किसी भी जातक का लग्न और तीसरा स्थान यदि उच्च, स्वग्रही या मित्रराषि में हो तो ऐसे लोग सेल्फ मोटिवेटिव होते हैं और अपनी उन्नति के लिए लगातार प्रयास करते हुए अपने कार्य में महारत हासिल करते रहते हैं। यदि गुरू या शुभ ग्रह लग्न में अनुकूल हो तो व्यक्ति को स्वयं ही ज्ञान व आध्यात्म के रास्ते पर जाने को प्रेरित करता है। यदि इसपर पाप प्रभाव न हो तो व्यक्ति स्व-परिश्रम तथा स्व-प्रेरणा से ज्ञानार्जन करता है। अपने बड़ों से सलाह लेना तथा दूसरों को भी मार्गदर्षन देने में सक्षम होता है। यदि गुरू का संबंध तीसरे स्थान या बुध के साथ बनें तो वाणी या बातों के आधार पर प्रेरित होकर सफल होता है वहीं यदि गुरू का संबंध मंगल के साथ बने तो कौषल द्वारा मार्गदर्षक प्राप्त करता है शुक्र के साथ अनुकूल संबंध बनने पर कला या आर्ट के माध्यम से उन्नति प्राप्त करता है चंद्रमा के साथ संबंध बनने पर लेखन द्वारा सफलता पाता है। अतः लग्न या तीसरे स्थान का उत्तम स्थिति में होना सफलता का द्योतक होता है। लग्नेष या तृतीयेष यदि 6, 8 या 12 भाव में हो तो प्रायः ऐसे लोगों को स्वप्ररेणा से वंचित ही रहना पड़ता है। वही यदि लग्न में राहु या शनि जैसे ग्रह हों तो बच्चा अपनी मर्जी का करने का आदि होता है, जो भी अनुषासन के बाहर रहकर कार्य करता है। अगर ऐसे जातको को जो किसी भी प्रकार से स्वप्रेरणा या स्वविवेक के अधीन कार्य करने के आदी नहीं होते, ऐसे बच्चे जिनके अभिभावक अपने बच्चों के पीछे लगकर उन्हें कार्य कराते हैं, उनकी कुंडलियों का विष्लेषण कराकर प्रारंभ से ही उनके जीवन में सेल्फ मोटिवेषन लाने का प्रयास करना चाहिए साथ ही अगर ऐसी स्थिति ना बने तो कुंडली के ग्रहों का विष्लेषण कराया जाकर उचित उपाय लेने से स्वयं कार्य करने तथा अनुषासन में रहकर उन्नति के रास्ते खुलते हैं।
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