Tuesday 2 August 2016

नागा साधु: सम्पूर्ण जानकारी एवं इतिहास

सभी साधुओं में नागा साधुओं को सबसे ज्यादा हैरत और अचरज से देखा जाता है। यह आम जनता के बीच एक कौतुहल का विषय होते है। यदि आप यह सोचते है की नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच है। नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंड दान और श्राद्ध तर्पण करना पड़ता है। पुराने समय में अखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नाग साधुओं ने कई लड़ाइयां भी लड़ी हंै। आज इस लेख में हम आपको नागा साधुओं के बारे में उनके इतिहास से लेकर उनकी दीक्षा तक सब-कुछ विस्तारपूर्वक बताएंगे।
नाग साधुओं के नियम:-
वर्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े हंै। वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं।
1. ब्रह्मचर्य का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।
2. सेवा कार्य- ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।
3. खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।
4. वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है।
5. भस्म और रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है।
6. एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है।
7. केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।
8. मंत्र में आस्था- दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है।
9. अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया:-
नाग साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है-
तहकीकात- जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।
महापुरुष-
अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं।
अवधूत-
महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।  
लिंग भंग- इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है।
नागाओं के पद और अधिकार- नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है।
महिलाएं भी बनती है नाग साधू:
वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है। इनमें विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है। फर्क केवल इतना ही है कि महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर  स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं।
अजब-गजब है नागाओं का श्रंगार:
श्रंगार सिर्फ महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी को। नागा साधु प्रेमानंद गिरि के मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते हैं-
भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।
फूल- कई नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इसके पीछे कारण है गेंदे के फूलों का अधिक समय तक ताजे बना रहना। नागा साधु गले में, हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते भी हैं। यह निजी पसंद और विश्वास का मामला है।
तिलक- नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप-मैन मात खा जाएं।
रुद्राक्ष- भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के वारे-न्यारे हो जाते हैं।
लंगोट- आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।
हथियार- नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही इनके जीवनचर्या का भी हिस्सा हैं।
चिमटा- नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है। चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है। ऐसा उल्लेख भी कई जगह मिलता है कि कई साधु चिमटे से ही अपने भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो जाए।
रत्न- कई नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं।
जटा- जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।
दाढ़ी- जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं।
पोषाक चर्म- जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है, फिर भी कई साधुओं के पास जानवरों की खाल देखी जा सकती है।
नाग साधुओं का इतिहास:
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म 8वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की। ९८२७५-२३४५६  ९८२७४-०२४४४
आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।
नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े:
भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-
1. श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा 826ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
2. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।
3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।
4. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
5. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646में स्थापित हुआ और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।
6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।
8.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।
9. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। 1848तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था। परंतु 1848में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।
10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:-  इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।
11. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।
12. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1784 में स्थापित हुआ। 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।
13. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी।

कोहिनूर हीरा


प्राचीन भारत की शान कोहिनूर हीरे की खोज वर्तमान भारत के आंध्रप्रदेश राज्य के गुंटूर जिले मेंं स्थित गोलकुंडा की खदानों मेंं हुई थी जहां से दरियाई नूर और नूर-उन-ऐन जैसे विश्व प्रसिद्ध हीरे भी निकले थे। पर यह हीरा खदान से कब बाहर आया इसकी कोई पुख्ता जानकारी इतिहास मेंं नहीं है।
कोहिनूर का अर्थ होता है रोशनी का पहाड़, लेकिन इस हीरे की चमक से कई सल्तनत के राजाओ का सूर्य अस्त हो गया। ऐसी मान्यता है कि यह हीरा अभिशप्त है और यह मान्यता अब से नहीं तेरहवी शताब्दी से है। इस हीरे का प्रथम प्रमाणिक वर्णन बाबरनामा मेंं मिलता है जिसके अनुसार 1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के किसी राजा के पास था हालांकि तब इसका नाम कोहिनूर नहीं था। पर इस हीरे को पहचान 1306मेंं मिली जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा की जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा वो इस संसार पर राज करेगा पर इसी के साथ उसका दुर्भाग्य शुरू हो जाएगा। हालांकि तब उसकी बात को उसका वहम कह कर खारिज कर दिया गया पर यदि हम तब से लेकर अब तक का इतिहास देखे तो कह सकते है की यह बात काफी हद तक सही है।
कई साम्राज्यों ने इस हीरे को अपने पास रखा लेकिन जिसने भी रखा वह कभी भी खुशहाल नहीं रह पाया। 14वी शताब्दी की शुरुआत मेंं यह हीरा काकतीय वंश के पास आया और इसी के साथ 1083 ई. से शासन कर रहे काकतीय वंश के बुरे दिन शुरू हो गए और 1323 मेंं तुगलक शाह प्रथम से लड़ाई मेंं हार के साथ काकतीय वंश समाप्त हो गया।
काकतीय साम्राज्य के पतन के पश्चात यह हीरा 1325 से 1351 ई. तक मोहम्मद बिन तुगलक के पास रहा और 16वीं शताब्दी के मध्य तक यह विभिन्न मुगल सल्तनत के पास रहा और सभी का अंत इतना बुरा हुआ जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.
शाहजहां ने इस कोहिनूर हीरे को अपने मयूर सिंहासन मेंं जड़वाया लेकिन उनका आलीशान और बहुचर्चित शासन उनके बेटे औरंगजेब के हाथ चला गया। उनकी पसंदीदा पत्नी मुमताज का इंतकाल हो गया और उनके बेटे ने उन्हें उनके अपने महल मेंं ही नजरबंद कर दिया।
1739 मेंं फारसी शासक नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन हो गया और नादिर शाह अपने साथ तख्ते ताउस और कोहिनूर हीरों को पर्शिया ले गया। उसने इस हीरे का नाम कोहिनूर रखा। 1747 ई. मेंं नादिरशाह की हत्या हो गयी और कोहिनूर हीरा अफगानिस्तान शांहशाह अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया। और उनकी मौत के बाद उनके वंशज शाह शुजा दुर्रानी के पास पहुंचा। पर कुछ समय बाद मो. शाह ने शाह शुजा को अपदस्त कर दिया। 1813  ई.  मेंं, अफगानिस्तान के अपदस्त शांहशाह शाह शूजा कोहीनूर हीरे के साथ भाग कर लाहौर पहुंचा। उसने कोहिनूर हीरे को पंजाब के राजा रंजीत सिंह को दिया एवं इसके एवज मेंं राजा रंजीत सिंह ने, शाह शूजा को अफगानिस्तान का राज-सिंहासन वापस दिलवाया।  
इस प्रकार कोहिनूर हीरा वापस भारत आया। लेकिन कहानी यही खत्म नहीं होती है कोहिनूर हीरा के आने के कुछ सालों बाद महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाती है और अंग्रेज सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लिये। इसी के साथ यह हीरा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हो जाता है। कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन ले जाकर महारानी विक्टोरिया को सौप दिया जाता है तथा उसके शापित होने की बात बताई जाती है। महारानी के बात समझ मेंं आती है और वो हीरे को ताज मेंं जड़वा के 1852 मेंं स्वयं पहनती है तथा यह वसीयत करती है की इस ताज को सदैव महिला ही पहनेगी। यदि कोई पुरुष ब्रिटेन का राजा बनता है तो यह ताज उसकी जगह उसकी पत्नी पहनेगी।
पर कई इतिहासकारों का मानना है की महिला के द्वारा धारण करने के बावजूद भी इसका असर खत्म नहीं हुआ और ब्रिटेन के साम्राज्य के अंत के लिए भी यही जिम्मेंदार है। ब्रिटेन 1850 तक आधे विश्व पर राज कर रहा था पर इसके बाद उसके अधीनस्थ देश एक एक करके स्वतंत्र हो गए।
793 कैरेट का था कोहिनूर:
कहा जाता है की खदान से निकला हीरा 793 कैरेट का था। अलबत्ता 1852 से पहले तक यह 186कैरेट का था। पर जब यह ब्रिटेन पहुंचा तो महरी को यह पसंद नहीं आया इसलिए इसकी दुबारा कटिंग करवाई गई जिसके बाद यह 105.6कैरेट का रह गया।
क्या है कोहिनूर हीरे की कीमत:
कोहिनूर हीरा अपने पुरे इतिहास मेंं अब तक एक बार भी नहीं बिका है यह या तो एक राजा द्वारा दूसरे राजा से जीता गया या फिर इनाम मेंं दिया गया। इसलिए इसकी कीमत कभी नहीं लग पाई। पर इसकी कीमत क्या हो सकती है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है की आज से 60 साल पूर्व हांगकांग मेंं एक ग्राफ पिंक हीरा 46मिलियन डॉलर मेंं बिका था जो की मात्र 24.78कैरेट का था। इस हिसाब से कोहिनूर की वर्तमान कीमत कई बिलियन डॉलर होगी।

अगस्त 2016 मिथुन मासिक राशीफल

माह की शुरूआत में आप नए उद्यम एवं कार्य करने के लिए प्रेरित होंगे। परंतु, इस समय आपको लाभ प्राप्त करने का लालच अधिक रहेगा। प्रलोभन के कारण आप किसी को ठगने की कोशिश करेंगे या कोर्इ आपको ठग सकता है। हालांकि, कमीशन, दलाली और लेखन के कार्य में सफलता मिलेगी। आँखों के संबंध में सावधानी बरतें। परिवार या जीवन साथी के साथ कोई मतभेद न हो, इसका भी ध्यान रखें। दूसरे सप्ताह गुरू राशि बदलकर कन्या राशि में प्रवेश करेगा, जो आपके लिए सामान्य फलदायी रहेगा। आपको मकान-वाहन की चिंता या हृदय की अशांति का अनुभव होगा। इसके बाद का समय कुल मिलाकर शुभ है। नए प्रेम संबंध बनेंगे। यह संबंध कदाचित लंबे समय तक न टिकें, ऐसी संभावना है। तीसरे सप्ताह दौरान जब सूर्य राशि बदलकर सिंह में प्रवेश करेगा, तो आपको पिता की तरफ से अधिक सहयोग नहीं मिलेगा, किसी भी मामले में। इसके अलावा वसीयत संबंधी कामों में देरी का सामना करना पड़ रहा था, उसका कोई रास्ता निकलेगा। चौथे सप्ताह की शुरूआत से परिस्थितियों में बदलाव महसूस करेंगे। जायदाद या जमीन-वाहन से जुड़े कार्यों में सफलता मिलेगी। नौकरी और व्यापार से संबंधित कार्य भी पूर्ण होंगे। फ्रेशर्स को अच्छे अवसर प्राप्त होंगे। टिप्सः वैवाहिक जीवन में अहं का टकराव नहीं हो, इसका ध्यान रखें।
प्रेम-संबंध-इस समय आपको अपने मित्र मंडली अथवा भाई-बहन के परिचितों मे से कोई योग्य पात्र मिल सकता है। विशेषकर, दूसरे सप्ताह के बाद आप विपरीत लिंगी जातकों की ओर अधिक झुके हुए रहेंगे। पहले पखवाड़े में आपकी वाणी से दंभ का भाव न दिखाई पड़े, इसका जरा ख्याल रखें। कामकाज के स्थल पर लोगों के साथ विनम्रता रखने की गणेशजी सलाह दे रहे हैं। पुराने संबंध फिर से जीवंत हो सकते हैं।
कैरिअर-विद्यार्थी जातकों की हाल में अभ्यास में रुचि रहेगी जिसमें खास रूप से विशेष रूप से विज्ञान व रिसर्च के कार्यों में आप गहराई से उतरने का प्रयास करेंगे। आपको उत्तम फल की प्राप्ति होने की संभावना है। जो लोग इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहे हैं अथवा व्यवसायिक मोर्च पर आगे बढ़ने के लिए किसी प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं उनको 14 तारीख के बाद सफलता प्राप्त हो सकती है। 17 तारीख के बाद मित्रों के साथ पढ़ाई से संबंधित यात्राएं होने की संभावना है। हालांकि, यात्राओं में सावधानी रखनी आवश्यक होगी।
आर्थिक स्तिथि- आर्थिक मामलों में क्रमशः सुधार आएगा। आप कोई नया उद्यम लगाने या व्यवसाय के विस्तार हेतु कोई बड़ा खर्च कर सकते हैं। 12 तारीख के बाद परिवारजनों की खुशी हेेतु कीमती चीजों की खरीद कर सकते हैं। अपने आसपास के परिवेश को सुधारने के लिए खर्च कर सकते हैं। भाग्यशाली समय नहीं होने के कारण किसी प्रकार का जोखिम न लें। निवेश से जुड़े निर्णय सोच-विचारकर लें।
स्वास्थ्य- इस महीने आपके रोग स्थान में मंगल व वक्री शनि की युति होने से स्वास्थ्य के प्रति सावधान रहना होगा। वैसे पिछले पखवाड़े में शनि के मार्गी होने से पुरानी बीमारियों में उपचार का असर मंद गति से होता दिखाई देगा। जो लोग एसिडिटी, पेट में जलन, आँखों की तकलीफ, दांतों में सूजन, गर्दन की हड्डियों की व्याधियों से कष्ट में हैं उनको 17 तारीख के बाद राहत मिलने की संभावना है। हालांकि, पिछले पखवाड़े में खतरनाक कामों में अपने आप को चोट लगने से बचाएं।

अगस्त 2016 वृषभ मासिक राशिफल

इस माह की शुरूआत में जातकों को थोड़ा सा सतर्क रहने की जरूरत रहेगी। आप प्रलोभन में आकर किसी को ठगने का प्रयत्न करेंगे या आप स्वयं ठगे जाएंगे। शेयर मार्केट के साथ जुड़े लोगों को किसी भी सौदे में सावधानी रखनी चाहिए। पारिवारिक क्षेत्र में वैचारिक मतभेद और कलह की संभावना का संकेत मिल रहा है।नर्इ प्रोपर्टी लेने के लिए आप विचार कर सकते हैं। गुरू महाराज का राशि परिवर्तन संतान प्राप्ति, प्रगति, प्रेम संबंध में सफलता तथा विद्यार्थियों को प्रगति का संकेत दे रहा है। पूर्वार्ध में जातक धार्मिक यात्रा का आयोजन कर सकते हैं। नए संबंध के लिए व्यक्ति का चुनाव करते हुए थोड़ी सावधानी रखें। उत्तरार्ध की शुरूआत में मुसीबत, विघ्न और स्वास्थ्य संबंधी तकलीफ रहेगी। कदाचित इच्छित काम समय पर पूरा नहीं हो। आर्थिक मामलों में खींचतान रह सकती है। २१ तारीख के पश्चात शुक्र राशि बदलकर कन्या राशि में प्रवेश कर रहा है, जो आपके लिए शुभ फलदायी रहेगा। प्रेम संबंध में आगे बढ़ने के इच्छुक जातक प्रेम प्रस्ताव रखने के सक्षम होंगे। बिजनेस, शेयर मार्केट अथवा कमीशन, कम्युनिकेशन में अप्रत्याशित सफलता और लाभ मिलेगा। २४ तारीख़ के पश्चात खर्च, शारीरिक तकलीफ अथवा जीवन साथी के साथ व्यवहार में भी तनाव संकेत मिल रहा है। टिप्सः हल्दी एवं पानी से शिवलिंग की पूजा करें। गुरूवार को पीले कपड़े पहनें।
कैरिअर-महीने के प्रारंभ में आप प्रोफेशनल मामलों के लिए यात्राएं कर सकते हैं। जो लोग शेयर बाजार या सट्टे की प्रवृत्तियों से जुड़े हैं वे पूर्व के पखवाड़े में योजनापूर्वक लाभ उठा सकते हैं। हाल में आपके कर्म स्थान में केतु के होने से शत्रुओं व विरोधियों से टक्कर लेते हुए रास्ता बनाना होगा। कामकाज में सतर्कता और आर्थिक व्यवहारों में सजगता रखनी होगी।
प्रेम-संबंध- इस महीने के शुरू का समय प्रेम संबंधों के लिए सामान्य रहेगा। दूसरे सप्ताह से गुरू के आपके पंचम भाव में आने से आगामी एक वर्ष तक शुभ समय रहेगा। नए संबंधों की शुरूआत होने की संभावना है। हालांकि, पूर्व के पखवाड़े में बुध के यहां आने से वर्तमान संबंधों में नीरसता आ सकती है। पर महीने के अंत में शुक्र के भी यहां आने से स्थिति सुधरेगी। सप्तम भाव में मंगल व शनि की युति के कारण दांपत्य जीवन में क्रोध को अंकुश में रखना पड़ेगा।
आर्थिक स्तिथि- इस महीने आपकी आर्थिक स्थिति सामान्य रहने की संभावना है। वर्तमान में आप अपने परिवारजनों और आसपास के लोगों के लिए अधिक धन खर्च करेंगे। दूसरे सप्ताह के बाद आप अपनी संतान की ओर से कुछ अपेक्षा रख सकते हैं। नए निवेश के इच्छुक जातक जहां तक संभव हो 17 तारीख के बाद ही कोई निर्णय लें। वसीयत या पारिवारिक संपत्ति से जुड़े मामलों में दूसरे पखवाड़े में अवरोध की संभावना रहेगी।
स्वास्थ्य- इस महीने विशेष तौर पर आपको छाती में दुःखाव, फूड पोइज़निंग इत्यादि समस्याओं से बचकर रहना होगा। उत्तरार्ध के समय में आपको रीढ़ की हड्डियों में दर्द की शिकायत होने की संभावना है। संतान संबंधी समस्याओं का पिछले पखवाड़े में हल निकलने की उम्मीद है। जिन लोगों को कोई गंभीर बीमारी है उनको पूर्वार्ध के समय में विशेष चौकन्ना रहना पड़ेगा।

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Monday 1 August 2016

अगस्त 2016 मेष मासिक राशीफल

शुक्र, बुध, गुरू एवं राहु सिंह में एकत्र हो रहे हैं, जिसके कारण आपके सामने विद्या, संतान और प्रेम संबंधी प्रश्न खड़े होने की संभावना है। हालांकि, माह की शुरूआत में नौकरी और व्यवसाय संबंधित कार्य पूरे हो सकते हैं। व्यावसायिक प्रयोजन से बाहर जाने या यात्रा का प्रोग्राम बन सकता है। शेयर मार्केट या किसी विषय में अत्यधिक लालच से आप धोखे का शिकार होंगे। ७ तारीख़ के पश्चात बुरा चाहने वालों की संख्या बढ़ेगी। हालांकि, बिजनस और धन के संबंध में गुरू का गोचर शुभ प्रदान देगा। कोर्ट- कचहरी का कोई मामला हो तो उस से मुक्ति मिल सकती है। उत्तरार्ध की शुरूआत से २० तारीख़ तक का समय काफी अनुकूल है। यह समय नौकरी-व्यवसाय में उन्नति तथा विदेशगमन के लिए प्रगतिकारक दिखाई दे रहा है। आर्थिक समृद्धि का योग भी अभी प्रबल बन रहा है। अचानक लाभ तथा किसी पुराने मित्र मुलाकात होने की संभावना है। जब शुक्र राशि बदलकर कन्या में प्रवेश करेगा तो आपके लिए शत्रुओं की तरफ से चिंता और मुश्किल बढ़ने का संकेत दे रहा है। खर्च में वृद्धि की संभावना बन रही है। धार्मिक और जन सेवा के कार्यों पर भी खर्च होगा। गुप्त शत्रुआें से सावधान रहें। टिप्सः बुधवार को आेम राम राहुवे नमः मंत्र का जाप करें। सफार्इ कर्मचारियों काले कपड़े का दान करें। प्रेम संबंध में सावधानी बरतें।
महीने के शुरूआत में प्रेम संबंधों में काफी ध्यान रखना होगा। आपके पंचम स्थान पर राहु, गुरू, बुध व शुक्र की युति नीरसता व अहं का कारण बन सकती है। आपमें विपरीत लिंगी सदस्यों के प्रति आकर्षण रहेगा, पर संबंधों में कोई विशेष प्रयास करने पर आप धोखे का शिकार हो सकते हैं। महीने के उत्तरार्ध में सूर्य व राहु की युति तनाव का कारण बन सकती है।
आपके धन स्थान के मालिक शुक्र का महीन के शुरूआत से ही पंचम स्थान में राहु के साथ युति में होने से शेयर बाजार जैसे कामों या व्यर्थ की जगहों पर धन का निवेश हो सकता है। मनपसंद के व्यक्ति,संतान या शिक्षा में धन खर्च होने की संभावनाए अधिक है। 12 तारीख के बाद आप नियमित आवक को बढ़ाने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। पुश्तैनी या पैतृक संपत्ति के मामले में पूर्वार्ध का समय लाभकारी रहेगा।
विद्यार्थी जातकों के लिए शुरूआत का समय काफी संघर्षपूर्ण प्रतीत होता है। समझ शक्ति व पढ़ने की इच्छा शक्ति होने पर भी पंचम स्थान पर विद्यमान राहु के कारण कोई न कोई अवरोध आ सकता है। उत्तरार्ध के समय में व्यवसायिक कारणों अथवा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आपको आराम रहेगा। जो लोग अनुसंधान के क्षेत्र में उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं, उनको 17 तारीख के बाद मेहनत व अवरोध के बीच से होकर आगे बढ़ने के लिए तैयार रहना होगा।
आपके अष्टम स्थान में अग्नि तत्व वाला मंगल व वक्री शनि युति में है। इसके बाद महीने के उत्तरार्ध में आपके रोग स्थान में गुरू, बुध और शुक्र युति में आएंगे। शुरूआत की तुलना में महीने के पिछले पखवाड़े में आपके अपने स्वास्थ्य के संबंध में सावधानी रखनी होगी। पूरे महीने संतान प्राप्ति की समस्या रहेगी। गर्भवती महिलाओं को अपना ध्यान रखना होगा। 20 तारीख के बाद पाचन, छाती में दर्द, मधुमेह इत्यादि रोग हो सकते हैं।

साप्ताहिक राशिफल 01-07 अगस्त, 2016

मेष राशि -
मेष राशि वाले जातकों के.....द्वितीयेष एवं सप्तमेष शुक्र.... पंचममस्थ होकर राहु से पापाक्रांत होने से..इस सप्ताह संतान, समाज, संपत्ति और मित्र सभी...आपके लिए दुख का कारक है... संतान के अध्ययन तथा स्वास्थ्यगत कष्ट.....पारिवारिक अशांति से मानसिक तनाव रहेगा....तथा मित्रो या भागीदारों के साथ विवाद तथा धन संबंधी कष्ट संभव हैं....साथ ही किसी कार्य की शुरूआत हो जाने के कारण तनाव बढ़ सकता है...... विवेक एवं संयम से काम लें ...साथ ही... उदर संबंधी विकार से बचने के लिए शुक्र के उपाय करें तो लाभ होगा-
1. ऊॅ शुं शुक्राय नमः का जाप करें...
2. माॅ महामाया के दर्शन करें...
3. चावल, दूध, दही का दान करें...
4.

वृषभ -
वृषभ राशि वालें जातकों के... भाग्येष और दषमेष शनि....सप्तमस्थ स्थान में...विपरीत राजयोग कारक... आपके काम में भाग्य भी आपके साथ होगा....जो भी काम आप सोचेंगे...उसके लिए रास्ता तथा व्यक्ति से अचानक सहयोग प्राप्त होने से काम आसानी से संभव....रूके काम करने का प्रयास कर सकते हैं....निष्चित सफलता मिलेगी......नये प्रोजेक्ट या नवीन कार्य का प्रारंभ करने से लाभ की प्राप्ति...अध्ययनरत हों तो अच्छे परिणाम से उन्नति के लिए दोस्तों से दूरी जरूरी होगी, तभी रास्ते खुलेंगे...रक्त विकार या पुराने रोग कष्टकारी हो सकते हैं... शनि के बुरे प्रभाव से उत्पन्न कष्ट की शांति के लिए -
1. ‘‘ऊॅ शं शनैश्चराय नमः’’ की एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें..
2. उड़द या तिल दान करें....
3. षिव पूजन करें....

मिथुन
मिथुन राशि वाले जातकों के.... षष्ठेष एवं एकादषेष मंगल के... षष्ठस्थ होने से....इस हफ्ते प्रथमार्थ में नवीन कार्य आरंभ करने के लिए लोन से संबंधित कार्य की शुरूआत कर सकते हैं...जिसमें लोन से संबंधित क्षेत्र में किसी पूर्व परिचित या मित्र के अचानक मिलने से काम तत्काल एवं बिना बाधा आसानी से होने से चिंता समाप्त होकर मन प्रसन्न होगा... साथ ही कार्य का एक्सटेंषन कर सकते हैं...लाभ की प्राप्ति...खान-पान की... अनियमितता तथा क्वालिटी से शारीरिक कष्ट संभव....कष्ट को दूर करने के लिए -
1. ऊॅ अं अंगारकाय नमः का जाप करें...
2. हनुमानजी की उपासना करें..
3. मसूर की दाल, गुड दान करें..

कर्क -
कर्क राशि वाले सभी जातकों के.... लग्नेष चंद्रमा के लग्नस्थ होने से.... यात्रा की संभावना...कृषि या कृषि संबंधित क्षेत्र से अच्छे लाभ की संभावना...निरपेक्ष रहने से कुटुंब एवं दोस्तों के सलाह एवं काम में मदद से प्रसन्नता तथा दोस्तों में विष्वसनीयता तथा करीबी... किंतु चंद्रमा के कारण पर उपदेष कुषल बहुतेरे...अर्थात् स्वयं आलस्य के कारण कार्य में विलंब एवं टालने के कारण हानि एवं श्वासरोग से कष्ट संभव ...काम समय पर करने एवं सेहत से संबंधित कष्टों से बचाव के लिए -
1. ऊॅ श्रां श्रीं श्रौं सः चंद्रमसे नमः का जाप करें...
2. दूध, चावल, शंख, स्वेत वस्त्र, मोती का दान करें...
3. श्री सूक्त का पाठ करें धूप तथा दीप जलायें...
4. रूद्राभिषेक करें...

सिंह -
सिंह राशि वाले सभी जातकों के......पंचमेष और अष्टमेष बृहस्पति के लग्नस्थ होने से किंतु राहु से पापाक्रांत होने के कारण ....इस सप्ताह आपको वसीहत में साहित्य या अध्ययन सामग्री प्राप्त हो सकती है...अथवा...सामाजिक कार्य या समारोह में शामिल होने हेतु यात्रा की संभावना....यष सम्मान की प्राप्ति.... किंतु...आर्थिक स्थिति चिंता का कारण हो सकता है... पूर्ण प्रयास करने के उपरांत भी विद्यार्थियों को मनचाही सफलता प्राप्त नहीं होगी... बृहस्पति के निम्न उपाय करने चाहिए -
1. ऊॅ गुरूवे नमः का जाप करें...
2. पीली वस्तुओं का दान करें...

कन्या -
कन्या राशि वाले सभी जातकों के... द्वादश स्थान में राहु....सामाजिक प्रतिष्ठा और आकस्मिक लाभ के योग बन सकते हैं....किंतु यदि आप थोड़ा भी धर्म या नीति विरूद्ध कार्य करें...तो बनते कार्य बिगड़ने के साथ ही अपयष तथा हानि भी संभव...इस समय....किसी भी प्रकार के भूमि.. वाहन...संपत्ति संबंधी कार्य में सावधान रहें...अर्थात्...ठीक तरह कागजात की जाॅच कर लें....माता के स्वास्थ्य की चिंता संभव.... अतः राहु जनित दोषों को दूर करने के लिए -
1. ऊॅ रां राहवे नमः का एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें..
2. मूली का दान करें..
3. सूक्ष्म जीवों को आहार दें..

तुला -
तुला राशि वाले सभी जातकों के.... एकादषेेष सूर्य के दसमस्थ होने से...इस सप्ताह शासकीय पक्ष या कार्य से लाभ तथा वाहन या मकान संबंधी कार्य से लाभ या वित्त की प्राप्ति.....कामों में मामा या प्रतिद्वंदी का आकस्मिक सहयोग प्राप्त होकर कार्य पूर्ण होना आष्चर्यजनक हो सकता है...सप्ताह के बीच में आकस्मिक लाभ या हानि का योग बन सकता है....सच्चे रहे तो लाभ तथा अनैतिक तरीका अपनाने से हानि.... अतः अपने व्यवहार में पारदर्षीता रखें एवं शारीरिक कष्ट से बचाव के लिए सूर्य के निम्न उपाय आजमायें -
1. प्रातः स्नान के उपरांत सूर्य को जल में लाल पुष्प, चंदन तथा शक्कर मिलाकर अध्र्य देते हुए ऊॅ धृणि सूर्याय नमः का पाठ करें, सूर्य नमस्कार करें..
2. गुड़.. गेहू... दान करें..
3. आदित्य ह्दय स्त्रोत का पाठ करें...

वृश्चिक
वृश्चिक राशि वालें सभी जातकों के....तृतीयेष और चतुर्थेष शनि के.....लग्नस्थ होने से... वाणी की कुषलता एवं आत्मविष्वास का स्तर उच्च होने से....कार्य में नेतृत्व तथा गोपनीय कार्य में सहभागिता से अच्छा लाभ प्राप्त होगा....कार्यकुषल होने से कार्यस्तर या सहयोगियों की अपेक्षा स्थिति बेहतर हो सकती है... साथ ही वाहन तथा सामाजिक सुख का स्तर काफी अच्छा होगा...किंतु कंधे या कान में चोट या दर्द से परेषान हो सकते हैं...शनि से उत्पन्न कष्ट की निवृत्ति के लिए -
1. ‘‘ऊॅ शं शनैश्चराय नमः’’ की एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें..
2. उड़द या तिल दान करें,
5. अधिनस्थ कार्य करने वाले की यथा संभव सहायता करें,

धनु
धनु राशि वाले सभी जातकों के...तीसरे स्थान में केतु के कारण..... इस सप्ताह आपके रिष्तों में या व्यवसायिक स्थिति में परिवर्तन संभव....भागीदारी में विवाद का निपटारा होने की संभावना...साथ ही पुरानी दोस्ती में अच्छी गर्माहट हो सकती है...या कोई पुराना दोस्त मिल सकता है,....साथ ही इस सप्ताह चोट-मोच या जानवरों से एलर्जी की थोड़ी प्राब्लम हो सकती है तथा हार्मोन से संबंधित कष्ट भी दिखाई दे सकता है... केतु के शुभ प्रभाव में वृद्धि एवं कष्टों की निवृत्ति के लिए -
1. ऊॅ कें केतवें नमः का जाप कर दिन की शुरूआत करें...
2. सूक्ष्म जीवों की सेवा करें...
3. हल्दी, नारियल का दान करें...

मकर -
मकर राशि वाले सभी जातकों के.... चतुर्थेष एवं एकादषेष मंगल के.... एकादशस्थ होने से.... वाहन सुख तथा आय में वृद्धि होने से...चल संपत्ति का क्रय कर सकते हैं.... अवसर का आप पूरा लाभ ले सकने में सफल रहेंगे...पारिवारिक सुख तथा साथ मिलेगा....व्यसन से स्वयं को बचा कर रखें एवं मित्रों के बीच खान-पान में सतर्कता बरतें...साथ ही पूरे सप्ताह उत्साह कायम रखने तथा तंदुरूस्त रहने के लिए मंगल के निम्न उपाय आजमायें -
1. ऊॅ अं अंगारकाय नमः का जाप करें...
2. हनुमानजी की उपासना करें..
3. मसूर की दाल, गुड दान करें..

कुंभ -
कुंभ राशि वाले जातकों के.... चतुर्थेष एवं भाग्येष शुक्र के....सप्तमस्थ होकर राहु से पापाक्रांत होने से... घरेलू स्थान का शुक्र होने के कारण पारिवारिक खर्च में बढ़ोतरी, अशांति तथा भाग्य में बाधा देकर एसोसियेश में व्यय भी कराता है...अतः इस सप्ताह आप आकस्मिक हानि और विवाद से बचने का प्रयास करें...किंतु यह विवाद स्वास्थ्य को भी परेशान करेगा...सामथ्र्य एवं योग्यता से अधिक महत्वाकांक्षा आपके लिए हानिकारक हो सकता है.... अतः शुक्र जनित तनाव से निवारण के लिए -
5. ऊॅ शुं शुक्राय नमः का जाप करें...
6. माॅ महामाया के दर्शन करें...
7. चावल, दूध, दही का दान करें...
8.
मीन -
मीनराशि वालों सभी जातकों के....पंचमेष चंद्रमा के...पंचमस्थ होने से.... अध्ययन या अध्यापन संबंधी कार्य में नवीनता से...यष तथा प्रतिष्ठा की प्राप्ति संभव....दोस्तों का अच्छा सहयोग कार्य में सफलता दिलाने में सहायक हो सकता है.....राजनैतिक मान-सम्मान की प्राप्ति के योग भी बन सकते हैं....इस सप्ताह रिष्तों को लेकर भावुक होने की संभावना....नये रिष्ते बनने के संकेत....जल तथा कफ या एलर्जी से कष्ट की संभावना....अतः बचाव के लिए .....
1. ऊॅ सों सोमाय नमः का जाप करें...
2. अन्नपूर्णा स्त्रोत का जाप करें...
3. चावल, दूध, दही का दान करें...




मेष राशि -
मेष राशि वाले जातकों के.....द्वितीयेष एवं सप्तमेष शुक्र.... पंचममस्थ होकर राहु से पापाक्रांत होने से..इस सप्ताह संतान, समाज, संपत्ति और मित्र सभी...आपके लिए दुख का कारक है... संतान के अध्ययन तथा स्वास्थ्यगत कष्ट.....पारिवारिक अशांति से मानसिक तनाव रहेगा....तथा मित्रो या भागीदारों के साथ विवाद तथा धन संबंधी कष्ट संभव हैं....साथ ही किसी कार्य की शुरूआत हो जाने के कारण तनाव बढ़ सकता है...... विवेक एवं संयम से काम लें ...साथ ही... उदर संबंधी विकार से बचने के लिए शुक्र के उपाय करें तो लाभ होगा-
1. ऊॅ शुं शुक्राय नमः का जाप करें...
2. माॅ महामाया के दर्शन करें...
3. चावल, दूध, दही का दान करें...
4.

वृषभ -
वृषभ राशि वालें जातकों के... भाग्येष और दषमेष शनि....सप्तमस्थ स्थान में...विपरीत राजयोग कारक... आपके काम में भाग्य भी आपके साथ होगा....जो भी काम आप सोचेंगे...उसके लिए रास्ता तथा व्यक्ति से अचानक सहयोग प्राप्त होने से काम आसानी से संभव....रूके काम करने का प्रयास कर सकते हैं....निष्चित सफलता मिलेगी......नये प्रोजेक्ट या नवीन कार्य का प्रारंभ करने से लाभ की प्राप्ति...अध्ययनरत हों तो अच्छे परिणाम से उन्नति के लिए दोस्तों से दूरी जरूरी होगी, तभी रास्ते खुलेंगे...रक्त विकार या पुराने रोग कष्टकारी हो सकते हैं... शनि के बुरे प्रभाव से उत्पन्न कष्ट की शांति के लिए -
1. ‘‘ऊॅ शं शनैश्चराय नमः’’ की एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें..
2. उड़द या तिल दान करें....
3. षिव पूजन करें....

मिथुन
मिथुन राशि वाले जातकों के.... षष्ठेष एवं एकादषेष मंगल के... षष्ठस्थ होने से....इस हफ्ते प्रथमार्थ में नवीन कार्य आरंभ करने के लिए लोन से संबंधित कार्य की शुरूआत कर सकते हैं...जिसमें लोन से संबंधित क्षेत्र में किसी पूर्व परिचित या मित्र के अचानक मिलने से काम तत्काल एवं बिना बाधा आसानी से होने से चिंता समाप्त होकर मन प्रसन्न होगा... साथ ही कार्य का एक्सटेंषन कर सकते हैं...लाभ की प्राप्ति...खान-पान की... अनियमितता तथा क्वालिटी से शारीरिक कष्ट संभव....कष्ट को दूर करने के लिए -
1. ऊॅ अं अंगारकाय नमः का जाप करें...
2. हनुमानजी की उपासना करें..
3. मसूर की दाल, गुड दान करें..

कर्क -
कर्क राशि वाले सभी जातकों के.... लग्नेष चंद्रमा के लग्नस्थ होने से.... यात्रा की संभावना...कृषि या कृषि संबंधित क्षेत्र से अच्छे लाभ की संभावना...निरपेक्ष रहने से कुटुंब एवं दोस्तों के सलाह एवं काम में मदद से प्रसन्नता तथा दोस्तों में विष्वसनीयता तथा करीबी... किंतु चंद्रमा के कारण पर उपदेष कुषल बहुतेरे...अर्थात् स्वयं आलस्य के कारण कार्य में विलंब एवं टालने के कारण हानि एवं श्वासरोग से कष्ट संभव ...काम समय पर करने एवं सेहत से संबंधित कष्टों से बचाव के लिए -
1. ऊॅ श्रां श्रीं श्रौं सः चंद्रमसे नमः का जाप करें...
2. दूध, चावल, शंख, स्वेत वस्त्र, मोती का दान करें...
3. श्री सूक्त का पाठ करें धूप तथा दीप जलायें...
4. रूद्राभिषेक करें...

सिंह -
सिंह राशि वाले सभी जातकों के......पंचमेष और अष्टमेष बृहस्पति के लग्नस्थ होने से किंतु राहु से पापाक्रांत होने के कारण ....इस सप्ताह आपको वसीहत में साहित्य या अध्ययन सामग्री प्राप्त हो सकती है...अथवा...सामाजिक कार्य या समारोह में शामिल होने हेतु यात्रा की संभावना....यष सम्मान की प्राप्ति.... किंतु...आर्थिक स्थिति चिंता का कारण हो सकता है... पूर्ण प्रयास करने के उपरांत भी विद्यार्थियों को मनचाही सफलता प्राप्त नहीं होगी... बृहस्पति के निम्न उपाय करने चाहिए -
1. ऊॅ गुरूवे नमः का जाप करें...
2. पीली वस्तुओं का दान करें...

कन्या -
कन्या राशि वाले सभी जातकों के... द्वादश स्थान में राहु....सामाजिक प्रतिष्ठा और आकस्मिक लाभ के योग बन सकते हैं....किंतु यदि आप थोड़ा भी धर्म या नीति विरूद्ध कार्य करें...तो बनते कार्य बिगड़ने के साथ ही अपयष तथा हानि भी संभव...इस समय....किसी भी प्रकार के भूमि.. वाहन...संपत्ति संबंधी कार्य में सावधान रहें...अर्थात्...ठीक तरह कागजात की जाॅच कर लें....माता के स्वास्थ्य की चिंता संभव.... अतः राहु जनित दोषों को दूर करने के लिए -
1. ऊॅ रां राहवे नमः का एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें..
2. मूली का दान करें..
3. सूक्ष्म जीवों को आहार दें..

तुला -
तुला राशि वाले सभी जातकों के.... एकादषेेष सूर्य के दसमस्थ होने से...इस सप्ताह शासकीय पक्ष या कार्य से लाभ तथा वाहन या मकान संबंधी कार्य से लाभ या वित्त की प्राप्ति.....कामों में मामा या प्रतिद्वंदी का आकस्मिक सहयोग प्राप्त होकर कार्य पूर्ण होना आष्चर्यजनक हो सकता है...सप्ताह के बीच में आकस्मिक लाभ या हानि का योग बन सकता है....सच्चे रहे तो लाभ तथा अनैतिक तरीका अपनाने से हानि.... अतः अपने व्यवहार में पारदर्षीता रखें एवं शारीरिक कष्ट से बचाव के लिए सूर्य के निम्न उपाय आजमायें -
1. प्रातः स्नान के उपरांत सूर्य को जल में लाल पुष्प, चंदन तथा शक्कर मिलाकर अध्र्य देते हुए ऊॅ धृणि सूर्याय नमः का पाठ करें, सूर्य नमस्कार करें..
2. गुड़.. गेहू... दान करें..
3. आदित्य ह्दय स्त्रोत का पाठ करें...

वृश्चिक
वृश्चिक राशि वालें सभी जातकों के....तृतीयेष और चतुर्थेष शनि के.....लग्नस्थ होने से... वाणी की कुषलता एवं आत्मविष्वास का स्तर उच्च होने से....कार्य में नेतृत्व तथा गोपनीय कार्य में सहभागिता से अच्छा लाभ प्राप्त होगा....कार्यकुषल होने से कार्यस्तर या सहयोगियों की अपेक्षा स्थिति बेहतर हो सकती है... साथ ही वाहन तथा सामाजिक सुख का स्तर काफी अच्छा होगा...किंतु कंधे या कान में चोट या दर्द से परेषान हो सकते हैं...शनि से उत्पन्न कष्ट की निवृत्ति के लिए -
1. ‘‘ऊॅ शं शनैश्चराय नमः’’ की एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें..
2. उड़द या तिल दान करें,
5. अधिनस्थ कार्य करने वाले की यथा संभव सहायता करें,

धनु
धनु राशि वाले सभी जातकों के...तीसरे स्थान में केतु के कारण..... इस सप्ताह आपके रिष्तों में या व्यवसायिक स्थिति में परिवर्तन संभव....भागीदारी में विवाद का निपटारा होने की संभावना...साथ ही पुरानी दोस्ती में अच्छी गर्माहट हो सकती है...या कोई पुराना दोस्त मिल सकता है,....साथ ही इस सप्ताह चोट-मोच या जानवरों से एलर्जी की थोड़ी प्राब्लम हो सकती है तथा हार्मोन से संबंधित कष्ट भी दिखाई दे सकता है... केतु के शुभ प्रभाव में वृद्धि एवं कष्टों की निवृत्ति के लिए -
1. ऊॅ कें केतवें नमः का जाप कर दिन की शुरूआत करें...
2. सूक्ष्म जीवों की सेवा करें...
3. हल्दी, नारियल का दान करें...

मकर -
मकर राशि वाले सभी जातकों के.... चतुर्थेष एवं एकादषेष मंगल के.... एकादशस्थ होने से.... वाहन सुख तथा आय में वृद्धि होने से...चल संपत्ति का क्रय कर सकते हैं.... अवसर का आप पूरा लाभ ले सकने में सफल रहेंगे...पारिवारिक सुख तथा साथ मिलेगा....व्यसन से स्वयं को बचा कर रखें एवं मित्रों के बीच खान-पान में सतर्कता बरतें...साथ ही पूरे सप्ताह उत्साह कायम रखने तथा तंदुरूस्त रहने के लिए मंगल के निम्न उपाय आजमायें -
1. ऊॅ अं अंगारकाय नमः का जाप करें...
2. हनुमानजी की उपासना करें..
3. मसूर की दाल, गुड दान करें..

कुंभ -
कुंभ राशि वाले जातकों के.... चतुर्थेष एवं भाग्येष शुक्र के....सप्तमस्थ होकर राहु से पापाक्रांत होने से... घरेलू स्थान का शुक्र होने के कारण पारिवारिक खर्च में बढ़ोतरी, अशांति तथा भाग्य में बाधा देकर एसोसियेश में व्यय भी कराता है...अतः इस सप्ताह आप आकस्मिक हानि और विवाद से बचने का प्रयास करें...किंतु यह विवाद स्वास्थ्य को भी परेशान करेगा...सामथ्र्य एवं योग्यता से अधिक महत्वाकांक्षा आपके लिए हानिकारक हो सकता है.... अतः शुक्र जनित तनाव से निवारण के लिए -
5. ऊॅ शुं शुक्राय नमः का जाप करें...
6. माॅ महामाया के दर्शन करें...
7. चावल, दूध, दही का दान करें...
8.
मीन -
मीनराशि वालों सभी जातकों के....पंचमेष चंद्रमा के...पंचमस्थ होने से.... अध्ययन या अध्यापन संबंधी कार्य में नवीनता से...यष तथा प्रतिष्ठा की प्राप्ति संभव....दोस्तों का अच्छा सहयोग कार्य में सफलता दिलाने में सहायक हो सकता है.....राजनैतिक मान-सम्मान की प्राप्ति के योग भी बन सकते हैं....इस सप्ताह रिष्तों को लेकर भावुक होने की संभावना....नये रिष्ते बनने के संकेत....जल तथा कफ या एलर्जी से कष्ट की संभावना....अतः बचाव के लिए .....
1. ऊॅ सों सोमाय नमः का जाप करें...
2. अन्नपूर्णा स्त्रोत का जाप करें...
3. चावल, दूध, दही का दान करें...



सोलह सोमवार का व्रत भाग्य के लिए फलदायी

सोमवार का व्रत श्रावण, चैत्र, वैसाख, कार्तिक और माघ महीने के शुक्ल पक्ष के पहले सोमवार से शुरू किया जाता है. कहते हैं इस व्रत को 16 सोमवार तक श्रद्धापूर्वक करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. यहां जानें सोलह सोमवार की व्रत कथा और क्या है इसकी पूजा विधि...
सोलाह सोमवार व्रत कथा:
एक समय की बात है पार्वती जी के साथ भगवान शिव भ्रमण करते हुए धरती पर अमरावती नगरी में आए, वहां के राजा ने शिवजी का एक मंदिर बनवाया था. शंकर जी वहीं ठहर गए. एक दिन पार्वती जी शिवजी से बोली- नाथ! आइए आज चौसर खेलें. खेल शुरू हुआ, उसी समय पुजारी पूजा करने को आए.पार्वती जी ने पूछा- पुजारी जी! बताइए जीत किसकी होगी? वह बोले शंकर जी की, पर अंत में जीत पार्वती जी की हुई. पार्वती ने झूठी भविष्यवाणि के कारण पुजारी जी को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया, और वह कोढ़ी हो गए. कुछ समय के बाद उसी मंदिर में स्वर्ग से अप्सराएं पूजा करने के लिए आईं और पुजारी को देखकर उनसे कोढ़ी होने का कारण पूछा.
शिव आरती करेगी दुखों का निवारण
उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए पुजारी जी ने सारी बात बताई. तब अप्सराओं ने उन्हें सोलह सोमवार के व्रत के बारे में बताते हुए और महादेव से अपने कष्ट हरने के लिए प्रार्थना करने को कहा. पुजारी जी ने उत्सुकता से व्रत की विधि पूछी. अप्सरा बोली- बिना अन्न व जल ग्रहण किए सोमवार को व्रत करें, और शाम की पूजा करने के बाद आधा सेर गेहूं के आटे का चूरमा तथा मिट्‌टी की तीन मूर्ति बनाएं और चंदन, चावल, घी, गुड़, दीप, बेलपत्र आदि से भोले बाबा की उपासना करें.बाद में चूरमा भगवान शंकर को चढ़ाएं और फिर इस प्रसाद को 3 हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा लोगों में बांटे, दूसरा गाए को खिलाएं और तीसरा हिस्सा स्वयं खाकर पानी पिएं. इस विधि से सोलह सोमवार करें और सत्रहवें सोमवार को पांच सेर गेहूं के आटे की बाटी का चूरमा बनाकर भोग लगाकर बांट दें. फिर परिवार के साथ प्रसाद ग्रहण करें. ऐसा करने से शिवजी तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करेंगे. यह कहकर अप्सरा स्वर्ग को चली गईं.
इस स्तुति से पाएं भगवान शिव की अपार कृपा
पुजारी जी यथाविधि व्रत कर पूजन करने लगे और रोग मुक्त हुए. कुछ दिन बाद शिव-पार्वती दोबारा उस मंदिर में आए. पुजारी जी को कुशल पूर्वक देख पार्वती ने उनसे रोग मुक्त होने का कारण पूछा. तब पुजारी ने उनसे सोलाह सोमवार की महिमा का वर्णन किया. जिसके बाद माता पार्वती ने भी यह व्रत किया और फलस्वरूप रूठे हुए कार्तिकेय जी मां के आज्ञाकारी हुए.इस पर कार्तिकेय जी ने भी मां गौरी से पूछा कि क्या कारण है कि मेरा मन आपके चरणों में लगा? जिस पर उन्होंने अपने व्रत के बारे में बतलाया. तब गौरीपुत्र ने भी व्रत किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें अपना बिछड़ा हुआ मित्र मिला. मित्र ने भी अचानक मिलने का कारण पूछा और फरि व्रत की विधि जानकर उसने भी विवाह की इच्छा से सोलाह सोमवार का व्रत किया.व्रत के फलस्वरूप वह विदेश गया, वहां राजा की कन्या का स्वयंवर था. उस राजा का प्रण था कि हथिनी जिसको माला पहनाएगी उसी के साथ पुत्री का विवाह होगा. वह ब्राह्‌मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से एक ओर जा बैठा. हथिनी ने माला उस ब्राह्‌मण कुमार को पहनाई. धूमधाम से विवाह हुआ तत्पश्चात दोनों सुख से रहने लगे.
व्रत की विधि‍ पूरी न करने पर रानी हुई अभागी
एक दिन राजकन्या ने पूछा- नाथ! आपने कौन सा पुण्य किया जिससे राजकुमारों को छोड़ हथिनी ने आपका वरण किया. ब्राह्‌मण ने सोलह सोमवार का व्रत विधिवत बताया. राज-कन्या ने पुत्र प्राप्ति के लिए व्रत किया और सर्वगुण संपन्न पुत्र प्राप्त किया. बड़े होने पर पुत्र ने पूछा- माता जी! किस पुण्य से आपको मेरी प्राप्ति हुई? राजकन्या ने अपने पुत्र को भी शिव जी के इस व्रत के बारे में बतलाया.तब उसके पुत्र ने राज्य की कामना से सोलाह सोमवार व्रत किया. तभी राजा के दूतों ने आकर उसे राज्य-कन्या के लिए वरण किया. इसके उसका विवाह संपन्न हुआ और राजा के दिवंगत होने पर ब्राह्‌मण कुमार को गद्‌दी मिली. फिर वह इस व्रत को करता रहा. एक दिन उस राजा ने अपनी पत्नी से पूजन सामग्री शिवालय में ले चलने को कहा, परंतु उसने दासियों द्वारा भिजवा दी.जब राजा ने पूजन समाप्त किया तो आकाशवाणी हुई कि वह अपनी पत्नी को निकाल दे, नहीं तो वह तेरा सत्यानाश कर देगी. प्रभु की आज्ञा मान उसने रानी को निकाल दिया. रानी भाग्य को कोसती हुई नगर में एक बुढ़िया के पास गई. दीन देखकर बुढ़िया ने इसके सिर पर सूत की पोटली रख बाजार भेजा, रास्ते में आंधी आई, पोटली उड़ गई. बुढ़िया ने उसे फटकार कर भगा दिया.वहां से वह रानी तेली के यहां पहुंची तो सब बर्तन चटक गए, उसने भी निकाल दिया. पानी पीने नदी पर पहुंची तो नदी सूख गई. सरोवर पहुंची तो हाथ का स्पर्श होते ही जल में कीड़े पड़ गए, उसने उसी जल को पीया. आराम करने के लिए जिस पेड़ के नीचे जाती वह सूख जाता. वन और सरोवर की यह दशा देखकर ग्वाल इसे मंदिर के गुसाई के पास ले गए.सारी गाथा जान वह समझ गए यह कुलीन अबला आपत्ति की मारी है. तब वह धैर्य बंधाते हुए बोले- बेटी! तू मेरे यहां रह, किसी बात की चिंता मत कर. रानी आश्रम में रहने लगी, परंतु जिस वस्तु पर इसका हाथ लगे उसी में कीड़े पड़ जाते. दुखी हो गुसाईं जी ने पूछा- बेटी! किस देव के अपराध से तेरी यह दशा हुई? रानी ने बताया – मैंने पति आज्ञा का उल्लंघन किया और महादेव जी के पूजन में नहीं गई.

केवल महिलाएं ही क्यूँ कर पाती हैं टैरो कार्ड रीडिंग

भविष्य जानने के लिए जन्म कुंडली, हस्तरेखा और न्यूमरोलॉजी का सहारा लिया जाता है। ज्योतिष की दुनिया में छिपे सवालों का जवाब देने के लिए मौजूद इन सभी विधाओं में एक और विधा भी है जिसे टैरो कार्ड रीडिंग कहा जाता है।
ताश के पत्तों की तरह दिखने वाले इन टैरो कार्ड के ऊपर कुछ रहस्यमय प्रतीकात्मक चिह्न बने होते हैं जो संबंधित व्यक्ति के साथ भविष्य में होने वाली घटनाओं को बहुत हद तक अनुमानित कर सकते हैं। व्यक्ति के प्रश्नों के एवज में वे कार्ड स्वयं उत्तर देते हैं, जिनके ऊपर उसके साथ होने वाले हालात निर्भर करते हैं।
आपको जानकार हैरानी होगी कि भविष्य की सटीक जानकारी देने वाली टैरो कार्ड रीडिंग की इस विधा को सबसे पहले चौदहवीं शताब्दी में इटली में मनोरंजन के माध्यम के तौर पर अपनाया गया था। लेकिन बहुत ही जल्द यह विद्या यूरोप के बहुत से देशों में फैल गई और धीरे-धीरे इसे मात्र मनोरंजन का साधन ना मानकर भविष्य जानने की गूढ़ विद्या के तौर पर अपना लिया गया। 18वीं शताब्दी तक पहुंचते-पहुंचते टैरो कार्ड रीडिंग इंग्लैंड व फ्रांस में भी बहुत लोकप्रिय हो गई।
टैरो कार्ड के ऊपर अंक, रंग, संकेत तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश जैसे पांच तत्व दर्शाए गए होते हैं, जिनके आधार पर भविष्य का अनुमान लगाया जाता है। आपने देखा होगा की जहाँ ज्योतिष की अन्य विधाओं में पुरुषों का बोल बाला है वही टैरो कार्ड पढऩे वाले लोगों में अधिकांशत: महिलाएं ही होती हैं। इसके पीछे का कारण यह है कि टैरो कार्ड एक ऐसी प्रणाली है जिसमें गणित का जरा भी प्रयोग नहीं होता, बस अनुमान लगाने की क्षमता सटीक और अचूक होनी चाहिए। वैज्ञानिक तौर पर भी यह प्रमाणित है कि अनुमान लगाने की क्षमता पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में ज्यादा होती है। इसलिए टैरो कार्ड रीडर महिलाएं ही होती है।
टैरो कार्ड रीडिंग के अंतर्गत डेक (ताश के पत्तों) में से उठाए गये कार्ड पर बने चित्रों व संकेतों के क्या अर्थ हैं, वह किस ओर इशारा कर रहे हैं, आपके भविष्य को किस दिशा में मोड़ सकते हैं, के आधार पर भविष्यवाणी की जाती है। साथ ही वे कार्ड प्रश्नकर्ता की वर्तमान समय और उसकी मानसिक स्थिति भी दर्शाते हैं।
टैरो में 78कार्ड होते है। जिनमें से 22 कार्ड मेजर अर्काना, अर्काना शब्द लैटिन भाषा से निकला है जिसका अर्थ है रहस्यमयी, व 56कार्ड माइनर अर्काना होते हैं। 56माइनर कार्ड में से 16कार्ड रायल अर्काना या कोर्ट कार्ड कहलाते हैं, जिनमें जैसे किंग, क्वीन, नाइट व पेज जैसे पत्ते शामिल है। माइनर अर्काना में शामिल 56कार्ड को वैंडस, कप्स, सोडर्स व पैन्टाकल्स नामक 4 भागों में बांटा गया है। माइनर अर्काना में अंकों का महत्व बहुत अधिक होता है।
जहाँ एक ओर मेजर आर्काना ब्रह्मांड के मूल तत्वों और विभिन्न राशियों को अभिव्यक्त करता है वहीं माइनर अर्काना इन्हीं तत्वों को रोजमर्रा की घटनाओं पर लागू कर ये बताता है कि भविष्य में क्या होने वाला है।
टैरो कार्ड रीडिंग में माइनर अर्काना को जिन चार भागों में विभाजित किया गया है वो हैं, वैंड्स: वैंड्स का कार्ड ऊर्जा, आत्मविश्वास, जोखिम, इच्छाशक्ति, ताकत, सृजनशीलता व रचनात्मकता को अभिव्यक्त करता है। कप्स: कप्स कार्ड कामनाओं, इच्छाओं, वैवाहिक जीवन, प्रेम, मानवीयता, आध्यात्मिकता की अभिव्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। सोडर्स: घृणा, शत्रुता, गति, साइंस, तर्क, न्याय, योद्धा व मानसिक स्पष्टता को दर्शाता है। पेन्टाकल्स: व्यापार, वित्त, उद्योग, स्वास्थ्य, संपत्ति व रचनात्मकता को अभिव्यक्त करता है। माइनर के अलावा मेजर अर्काना में 0-22 तक कार्ड होते हैं जो अलग-अलग महत्व रखते हैं।

ज्ञानवान उतथ्य

कौशल देश मेंं देवदत्त नाम का एक विख्यात ब्राह्मण रहता था। देवदत्त का विवाह रोहिणी नामक एक सुंदर कन्या से सम्पन्न हुआ। किंतु अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी देवदत्त के कोई संतान नहीं हुई। इस कारण वह सदैव दु:खी रहता था। एक बार देवदत्त के हृदय मेंं पुत्रेष्टि यज्ञ करने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने शीघ्र ही तमसा नदी के तट पर एक विशाल यज्ञ-मण्डप का निर्माण करवाया। यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए उसने सुहोत्र, यज्ञवल्क्य, बृहस्पति, पैल, गोभिल आदि ऋषियों को आमंत्रित किया। निश्चित समय पर यज्ञ का शुभारम्भ हुआ।
यज्ञ-वेदी पर ऋषि गोभिल सामवेद का गान करते हुए रथन्तर मंत्र का उच्चारण कर रहे थे। तभी मंत्रोच्चारण करते समय उनका स्वर भंग हो गया। इससे देवदत्त कुपित होकर गोभिल ऋषि से बोला—‘‘हे मुनिवर! आप बड़े ज्ञानी हैं। मैं यह यज्ञ पुत्र-प्राप्ति के लिए कर रहा हूँ और आपने इस सकाम यज्ञ मेंं स्वरहीन मंत्र का उच्चारण कर दिया। आप जैसे ज्ञानी ऋषि को यह शोभा नहीं देता।’’
देवदत्त के कटु वचन सुनकर गोभिल ऋषि क्रोधित होते हुए बोले—‘‘दुष्ट! प्रत्येक प्राणी के शरीर मेंं श्वास आते-जाते हैं। स्वर का भंग होना इसी का परिणाम है। इसमेंं किसी का भी दोष नहीं होता। तुमने बिना सोचे-विचारे कटु वचनों का प्रयोग किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हारे घर उत्पन्न होने वाला पुत्र महामूर्ख और हठी होगा।’’ गोभिल के शाप से देवदत्त भयभीत हो गया और उनसे क्षमा माँगते हुए बोला —‘‘ऋषिवर! मेंरे अपराध को क्षमा करें। पुत्र के अभाव ने मुझे अत्यंत विचलित कर दिया था। मैं अज्ञानी यह भूल गया था कि यज्ञ के लिए आए ऋषिगण साक्षात् देवस्वरूप होते हैं। ऋषिवर! मुझे पर दया करें। मूर्ख प्राणी का इस संसार मेंं कोई अस्तित्व नहीं होता। जीवन मेंं उसे ज्ञान, मान, सम्मान, धन और वैभव कदापि प्राप्त नहीं होते। हे मुनिवर! आप तो महान तपस्वी हैं। अज्ञानियों का उद्धार करना ही आपका कार्य है। कृपा करके आप मेंरा भी इस शाप से उद्धार करें।’’ यह कहकर देवदत्त गोभिल ऋषि के चरणों मेंं गिरकर अपने आँसुओं से उनके चरण धोने लगा। देवदत्त की निर्मल प्रार्थना से गोभिल ऋषि का क्रोध शांत हो गया और वे बोले—‘‘वत्स ! मुख से निकले वचन कभी वापस नहीं आते। जो शाप मैं दे चुका हूँ, वह तो सिद्ध होगा ही। किंतु मैं तुम्हें यह आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा पुत्र महामूर्ख होकर फिर विद्वान हो जाएगा।’’ ऋषि से यह वर प्राप्त कर देवदत्त अति प्रसन्न हुआ। तत्त पश्चात् पूर्ण यज्ञ किया गया। सभी उपस्थित ऋषि-मुनि विधिपूर्वक विदा हुए।
उचित समय के पश्चात् यज्ञ-फल के रूप मेंं रोहिणी ने रोहिणी नक्षत्र मेंं ही सुंदर बालक को जन्म दिया। मनोरथ सिद्ध होने पर देवदत्त ने निर्धनों को धन, अन्न और वस्त्रों का दान किया। उस बालक का नाम उतथ्य रखा गया।
कुछ बड़ा होने पर उतथ्य की शिक्षा आरम्भ हुई। गुरु उतथ्य को पढ़ाने लगे, किंतु उतथ्य एक भी शब्द का उच्चारण न कर सका। इस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत हो गए थे। उतथ्य पहले के समान ही मूर्ख रहा। आस-पास के सभी गाँवों मेंं यह प्रचलित हो गया कि देवदत्त जैसे महान विद्वान का पुत्र महामूर्ख है। सभी लोग उसका उपहास करने लगे। इससे उतथ्य के मन मेंं वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह सबकुछ त्यागकर वन मेंं चला गया।
वन मेंं उतथ्य ने गंगा के तट के निकट पर्णकुटी बनाई और कंद-मूल खाकर ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। उसने यह नियम बना लिया कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा। सत्यव्रत का पालन करते हुए उतथ्य ने चौदह वर्ष बिता दिए। इन चौदह वर्षों मेंं उसने न तो कोई उपासना की और न ही कोई मंत्र जपा अथवा विद्या प्राप्त की। किंतु यह बात चारों ओर फैल गई कि मुनि उतथ्य सत्यव्रत का पालन करते हैं। उनके मुख से निकली वाणी मिथ्या नहीं होती। इस प्रकार उस का नाम उतथ्य के स्थान पर सत्यव्रत पड़ गया।
एक बार एक शिकारी शिकार खेलने के उद्देश्य से वन मेंं आया। वन मेंं घूमते हुए उसकी दृष्टि एक वराह (सूअर) पर पड़ी। उसने शीघ्र ही बाण चलकर वराह को घायल कर दिया। बाण वराह के पैर मेंं जा लगा था। बाण लगने से वराह भयभीत होकर, अपने प्राण बचाने के लिए उतथ्य की कुटिया के निकट झाड़ी मेंं छिप गया।
घायल वराह को देखकर उतथ्य का हृदय दया से भर गया। तभी वराह का पीछा करते हुए वह शिकारी वहाँ आ पहुँचा। शिकारी ने देखा कि सामने उतथ्य आसन पर बैठा है। शिकारी ने सिर झुकाकर उतथ्य को प्रणाम किया और उससे वराह के बारे मेंं पूछा।
उतथ्य धर्मसंकट मेंं फँस गया। उसने सोचा कि यदि सत्य बोलता है तो शिकारी वराह को मार डालेगा और यदि असत्य बोलता है तो उसका सत्यव्रत टूट जाएगा। तभी अचानक उसका विवेक जाग उठा, जैसे अचानक बुद्धि और ज्ञान की प्राप्ती हो गयी हो और तब उसने कहा—‘‘हे व्याध! मैंने जिन आँखों से देखा है, वे बोल नहीं सकतीं और जो जिह्वा बोल सकती है, उसने वराह को नहीं देखा। इसलिए मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर किस प्रकार दूँ?’’ उतथ्य की बात सुनकर शिकारी निराश होकर वहाँ से लौट गया। उस एक क्षण मेंं उतथ्य को जो ज्ञान मिला उससे वह वाल्मीकि के समान एक महान कवि और विद्वान बन गया। उसकी विद्वता की आभा चारों ओर फैलने लगी। यज्ञों और अन्य धार्मिक उत्सवों मेंं उसका यश गाया जाने लगा। उसकी कीर्ति सुनकर उसका पिता देवदत्त वन मेंं गया और उसे मनाकर वापस घर ले आया। ईश्वर के आशीर्वाद से मूर्ख उतथ्य को ज्ञान, मान, सम्मान और वैभव की प्राप्ति हुई।

बृहस्पति की महादशा का फल

यदि कुंडली मेंं बृहस्पति कारक हो,उच्च राशी, मूल त्रिकोण राशी, स्वर राशी या मित्र राशी मेंं स्थित हो, शुभ ग्रह से युक्त अथवा दुष्ट हो तथा केंद्र अथवा त्रिकोण मेंं स्थित हो तो अपनी दशा मेंं जातक को बहुत शुभ फल प्रदान करता है। यदि बृहस्पति नीच राशी का होकर उच्च नवांश मेंं हो तो जातक राज्यकृपा प्राप्त करता है, पदोन्नति होती है, गुरुकृपा से विद्योपार्जन होता है, देवाराधना मेंं वित्त रमता है तथा जातक धन-कीर्ति पा लेता है। बृहस्पति की शुभ दशा मेंं जातक चुनाव मेंं विजयी होकर ग्रामसभा का प्रधान, पालिकाप्रधान अथवा विधानसभा का सदस्य भी बन जाता है। केन्दीय मंत्रिमंडल की कृपा पाकर धन-धान्य मेंं वृद्धि कर लेता है तथा यशोभागी होता है। दर्शन के प्रति उसकी रूचि बढ़ती है, वेद-वेदांग का अध्ययन करने का अवसार मिलता है तथा जातक अनेक अच्छे ग्रंथो की रचना करता है, जिसके कारण देश-विदेश मेंं उसकी ख्याति फैलती है। अनेक वरिष्ट अधिकारियों से उसके सम्पर्क बढ़ते हैं, विदेश यात्रा के योग बनते है तथा राज्याधिकार प्राप्त करने के अवसर भी मिलते हैं। जातक का बौद्धिक विकास होकर उसमेंं न्यायपरायणता आती है तथा जातक ऐसे कार्य करता है जिससे देश और समाज का कल्याण हो। वह धार्मिक कार्यों मेंं विशेष रुचि लेता है तथा प्याऊ व घार्मिक स्थानों के निर्माण मेंं धन का सद्व्यय करता है। कथा-कीर्तन मेंं बढ़-चढक़र भाग लेता है, ब्राह्मण, गुरु और साधुओं के उदर-साकार को संदेय तत्पर रहता है। बृहस्पति की शुभ दशा मेंं जातक के घर मेंं अनेक मंगल कार्य होते हैं। देह मेंं निरोगता व मन मेंं प्रसन्नता बनी रहती है। पुत्रोत्सव से मन मेंं हर्ष होता है, घर मेंं सुख-शान्ति बनी रहती है और पत्नी का विशेष अनुग्रह प्राप्त होता है। शत्रु परास्त होते है वाद-विवाद मेंं विजय मिलती है। परीक्षार्थी इन दिनों मेंं सफल रहते हैं। प्रतियोगिता परीक्षा मेंं सफलता मिलती है क्या उच्च पद प्राप्त होता है। जातक की मन्त्रणाशक्ति का विकास होता है तथा उसकी सभी अभिलाषाएं पूर्ण हो जाती हैं। जातक इस दशाकाल मेंं राज्य की ओर से उच्च सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त कर लेता है।
यदि बृहस्पति उच्च राशि का हो, लेकिन नवांश मेंं नीच का हो गया हो तो जातक घोर कष्ट भोगता है। उसका धन चोरों द्वारा हरण कर लिया जाता है, स्त्री से वियोग होता है, संतान के कारण उसे अपयश मिलता है। यदि बृहस्पति अकारक हो, नीच राशि, शत्रु राशि, अस्त, वक्री एव पाप मध्यत्व मेंं होकर बुरे भावों मेंं स्थित हो तथा पापी ग्रह से युक्त अथवा दुष्ट हो तो अनेकानेक अशुभ फलों का अनुभव कराता है। यदि बृहस्पति राहू से संबंध करता हो तो जातक को सर्पदंश का भय बनता है, विषपान से देह-पीड़ा भोगनी पड़ती है, शत्रु के द्वारा शस्त्रघात का भय भी बनता है। यदि बृहस्पति मारक ग्रह के साथ हो तो मृत्युसम कष्ट अथवा मृत्यु भी हो सकती है, स्त्री पुत्रों द्वारा अपमानित होना पड़ता है तथा अनेक कष्ट झेलना पड़ते हैं। जातक मेंं अधीरता आ जाती है, स्थिर मति से कोई भी कार्य न करने के कारण प्रत्येक कार्य मेंं उसे असफलता ही मिलती है। वह ब्राह्मण, गुरु से द्वेष रखता है। अपने उच्चधिकारियों के विरोध का उसे सामना करना पड़ता है तथा जातक की पदोन्नति मेंं बार-बार विघ्न उपस्थित होते हैं। परीक्षार्थियों को परीक्षा मेंं कठिनता से ही सफलता मिलती है। परिजनों से मनोमालिन्य बढ़ता है, तीर्थ पर जाने का अवसर प्रथम तो मिलता ही नहीं, मिले भी तो कोई विघ्न उपस्थित होकर जाना स्थगित करा देता है। स्वयं को भी रोगों के कारण प्रताडि़त होना पड़ता है, सन्तान के स्वास्थ्य की चिन्ता बनती है। यदि अशुभ बृहस्पति शत्रु स्थान मेंं हो तो जातक गुल्परोग, रक्तातिसार एवं कष्ट रोग से पीडित होता है। यदि बृहस्पति अष्टम भाव मेंं हो तो अपनी दशा मेंं जातक को वाहन, आवास व सन्तान की हानि कराता है। जातक को विदेशवास तक करना पड़ता है। व्यय स्थानगत होकर शय्या सुख मेंं कमी, स्त्री की मृत्यु अथवा वियोग, राज्यदण्ड का भय, बान्धवों को कष्ट तथा विदेश यात्रा मेंं स्वय को कष्ट जैसे फल प्रदान करता है।

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Thursday 28 July 2016

वर्तमान युग में दांपत्य जीवन

दाम्पत्य पुरुष और प्रकृति के संतुलन का पर्याय है। यह धरती और आकाश के संयोजन और वियोजन का प्रकटीकरण है। आकाश का एक पर्याय अंबर भी है जिसका अर्थ वस्त्र है। वह पृथ्वी को पूरी तरह अपने आवरण मेंं रखता है। वह पृथ्वी के अस्तित्व से अछूता नहीं रहना चाहता। पुरुष और आकाश मेंं कोई भिन्नता नहीं है। आकाश तत्व बृहस्पति का गुण है। स्त्री की कुंडली मेंं सप्तम भाव का कारक गुरु ही है। गुरु अर्थात गंभीर, वह जो अपने दायित्व के प्रति गंभीर रहे। क्या आज के पति अपने धर्म का पूर्ण निर्वाह कर पा रहे हैं? आर्थिक युग के इस दौर मेंं स्त्री घर छोडक़र बाहर निकल रही है। ऐसे मेंं स्वाभाविक है वायरस (राहु) का फैलना, जिससे निर्मित होता है गुरु चांडाल योग। इस विषय मेंं ज्योतिष के सिद्धांत क्या कहते हैं, इसी का विवरण यहां दिया जा रहा है। यदि लग्न या चंद्र से सातवें भाव मेंं नवमेंश या राशि स्वामी या अन्य कारक ग्रह स्थित हों या उस पर उनकी दृष्टि हो तो शादी से सुख प्राप्त होगा और पत्नी स्नेहमयी और भाग्यशाली होगी। यदि द्वितीयेश, सप्तमेंश और द्वादशेश केंद्र या त्रिकोण मेंं हों तथा बृहस्पति से दृष्ट हों, तो सुखमय वैवाहिक जीवन व पुत्रवती पत्नी का योग बनाते हैं। यदि सप्तमेंश और शुक्र समराशि मेंं हों, सातवां भाव भी सम राशि हो और पंचमेंश और सप्तमेंश सूर्य के निकट न हों या किसी अन्य प्रकार से कमजोर न हों, तो शीलवती पत्नी और सुयोग्य संतति प्राप्त होती है। यदि गुरु सप्तम भाव मेंं हो, तो जातक पत्नी से बहुत प्रेम करता है। सप्तमेंश यदि व्यय भाव मेंं हो, तो पहली पत्नी के होते हुए भी जातक दूसरा विवाह करेगा, सगोत्रीय शादी भी कर सकता है। इस योग के कारण पति और पत्नी की मृत्यु भी हो सकती है। यदि सप्तमेंश पंचम या पंचमेंश सप्तम भाव मेंं हो, तो जातक शादी से संतुष्ट नहीं रहता अथवा उसके बच्चे नहीं होते। स्त्री की कुंडली मेंं सप्तम भाव मेंं चंद्र और शनि के स्थित होने पर दूसरी शादी की संभावना रहती है जबकि पुरुष की कुंडली मेंं ऐसा योग होने पर शादी या संतति नहीं होती है। लग्न मेंं बुध या केतु हो, तो पत्नी बीमार रहती है। सातवें भाव मेंं शनि और बुध स्थित हों, तो वैधव्य या विधुर योग बनता है। यदि सातवें भाव मेंं मारक राशि और नवांश मेंं चंद्र हो, तो पत्नी दुष्ट होती है। यदि सूर्य राहु से पीडि़त हो, तो जातक को अन्य स्त्रियों के साथ प्रेम प्रणय के कारण बदनामी उठानी पड़ सकती है। सूर्य मंगल से पीडि़त हो, तो वैवाहिक जीवन कष्टमय हो जाता है पति पत्नी दोनों एक दूसरे से घृणा करते हैं। जातक रक्तचाप और हृदय रोग से पीडि़त होता है। पुरुष के सप्तम भाव मेंं मंगल की मेष या वृश्चिक राशि हो या मंगल का नवांश हो, यदि सप्तमेंश नवांश लग्न से कमजोर हो अथवा राहु या केतु हो तो वह युवावस्था मेंं ही अपनी पत्नी को त्याग देगा या पथभ्रष्ट हो जाएगा। यदि शुक्र और मंगल नवांश मेंं स्थान परिवर्तन योग मेंं हों, तो जातक विवाहोत्तर संबंध बनाता है। जातक के सप्तम भाव मेंं यदि शुक्र, मंगल और चंद्र हों, तो वह अपने पति की स्वीकृति से विवाहोत्तर संबंध बनाएगी या अन्य पुरुष के साथ रहेगी। शादी के लिए कुंडली मिलान की प्रणाली का सहारा लिया जाना चाहिए, इससे कुछ हद तक प्रेम और वैवाहिक सौहर्द की स्थिरता को कायम रखा जा सकता है। पत्री में मंगल और शुक्र की स्थिति का विश्लेषण सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। संभव है कि शुक्र व मंगल की युति हो अथवा न भी हो, लेकिन अंतग्र्रस्त नक्षत्र का स्वामी अनिष्ट ग्रह हो सकता है। ऐसे मेंं तलाक और अलगाव की समस्या उत्पन्न हो सकती हैैं। मंगल आवेश मेंं वृद्धि करता है और शुक्र सम्मोहक पहलुओं से जोड़ता है। अत: जन्मांक मेंं यदि ऐसे पहलू दिखें, तो माता पिता बच्चों का पालन पोषण अनुशासित ढंग से करें, उन्हें समझाएं कि क्षणिक आनंद और भोग विलास की तरफ आकर्षित न हों। शुक्र वैभव, रोमांस, मधुरता आदि सम्मोहक पहलुओं का द्योतक है। यह लैंगिक सौहार्द और सम्मिलन, कला, अनुरक्ति, पारिवारिक सुख, साधारण विवाह, वंशवृद्धि, जीवनी शक्ति, शारीरिक सौंदर्य और प्रेम का कारक है। मंगल बल, ऊर्जा, आक्रामकता का द्योतक है। जब शुक्र के साथ मंगल की युति हो, तो विषय वासना की प्रचुरता रहती है। अत: आवश्यक है कि जब वर व कन्या की कुंडलियां देख रहे हों, तब मंगल शुक्र की युति, स्थान परिवर्तन, दृष्टि संबंध और विपरीत स्थिति मेंं बृहस्पति की अनुकूल स्थिति का शुभ प्रमाण अवश्य देखें। शरीर सौष्ठव मेंं शुक्र, मंगल की युति शारीरिक सुंदरता के लिए महत्वपूर्ण है। किंतु गुरु और शनि के सौम्य प्रभाव का अभाव हो, तो कमी भी आ सकती है। शुक्र व मंगल व्यक्ति को भौतिकवादी, मनोरंजनप्रिय, शौकीन, आडंबरी और विषयी बनाते हैं। यदि ये दोनों विपरीत दृष्टि दे रहे हों, तो विषय संबंधी कठिनाई और वैवाहिक जीवन मेंं समस्या आती है। शुक्र यदि उच्च नक्षत्र या राशि मेंं हो, तो मंगल का रूखापन (ज्वलन शक्ति) कम हो जाता है। लेकिन यदि राहु की युति हो, तो वह जातक को व्यभिचारी बना देती है। यदि अंतग्र्रस्त नक्षत्र, गुरु, बुध या चंद्र न हो, तो जातक में कामुकता प्रबल होती है शुभ विवाह के लिए केतु, शुक्र और मंगल का युति या दृष्टि संबंध अशुभ है।
शुक्र पुरुष की कुंडली मेंं दाम्पत्य का कारक है। गुरु स्त्री की कुंडली मेंं शुभ वर समझा जाता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, शुक्र पौरुष शक्ति, सुंदरता मधुरता एवं प्रेम का द्योतक है। यह घर मेंं आग्नेय कोण मेंं पूर्वी आग्नेय और दक्षिणी आग्नेय के मध्य भाव का स्वामी है। यह स्थान अग्नि देवता से आरंभ होकर यम की हद तक पहुंच जाता है। आग्नेय एवं वायव्य कोणों मेंं दोष होना दाम्पत्य सुख मेंं बाधा उत्पन्न करता है। शयनकक्ष दक्षिणी आग्नेय कोण मेंं नहीं बनाना चाहिए। कभी-कभी तलाक और अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दहेज के मुकदमें आदि चालू हो जाते हैं। स्त्री की कुंडली मेंं गुरु की स्थिति शुभ होती है। पूर्वी ईशान से उत्तरी ईशान तक के मध्य भाग मेंं गुरु का समावेश रहता है। गुरु आकाश तत्व अर्थात कर्ण ज्ञानेंद्रिय का कारक है। स्त्रियों को सुनने की क्षमता बहुत समृद्ध रखनी चाहिए। उस स्थान पर शंका (राहु), अहंकार (शौचालय), वाचालता (सीढ़ी), रजोगुण(बुध) निर्धारित करता है। पूर्वी ईशान कोण से वायव्य तक यदि दोष हो, तो स्त्रियों मेंं दोष व्याप्त हो जाता है। इस दोष के फलस्वरूप कहीं कहीं विवाह भी नहीं हुए हैं। सुखी दाम्पत्य के लिए पति पत्नी को दरार युक्त बिस्तर पर शयन नहीं करना चाहिए। शयनकक्ष मेंं खुला पानी, खुला शीशा आदि न रखें। आग्नेय कोण मेंं जूठे बर्तन, झाड़ू इत्यादि न रखें। ईशान कोण शिव का स्थान माना जाता है। शिव आदि पुरुष हैं और आग्नेय कोण शक्ति का स्थान है, जो आदि नारी हैं। यही ब्रह्मांड के सुयोग्य पति पत्नी और हम सबके माता पिता हंै। देखने वाली बात यह है कि शिव (पुरुष) ने शक्ति के स्थान मेंं और शक्ति ने शिव के स्थान मेंं संतुलन बनाया। श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक ये दोनों परम पूज्य हैं।

दैनिक राशिफल 28/07/2016


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Wednesday 27 July 2016

बाबा बैजनाथ धाम की कथा......

बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक पवित्र वैद्यनाथ शिवलिंग झारखंड के देवघर में स्थित है. इस जगह को लोग बाबा बैजनाथ धाम के नाम से भी जानते हैं. कहते हैं भोलेनाथ यहां आने वाले की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं. इसलिए इस शिवलिंग को 'कामना लिंग' भी कहते हैं.
12 ज्योतिर्लिंगों के लिए कहा जाता है कि जहां-जहां महादेव साक्षत प्रकट हुए वहां ये स्थापित की गईं. इसी तरह पुराणों में वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की भी कथा है जो लंकापति रावण से जुड़ी है.
बाबा बैजनाथ धाम की कथा:
भगवान शिव के भक्त रावण और बाबा बैजनाथ की कहानी बड़ी निराली है. पौराणिक कथा के अनुसार दशानन रावण भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर तप कर रहा था. वह एक-एक करके अपने सिर काटकर शिवलिंग पर चढ़ा रहा था. 9 सिर चढ़ाने के बाद जब रावण 10वां सिर काटने वाला था तो भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और उससे वर मांगने को कहा.तब रावण ने 'कामना लिंग' को ही लंका ले जाने का वरदान मांग लिया. रावण के पास सोने की लंका के अलावा तीनों लोकों में शासन करने की शक्ति तो थी ही साथ ही उसने कई देवता, यक्ष और गंधर्वो को कैद कर के भी लंका में रखा हुआ था. इस वजह से रावण ने ये इच्छा जताई कि भगवान शिव कैलाश को छोड़ लंका में रहें. महादेव ने उसकी इस मनोकामना को पूरा तो किया पर साथ ही एक शर्त भी रखी. उन्होंने कहा कि अगर तुमने शिवलिंग को रास्ते में कही भी रखा तो मैं फिर वहीं रह जाऊंगा और नहीं उठूंगा. रावण ने शर्त मान ली.इधर भगवान शिव की कैलाश छोड़ने की बात सुनते ही सभी देवता चिंतित हो गए. इस समस्या के समाधान के लिए सभी भगवान विष्णु के पास गए. तब श्री हरि ने लीला रची. भगवान विष्णु ने वरुण देव को आचमन के जरिए रावण के पेट में घुसने को कहा. इसलिए जब रावण आचमन करके शिवलिंग को लेकर श्रीलंका की ओर चला तो देवघर के पास उसे लघुशंका लगी.ऐसे में रावण एक ग्वाले को शिवलिंग देकर लघुशंका करने चला गया. कहते हैं उस बैजू नाम के ग्वाले के रूप में भगवान विष्णु थे. इस वहज से भी यह तीर्थ स्थान बैजनाथ धाम और रावणेश्वर धाम दोनों नामों से विख्यात है. पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक रावण कई घंटो तक लघुशंका करता रहा जो आज भी एक तालाब के रूप में देवघर में है. इधर बैजू ने शिवलिंग धरती पर रखकर को स्थापित कर दिया.
जब रावण लौट कर आया तो लाख कोशिश के बाद भी शिवलिंग को उठा नहीं पाया. तब उसे भी भगवान की यह लीला समझ में आ गई और वह क्रोधित शिवलिंग पर अपना अंगूठा गढ़ाकर चला गया. उसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की. शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की उसी स्थान पर स्थापना कर दी और शिव-स्तुति करके वापस स्वर्ग को चले गए. तभी से महादेव 'कामना लिंग' के रूप में देवघर में विराजते हैं.

शनि सिखाता है धैर्य........

धैर्यवान होना सरल काम नहीं है और यह कहना शायद गलत न हो कि आज की दुनिया मेंं धैर्यवान बनना सबसे कठिन काम हैं। धैर्यवान होना बहुत अच्छी विशेषता है जिसे विकसित होना चाहिए। धैर्यवान बनने के लिए अभ्यास सरल काम नहीं है किन्तु जो लोग धैर्यवान होते हैं उन्हें विभिन्न मार्गों से इसका फल मिलता है। हर व्यक्ति का अपनी दिनचर्या के लक्ष्य होते हैं जो उसके प्रयास का कारण बनते हैं केवल इस अंतर के साथ उद्देश्यों का महत्व एक जैसा नहीं होता। उद्गम से गंतव्य तक पहुंचना सरल काम नहीं होता बल्कि इस बात की संभावना होती है कि लंबे मार्ग मेंं समस्याओं के कारण मनुष्य की रफ़्तार कम या फिर पूरी तरह रुक जाए। यदि व्यक्ति के पास पर्याप्त अनुभव न हो तो संभव है कि वह आरंभिक रुकावटों का सामना होने पर हताश व निराश हो जाए और आगे बढऩे से रुक जाए और इस प्रकार लक्ष्य की प्राप्ति से हाथ उठा ले। किन्तु यदि व्यक्ति के पास पर्याप्त अनुभव हो और वह उद्देश्य तक पहुंचने मेंं सहायता करने वाले तत्वों को पहचानता हो तो इस बात मेंं संदेह नहीं कि उसकी सफलता की संभावना कई गुना बढ़ जाएगी। धैर्य रखने का अर्थ शांति के साथ कदम उठाना और परिणाम की प्रतीक्षा करना है। उतावलेपन का अर्थ तुरंत परिणाम तक पहुंचने की प्रतीक्षा करना है कि यह मनुष्य की बहुत बड़ी कमियों मेंं से एक है। शब्दकोष मेंं धैर्य का अर्थ मन का वह गुण या शक्ति जिसकी सहायता से मनुष्य कष्ट या विपत्ति पडऩे पर भी विचलित या व्यग्र नहीं होता और शान्त रहता है अथवा संकट के समय भी उद्विग्नता, घबराहट, विकलता आदि से रहित होने की अवस्था या भाव व सब्र के साथ प्रतीक्षा करता है, धैर्य क्रिया धरना है। इसलिए धैर्य की आम परिभाषा यह होगी कि ख़ुद को किसी काम के करने मेंं बिना विचलित हुए शांत बने रहना जो लक्ष्य तक पहुंचने मेंं रुकावट या उस तक देर तक पहुंचने का कारण बने। इस परिभाषा के अंतर्गत धैर्य अपने आप मेंं कोई नैतिक गुण नहीं कहलाएगा बल्कि यह एक प्रकार का प्रतिरोध है जो मन पर क़ाबू होने से प्राप्त होता है। यह प्रतिरोध ऐसी स्थिति मेंं नैतिक विशेषता कहलाएगी कि धैर्यवान व्यक्ति का उद्देश्य नैतिक परिपूर्णत: तक पहुंचना और ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करना हो।
धैर्य का अर्थ मन मेंं स्थिरता और शांति तथा समस्याओं व मुसीबतों का मुक़ाबला करने मेंं व्याकुल न होना। इस प्रकार मुक़ाबला करे उसके चेहरे से बेचैनी प्रकट न हो। वह शांत दिखाई दे। अपनी ज़बान से शिकवा न करे और अपने अंगों को गलत काम से रोके। जब तक व्यक्ति मेंं धैर्य न होगा वह उच्च स्थान तक नहीं पहुंच सकता। सांसारिक जीवन मेंं बहुत सी समस्याओं व मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। अनुकंपाओं के पीछे मुसीबत घात लगाए रहती है ताकि वे हाथ से चली जाएं। जो चीज मनुष्य को इन मुसीबतों के गंभीर खतरे से सुरक्षित रखती वह धैर्य व प्रतिरोध है। मनुष्य धैर्य व प्रतिरोध द्वारा न केवल यह कि नकारात्मक तत्वों का मुकाबला करता है बल्कि इसके द्वारा वह अपने लक्ष्य तक पहुंचने मेंं सक्षम हो जाएगा। यही कारण है कि धैर्य को सफलताओं की मुख्य कुंजी कहा गया है।
बड़े बड़े विद्वानों व धर्मगुरुओं के जीवन मेंं जो विशेषता सबसे अधिक झलकती है वह उनका धैर्य था। इसी धैर्य द्वारा वे बड़े बड़े आविष्कार व खोज करने मेंं सफल हुए। चूंकि हर कठिनाई के बाद सुख मिलता है इसलिए जीवन की कठिनाइयों का जब सामना हो तो उसके निदान की आशा के साथ धैर्य रखना चाहिए। इस आधार पर ईश्वर की ओर से मनुष्य को हर कठिनाई के बाद राहत का वादा, उसमेंं कठिनाइयों को सहन करने की क्षमता बढ़ा देगा और उसमेंं धैर्य आ जाएगा। उच्च स्थान की प्राप्ति के धैर्य की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि इस मूल्यवान गुण के बिना ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करना संभव नहीं है। जैसा कि ईश्वर बुराई के बदले मेंं भलाई करने और दरियादिली को उन लोगों की विशेषता गिनवाया है जो धैर्यवान हैं। धैर्यवान और ईश्वर पर आस्था एवं उससे भय रखने वालों के सिवा कोई और इस स्थान तक नहीं पहुंचता।
धैर्य की विशेषता यह है कि इसके बिना दूसरे गुणों व मूल्यों का कोई महत्व नहीं रहेगा। यही कारण है कि धैर्यवान बनो कि ईमान के लिए धैर्य का वही स्थान है जो सिर का शरीर के लिए स्थान है। बिना धैर्य के ईमान वैसा ही है जैसे बिना सिर के शरीर का महत्व नहीं है। इस बात मेंं संदेह नहीं कि ईश्वर के निर्णयों पर आस्था और उसे मान लेने से धैर्य मेंं वृद्धि होती है। ईश्वर पर आस्था रखने वाले को इस बात का विश्वास होता है कि ईश्वर अपने की भलाई के सिवा कुछ और नहीं चाहता। इसलिए वह ईश्वर से प्रेम के कारण उसके आदेशों के सामने नतमस्तक और प्रसन्न रहता है। इस बिन्दु विचार योग्य है कि धैर्य का अर्थ हर समस्या व दुख के मुक़ाबले मेंं दृढ़ता दिखाना है। धैर्य का अर्थ अपमान को सहन करना और हार का कारण बनने वाले तत्वों के सामने नत्मस्तक होना कदापि नहीं है जैसा कि कुछ लोग धैर्य का यह अर्थ निकालते हैं। समस्याओं की स्थिति मेंं कई प्रकार के लोग सामने आते हैं। पहला गुट उन लोगों का है जो समस्या के सामने स्वंय को असहाय पाते हैं और रोने-धोने लगते हैं। दूसरा गुट उसका दृढ़ता से सामना करता है। तीसरा गुट वह है जो दृढ़ता से मुक़ाबला करने के साथ साथ ईश्वर का आभार भी व्यक्त करता है और चौथा व अंतिम गुट ऐसे लोगों का है जो कठिनाइयों से निपटने के लिए उठ खड़े होते हैं और उसके नकारात्मक प्रभाव को निष्क्रिय बनाने की योजना बनाते हैं, वह संघर्ष द्वारा समस्या को दूर करने का प्रयास करते हैं। कृष्ण का जीवन सोलह कला-संपूर्ण, राम के व्यक्तित्व की अपेक्षा अधिक लालित्य-ललाम है। वे गोपियों के अंतरंग सखा के रूप मेंं उनके साथ-साथ नृत्य करते हैं, बांसुरी की तान पर उन्हें रचाने की लीला करते हैं, तो संकट के समय गोवर्धन पर्वत को उठाकर संपूर्ण ब्रजमंडल की रक्षा भी करते हैं। यही नहीं युद्ध-भूमि मेंं युद्ध की विभीषिका और भीषण तनाव के बीच भी वे अपने धैर्य को बनाए रखते हैं, और विकट परिस्थितियों के बीच गीता का उपदेश देते हैं. युद्धस्थल पर अपने सखा अर्जुन को दिया गया निष्काम कर्म का उनका उपदेश अनूठा है, जिसमेंं वे न केवल सांसारिक व्यवहार की ऊंच-नीच से अर्जुन को परचाते है, बल्कि विषम परिस्थितियों मेंं अपनी मानसिक एकाग्रता कायम रखने का उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। कृष्ण का यही गुण उन्हें असाधारण बनाते हुए ईश्वरीय गरिमा से विभूषित करता है।
एक साधु था, वह रोज घाट किनारे बैठ कर चिल्लाया करता था- जो चाहोगे सो पाओगे, जो चाहोगे सो पाओगे। बहुत से लोग वहां से गुजरते थे, लेकिन कोई भी उसकी बात पर ध्यान नहीं देता। सब उसे एक पागल आदमी समझते थे। एक दिन एक युवक वहां से गुजरा और उसने साधु की आवाज सुनी- जो चाहोगे सो पाओगे, जो चाहोगे सो पाओगे। आवाज सुनते ही वह उसके पास चला गया। उसने साधु से पूछा, ‘महाराज आप बोल रहे थे कि जो चाहोगे सो पाओगे, तो क्या आप मुझे वो दे सकते हैं, जो मैं चाहता हूं?’ साधु उसकी बात सुन कर बोला, ‘हां बेटा, तू जो कुछ भी चाहता है, मैं वह जरूर दूंगा। बस तुम्हें मेंरी बात माननी होगी। पहले यह तो बताओ कि तुम्हें आखिर चाहिए क्या?’ युवक बोला, ‘मैं हीरों का बड़ा व्यापारी बनना चाहता हूं।’ साधु बोला, ‘कोई बात नहीं। मैं तुम्हें एक हीरा और एक मोती देता हूं। उससे तुम जितने भी हीरे-मोती बनाना चाहोगे, बना पाओगे और ऐसा कहते हुए साधु ने अपना हाथ आदमी की हथेली पर रखते हुए कहा, ‘पुत्र, मैं तुम्हें दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूं, लोग इसे ‘समय’ कहते हैं। इसे तेजी से अपनी मु_ी मेंं पकड़ लो और इसे कहीं मत गंवाना। तुम इससे जितने चाहो, उतने हीरे बना सकते हो।’ युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि साधु उसकी दूसरी हथेली पकड़ते हुए बोला, ‘पुत्र, इसे पकड़ो, यह दुनिया का सबसे कीमती मोती है। लोग इसे ‘धैर्य’ कहते हैं। जब कभी समय देने के बावजूद परिणाम न मिले, तो इस मोती को धारण कर लेना। याद रखना, जिसके पास यह मोती है, वह दुनिया मेंं कुछ भी प्राप्त कर सकता है।’
ज्योतिष मेंं शनि ग्रह को सुस्त या धैर्य के साथ चलने वाला ग्रह माना जाता है, शनि ग्रह मनुष्य के धैर्य, साहस और जीवटता की कड़ी परीक्षा लेता है। शनि जिस मनुष्य की राशि मेंं प्रभावी होता है उसके जीवन मेंं अत्यधिक कष्ट एवं सहायता भी हो सकती है। शनि किसी भी जीवन यात्रा मेंं बाधक बन सकता है तो किसी के जीवन मेंं सहायक भी हो सकता है। कठिन परीक्षा जिसकी राशि मेंं शनि का प्रभाव होता है ऐसे मनुष्य को अधिक कठिनाइयों एवं चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन इसका सत्परिणाम यह है कि मनुष्य कठिनाइयों का सामना करते-करते अत्यंत कुशल, सशक्त एवं मजबूत बन जाता है। ऐसे व्यक्ति की राशि मेंं जब शनि का प्रभाव समाप्त हो जाता है तो उसकी प्रगति और सफलता की गति अत्यधिक बढ़ जाती है। जिसे बाधाओं मेंं कांटों भरे रास्ते पर चलने का अनुभव हो ऐसा व्यक्ति बाधा रहित मार्ग पर बड़ी तीव्रता से प्रगति एवं सफलता प्राप्त करता है। नैतिक जीवन ही समाधान है सात्विक, पवित्र एवं नैतिक जीवन जीने वाला व्यक्ति यदि कठोर परिश्रम पूर्वक जीवन व्यतीत करता है तो उसके जीवन मेंं शनि के नकारात्मक प्रभावों से मुक्त रहता है। मनुष्य के कर्मफल, संस्कार एवं ग्रह नक्षत्रों के प्रभाव मिलकर जीवन को प्रभावित तो करते हैं किंतु पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर सकते। मनुष्य के पास प्रचंड शक्तिशाली चेतना या आत्मा होती है। मनुष्य अपने कर्मों से अपना भाग्य गढ़ता है। अपने पूर्व कर्मों से ही मनुष्य का वर्तमान बना है तथा वर्तमान के कर्मों से ही उसका भविष्य निर्धारित होगा। सर्वशक्तिमान मनोबलनिष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि यदि राशि मेंं शनि का प्रभाव है तो भी मनुष्य को मन मेंं कोई भय या शंका नहीं लाना चाहिए। राशि मेंं शनि का प्रभाव हो तो मनुष्य को निर्भय होकर और भी अधिक कड़ा परिश्रम करना चाहिए। मनुष्य यदि ठान ले तो वह हर कठिनाई और चुनौति का सामना सरफलतापूर्वक कर सकता है। आत्मबल, मनोबल, इच्छा शक्ति एवं आत्मविश्वास जैसी महान शक्तियां हैं, जिनके बल पर दुर्भाग्य एवं ग्रहों के प्रभाव आदि का सामना सफलता पूर्वक कर सकता है। जीवन मेंं अनुशासित जीना और रहना सीख लेते हैं, वे लोग अपने जीवन मेंं कठिनाइयों और बाधाओं को हंसते-हंसते पार कर जाते हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मेंं अनुशासन का महत्व है। अनुशासन से धैर्य और समझदारी का विकास होता है। समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है। इससे कार्य क्षमता का विकास होता है तथा व्यक्ति मेंं नेतृत्व की शक्ति जाग्रत होने लगती है। इसलिए हमें हमेंशा अनुशासनपूर्वक आगे बढने का प्रयत्न करना चाहिए, जो धैर्यवान बनकर ही आ सकता है. हाथ की उंगलियां एवं हथेली मेंं स्थित विभिन्न ग्रहों के पर्वत व्यक्ति के विचारों एवं भावनाओं को दर्शाते हैं। मनुष्य के विचार एवं भावनाएं सत्व, राजस एवं तमस गुणों का मिश्रण होते हैं। सत्व गुण की मुख्य विशेषता ज्ञान एवं सहनशीलता है। अन्य विशेषताएं करुणा, विश्वास, प्रेम, आत्म-नियंत्रण, समझ, शुद्धता धैर्य, और स्मृति हैं। मनुष्य के विचारों मेंं किस गुण की प्रधानता है इसका निर्धारण उस मनुष्य की हाथ के हथेलियों में स्थित विभिन्न ग्रहों के पर्वत एवं उंगलियों को देखकर किया जा सकता है। हस्तरेखा विज्ञान के अनुसार हाथ की हथेली को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जाता है। ये तीन भाग सत्व, राजस एवं तमस गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हथेली के अग्र भाग में स्थित गुरु, शनि, सूर्य एवं बुध के पर्वत जो कि क्रमश: तर्जनी, मध्यमा, अनामिका एवं कनीष्टिका उंगलियों के ठीक नीचे स्थित होते हैं, जो मनुष्य के सात्विक गुणों को दर्शाते है। जिस ग्रह का पर्वत जितना उभरा हुआ होगा व्यक्ति मेंं उस ग्रह से संबन्धित गुण उतने ही अधिक होंगे। हाथ की उंगलियों की स्थिति जिस व्यक्ति की पूर्ण रूप से व्यस्थित होती है वे व्यक्ति जीवन मेंं बहुत सफल होते हैं। लंबी एवं पतली उंगलियों वाले व्यक्ति भावुक होते हैं जबकि मोटी उंगलियों वाले व्यक्ति मेंहनती होते हैं। जिन व्यक्तियों की उंगलियां कोण के आकार की होती हैं वे अत्यधिक संवदेनशील होते हैं तथा अपनी वेषभूषा एवं सौन्दर्य का विशेष ध्यान रखते हैं। जिन व्यक्तियों की उंगलियां ऊपर से नुकीली होती हैं वे आध्यात्मिक प्रवृत्ति के होते हैं तथा इनकी कल्पना शक्ति अद्भुत होती है। स्वभाव से ये नम्र और धैर्यवान होते हैं।

वर्षा का आतिथ्य करें........

भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से पावस ऋतु एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ऋतु है। यह जीवन दायिनी ऋतु है। अन्न-जल और धान्य का बरखा से अटूट सम्बन्ध है, जिसके बिना मनुष्यों का जीवन संभव न होता। देखा जाए तो अभी वर्षा का गर्भकाल चल रहा है। आर्द्रा प्रवेश षष्ठी तिथि, वृश्चिक लग्न में हो रहा है। आर्द्रा लगते ही वर्षा का जन्म हो जाता है और 6नक्षत्रों में वर्षा होती है। वर्तमान समय वृश्चिक लग्न का है जिसका स्वामी जल तत्व है। वर्तमान में गुरु और शुक्र कर्क राशि में, जबकि मंगल और सूर्य मिथुन राशि में रहेंगे। गुरु-शुक्र महोत्पात का संयोग बनाएंगे।
प्रकृति जीवन और अध्यात्म के बीच में एक कड़ी बनकर जीवन की दिशाओं को संस्कृत होने की प्रेरणा देती रही है। जीवन की पोषक होने के साथ-साथ वर्षा ऋतु का मानव जीवन के सांस्कृतिक स्वरूप से भी गहरा सम्बन्ध है। संस्कृत साहित्य में कलिदास का वर्षा-ऋतु चित्रण अप्रतिम है।
मेघालोके भवति सुखिनोस्प्पन्यथावृत्ति चेत:।
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे॥
अर्थात मेघ को देख लेने पर तो सुखी अर्थात संयोगी जनों का चित्त कुछ का कुछ हो जाता है फिर वियोगी लोगों का क्या कहना। कालिदास ने प्रकृति को मनुष्य के सुख-दु:ख में सहभागिनी निरूपति किया है। विरही राम को लताएँ अपने पत्ते झुका-झुका कर सीता के अपहरण का मार्ग बताती हैं, मृगियाँ दर्भाकुर चरना छोडक़र बड़ी-बड़ी आँखें दक्षिण दिशा की ओर लगाये टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं और लंका के दिशा को इंगित करती हैं।
रामचरित मानस में तुलसी ने किष्किन्धाकाण्ड में स्वयं राम के मानोभावों द्वारा वर्षा ऋतु का वर्णन किया है जो अद्भुत है। मानस के इस प्रसंग के कुछ अंश हैं, राम गहन जंगलों में ऋष्यमूक पर्वत पर जा पहुंचे हैं, सुग्रीव से मैत्री भी हो चुकी है। सीता की खोज का गहन अभियान शुरू हो इसके पहले ही वर्षा ऋतु आ जाती है। वर्षा का दृश्य राम को भी अभिभूत करता है, वे लक्ष्मण से कह उठते हैं-
बरषा काल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए।।
हे लक्ष्मण! देखो ये गरजते हुए बादल कितने सुन्दर लग रहे हैं और इन बादलों को देखकर मोर आनन्दित हो नाच रहे हैं, मगर तभी अचानक ही सीता की याद तेजी से कौंधती है और तुरंत ही बादलों के गरजने से उन्हें डर भी लगने लगता है।
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
हिन्दी साहित्य के मध्ययुग में तो तुलसी, सूर, जायसी आदि कवियों ने पावस ऋतु का सुंदर-सरस चित्रण किया ही है, कवि रहीम कहते हैं -
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।।                                
अर्थात, वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा। आहो! कैसा सुंदर विवरण है।
  परंतु वर्तमान परिदृश्य में देखें तो हमें वर्षा का वह स्वरूप दिखता नहीं है। कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि। मनुष्य ने जल-थल और नभ पर राज कर रखा है और उसे अपने अनुसार चलाता है। प्रकृति रूठ चुकी है जिससे आये दिन अपना भयानक रूप दिखा रही है। आवश्यकता है कि वर्षा ऋतु में ईश्वर ने जो जल हमें दिया है उसका उचित आतिथ्य हो। वर्षा के जल का आतिथ्य से मेरा अभिप्राय वर्षा-जल के संचलन से है। सरकारी एजेंसियां तो अपना काम कर ही रही हैं (और आपको पता ही है कि वह किस तरह काम करती है) आम जनता को भी इसके लिए प्रयास करना चाहिए। अभी सही मौका है कि जनसमूह बनाकर गांवों और शहरों के तालाबों को साफ किया जाये, उन्हें गहरा किया जाए ताकि वर्षाजल वहां संचयित हो सके। विशेषकर जिन क्षेत्रों में जल का नित आभाव रहता है उन्हें वर्षाजल को जलाशयों में इकट्ठा करके रखें जो गर्मी के दिनों में काम तो आयेगी ही साथ इससे भूमि का जलस्तर भी बेहतर होगा।