Saturday 22 August 2015

अग्न्याशय के रोग

अन्य अंगों की भाँति अग्न्याशय में भी दो प्रकार के रोग होते हैं। एक बीजाणुओं के प्रवेश या संक्रमण से उत्पन्न होने वाले और दूसरे स्वयं ग्रंथि में बाह्य कारणों के बिना ही उत्पन्न होने वाले। प्रथम प्रकार के रोगों में कई प्रकार की अग्न्याशयातिज़्याँ होती है। दूसरे प्रकार के रोगों में अश्मरी, पुटो (सिस्ट), अबुज़्द और नाड़ीव्रण या फिस्चुला हैं।
अग्न्याशयाति (पैनक्रिएटाइटिस) दो प्रकार की होती हैं, एक उग्र और दूसरी जीणज़्। उग्र अग्न्याशयाति प्राय: पित्ताशय के रोगों या आमाशय के व्रण से उत्पन्न होती है; इसमें सारी ग्रंथि या उसके कुछ भागों में गलन होने लगती है। यह रोग स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक होता है और इसका आरंभ साधारणत: 20 और 40 वषज़् के बीच की आयु में होता है। अकस्मात् उदर के ऊपरी भाग में उग्र पीड़ा, अवसाद (उत्साहहीनता) के से लक्षण, नाड़ी का क्षीण हो जाना, ताप अत्यधिक या अति न्यून, ये प्रारंभिक लक्षण होते हैं। उदर फूल आता है, उदरभित्ति स्थिर हो जाती है, रोगी की दशा विषम हो जाती है। जीणज़् रोग से लक्षण उपयुज़्क्त के ही समान होते हैं किंतु वे तीव्र नहीं होते। अपच के से आक्रमण होते रहते हैं। इसके उपचार में बहुधा शस्त्र कमज़् आवश्यक होता है। जीणज़् रूप में औषधोपचार से लाभ हो सकता है। अश्मरी, पुटी, अबुज़्द और नाड़ीव्रणों में केवल शस्त्र कमज़् ही चिकित्सा का साधन है।
Pt.P.S.Tripathi
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