भाव अर्थात् लग्न, लग्नेश यदि जन्मकुंडली में पीड़ित हों तो जातक को मस्तिष्क संबंधित रोग होते हैं। सूर्य प्रथम भाव का कारक ग्रह है इसलिए सूर्य का पीड़ित होना भी सिर संबंधित रोग की उत्पत्ति का कारण बनता है। विभिन्न लग्नों में सिर दर्द: मेष लग्न: लग्न बुध से युक्त या दृष्ट हो, सूर्य राहु या केतु से दृष्ट या युक्त हो। लग्नेश मंगल षष्ठ भाव, अष्टम भाव में शनि से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को सिर दर्द संबंधित रोग हो सकता है। वृष लग्न: लग्नेश शुक्र अस्त होकर तृतीय, षष्ठ या अष्टम भाव में हो और राहु-केतु से युक्त हो या दृष्ट हो तो जातक सिर दर्द से पीड़ित होता है। मिथुन लग्न: लग्नेश बुध मंगल से युक्त हो या अष्टम दृष्टि में हो और अस्त न हो, गुरु पंचम या षष्ठ भाव में हो तो जातक सिर दर्द से परेशान होता है। कर्क लग्न: लग्नेश चंद्र पंचम भाव में हो, बुध से युक्त हो, लग्न में राहु या केतु हो, शनि चतुर्थ भाव या सप्तम भाव में हो तो जातक को सिर संबंधित रोग हो सकता है। सिंह लग्न: लग्नेश सूर्य राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, गुरु षष्ठ या अष्टम भाव में हो, लग्न शनि से दृष्ट या युक्त हो तो सिर दर्द संबंधित रोग हो सकता है। कन्या लग्न: लग्नेश बुध अस्त होकर लग्न, षष्ठ या अष्टम भाव में हो, मंगल लग्न पर दृष्टि देता हो। गुरु राहु-केतु से युक्त होकर पंचम या नवम भाव में हो तो सिर दर्द रोग होता है। तुला लग्न: लग्न में गुरु राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, शुक्र सूर्य से अस्त होकर पंचम, षष्ठ, अष्टम और नवम भाव में हो तो जातक को सिर दर्द संबंधित रोग होता है वृश्चिक लग्न: लग्नेश अस्त होकर अष्टम भाव, द्वादश भाव में हो, बुध राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो, शनि लग्न, चतुर्थ, सप्तम भाव में हो तो जातक को सिर दर्द होता है। धनु लग्न: लग्नेश गुरु षष्ठ भाव, अष्टम भाव में हो, लग्न में शुक्र राहु-केतु से युक्त या दृष्ट हो। सूर्य शनि से युक्त होकर लग्न में दृष्टि दे तो सिर दर्द जैसा रोग हो सकता है। मकर लग्न: सूर्य-शनि एक दूसरे पर दृष्टि दे, गुरु राहु-केतु से युक्त या दृष्ट होकर लग्न पर दृष्टि दे, तो जातक को सिर दर्द जैसा रोग होता है। कुंभ: गुरु राहु-केतु से युक्त होकर पंचम या नवम भाव में हो, शनि षष्ठ भाव मे, चंद्र लग्न में मंगल से दृष्ट या युक्त हो तो जातक को सिर दर्द हो सकता है। मीन लग्न: लग्न में शनि, सूर्य तृतीय भाव, सप्तम भाव या दशम भाव में हो। शुक्र राहु केतु से युक्त होकर, पंचम भाव, नवम भाव में हो तो जातक को सिर दर्द होता है। रोग संबंधित ग्रह की दशा-अंतर्दशा और विपरीत गोचर के काल में होता है। इसके उपरांत रोग से राहत मिल जाती है। आयुर्वेदिक दृष्टिकोण आयुर्वेद सिद्धांत अनुसार रोग की उत्पत्ति तीन विकारों के अनुपात पर निर्भर करती है अर्थात् वात, पित्त, कफ। यदि शरीर में पित्त और वात बिगड़ जाएं तो सिर दर्द होता है। वात-पित्त का बढ़ना या कम होना इसका मुख्य कारण है। पित्त बढ़ जाने से शरीर में अग्नि तत्व की मात्रा बढ़ जाती है जिससे रक्त चाप बढ़ता है और सिर दर्द होने लगता है। अगर पित्त कम हो जाए तो अग्नि तत्व कम हो जाता है और वात-कफ अनुपाती तौर पर बढ़ जाते हैं जिससे सिर के अंदर की मांसपेशियों में जकड़न हो जाती है और छींकें आती हैं, नज़ला जुकाम होकर सिर दर्द होने लगता है। सिर दर्द होने पर मरहम लगाकर, सिर दबाकर, कसकर पट्टी बांधकर और घरेलू नुस्खों के प्रयोग से दर्द नाशक दवाओं के उपयोग से सिर दर्द का उपचार करना ठीक है। साधारण सिर दर्द होगा तो इन उपायों से ठीक हो जाएगा। लेकिन यदि दर्द बार-बार हो तो यह चिंताजनक है। हो सकता है कि यह किसी बड़ी बीमारी के आने का सूचक हो इसलिए अतिरिक्त सावधानियां करनी चाहिए। सिर दर्द के घरेलू उपचार - प्रातः काल खाली पेट एक मीठा सेब, नमक लगाकर, खाने से साधारण सिर दर्द दूर हो जाता है। - प्रातः काल थोड़ा व्यायाम करें, हरी घास पर नंगे पांव चलने से बार-बार होने वाला सिर दर्द दूर हो जाता है। - सरसों का तेल नाक में लगाकर सूंघने से सिर दर्द में आराम होता है। - गाय के देसी घी की दो-चार बूंदंे नाक में डालने से सिर दर्द में लाभ होता है। - देसी घी में केसर डालकर सूंघने से भी लाभ होता है। - सूखा आंवला और धनिया दोनों को पीसकर रात को पानी में भीगो दें और सुबह मसल कर छान लें। छने पानी में चीनी मिलाकर पीने से सिर दर्द में लाभ होता है। - रात को सोते समय सिर और पेट के तलवों में देसी घी या बादाम का तेल से मालिश करें। सरसों का तेल भी प्रयोग किया जा सकता है। - ब्राह्मी और बादाम के तेल को मिलाकर सिर से मालिश करने से सिर दर्द में लाभ होता है। - कलमी शोरा और काली मिर्च समान मात्रा में लेकर पीस लें और फिर गरम पानी से एक चम्मच खाने से सिर दर्द में लाभ होता है। - बादाम की पांच गिरी को पानी में भिगो दें। प्रातः छिलकर पीस लें और फिर रात को गाय के दूध में उबालें। चार काली मिर्च भी पीस कर साथ ही उबालें और एक चम्मच घी और बूरा डालकर दो सप्ताह तक पीने से सिर दर्द में लाभ होता है और स्मरण शक्ति बढ़ती है। - हरड़ के छिलके को पीसकर थोड़ा नमक मिलाकर रात को गर्म पानी के साथ फांकने से सिर दर्द में लाभ देता है। - तुलसी के पत्तों की चाय बनाकर पीने से सिर दर्द से राहत मिलती है। - मुलहठी, मोती इलायची और सौंफ को पीस लें तथा दो तुलसी के पत्ते पानी में उबाल कर थोड़ा दूध तथा चीनी मिलाकर पीने से सिर दर्द में आराम होता है।

Tuesday 13 September 2016

कुष्ठ रोग



मानव शरीर में एक ऐसी शक्ति विद्यमान है, जिसे जीवन शक्ति कहते हैं। इसका मुखय कार्य बाहरी विषैले जीवाणुओं के आक्रमण की रोक-थाम करना है। जब जीवन शक्ति कम हो जाती है, तो हमारे शरीर पर बाहरी जीवाणु आक्रमण कर शरीर को अस्वस्थ और दुर्बल बना देते हैं और हमारा शरीर रूपी तंत्र सुचारु रूप से काम करने में असमर्थ हो जाता है। बाहरी जीवाणुओं की रोक-थाम हमारी त्वचा भी करती है, इसलिए त्वचा का स्वस्थ होना भी आवश्यक है और स्वस्थ त्वचा जीवन शक्ति पर निर्भर करती है। जब जीवन शक्ति कमजोर हो जाती है, तो त्वचा पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है, जिससे बाहरी जीवाणु के आक्रमण कई प्रकार के रोग उत्पन्न कर देते हैं, जिनमें एक कुष्ठ रोग है। कुष्ठ रोग त्वचा से ही आरंभ होता है। जब त्वचा की सभी मुखय परतें दूषित और बाहरी जीवाणुओं की रोक-थाम करने में असमर्थ हो जाती हैं, तो कुष्ठ रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। कुष्ठ रोग न तो वंशानुगत रोग है और न ही संक्रामक। पहले इसको संक्रामक रोगों में गिना जाता था। लेकिन आधुनिक चिकित्सा अनुसंधान से यह सिद्ध हो चुका है, कि यह संक्रामक रोग नहीं है। कुष्ठ रोग के जीवाणुओं को दंडायु कहा जाता है। ये दंडायु विकृत अंगों से निकलते रहते हैं। प्रायः देखने में आया है, कि यह रोग निर्धन लोगों को होता है। इससे स्पष्ट है कि रोग का कारण सफाई और स्वास्थ्य के बारे में जानकारी न होना है। ज्योतिषीय दृष्टिकोण ज्योतिषीय विचार से कुष्ठ रोग सूर्य के दूषित होने और दूषित प्रभाव में रहने के कारण होता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, जीवन शक्ति क्षीण होने के कारण, दंडायु का आक्रमण कुष्ठ रोग पैदा करता है। जीवन शक्ति का कारक ग्रह सूर्य है। इसलिए ज्योतिष में सूर्य के दुष्प्रभावों में रहने के कारण कुष्ठ रोग और कुष्ठ रोग जैसे अन्य रोग मानव शरीर में उत्पन्न होते हैं। जो ग्रह सूर्य को दूषित करते है, उनमें मुखय हैं राहु-केतु और उससे न्यून शुक्र और शनि हैं। जब कुंडली में लग्न, लग्नेश और सूर्य दुष्प्रभावों में रहते हैं, तो कुष्ठ रोग होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। सूर्य की तरह मंगल भी ऊर्जा का कारक है। इसलिए अगर कुंडली में सूर्य के स्थान पर मंगल दुष्प्रभावों में रहे, तो भी कुष्ठ रोग होने की संभावनाएं बन जाती हैं। प्राचीन गं्रथों में कुष्ठ रोग के ज्योतिष योग इस प्रकार हैं : सूर्य, शुक्र एवं शनि, तीनों एक साथ कुंडली में स्थित हों। मंगल और शनि के साथ चंद्र मेष या वृष राशि में हो। चंद्र, बुध एवं लग्नेश राहु या केतु के साथ हों। लग्न में मंगल, अष्टम में सूर्य और चतुर्थ में शनि हो। मिथुन, कर्क या मीन के नवांश में स्थित चक्र पर मंगल और शनि की दृष्टि हो। वृष, कर्क, वृश्चिक या मकर राशिगत पाप ग्रहों से लग्न एवं त्रिकोण में दृष्ट या युक्त हों। शनि, मंगल, चंद्र जब जलीय तत्व राशि में हों और अशुभ ग्रह से दृष्ट हों, तो चर्म रोग होता है। मंगल लग्न में, सूर्य अष्टम में और शनि चतुर्थ में हो। चंद्र लग्न में, सूर्य सप्तम में, शनि और मंगल द्वितीय या द्वादश में हों। मंगल, शनि, सूर्य षष्ठेश हो कर लग्न में हों। विभिन्न लग्नों में कुष्ठ रोग के कारण : मेष लग्न : सूर्य सप्तम भाव में शुक्र के साथ हो और शनि लग्न में तथा मंगल अस्त हो कर बुध के साथ हो, तो कुष्ठ रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। वृष लग्न : सूर्य लग्न में शनि के साथ हो और शनि अस्त हो, शुक्र, बुध द्वादश भाव में हों और राहु पंचम या नवम् भाव में हो, तो कुष्ठ रोग का प्रारंभ पैर या उंगलियों से होता है। मिथुन लग्न : लग्नेश बुध छठे भाव में मंगल के साथ हो, सूर्य पंचम भाव में राहु या केतु से युति बनाए और चंद्र एकादश भाव में रहने से कुष्ठ रोग होता है। नाक से रोग प्रारंभ होने की संभावना रहती है। कर्क लग्न : सूर्य तृतीय भाव में, चंद्र एकादश भाव में, केतु सप्तम भाव में गुरु के साथ हो, तो कुष्ठ रोग का कारण बनते हैं। सिंह लग्न : शुक्र और राहु लग्न में हो और सूर्य तृतीय या एकादश भाव में हो तथा शनि से दृष्ट या युक्त हो, तो कुष्ठ रोग होने की संभावना होती है। कन्या लग्न : लग्नेश त्रिकोण में अस्त हो और लग्न पर मंगल की दृष्टि हो, सूर्य, शनि से दृष्ट हो और शनि केतु के साथ हो, तो कुष्ठ रोग की संभावना पैदा होती है। तुला लग्न : सूर्य लग्न में हो, शुक्र, मंगल दशम भाव में हों, राहु-केतु त्रिकोण में, गुरु सप्तम में और शनि केंद्र भाव में हो, तो कुष्ठ रोग देता है। वृश्चिक लग्न : बुध, लग्न, शुक्र अस्त हों, लग्न पर राहु-केतु की दृष्टि हो, शनि केंद्र में मंगल से युक्त हो, तो कुष्ठ रोग होता है। धनु लग्न : सूर्य अष्टम भाव में, चंद्र अस्त हो, शुक्र सप्तम भाव में, गुरु त्रिक स्थानों पर शनि से दृष्ट या युक्त हो, तो कुष्ठ रोग पैदा करता है। मकर लग्न : गुरु लग्न में मंगल से युक्त हो और चंद्र सप्तम भाव में, राहु-केतु से दृष्ट हो, शनि अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो, तो कुष्ठ रोग उत्पन्न करता है। कुंभ लग्न : राहु, मंगल और गुरु तीनों सूर्य से केंद्र में अस्त हों और चंद्र लग्न में केमधूम योग हो, तो कुष्ठ रोग होता है। मीन लग्न : शुक्र और चंद्र लग्न में राहु-केतु से दृष्ट एवं युक्त हों और शनि-बुध सूर्य से अस्त हों, तो कुष्ठ रोग होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित कुंडली के आधार पर दिये गये हैं। ग्रह अपनी दशा संतुलित अंर्तदशा और गोचर के अनुसार रोग उत्पन्न करता है।

विभिन्न लग्नों में सप्तम भावस्थ गुरु का प्रभाव एवं उपाय

पौराणिक कथाओं में गुरु को भृगु ऋृषि का पुत्र बताया गया है। ज्योतिष शास्त्र में गुरु को सर्वाधिक शुभ ग्रह माना गया है। गुरु को अज्ञान दूर कर सद्मार्ग की ओर ले जाने वाला कहा जाता है। सौर मंडल में गुरु सर्वाधिक दीर्घाकार ग्रह है। धनु व मीन इसकी स्वराशियां हैं। धनु व मीन द्विस्वभाव राशियां हैं। अतः गुरु द्विस्वभाव राशियों का स्वामी होने के कारण इसमें स्थिरता एवं गतिशीलता के गुणों का प्रभाव है। यह कर्क राशि में उच्च का व मकर राशि में नीच का होता है। कर्क व मकर राशि दोनों ही चर राशियां हैं जिसके कारण गुरु अपनी उच्चता व नीचता का फल बड़ी तेजी से दिखाता है। सूर्य, चंद्र, मंगल इसके मित्र हैं। निर्बल, दूषित व अकेला गुरु सप्तम भावस्थ होने पर व्यक्ति को स्वार्थी, लोभी व अविश्वनीय बनाता है। वहीं शुभ राशिस्थ सप्तमस्थ गुरु व्यक्ति को विनम्र, सुशील सम्मानित बनाता है। जीवन साथी भी सुंदर व सुशील होता है। ‘‘स्थान हानि करो जीवा’’ के सिद्धांत के आधार पर गुरु शुभ व सबल होने पर भी, जिस स्थान में बैठता है उस स्थान की हानि करता है। परंतु जिन स्थानों पर दृष्टि डालता है उन स्थानों को बलवान बनाता है। सप्तम स्थान प्रमुख रूप से वैवाहिक जीवन का भाव माना गया है। सामान्यतः सप्तम भावस्थ गुरु को अशुभ फलप्रद कहा जाता है। पुरूष राशियों में होने पर जातक का अपने जीवन साथी से मतभेद की स्थिति बनती है। वहीं स्त्री राशियों में होने पर जीवन साथी से अलगाव की स्थति ला देता है। सप्तमस्थ गुरु जातक का भाग्योदय तो कराता है परंतु विवाह के बाद। प्रस्तुत है विभिन्न लग्नों में सप्तमस्थ गुरु के फलों का एक स्थूल विवेचन। 1. मेष लग्न मेष लग्न में गुरु नवमेश व द्वादशेश होकर सप्तमस्थ होता है तथा लग्न, लाभ व पराक्रम भाव में दृष्टिपात करता है। सप्तम भाव में तुला राशि का होता है। अतः भाग्येश, सप्तमस्थ होने के कारण निश्चय ही विवाह के बाद भाग्योदय होता है। समाज के बीच मिलनसार होता है। जिसके कारण जीवन साथी से भौतिक दूरी बनी रहती है। 2. वृष लग्न वृष लग्न में गुरु अष्टमेश व एकादशेश होकर वृश्चिक राशि में सप्तमस्थ होकर लाभ, लग्न एवं पराक्रम भाव पर दृष्टिपात करता है। इसकी मूल त्रिकोण राशि अष्टम स्थानगत होने के कारण स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां उत्पन्न होती हैे। ससुराल धनाढ्य होता है परंतु स्वयं धन के मामले में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर पाता। 3. मिथुन लग्न मिथुन लग्न में गुरु सप्तम व दशम भाव का स्वामी होकर सप्तम भावस्थ होकर हंस योग का निर्माण करता है। हंस योग को राज योग कहा जा सकता है जिसका परिणाम गुरु की दशा-अंतर्दशा में प्राप्त होता है। परंतु इस लग्न में गुरु को सर्वाधिक केंद्रेश होने का दोष लगता है अतः विवाह एवं वैवाहिक जीवन के मामलों में पृथकता देता है। गुरु यदि वक्री या अस्त हो तो स्थिति और अधिक बिगड़ जाती है। 4. कर्क लग्न कर्क लग्न में गुरु षष्ट्म एवं नवम भाव का स्वामी होकर अपनी नीच राशि में सप्तमस्थ होता है। निश्चय ही नवमेश होने के कारण विवाह के बाद भाग्योदय होता है। परंतु मूल त्रिकोण राशि षष्टम् भाव में पड़ने के कारण जीवन साथी का स्वास्थ्य प्रतिकूल ही रहता है। धन के मामलों में, लाभ की जगह हानि का सामना करना पड़ता है। 5. सिंह लग्न सिंह लग्न में गुरु पंचमेश व अष्टमेश होकर कुंभ राशि में सप्तमस्थ होता है। पंचमेश होने के कारण अति शुभ होता है। ससुराल पक्ष धनाढ्य होता है। परंतु अष्टमेश होने के कारण जीवन साथी को उदर की पीड़ा देता है। जीवन साथी का स्वभाव चिड़चिड़ा होता है। परिवार से ताल मेल नहीं बैठ पाता। 6. कन्या लग्न कन्या लग्न में गुरु चतुर्थ व सप्तम भाव का स्वामी होकर सप्तम भाव में हंस योग का निर्माण करता है जिसके कारण जातक का विवाह उच्च कुल के धनाढ्य परिवार में होता है। परंतु इस लग्न में गुरु को केंद्रेश होने का दोष होता है जिसके कारण विवाहोपरांत जीवन साथी से मतभेद व निराशाजनक परिणाम प्राप्त होने शुरू हो जाते हैं। इस स्थिति में गुरु, यदि वक्री या अशुभ प्रभाव में होता है तो जीवन साथी से अलगाव की स्थिति आ सकती है। 7. तुला लग्न तुला लग्न में गुरु तृतीय व षष्ठ भाव का स्वामी होकर मेष राशि का सप्तम भावगत होता है। भावेश की दृष्टि से यह पूर्णतः अकारक रहता है। मेष राशि में सप्तमस्थ होने से जातक निडर, साहसी बनता है। अपने पराक्रम से धनार्जन करता है। ऐश्वर्य प्रदान करता है। परंतु जीवन साथी के लिए मारक होकर, उसका स्वास्थ्य प्रभावित करता है। 8. वृश्चिक लग्न वृश्चिक लग्न में गुरु द्वितीयेश व पंचमेश होकर वृष राशि में सप्तमस्थ होता है। पंचमेश होने के कारण गुरु शुभ रहता है। धन के मामलों में अच्छा परिणाम देता है। परंतु संतान पक्ष से विवाद की स्थिति पैदा करता है जिसके कारण जीवन साथी से टकराव की नौबत आती है। वस्तुतः जातक को सांसारिक सुखों का सुख प्राप्त नहीं हो पाता। 9. धनु लग्न धनु लग्न में गुरु लग्नेश व चतुर्थेश होकर सप्तमस्थ होता है। गुरु की लग्न पर पूर्ण दृष्टि लग्न को बलवान बनाती है। वस्तुतः जातक सुंदर व सुशील, जीवन साथी प्राप्त करता है। माता-पिता का सुख एवं भूमि, भवन, संतान का सुख प्राप्त करता है। जीवन साथी, माता पिता व संतान का सहयोग प्राप्त करता है। ससुराल से संपत्ति प्राप्त करने के योग बनते है। 10. मकर लग्न मकर लग्न में गुरु द्वादश एवं तृतीय भाव का स्वामी होकर, सप्तम भाव में हंस योग का निर्माण करता है। वस्तुतः जातक विद्वान होता है। जीवन साथी सुंदर व सुशील होता है। मुखमंडल में तेज होता है। जीवन साथी के प्रति समर्पित होता है। 11. कुंभ लग्न कुंभ लग्न में गुरु धन व लाभ भाव का स्वामी हो कर अपने मित्र सूर्य की राशि में सप्तमस्थ होता है। साथ ही गुरु की पूर्ण दृष्टि, लाभ स्थान को मजबूती प्रदान करती है। द्वि तीय व एकादश भाव दोनों ही धन से संबंधित भाव हैं। अतः धन लाभ एवं धनार्जन की दिशा में गुरु बहुत ही शुभ फल करता है। यदि गुरु पर अन्य किसी शुभ या योगकारक ग्रह की दृष्टि हो तो यह स्थिति सोने में सुहागा होती है। जातक का विवाह धनाढ्य परिवार में होता है तथा ससुराल या जीवन साथी से धन लाभ होता है। 12. मीन लग्न मीन लग्न में गुरु लग्नेश व दशमेश होता है। कन्या राशि में सप्तमस्थ होकर लग्न को बल प्रदान करता है। वस्तुतः जातक आरोग्य एवं अच्छी आयु प्राप्त करता है। लाभ स्थान में दृष्टि होने के कारण स्वअर्जित धन प्राप्त करता है। लोगों में प्रतिष्ठा का पात्र बनता है। विवाह के बाद भाग्योदय होता है। जातक का विवाह उच्च कुल में होता है। सप्तम स्थान में कन्या राशि का गुरु होने के कारण जीवन साथी को मतिभ्रम की स्थिति से सामना करना पड़ सकता है। उपरोक्त लग्न के आधार पर सप्तमस्थ गुरु निश्चित ही ‘स्थान हानि करो जीवा’ का सिद्धांत देता है। अर्थात सप्तमस्थ गुरु निश्चित ही सुंदर जीवन साथी देता है। परंतु विवाहोपरांत, वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहने देता। फिर भी नवमांश कुंडली में गुरु यदि बलवान होकर विराजित हो, तो काफी हद तक विषम स्थितियों को जातक समाधान कर लेता है। इसी प्रकार गुरु यदि अष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं ले कर बैठा हो तो भी लग्न कुंडली में सप्तमस्थ गुरु के प्रतिकूल प्रभावों में कमी आती है तथा गुरु अपनी दशा-अंतर्दशा में अच्छा फल देता है। अस्तु सप्तमस्थ गुरु के फलों का विवेचन करने के पूर्व नवमांश व अष्टक वर्ग में गुरु की स्थिति को देखकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचना चाहिए। फिर भी सप्तमस्थ गुरु अपनी दशा-अंतर्दशा में यदि विपरीत प्रभाव दे, तो निम्न उपायों को कर, गुरु के अनिष्टकारी प्रभावों से बचा जा सकता है। उपाय 1. मेष लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. सदैव पीले कपड़े पहनने को प्राथमिकता दें। c. मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ करें। 2. वृष लग्न a. पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. भगवान शिव के किसी मंत्र का प्रतिदिन एक माला जप करें। c. सदैव श्वेत रंग के कपड़े पहनने को प्राथमिकता दें। 3. मिथुन लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. ऊँ बृं बृहस्पतये नमः मंत्र का एक माला जप करें। c. सदैव पीले रंग का रूमाल पाॅकेट में रखें। 4. कर्क लग्न a. सोने की अंगूठी में पुखराज रत्न धारण करें। b. गुरु से संबंधित वस्तुओं का दान करें। c. भगवान विष्णु की साधना करें। 5. सिंह लग्न a. तांबे की अंगूठी में गुरु यंत्र उत्कीर्ण करा, धारण करें। b. घर में गुरु यंत्र स्थापित करें। c. हल्दी का दान करें। परंतु भिखारी को भूलकर भी न दें। 6. कन्या लग्न a. पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. ‘गुरु गायत्री’ मंत्र का जप करें। c. घोड़े को चने की दाल व गुड़ खिलाएं। 7. तुला लग्न a. घर में गुरु यंत्र की स्थापना करें। b. छोटे भाइयों को स्नेह दें। अपमान न करें। c. शक्ति साधना करें। 8. वृश्चिक लग्न a. न्यूनतम 16 सोमवार का व्रत धारण करें। b. हल्दी की गांठ तकिए के नीचे रखकर सोयें। c. शिव जी की साधना करें। 9. धनु लग्न a. माणिक्य, पुखराज व मूंगा से निर्मित त्रिशक्ति लाॅकेट धारण करें। b. विष्णुस्तोत्र का पाठ करें। c. 43 दिन तक जल में हल्दी मिलाकर स्नान करें। 10. मकर लग्न a. ग्यारह मुखी रुद्राक्ष धारण करें। b. घर की छत में सूरजमुखी का पौधा रोपित करें तथा प्रतिदिन जल दें। c. भगवान भास्कर को प्रतिदिन तांबे के पात्र से जल का अघ्र्य दें। 11. कुंभ लग्न a. भगवान शिव के महामृत्युंजय मंत्र का प्रतिदिन जप करें। b. पुखराज धारण करें। c. रेशमी पीला रूमाल सदैव अपने पास रखें। 12. मीन लग्न a. माणिक्य, पुखराज एवं मूंगा रत्न से निर्मित ‘त्रिशक्ति लाॅकेट’ धारण करें। b. भगवान सूर्य को नित्य जल का अघ्र्य दें। c. गुरुवार को विष्णु मंदिर जाकर पीले रंग के फूल भगवान विष्णु को अर्पित करें तथा कन्याओं को मिश्रीयुक्त खीर खिलाएं। नोट: गुरु की स्थिति कुंडली में चाहे जैसी हो; जातक यदि निम्न मंत्र का जप प्रतिदिन करता है तो गुरु की विशेष कृपा बनी रहती है तथा अशुभ गुरु के दोषों से मुक्ति पायी जा सकती है। मंत्र: ऊँ आंगिरशाय विद्महे, दिव्य देहाय, धीमहि तन्नो जीवः प्रचोदयात्।

मूंगा रत्न की पहचान

मूंगा मंगल ग्रह का प्रतिनिधि रत्न है। इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है यथा- मूंगा, भौम-रत्न, प्रवाल, मिरजान, पोला तथा अंग्रेजी में इसे कोरल कहते हैं। मूंगा मुख्यतः लाल रंग का होता है। इसके अतिरिक्त मूंगा सिंदूरी, गेरुआ, सफेद तथा काले रंग का भी होता है। मूंगा एक जैविक रत्न होता है।
मूंगे का जन्म:
मूंगा समुद्र के गर्भ में लगभग छः-सात सौ फीट नीचे गहरी चट्टानों पर विशेष प्रकार के कीड़े, जिन्हें आईसिस नोबाइल्स कहा जाता है, इनके द्वारा स्वयं के लिए बनाया गया घर होता है। उनके इन्हीं घरों को मूंगे की बेल अथवा मूंगे का पौधा भी कहा जाता है। बिना पत्तों का केवल शाखाओं से युक्त यह पौधा लगभग एक या दो फुट ऊंचा और एक इंच मोटाई का होता है। कभी-कभी इसकी ऊंचाई इससे अधिक भी हो जाती है। परिपक्व हो जाने पर इसे समुद्र से निकालकर मशीनों से इसकी कटिंग आदि करके मनचाहे आकारों का बनाया जाता है। मूंगे के विषय में कुछ लोगों की धारणा कि मूंगे का पेड़ होता है किंतु वास्तविकता यह है कि मूंगे का पेड़ नहीं होता और न ही यह वनस्पति है। बल्कि इसकी आकृति पौधे जैसी होने के कारण ही इसे पौधा कहा जाता है। वास्तव में यह जैविक रत्न होता है। मूंगा समुद्र में जितनी गहराई पर प्राप्त होता है, इसका रंग उतना ही हल्का होता है। इसकी अपेक्षा कम गहराई पर प्राप्त मूंगे का रंग गहरा होता है। अपनी रासायनिक संरचना के रूप में मूंगा कैल्शियम कार्बोनेट का रूप होता है। मूंगा भूमध्य सागर के तटवर्ती देश अल्जीरिया, सिगली के कोरल सागर, ईरान की खाड़ी, हिंद महासागर, इटली तथा जापान में प्राप्त होता है। इटली से प्राप्त मूंगे को इटैलियन मूंगा कहा जाता है। यह गहरे लाल सुर्ख रंग का होता है तथा सर्वोत्तम मूंगा जापान का होता है।
विशेषता एवं धारण करने से लाभ:
मूंगे की प्रमुख विशेषता इसका चित्ताकर्षक सुंदर रंग व आकार ही होता है। यद्यपि मूंगा अधिक मूल्यवान रत्न नहीं होता किंतु इसके इसी सुंदर व आकर्षक रंग के कारण इसे नवरत्नों में शामिल किया गया है। मूंगा धारण करने से मंगल ग्रह जनित समस्त दोष शांत हो जाते हैं। मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है और रक्त की वृद्धि होती है। हृदय रोगों में भी मूंगा धारण करने से लाभ होता है। मूंगा धारण करने से व्यक्ति को नजर दोष (नजर लगाना) तथा भूत-प्रेतादि का भय नहीं रहता। इसीलिए प्रायः छोटे बच्चों के गले में मूंगे के दाने डाले जाते हैं।
मूंगे की पहचान: असली मूंगे की पहचान निम्नलिखित हैं-
1. यह अन्य रत्नों की अपेक्षा चिकना होता है तथा हाथ में लेने पर फिसलता है।
2. असली मूंगे को रक्त में रखने से उसके चारों ओर रक्त जम जाता है।
3. असली मूंगे पर किसी माचिस की तिल्ली से पानी की बूंद रखने से बूंद यथावत् बनी रहती है, फैलती नहीं है।
4. असली मूंगे पर हाडड्रोक्लोरिक एसिड डालने से उसकी सतह पर झाग उठने लगते हैं किंतु काले मूंगे पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता।
5. असली मूंगा आग में डालने से जल जाता है। और उसमें से बाल जलने के समान गंध आती है।
मूंगा धारण विधि:
मूंगा हो या अन्य कोई रत्न, इनके धारण करने का श्रेष्ठ ढंग तो यही है कि किसी योग्य पंडित से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कराकर ही धारण करना चाहिए किंतु जो व्यक्ति किसी कारण वश ऐसा नहीं कर सकते उन्हें निम्नलिखित विधि के अनुसार मूंगा धारण करना चाहिए-
मूंगे की अंगूठी सोने, चांदी अथवा चांदी और तांबा दोनों धातुओं को मिलवाकर धारण की जाती है। अतः उपर्युक्त धातुओं में से किसी में मूंगे की अंगूठी अनामिका उंगली के नाम की बनवाकर कच्चे दूधू और गंगाजल से धोकर मंगलवार के दिन प्रातः सूर्योदय से ग्यारह बजे के मध्य दाएं हाथ की अनामिका उंगली में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ धारण करनी चाहिए। ‘‘क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः’’
स्त्रियों के लिए बाएं हाथ की अनामिका उंगली में धारण करने का विधान है।

Monday 12 September 2016

ज्योतिष में कर्म तथा पुन:जन्म

हिंदू ज्योतिष कर्म तथा पुन:जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। यह तथ्य प्रायः सभी ज्योतिषी तथा ज्ञानीजन अच्छी तरह से जानते हैं। मनुष्य जन्म लेते ही पूर्व जन्म के परिणामों को भोगने लगता है। जैसे फल फूल बिना किसी प्रेरणा के अपने आप बढ़ते हैं उसी तरह पूर्वजन्म के हमारे कर्मफल हमें मिलते रहते हैं। हर मनुष्य का जीवन पूर्वजन्म के कर्मों के भोग की कहानी है, इनसे कोई भी बच नहीं सकता। जन्म लेते ही हमारे कर्म हमें उसी तरह से ढूंढने लगते हैं, जैसे बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूढ़ निकालता है। पिछले कर्म किस तरह से हमारी जन्मकालीन दशाओं से जुड़ जाते हैं, यह किसी भी व्यक्ति की कुंडली में आसानी से देखा जा सकता है। कुंडली के प्रथम, पंचम और नवम भाव हमारे पूर्वजन्म, वर्तमान तथा भविष्य के सूचक हैं। इसलिए जन्म के समय हमें मिलने वाली महादशा/ अंतर्दशा/ प्रत्यंतर्दशा का संबंध इन तीन भावों में से किसी एक या दो के साथ अवश्य जुड़ा होता है। यह भावों का संबंध जन्म दशा के किसी भी रूप से होता है - चाहे वह महादशा हो या अंतर्दशा हो अथवा प्रत्यंतर्दशा। दशा तथा भावों के संबंध के इस रहस्य को जानने की कोशिश करते हैं पंचम भाव से। पंचम भाव, पूर्व जन्म को दर्शाता है। यही भाव हमारे धर्म, विद्या, बुद्धि तथा ब्रह्म ज्ञान का भी है। नवम भाव, पंचम से पंचम है अतः यह भी पूर्व जन्म का धर्म स्थान और इस जन्म में हमारा भाग्य स्थान है। इस तरह से पिछले जन्म का धर्म तथा इस जन्म का भाग्य दोनों गहरे रूप से नवम भाव से जुड़ जाते हैं। यही भाव हमें आत्मा के विकास तथा अगले जन्म की तैयारी को भी दर्शाता है। जिस कुंडली में लग्न, पंचम तथा नवम भाव अच्छे अर्थात मजबूत होते हैं वह अच्छी होती है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के अनुसार ”धर्म की सदा विजय होती है“। द्वादश भाव हमारी कुंडली का व्यय भाव है। अतः यह लग्न का भी व्यय है। यही मोक्ष स्थान है। यही भाव पंचम से अष्टम होने के कारण पूर्वजन्म का मृत्यु भाव भी है। मरणोपरांत गति का विचार भी फलदीपिका के अनुसार इसी भाव से किया जाता है। दशाओं के रूप में कालचक्र निर्बाध गति से चलता रहता है। ”पद्मपुराण“ के अनुसार ”जो भी कर्म मानव ने अपने पिछले जन्मों में किए होते हैं उसका परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा“। कोई भी ग्रह कभी खराब नहीं होता, ये हमारे पूर्व जन्म के बुरे कर्म होते हैं जिनका दंड हमें उस ग्रह की स्थिति, युति या दशा के अनुसार मिलता है। इसलिए हमारे सभी धर्मों ने जन्म मरण के जंजाल से मुक्ति की कामना की है। जन्म के समय पंचम, नवम और द्वादश भावों की दशाओं का मिलना निश्चित होता है। यह शोध कार्य 100 से अधिक पत्रियों पर किया गया है जिसमें 80 प्रतिशत पत्रियों के यह प्रत्यक्ष रूप से देखा गया। 20 प्रतिशत पत्रियों में यह अप्रत्यक्ष रूप से पंचम, नवम तथा द्वादश भावों को प्रभावित कर रहा है। पैरामीटर 1. पंचम, नवम, द्वादश भाव 2. उक्त तीनों भावों के स्वामी तथा उनमें स्थित ग्रह 3. महादशा/ अंतर्दशा/प्रत्यंतर्दशा। इनमें से कोई भी एक जो इन भावों से संबंध बनाए।

Friday 9 September 2016

जाने हनुमान जी की जन्म कथा के बारे में........

हनुमान जी का जन्म त्रेता युग मे अंजना के पुत्र के रूप में चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ. अंजना के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को अंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'. उनका एक नाम पवन पुत्र भी है जिसका शास्त्रों में सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है. शास्त्रों में हनुमानजी को वातात्मज भी कहा गया है, वातात्मज यानी जो वायु से उत्पन्न हुआ हो.
हनुमानजी की जन्‍मकथा
पुराणों में कथा है कि केसरी और अंजना के विवाह के बाद वह संतान सुख से वंचित थे. अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा- पप्पा (कई लोग इसे पंपा सरोवर भी कहते हैं) सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप और उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी.
अंजना ने मतंग ऋषि और अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया और बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रहीं. एक बार अंजना ने 'शुचिस्नान' करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए. तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके कर्णरन्ध्र में प्रवेश कर उसे वरदान दिया कि तेरे यहां सूर्य, अग्नि और सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा.
दूसरी कथा में भगवान शिव का वरदान
अंजना ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ के पास अपने आराध्य शिवजी की तपस्या शुरू की. तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें. ‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए.
इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में, इक्ष्वाकु वंशी महाराज अज के पुत्र और अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' के साथ यज्ञ कर रहे थे. यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा 'ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो।
राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी.' जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ा सा खीर अपने पंजों में फंसाकर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया. अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया और इस प्रकार हनुमानजी का जन्‍म हुआ. शिव भगवान का अवतार कहे जाने वाले हनुमानजी को मरूती के नाम से भी जाना जाता है.

गणेश चतुर्थी कथा

भगवान विनायक के जन्मदिवस पर मनाया जानेवाला महापर्व भारत के सभी राज्यों में हर्सोल्लास और भव्य तरीके से आयोजित किया जाता है. बप्पा के आगमन पर पूरे देशवासी जोर शोर से तैयारियां करते हैं. बुद्धि और बल के लिए पूजे जाने वाले भगवान गणेश की जन्मकथा भी बहुत ही रोचक है...
गणेश चतुर्थी की कथा
कथानुसार एक बार मां पार्वती स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसका नाम गणेश रखा. फिर उसे अपना द्वारपाल बना कर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश देकर स्नान करने चली गई. थोड़ी देर बाद भगवान शिव आए और द्वार के अन्दर प्रवेश करना चाहा तो गणेश ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया. इसपर भगवान शिव क्रोधित हो गए और अपने त्रिशूल से गणेश के सिर को काट दिया और द्वार के अन्दर चले गए| जब मां पार्वती ने पुत्र गणेश जी का कटा हुआ सिर देखा तो अत्यंत क्रोधित हो गई. तब ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवताओं ने उनकी स्तुति कर उनको शांत किया और भोलेनाथ से बालक गणेश को जिंदा करने का अनुरोध किया. महामृत्युंजय रुद्र उनके अनुरोध को स्वीकारते हुए एक गज के कटे हुए मस्तक को श्री गणेश के धड़ से जोड़ कर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया. इस तरह से मां गौरी को अपना पुत्र वापस मिल गया और उनका क्रोध भी शांत हो गया.
दूसरी कथा के अनुसार
श्रीगणेश की जन्म की कथा भी निराली है और दूसरी कथा के अनुसार वराहपुराण के अनुसार भगवान शिव पंचतत्वों से बड़ी तल्लीनता से गणेश का निर्माण कर रहे थे. इस कारण गणेश अत्यंत रूपवान व विशिष्ट बन रहे थे. आकर्षण का केंद्र बन जाने के भय से सारे देवताओं में खलबली मच गई. इस भय को भांप शिवजी ने बालक गणेश का पेट बड़ा कर दिया और सिर को गज का रूप दे दिया.

गौरी-शंकर रुद्राक्ष



गौरी-शंकर रुद्राक्ष धारण करने से व्यक्ति को सुखी दांपत्य जीवन और खुशहाल परिवार की प्राप्ति होती है और भाग्य में वृद्धि होती है और वैवाहिक जीवन में कोई समस्या नहीं आती है।’’ विवाह न होने या परिवारिक शांति न होने पर व्यक्ति को मानसिक व शारीरिक रूप से काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वह पूर्ण रूप से अपने कार्यों में ध्यान नहीं दे पाता, कई बार तो अनेक रोगों का शिकार भी हो जाता है जिसमें मानसिक तनाव व रक्तचाप प्रमुख है। ऐसी स्थिति में यदि वह भोले नाथ की स्तुति करता है और गौरी-शंकर रुद्राक्ष धारण करता है तो शीघ्र विवाह होता है और अन्य कई समस्याओं व रोगों का अंत भी होता है। पारिवारिक शांति व वैवाहिक जीवन में आ रही समस्याओं के समाधान के लिये गौरी-शंकर रुद्राक्ष धारण करने से मां पार्वती व भगवान शंकर का आशीर्वाद प्राप्त होता है। जिस व्यक्ति के विवाह में बाधा आ रही हो या वैवाहिक जीवन की समस्याओं का अंत न हो रहा हो तो गौरी शंकर रुद्राक्ष पहनने से सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है, जीवन आनंदमय हो जाता है और उस पर भगवान शिव व माता पार्वती की कृपा बनी रहती है। गौरी-शंकर रुद्राक्ष भोले नाथ व मां पार्वती का युगल रूप है। गौरी-शंकर रुद्राक्ष धारण करने से न केवल लड़के-लड़की को योग्य जीवन-साथी की प्राप्ति होती है अपितु मंगली दोष व अन्य दोषों से भी मुक्ति मिलती है।