Thursday 30 June 2016

नवग्रहों से रोग ज्ञान........

रोग दो तरह के होते हैं-दोषज एवं कर्मज। जिन रोगों का उपचार दवाओं से हो जाता हो, उन्हें दोषज तथा जिनका उपचार दवाओं से नहीं हो उन्हें कर्मज कहते हैं। कर्मज रोग मनुष्य को पूर्व जन्म के बुरे कार्यों और पापी ग्रहों से पीड़ित होने के कारण होते हैं। इनका उपचार दान, जप, हवन, देवपूजन आदि से होता है। ज्योतिषीय आधार पर रोगों का ज्ञान: ज्योतिष शास्त्र में जन्मकुंडली के छठे भाव से रोग का विचार किया जाता है। छठे भाव के दूषित होने पर रोग होते हैं। रोग की पहचान के लिए छठे भाव में स्थित और छठे भाव को देखने वाले ग्रहों का विचार किया जाता है। छठे भाव के कारक मंगल का प्रभाव भी देखा जाता है। इनमें दोष की अधिकता से रोग की संभावना भी अधिक हो जाती है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा से छठे स्थान के स्वामी पर भी ध्यान देना चाहिए।
मानव शरीर 12 राशियों में विभाजित है तथा उन पर नौ ग्रहों का अधिकार है। अतः प्रत्येक राशि एवं ग्रह मानव के अंगों को प्रभावित करते हैं। ग्रहों की स्थिति, पापी ग्रहों के प्रभाव एवं दृष्टि के अनुसार रोग एवं उनके कारक होते हैं। देखें सारणी -1।
द्वादश राशियां, मानव अंग एवं संबंधित रोग:
ज्योतिष शास्त्रानुसार अनिष्ट स्थानों में स्थित ग्रह रोग कारक होते हैं। पापी ग्रहों के लिए तीसरे एवं ग्यारहवें को छोड़ शेष स्थान अनिष्ट हैं जबकि शुभ ग्रहों के लिए तीसरा, छठा, आठवां और 12वां स्थान अनिष्टकर हैं। रोग का ज्ञान छठे, आठवें और 12वें भावों में स्थित ग्रहों से, लग्नेश से युत ग्रहों से या लग्न को देखने वाले अथवा लग्न में स्थित ग्रह से होता है। बारह भाव मानव शरीर के अंगों (सिर से पैर तक) को दर्शाते हैं। अतः जो भाव या ग्रह दूषित होता है, उससे संबद्ध अंग में रोग होता है। सारणी देखें।
ग्रहों का बल एवं जन्मकुंडली का विश्लेषण:
चंद्र एवं शुक्र सजल हैं। सूर्य, मंगल एवं शनि शुष्क या निर्जल हैं। बुध एवं बृहस्पति सजल राशि में स्थित हों, तो सजल एवं निर्जल राशि में हों, तो निर्जल होते हैं। जन्मपत्री में इनकी स्थिति को देखते हुए रोगों का विचार किया जाता है।
जन्मकुंडली से रोग और उसके क्षेत्र की पहचान:
कुंडली के प्रथम भाव लग्न से जातक के शरीर, रंग-रूप, दुख-सुख का, द्वितीय भाव से आंख, नाक, कान, स्वर, वाणी, सौंदर्य का, तृतीय भाव से दमा-खांसी, फेफड़े और श्वसन संबंधी रोगों का, चतुर्थ भाव से उदर रोग, छाती व वक्षस्थल का, पचं म भाव स े पाचन तत्रं , गर्भाशय, मूत्र पिंड एवं वस्ति का, षष्ठ भाव से रोगों के भय, घाव, अल्सर, गुदा स्थान आदि का, सप्तम भाव से जननेंद्रिय, गुदा रोग आदि का, अष्टम भाव से गुप्त रोग, पीड़ा, दुर्घटना आदि का, नवम भाव से मानसिक वृि त्त का, दशम भाव से आत्मविश्वास में कमी व रोगों से कर्म में बाधा का, एकादश भाव से पिंडलियांे और स्नायु नाड़ियों का और द्वादश भाव से नेत्र पीड़ा, शयन सुख, अनिद्रा रोग, पैरों के रोग आदि का विचार किया जाता है।
नवग्रहों का विश्लेषण (षट् रस के आधार पर):
चंद्र नमकीन, सूर्य कटु, शनि कषाय, गुरु मधुर, मंगल तिक्त, शुक्र खट्टा और बुध मिश्रित रसों का स्वामी है।
सूर्य पित्त प्रधान, चंद्र शीत प्रधान, मंगल पित्त प्रधान, बुध वात-पित्त-कफ प्रध.ान, शनि वात प्रधान, शुक्र वात-कफ प्रधान और गुरु कफ प्रधान ग्रह है। शत्रु राशि में ग्रहों के स्थित होने पर ग्रह को ‘वृद्ध’ माना गया है और यदि ग्रह वृद्धावस्था में हो तो रोग प्रदान करता है। किसी भी जातक के प्रधान रोगों की पहचान हेतु राशि और स्वामी की स्थिति, सजल-निर्जल ग्रहों की अवस्था, ग्रह किस रस का स्वामी है, स्नायु, अस्थि आदि में से किसका कारक है, किस भाव में स्थित है, किस ग्रह से संबंध बना रहा है और कौन सा तत्व महत्वपूर्ण है इन सभी का गहन विश्लेषण किया जाता है। जन्म के समय जातक का जो ग्रह निर्बल होगा, उस ग्रह की धातु निर्बल होगी और उसी से संबंधित अंग भी पीड़ित होगा। प्रश्न काल, गोचर अथवा जन्म समय में जब कोई ग्रह प्रतिकूल फलदाता होता है वह शरीर के उसी अंग में अपने अशुभ फल के कारण रोग एवं पीड़ा पहुंचाता है।

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