Saturday 18 April 2015

भारत और मोदी का पूंजीवाद


भारत में चुनिंदा लोगों का पूंजीवाद कितना हितकर होगा? इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे? क्या आने वाले दिनों में यह अंदर और बाहर सरकार को झकझोर देगा? क्या एक बहुत बड़ा तबका सरकार से दूर हो जाएगा? क्या सरकार चुनिंदा लोगों के गोद में बैठकर सवा सौ करोड़ लोगों की तकदीर लिखेगी? क्या यह पूंजीवाद देश के छोटे उद्योगपतियों को नष्ट कर देगा? क्या देश के ये उद्योगपति अपने लाभ के लिए सरकार को किसी हद तक दबायेंगे? ...यदि हाँ, तो इसके परिणाम क्या होंगे? क्या देश बच पाएगा।
गर भारत की राजनीति देखें तो भारत के स्वतंत्रता के आंदोलन मेंं अलग-अलग विचारधाराओं के लोग रहे, इनमेंं कुछ समाजवादी, कुछ साम्यवादी, कुछ मिझरा, कुछ नरम और कुछ गरम दल के थे और ज्यादातर विचारधाराओं की पोषक संस्था का नाम कांग्रेस था। पर भारत के इतिहास मेंं पूरा नजर डालें तो, स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेजों के शासन को छोड़ कर, पहले तो राजशाही ही थी, मतलब राजा की जो मर्जी मेंं आये वह वो करे, सामंतों की जो मर्जी मेंं आये, वो करें। जनता तब भी राजनीति से नदारत थी। फिर आया अंग्रेजी हुकूमत का समय, ये सारे हुकमरान महारानी एलिजाबेथ के आदेश से हिदुस्तान की जड़ों तक को खोखला कर निकल लिए, जनता तब भी राजनीति मेंं शून्य थी। हजारों साल से बिलखती जनता को महात्मा गांधी ने इकठ्ठा किया। लोकतंत्र का सपना देखा गया, भारत स्वतंत्र हुआ। राजशाही समाप्त हुई, लोकशाही स्थापित हुई। मगर लोकशाही में भी राजशाही का ही बोलबाला रहा। पूरे देश में स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नामों ने, आजादी की लड़ाई की कुर्बानी की भी अपने बच्चों के नाम वसीयत कर दी और देश की राजनीति में सात पुश्तों का जुगाड़ कर लिया। एक वक्त के स्वतंत्रता संग्रामी परिवार देश के बड़े भ्रष्टाचारों में लिप्त हो गए और खूब नाम और पैसा कमाया। इन ६० सालों में देश की अवाम दुबली से और दुबली, नेता और ब्यूरोक्रेट मजबूत से और मजबूत हो लिए। देश की राजनीति में आज तारीख तक इन्हीं क्षत्रपों और नेताओं का राज रहा। संसद और सड़कों पर जनता की नुमाइंदगी करने वाले ये नेता, असल में अंदर से एक थे। इन लोगों ने साजिशन देश को लूटा, देश की नीतियों को प्रभावित किया। और देश के लोकशाही को जबरदस्त क्षति पहुंचाई। संसद और सड़कों पर ये एक दूसरे पर हमलावर हुये पर अंदरखाने ये आपस में एक दूसरे का हित साधते रहे। स्थिति यह हुई कि जनता इतनी बेचारी हो गई कि आजादी के ६० वर्ष बाद भी राजनीति उनके ख़ातिर सिर्फ दो रोटी की ही बात करती है।
वक्त बदला, देश का मिज़ाज बदला, मगर अवाम की तकदीर न बदली। चेहरे बदल गये मगर राजनीति की नीयत न बदली। जिस देश में गरीब अपने आत्मसम्मान, दो रोटी, साफ पानी, बिजली, सिर पर छत, न्यूनतम शिक्षा, न्यूनतम स्वास्थ्य और न्यूनतम सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहा हो, मंहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जहां अवाम को दुख दे रही हो, वहां नेताओं का अंतरराष्ट्रीय शहर, मेट्रो रेल, एरोप्लेन, चमचमाती सड़कों की बातें लोकशाही का मजाक उड़ाने से ज्यादा कुछ नहीं। और वर्तमान में सरकारी नीतियां जैसे भूमिअधिग्रहण नियम, पर्यावरण कानून एवं पी.एस.यू. को गुपचुप तरीके से बेचने की साजिश पूंजीपतियों के ही हित में मालूम होती है। असल में गरीब देश की गरीब अवाम अपने ही चुने हुये लोकसेवकों के सामने बेआवाज़ हो जाती है और तभी इनका राष्ट्रीय नीतिगत शोषण प्रारंभ होता है। जिन नेताओं, लोकसेवकों की सुविधाएं फ र्श से अर्श तक पहुंच गई हों, वहां अवाम दो रोटी के वायदों पर इन्हें वोट देने के लिए मजबूर है। आईये देखें कि इस वक्त की सबसे गंभीर राजनैतिक बात क्या है और क्यूं है? आने वाले दिनों में इनके कैसे गंभीर राजनैतिक परिणाम हो सकते हैं? इन सब प्रश्रों का उत्तर मिलेगा शपथ ग्रहण समारोह के समय के अंदर। २६ मई २०१४ को ६ बजकर ११ मिनट संध्या, दिल्ली में सरकार शपथ ले रही थी। उस समय लग्र तुला और राशि मेष थी। उस समय लग्र में शनि-राहु शपथ-ग्रहण पर ग्रहण लगा रहे थे। ज्योतिष की नजरिये से देखें तो कालपुरुष के दशम स्थान के स्वामी शनि होते हैं। और दशम स्थान राजा का होता है। यानि राजा पर ग्रहण। और चतुर्थ स्थान प्रजा का होता है। उस समय तुला लग्र के हिसाब से चतुर्थेश शनि राहु से आक्रंात थे। यानि प्रजा पर भी ग्रहण। तुला लग्र के हिसाब से दशमेश चंद्रमा केतु और शुक्र के साथ। मतलब राजा और राजनीति शुक्र के साथ। असल मे ज्योतिष मे शुक्र एक महत्वाकांक्षी ग्रह है और एक किवदंती भी है कि यह दैत्यों का गुरू भी है। अगर इस किवदंती को आंशिक रूप से भी सच माना जाए तो भूमिअधिग्रहण, कोलाब्लॉक आवंटन में आतुरता, और एफडीआई में शोर मचाने वाली पार्टी उसके खातिर रेड कार्पेट बिछाते नजर आए तो ऐसा माना जा सकता है कि शपथ ग्रहण समारोह से पहले ही लोकतंत्र की तेरही हो गई। और शपथ ग्रहण के समय से ही पूंजीवाद के एक नए अध्याय का जन्म हो गया। अगर शुद्ध पूंजीवाद भी हो तो भी यह पूंजी और व्यापार से लोकहित करता है, मगर यह पूंजीवाद एक-दो-तीन उद्योगपतियों के लिए ही आया है। मतलब देश की राजनीति अब अतिमहत्वाकांक्षी उद्योगपतियों के घर की बात हो गई है। देखना यह है कि इस पूंजीवाद में गरीब का क्या होता है। और राजा बिना इन गरीबों के कितने दिन राजनीति कर पाता है। अब तक के इतिहास में तो यही नजर आता है कि एक साल में यह सरकार अमेरिका से लेकर श्रीलंका तक, विदेश नीति से लेकर अर्थनीति तक, कोलब्लाक से लेकरके भूमिअधिग्रहण तक, सभी मामलों में परेशान है और अपयश पा रही है। साहब बहादुर का साफा से लेकर कोट तक अंतराष्ट्रीय खबर बन गया है।
अब आईये भारत की कुंडली देखें तो मालूम चलेगा कि वृषभ लग्रस्थ कुंडली में शपथ ग्रहण समारोह के समय का गोचर, वृषभ लग्र का सूर्य और दशमेश शनि राहु के साथ यानि सरकार और राज्य स्थान का स्वामी शनि शत्रु स्थान में राहु के साथ बैठ गया। यानि सरकार भ्रम के साथ शत्रु स्थान में बैठ गई। और उस वक्त का चतुर्थेश सूर्य वृषभ लग्र पर बैठ गए। यानि जनता फिर भी साथ थी। पर, १२वें चंद्रमा-केतु आंतरिक कलह को जन्म दे रहे हैं। और पंचम स्थान का मंगल युवाओं को इनसे लगातार दूर कर रहा है। इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, आने वाले दिनों में क्या राजनैतिक स्थायित्व बढ़ेगा? अब साहब बहादुर की कुंडली पर भी नजर डालें, तो जन्म लग्र वृश्चिक और राशि भी वृश्चिक है। इस समय आपकी कुंडली में चंद्रमा में गुरू का अंतर जबरदस्त सामाजिक विरोध का प्रतीक है। संसद के अंदर और बाहर सरकारी नीतियों का जमकर विरोध हो रहा है। शायद इसी लिए मन की बात कहने की मजबूरी बनी हो। सच बात यह है कि अपने मन की बात कहने से पहले गरीबों के मन की बात समझनी होगी। याद रखें आप को लोगों ने, अवाम ने, ईश्वर ने हीरो बनाया है, और आपको इसी के अनुरूप चेष्टा करनी होगी, वरना...।



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