Monday 1 August 2016

ज्ञानवान उतथ्य

कौशल देश मेंं देवदत्त नाम का एक विख्यात ब्राह्मण रहता था। देवदत्त का विवाह रोहिणी नामक एक सुंदर कन्या से सम्पन्न हुआ। किंतु अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी देवदत्त के कोई संतान नहीं हुई। इस कारण वह सदैव दु:खी रहता था। एक बार देवदत्त के हृदय मेंं पुत्रेष्टि यज्ञ करने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने शीघ्र ही तमसा नदी के तट पर एक विशाल यज्ञ-मण्डप का निर्माण करवाया। यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए उसने सुहोत्र, यज्ञवल्क्य, बृहस्पति, पैल, गोभिल आदि ऋषियों को आमंत्रित किया। निश्चित समय पर यज्ञ का शुभारम्भ हुआ।
यज्ञ-वेदी पर ऋषि गोभिल सामवेद का गान करते हुए रथन्तर मंत्र का उच्चारण कर रहे थे। तभी मंत्रोच्चारण करते समय उनका स्वर भंग हो गया। इससे देवदत्त कुपित होकर गोभिल ऋषि से बोला—‘‘हे मुनिवर! आप बड़े ज्ञानी हैं। मैं यह यज्ञ पुत्र-प्राप्ति के लिए कर रहा हूँ और आपने इस सकाम यज्ञ मेंं स्वरहीन मंत्र का उच्चारण कर दिया। आप जैसे ज्ञानी ऋषि को यह शोभा नहीं देता।’’
देवदत्त के कटु वचन सुनकर गोभिल ऋषि क्रोधित होते हुए बोले—‘‘दुष्ट! प्रत्येक प्राणी के शरीर मेंं श्वास आते-जाते हैं। स्वर का भंग होना इसी का परिणाम है। इसमेंं किसी का भी दोष नहीं होता। तुमने बिना सोचे-विचारे कटु वचनों का प्रयोग किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हारे घर उत्पन्न होने वाला पुत्र महामूर्ख और हठी होगा।’’ गोभिल के शाप से देवदत्त भयभीत हो गया और उनसे क्षमा माँगते हुए बोला —‘‘ऋषिवर! मेंरे अपराध को क्षमा करें। पुत्र के अभाव ने मुझे अत्यंत विचलित कर दिया था। मैं अज्ञानी यह भूल गया था कि यज्ञ के लिए आए ऋषिगण साक्षात् देवस्वरूप होते हैं। ऋषिवर! मुझे पर दया करें। मूर्ख प्राणी का इस संसार मेंं कोई अस्तित्व नहीं होता। जीवन मेंं उसे ज्ञान, मान, सम्मान, धन और वैभव कदापि प्राप्त नहीं होते। हे मुनिवर! आप तो महान तपस्वी हैं। अज्ञानियों का उद्धार करना ही आपका कार्य है। कृपा करके आप मेंरा भी इस शाप से उद्धार करें।’’ यह कहकर देवदत्त गोभिल ऋषि के चरणों मेंं गिरकर अपने आँसुओं से उनके चरण धोने लगा। देवदत्त की निर्मल प्रार्थना से गोभिल ऋषि का क्रोध शांत हो गया और वे बोले—‘‘वत्स ! मुख से निकले वचन कभी वापस नहीं आते। जो शाप मैं दे चुका हूँ, वह तो सिद्ध होगा ही। किंतु मैं तुम्हें यह आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा पुत्र महामूर्ख होकर फिर विद्वान हो जाएगा।’’ ऋषि से यह वर प्राप्त कर देवदत्त अति प्रसन्न हुआ। तत्त पश्चात् पूर्ण यज्ञ किया गया। सभी उपस्थित ऋषि-मुनि विधिपूर्वक विदा हुए।
उचित समय के पश्चात् यज्ञ-फल के रूप मेंं रोहिणी ने रोहिणी नक्षत्र मेंं ही सुंदर बालक को जन्म दिया। मनोरथ सिद्ध होने पर देवदत्त ने निर्धनों को धन, अन्न और वस्त्रों का दान किया। उस बालक का नाम उतथ्य रखा गया।
कुछ बड़ा होने पर उतथ्य की शिक्षा आरम्भ हुई। गुरु उतथ्य को पढ़ाने लगे, किंतु उतथ्य एक भी शब्द का उच्चारण न कर सका। इस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत हो गए थे। उतथ्य पहले के समान ही मूर्ख रहा। आस-पास के सभी गाँवों मेंं यह प्रचलित हो गया कि देवदत्त जैसे महान विद्वान का पुत्र महामूर्ख है। सभी लोग उसका उपहास करने लगे। इससे उतथ्य के मन मेंं वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह सबकुछ त्यागकर वन मेंं चला गया।
वन मेंं उतथ्य ने गंगा के तट के निकट पर्णकुटी बनाई और कंद-मूल खाकर ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। उसने यह नियम बना लिया कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा। सत्यव्रत का पालन करते हुए उतथ्य ने चौदह वर्ष बिता दिए। इन चौदह वर्षों मेंं उसने न तो कोई उपासना की और न ही कोई मंत्र जपा अथवा विद्या प्राप्त की। किंतु यह बात चारों ओर फैल गई कि मुनि उतथ्य सत्यव्रत का पालन करते हैं। उनके मुख से निकली वाणी मिथ्या नहीं होती। इस प्रकार उस का नाम उतथ्य के स्थान पर सत्यव्रत पड़ गया।
एक बार एक शिकारी शिकार खेलने के उद्देश्य से वन मेंं आया। वन मेंं घूमते हुए उसकी दृष्टि एक वराह (सूअर) पर पड़ी। उसने शीघ्र ही बाण चलकर वराह को घायल कर दिया। बाण वराह के पैर मेंं जा लगा था। बाण लगने से वराह भयभीत होकर, अपने प्राण बचाने के लिए उतथ्य की कुटिया के निकट झाड़ी मेंं छिप गया।
घायल वराह को देखकर उतथ्य का हृदय दया से भर गया। तभी वराह का पीछा करते हुए वह शिकारी वहाँ आ पहुँचा। शिकारी ने देखा कि सामने उतथ्य आसन पर बैठा है। शिकारी ने सिर झुकाकर उतथ्य को प्रणाम किया और उससे वराह के बारे मेंं पूछा।
उतथ्य धर्मसंकट मेंं फँस गया। उसने सोचा कि यदि सत्य बोलता है तो शिकारी वराह को मार डालेगा और यदि असत्य बोलता है तो उसका सत्यव्रत टूट जाएगा। तभी अचानक उसका विवेक जाग उठा, जैसे अचानक बुद्धि और ज्ञान की प्राप्ती हो गयी हो और तब उसने कहा—‘‘हे व्याध! मैंने जिन आँखों से देखा है, वे बोल नहीं सकतीं और जो जिह्वा बोल सकती है, उसने वराह को नहीं देखा। इसलिए मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर किस प्रकार दूँ?’’ उतथ्य की बात सुनकर शिकारी निराश होकर वहाँ से लौट गया। उस एक क्षण मेंं उतथ्य को जो ज्ञान मिला उससे वह वाल्मीकि के समान एक महान कवि और विद्वान बन गया। उसकी विद्वता की आभा चारों ओर फैलने लगी। यज्ञों और अन्य धार्मिक उत्सवों मेंं उसका यश गाया जाने लगा। उसकी कीर्ति सुनकर उसका पिता देवदत्त वन मेंं गया और उसे मनाकर वापस घर ले आया। ईश्वर के आशीर्वाद से मूर्ख उतथ्य को ज्ञान, मान, सम्मान और वैभव की प्राप्ति हुई।

No comments: