Saturday 25 February 2017

वास्तु अनुसार बच्चों का कमरा

माता-पिता की यह उत्कट अभिलाषा होती है कि बच्चों को हर प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध कराएं, अच्छी से अच्छी शिक्षा प्रदान करें, खेलकूद-मनोरंजन की समुचित व्यवस्था करें ताकि बच्चों का समग्र विकास हो सके। बच्चों का कमरा उनके लिए मनोरंजन, मस्ती और उल्लास का केंद्र होता है। उनका रूम जितना अधिक वास्तु सम्मत होगा उतना ही अधिक वे ऊर्जावान होंगे तथा अपनी क्रिएटिविटी का सकारात्मक उपयोग अपनी पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद, अनुशासन आदि जीवन के हर क्षेत्र में बखूबी कर पाएंगे। जीवन में सफलता के चरमोत्कर्ष पर पहुंचने के लिए आॅल राउंडर बनना जरूरी है और यह तभी संभव है जब उनका रूम पूर्णरूपेण वास्तु सम्मत हो जिससे कि अपने रूम में मनोरंजन, मस्ती एवं उल्लास के साथ-साथ आराम एवं सुखद नींद की भी अनुभूति कर सकें। वास्तु सम्मत रूम का तात्पर्य है सभी सामानों एवं अवयवों जैसे स्टडी टेबल, बेड, बाथरूम आदि का समंजन उचित स्थान एवं दिशा में करना। सभी सामानों का उचित स्थानों पर प्लेसमेंट बच्चों के मन में सकारात्मक सोच, ऊर्जा एवं स्फूर्ति विकसित करता है जिससे वे हंसमुख रहकर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित होते हैं। आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, वैश्वीकरण आदि के कारण संकुचित होते भूखंड में वास्तु का ध्यान लोग नहीं रख पाते। यही कारण है कि बच्चों के व्यवहार में अनुशासन हीनता, उग्रता, हिंसात्मक विचारों की अभिवृद्धि होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण वास्तु नियमों की अवहेलना है। अतः यदि आप अपने बच्चों का बेहतर भविष्य चाहते हैं तथा यदि आप चाहते हैं कि वे आज्ञाकारी हों, विकासशील हों तथा उनकी सोच सकारात्मक हो तो निम्नांकित निर्देशानुसार उनके कक्ष की व्यवस्था करें: चिल्ड्रेन्स रूम के लिए उपयुक्त दिशाएं बच्चों का कमरा पश्चिम दिशा में सर्वश्रेष्ठ है किंतु विकल्प के तौर पर उत्तर-पश्चिम भी श्रेष्ठ है। अतः चिल्ड्रेन्स रूम के लिए इन्हीं दो दिशाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। रखें कि सोते वक्त उनका सिर दक्षिण दिशा में हो। यदि दक्षिण में सिर रखना संभव न हो तो पूर्व दिशा में भी सिर रखकर सोना उपयुक्त है। स्टडी एरिया एवं स्टडी टेबल स्टडी के लिए बच्चों के कमरों में उत्तर-पूर्व का कोना यथेष्ट है। स्टडी एरिया बिल्कुल साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त होना चाहिए। इससे बच्चों की पढ़ाई में रूचि बढ़ती है तथा उनका संकेन्द्रण भी बढ़ता है। साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त स्टडी एरिया होने से बच्चों के दिमाग में नये-नये विचारों का उदय होता है तथा उनकी रचनात्मक गतिविधियां बढ़ती हैं। स्टडी टेबल को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि पढ़ते समय बच्चे का मुंह उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। पूर्व दिशा को सबसे शुभ दिशा माना जाता है क्योंकि यह बच्चों को ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। स्टडी टेबल को दीवार से बिल्कुल सटाकर न रखें। दीवार एवं टेबल के बीच कम से कम 3’’ की दूरी आवश्यक है। स्टडी टेबल रेगुलर शेप का अर्थात् आयताकार अथवा वर्गाकार ही होना चाहिए। गोल, अंडाकार अथवा कोई अन्य आकार का स्टडी टेबल न रखें। स्टडी टेबल के ऊपर ऐसा ग्लास न रखें जो बच्चे का प्रतिबिंब बनाए। स्टडी टेबल का साइज न अधिक बड़ा और न ही अधिक छोटा होना चाहिए। यदि स्टडी टेबल पूर्वाभिमुख है तो लाइट अथवा लैंप दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर रखें और यदि स्टडी टेबल उत्तराभिमुख है तो उत्तर-पश्चिम में लाइट अथवा लैंप रखना उपयुक्त है। टी. वी., कंप्यूटर/लैपटाॅप बच्चों के कमरों में टी. वी., कंप्यूटर/ लैपटाॅप आदि न रखें। इससे बच्चों का ध्यान भटकता है तथा वे पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। किंतु स्थानों पर प्लेसमेंट बच्चों के मन में सकारात्मक सोच, ऊर्जा एवं स्फूर्ति विकसित करता है जिससे वे हंसमुख रहकर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित होते हैं। आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, वैश्वीकरण आदि के कारण संकुचित होते भूखंड में वास्तु का ध्यान लोग नहीं रख पाते। यही कारण है कि बच्चों के व्यवहार में अनुशासन हीनता, उग्रता, हिंसात्मक विचारों की अभिवृद्धि होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण वास्तु नियमों की अवहेलना है। अतः यदि आप अपने बच्चों का बेहतर भविष्य चाहते हैं तथा यदि आप चाहते हैं कि वे आज्ञाकारी हों, विकासशील हों तथा उनकी सोच सकारात्मक हो तो निम्नांकित निर्देशानुसार उनके कक्ष की व्यवस्था करें: चिल्ड्रेन्स रूम के लिए उपयुक्त दिशाएं बच्चों का कमरा पश्चिम दिशा में सर्वश्रेष्ठ है किंतु विकल्प के तौर पर उत्तर-पश्चिम भी श्रेष्ठ है। अतः चिल्ड्रेन्स रूम के लिए इन्हीं दो दिशाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। रखें कि सोते वक्त उनका सिर दक्षिण दिशा में हो। यदि दक्षिण में सिर रखना संभव न हो तो पूर्व दिशा में भी सिर रखकर सोना उपयुक्त है। स्टडी एरिया बिल्कुल साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त होना चाहिए। इससे बच्चों की पढ़ाई में रूचि बढ़ती है तथा उनका संकेन्द्रण भी बढ़ता है। साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त स्टडी एरिया होने से बच्चों के दिमाग में नये-नये विचारों का उदय होता है तथा उनकी रचनात्मक गतिविधियां बढ़ती हैं। स्टडी टेबल को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि पढ़ते समय बच्चे का मुंह उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। पूर्व दिशा को सबसे शुभ दिशा माना जाता है क्योंकि यह बच्चों को ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। स्टडी टेबल को दीवार से बिल्कुल सटाकर न रखें। दीवार एवं टेबल के बीच कम से कम 3’’ की दूरी आवश्यक है। स्टडी टेबल रेगुलर शेप का अर्थात् आयताकार अथवा वर्गाकार ही होना चाहिए। गोल, अंडाकार अथवा कोई अन्य आकार का स्टडी टेबल न रखें। स्टडी टेबल के ऊपर ऐसा ग्लास न रखें जो बच्चे का प्रतिबिंब बनाए। स्टडी टेबल का साइज न अधिक बड़ा और न ही अधिक छोटा होना चाहिए। यदि स्टडी टेबल पूर्वाभिमुख है तो लाइट अथवा लैंप दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर रखें और यदि स्टडी टेबल उत्तराभिमुख है तो उत्तर-पश्चिम में लाइट अथवा लैंप रखना उपयुक्त है। टी. वी., कंप्यूटर/लैपटाॅप बच्चों के कमरों में टी. वी., कंप्यूटर/ लैपटाॅप आदि न रखें। इससे बच्चों का ध्यान भटकता है तथा वे पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते।

कुंडली में पंचम,नवम एवं द्वादश भाव में संबंध....

हिंदू ज्योतिष कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। यह तथ्य प्रायः सभी ज्योतिषी तथा ज्ञानीजन अच्छी तरह से जानते हैं। मनुष्य जन्म लेते ही पूर्व जन्म के परिणामों को भोगने लगता है। जैसे फल फूल बिना किसी प्रेरणा के अपने आप बढ़ते हैं उसी तरह पूर्वजन्म के हमारे कर्मफल हमें मिलते रहते हैं। हर मनुष्य का जीवन पूर्वजन्म के कर्मों के भोग की कहानी है, इनसे कोई भी बच नहीं सकता। जन्म लेते ही हमारे कर्म हमें उसी तरह से ढूंढने लगते हैं, जैसे बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूढ़ निकालता है। पिछले कर्म किस तरह से हमारी जन्मकालीन दशाओं से जुड़ जाते हैं, यह किसी भी व्यक्ति की कुंडली में आसानी से देखा जा सकता है। कुंडली के प्रथम, पंचम और नवम भाव हमारे पूर्वजन्म, वर्तमान तथा भविष्य के सूचक हैं। इसलिए जन्म के समय हमें मिलने वाली महादशा/ अंतर्दशा/ प्रत्यंतर्दशा का संबंध इन तीन भावों में से किसी एक या दो के साथ अवश्य जुड़ा होता है। यह भावों का संबंध जन्म दशा के किसी भी रूप से होता है - चाहे वह महादशा हो या अंतर्दशा हो अथवा प्रत्यंतर्दशा। दशा तथा भावों के संबंध के इस रहस्य को जानने की कोशिश करते हैं पंचम भाव से। पंचम भाव, पूर्व जन्म को दर्शाता है। यही भाव हमारे धर्म, विद्या, बुद्धि तथा ब्रह्म ज्ञान का भी है। नवम भाव, पंचम से पंचम है अतः यह भी पूर्व जन्म का धर्म स्थान और इस जन्म में हमारा भाग्य स्थान है। इस तरह से पिछले जन्म का धर्म तथा इस जन्म का भाग्य दोनों गहरे रूप से नवम भाव से जुड़ जाते हैं। यही भाव हमें आत्मा के विकास तथा अगले जन्म की तैयारी को भी दर्शाता है। जिस कुंडली में लग्न, पंचम तथा नवम भाव अच्छे अर्थात मजबूत होते हैं वह अच्छी होती है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के अनुसार ”धर्म की सदा विजय होती है“। द्वादश भाव हमारी कुंडली का व्यय भाव है। अतः यह लग्न का भी व्यय है। यही मोक्ष स्थान है। यही भाव पंचम से अष्टम होने के कारण पूर्वजन्म का मृत्यु भाव भी है। मरणोपरांत गति का विचार भी फलदीपिका के अनुसार इसी भाव से किया जाता है। दशाओं के रूप में कालचक्र निर्बाध गति से चलता रहता है। ”पद्मपुराण“ के अनुसार ”जो भी कर्म मानव ने अपने पिछले जन्मों में किए होते हैं उसका परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा“। कोई भी ग्रह कभी खराब नहीं होता, ये हमारे पूर्व जन्म के बुरे कर्म होते हैं जिनका दंड हमें उस ग्रह की स्थिति, युति या दशा के अनुसार मिलता है। इसलिए हमारे सभी धर्मों ने जन्म मरण के जंजाल से मुक्ति की कामना की है। जन्म के समय पंचम, नवम और द्वादश भावों की दशाओं का मिलना निश्चित होता है।

Thursday 23 February 2017

विवाह के लिए सार्थक समय

भारतीय संस्कृति में विवाह को एक ऐसा पवित्र संस्कार माना गया है जो कि समाज में नैतिकता और मानव जीवन में निरंतरता बनाये रखने के लिए आवश्यक है। प्राचीन काल में विवाह की प्राथमिकताएं कुछ हट कर थी। उपरोक्त के अतिरिक्त कन्याओं का अल्प आयु में विवाह विलासी और कामुक राजाओं, सामंतों तथा अंग्रेज शासकों की कुदृष्टि से बचाने के लिए किये जाते थे, परंतु आधुनिक समय में ये समस्याएं नहीं हैं। अतः वर्तमान परिस्थितियों में विवाह की आयु को तीन खंडों में 1. शीघ्र विवाह (18 से 23 वर्ष तक), 2. उचित सामान्य विवाह (24 से 28 वर्ष तक), 3. देरी से विवाह (29 वर्ष के पश्चात) विभाजित करके विचार करेंगे। प्राचीन ग्रंथों में जैसे बृहत् पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 19, श्लोक 22 में जो सूत्र दिया है उसके अनुसार विवाह 5वें या 9वें वर्ष में होगा तो इसे आधुनिक समय की परिस्थितियों में परिवर्तित करके शीघ्र विवाह की आयु (18 से 23 वर्ष तक) वाले फलकथन के साथ ही अध्याय में 22 से 34वें सूत्र तक जो भी वर्णित किया गया है उसमें सप्तम भाव, सप्तमेश तथा कारक ग्रह शुक्र आदि के ऊपर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण विवाह में देरी आदि को नहीं लिया गया है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 19 जमाभाव फलाअध्याय के श्लोक या सूत्र संख्या 22 से 34 में विवाह के समग्र ज्ञान के लिए सूत्र/योग दिये गये हैं जो कि निम्न हैं: सप्तमेश शुभग्रह की राशि में बैठा हो और शुक्र अपने उच्च राशि का या स्वक्षेत्र में स्थित हो तो उस जातक का प्रायः 5वें या 9वें वर्ष में विवाह योग आता है (श्लोक 22)। सप्तम भाव में सूर्य हो और सप्तमेश शुक्र से युत हो तो प्रायः 7 या 11वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 23)। द्वितीय भाव में शुक्र हो और सप्तमेश एकादश स्थान में हो तो 10 या 16वें वर्ष में प्रायः जातक का विवाह योग आता है (श्लोक 24)। लग्न या केंद्र में शुक्र हो और लग्नेश शनि की राशि में स्थित हो तो 11वें वर्ष में जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 25)। लग्न से केंद्र में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम भाव में शनि हो तो प्रायः 19 या 22वें वर्ष में उस जातक का विवाह योग होता है। (श्लोक 26)। चंद्रमा से सप्तम में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम में शनि हो तो 18वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 27)। धनेश लाभ स्थान में हो और लग्नेश दशम भाव में स्थित हो तो 15वें वर्ष में जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 28)। धनेश लाभ स्थान में और लाभेश धन स्थान (राशि) में स्थित हो तो जातक का 13वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 29)। अष्टम भाव के सप्तम भाव में शुक्र हो और अष्टमेश मंगल के साथ हो तो जातक 22 या 27वें वर्ष में विवाह योग प्राप्त करता है (श्लोक 30)। लग्नाधिपति सप्तमेश के नवमांश में हो और सप्तमेश द्वादश भाव में स्थित हो तो उस जातक का विवाह 23 या 26वें वर्ष में होता है (श्लोक 31)। अष्टमेश लग्न के नवमांश में होकर सप्तम भाव में शुक्र के साथ बैठा हो तो 25 या 33वें वर्ष में उस जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 32)। भाग्य भाव से नवम में शुक्र हो या उन दोनों स्थानों में से किसी एक स्थान में राहु बैठा हो तो 31 या 33वें वर्ष में स्त्री लाभ होता है (श्लोक 33)। नवम भाव से सप्तम भाव में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम में सप्तमेश स्थित हो तो जातक 27 या 30वें वर्ष में विवाह योग प्राप्त करता है (श्लोक 34)। उपरोक्त श्लोकों का यदि काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली को ध्यान में रखकर विश्लेषण किया जाये तो संक्षेप में निम्न तथ्य ज्ञात होंगे कि: सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश एवं कारक ग्रह शुक्र/गुरु का संबंध शुभ ग्रहों, राशियों एवं भावों से हो तो विवाह शीघ्र ही कम आयु में संभव हो पाता है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश तथा कारक ग्रह शुक्र/गुरु पर शनि की दृष्टि, युति या शनि की राशियों (मकर/कुंभ) का प्रभाव हो तो विवाह में देरी होती है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश एवं कारक ग्रह शुक्र/गुरु पर अशुभ भावों के स्वामियों या क्रूर या वक्री ग्रहों या राहु/केतु का प्रभाव हो तो विवाह में ज्यादा देरी होती है या विवाह ही नहीं हो पाता। विवाह के योगों का अध्ययन करने के पश्चात यह देखना होगा कि जातक के विवाह के लिए उचित दशा-अंतर्दशा कौन सी होगी साथ ही विवाह समय गोचर भी स्वीकृति दे रहा है अथवा नहीं क्योंकि, योग दशा तथा गोचर तीनों की सम्मिलित स्वीकृति ही विवाह के संस्कार करायेगी।

चतुर्थ भाव में शनि एवं उसके ज्योतिष्य फल

ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह के अनेक नाम हैं - सूर्य पुत्र, अस्ति, शनैश्चर इत्यादि। अन्य ग्रहों की अपेक्षा जो ग्रह धीरे-धीरे चलता हुआ दिखाई देता है उसे ही हमारे ऋषि मुनियों ने ‘‘शनैश्चर ‘‘अथवा ’शनि’ कहा है। पाश्चात्य ज्योतिष में इसे ‘‘सैटर्न’’ कहते हैं। जनसाधारण में इसे सर्वाधिक आतंकवादी ग्रह के रूप में जाना जाता है। ऐसी धारणा है कि शनि की महादशा, ढैया अथवा साढ़ेसाती कष्टकारी या दुःखदायी ही होती है। भारतीय ज्योतिष में शनि को न्यायाधीश माना गया है। किंतु ‘शनि’ एक ऐसा ग्रह है जो विपत्तियाँ, संघर्षों और कष्टों की अग्नि में तपाकर जातक को अतिशय साहस और उत्साह देता है तथा उसके श्रम एवं अच्छे कर्मों का पूर्ण फल और शुभत्व भी प्रदान करता है। ‘‘जातक परिजाता’’ में दैवज्ञ वेद्यनाथ जी ने शनि को ‘‘चतुष्पदो भानुसुत’’ कहा है। 6, 8, 12 भाव इसके अपने भाव हैं। यह पश्चिम दिशा का स्वामी ग्रह है, मकर तथा कुंभ राशि का स्वामी है। शनि ग्रह से वात्-कफ, वृद्धावस्था, नींद, अंग-भंग पिशाच बाधा आदि का विचार करना चाहिए। शनि से प्रभावित व्यक्ति अन्वेषक, ज्योतिषी, ठेकेदार, जज इत्यादि हो सकता है, मेष राशि में नीच तथा तुला राशि में उच्च स्थिति में होता है। पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्रपद इसके नक्षत्र हैं। अन्य ग्रहों के समान शनि ग्रह के भी कुंडली के 12 भावों और 12 राशियों में भिन्न-भिन्न फल होते हैं। वैसे प्रथम भाव में शनि यदि उच्च राशिस्थ अथवा स्वगृही है तो जातक को धनी, सुखी बनाता है। द्वितीय भाव में नेत्र रोगी, तृतीय में बुद्धिमान, चतुर्थ में भाग्यवान, बुद्धिमान एवं अपयशी भी बनाता है। इसी प्रकार द्वादश भावों में शनि के पृथक-पृथक फल बताये गये हैं। किंतु यहां पर में केवल चतुर्थ भावस्थ शनि के बारे में एक विचित्र एवं स्वानुभूत सत्य बताने की चेष्ट है। जैसा कि सर्वविदित है कि चतुर्थ भाव मातृ कारक भाव माना गया है। माता से संबंधित ज्ञान कुंडली के चतुर्थ भाव से प्राप्त करना चाहिए। अनेकानेक कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद देखा गया कि शनि यदि चतुर्थ भाव में होगा तो ऐसे जातक को अपनी माता का सुख कम मिलता है तथा उसके जीवन में किसी एक ऐसी महिला का पदार्पण अवश्य होता है जिसे वह अपनी माता के समान ही सम्मान देता है और अपनी मां के होते हुए भी वह अपना सम्पूर्ण आदर, प्रेम व सम्मान उस स्त्री को देता है जिसे वह मातृतुल्य समझता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वाला जातक ऐसी स्त्री को मां मानता है अर्थात उसके जीवन में एक से अधिक माताओं का प्यार होता है। यह महिला कोई भी हो सकती है, उसकी मौसी, चाची, बुआ या यहां तक भी देखने में आया है कि दोनों का कहीं से कोई भी संबंध नहीं है फिर भी कभी उससे बात हुई और धीरे-धीरे ये मां और बेटे के संबंध इतने मधुर हो जाते हैं कि यथार्थ में उनका प्रेम मां बेटे जैसा हो जाता है। यह एक शोध का विषय है जो क्रमशः कई कुंडलियों का लगातार अध्ययन करने के बाद पाया गया है। अब इस कथन की सत्यता को स्थापित करने के लिए कुछ कुंडलियों की ज्योतिषीय व्याख्या करते हैं - सर्वप्रथम देखते हैं युग पुरुष-मर्यादा पुरोशोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी की जन्म पत्रिका - भगवान श्रीरामचंद्र की कुंडली कर्क लग्न की है। माता का कारक ग्रह चंद्रमा स्वयं लग्न में और चतर्थ भाव में उच्चस्थ शनि । शनि और चन्द्र का केंद्रस्थ संबंध और माता का कारक कुंडली में (शुक्र) नवम् भाव में गुरु की राशि में उच्चस्थ। चतुर्थ भावस्थ शनि ने चार-चार माताएं प्रदान की।

Wednesday 22 February 2017

सफल शिक्षक शिक्षिका बनने के ग्रह योग

शिक्षक का हमारे समाज में महत्वपूर्ण स्थान होता है। किसी भी छात्र को योग्य बनाने व उसको शारीरिक व मानसिक तौर पर सक्षम बनाने में शिक्षक की अहम भूमिका होती है। जैसा कि हमारे शास्त्रों में विदित है माता-पिता के पश्चात वह गुरु ही है जो छात्र का मार्गदर्शन करके उसको भविष्य के लिए तैयार करता है जिससे वह भविष्य में आने वाली चुनौतियों का सामना कर सके व उसे सफलता प्राप्त हो सके। अतः गुरु का स्थान देवता से पूर्व कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में अध्यापन क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये कुंडली में गुरु तथा बुध का बली होना आवश्यक है। गुरु ज्ञान के कारक माने जाते हैं तथा बुध बुद्धि के कारक होते हैं। कुंडली में इन दोनों ग्रहों की शुभ स्थिति तथा इनका लग्न, धन, विद्या, रोग व सेवा, कर्म, लाभ स्थान से किसी भी प्रकार युति, दृष्टि संबंध स्थापित होने पर व्यक्ति को अध्यापन क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। यदि इस योग में ‘गुरु’ विशेष रूप से बली हैं तो व्यक्ति समाज में विशेष स्थान प्राप्त करता है। यदि लग्न कुंडली के अतिरिक्त नवमांश, दशमांश, चतुर्विंशांश कुंडली में भी गुरु तथा बुध का युति व दृष्टि संबंध बने तो व्यक्ति अध्यापन क्षेत्र में समृद्धि, संपत्ति अर्जित करता है। धन स्थान, सेवा स्थान, कर्म स्थान को अर्थ स्थान की संज्ञा दी गयी है। इन स्थानों व इनके स्वामियों का संबंध गुरु से बनने पर व्यक्ति अध्यापन क्षेत्र द्वारा धन अर्जित करता है। यदि इस योग में गुरु का संबंध सूर्य से बने तो व्यक्ति सरकारी सेवा से लाभ अर्जित करता है। अध्यापन में सफलता प्रप्त करने के योग - यदि कुंडली में हंस योग, भद्र योग उपस्थित हो तो व्यक्ति अध्यापन क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। - गुरु तथा बुध के मध्य स्थान परिवर्तन योग बनने पर सफलता प्राप्त होती है। यह योग धन, पंचम, दशम व लाभ भाव के मध्य बनने पर अच्छी सफलता प्राप्त होती है और व्यक्ति संपत्ति व समृद्धि अर्जित करता है। - गुरु व बुध की केंद्र में स्थिति, दोनों का एक दूसरे से युति व दृष्टि संबंध इस क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है। - लग्न तथा चंद्र कुंडली से लग्नेश, पंचमेश, दशमेश का संबंध गुरु तथा बुध से बनने पर अध्यापन क्षेत्र द्वारा जीविका अर्जन होती है। - फलदीपिका के अनुसार यदि दशमेश के नवमांश का अधिपति गुरु हो तो व्यक्ति गुरु के क्षेत्र (शिक्षा क्षेत्र) द्वारा जीविका प्राप्त करता है। - यदि कुंडली में गजकेसरी योग उपस्थित हो तथा उसका संबंध धन, पंचम, दशम स्थान से बन रहा हो। - लग्न कुंडली, नवमांश कुंडली, दशमांश कुंडली में गुरु व बुध का दृष्टि व युति संबंध बनने पर अध्यापन क्षेत्र में अच्छी सफलता मिलती है। - सूर्य का धन स्थान, पंचम, सेवा, कर्म में गुरु व बुध से संबंध सरकारी सेवा प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता है।

मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन

विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा।अगर आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा। एक अन्य उदाहरण देखें। आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति ें मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला सिद्ध होगा। मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले हों तो रत्न का चयन करना सरल होता है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वे अरिष्टकारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा-सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगी। इसे और स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। मान लें कि आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आप अपनी माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होंगी। जन्मपत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है। ध्यान रखें, इस स्थिति में चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना चहिए। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियां कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती है तथा त्रिक भावों अर्थात् छठे, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित है तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोष से मुक्ति दिलाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार नैसर्गिक मित्र चक्र से कर सकते हैं परंतु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। मान ले कि इस उदाहरण में जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहां कर्क राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियां क्रमशः इस प्रकार हैं - सिंह, मेष, वृश्चिक, धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क से छठे भाव में स्थित है अर्थात षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहां इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा। कालसर्प दोष से बाधित उन्नति एवं रत्न चयन यह दोष जन्म कुंडली में तब बनता है जब राहु तथा केतु के मध्य सातों ग्रह आ जाते हैं। यह दोष जिसकी पत्री में होता है उसकी उन्नति सदैव बाधित रहती है। लाख प्रयास करने के बाद भी सफलता उसे जल्दी नहीं मिल पाती। जीवन की दौड़ में कालसर्प दोष से पीड़ित व्यक्ति सर्वथा पीछे रह जाता है, ऐसा ज्योतिष मनीषियों का मानना है। ज्योतिष के प्रसिद्ध अनेक मूल ग्रंथों में इसका कहीं भी विवरण नहीं मिलता है। मूलतः बारह प्रकार से कालसर्प दोष व्यक्ति की जन्मपत्रिकाओं में बनते हैं। लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु (स्वाभाविक) हो तथा अन्य सभी ग्रह बाएं स्थित हों अथवा दाएं तो यह कालसर्प दोष का एक विकल्प है। इसी प्रकार राहु क्रमशः दूसरे, तीसरे अथवा सातवें भाव में हो और केतु क्रमशः आठवें, नवें अथवा लग्न में हो और अन्य सातों ग्रह राहु, केतु के इस अर्धगोलाकार भचक्र से बाएं अथवा दाएं स्थित हों तो यह भी उदाहरण है कालसर्प दोष का। इन स्थितियों में व्यक्ति पर पड़ने वाला सुप्रभाव अथवा दुष्प्रभाव क्या हो सकता है, यह अलग विषय है। हां इनसे जनित दुष्प्रभाव के निदान स्वरूप रत्नों की सहायता से हम शुभ की अनुभूति अवश्य कर सकते हैं। जन्मपत्री में देखें कि राहु किस राशि में स्थित है। पंचधा मैत्री चक्र से उस राशि के स्वामी ग्रह के मित्र, अधिमित्र ग्रह चुन लें। यदि वह ग्रह अथवा उसकी राशि राहु की राशि से, अर्थात जिस राशि में राहु है, छठे अथवा आठवें भाव में स्थित न हो तो आप उस ग्रह के रत्न कालसर्प दोष के निदान हेतु चयन कर सकते हैं। पाठक देखें कि राहु कन्या अर्थात बुध की राशि में बैठकर कालसर्प दोष बना रहा है या नहीं। राहु का रत्न गोमेद भी इस दोष के निदान हेतु धारण कराया जा सकता था परंतु उक्त दो रत्न क्यों चुने गए, पाठक इसका विवेचनात्मक पहलू देखें। पंचधा मैत्री के आधार पर कन्या राशि के स्वामी ग्रह बुध के सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि तथा राहु मित्र हैं। शनि और मंगल को इसलिए छोड़ दिया गया था कि वे कन्या राशि से षडाष्टक दोष बना रहे थे। शुक्र मंगल के नक्षत्र में था इसलिए पहले वह मंगल का प्रभाव देता। मंगल त्याज्य था ही इसलिए शुक्र का रत्न भी यहां कार्य नहीं करता। बुध ग्रह अपने ही नक्षत्र में स्थित था। कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार वह ग्रह अधिक प्रबल हो जाता है जो अपने ही नक्षत्र में होता है। राहु भी बुध अधिष्ठित राशि स्वामी है। इस दृष्टिकोण से भी बुध शुभ रहा। साथ में सूर्य के रत्न माणिक्य को इसलिए भी चुना गया कि वह लग्नेश था। मंगल दोष एवं रत्न चयन लड़के अथवा लड़की की जन्मकुंडली में मंगल ग्रह यदि पहले, चैथे, सातवें, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित होता है तो वह मंगल दोष कहलाता है। ऐसे में एक-दूसरे के जीवन में अनिष्टकारी परिणाम होते हैं। लग्न के अतिरिक्त चंद्र तथा सूर्य लग्न से भी मंगल की इन भावों में स्थिति मंगल दोष का कारण बनती है। दक्षिण भारत में मंगल की द्वितीय भाव गत स्थिति को भी मंगल दोष का कारण मानते हैं तथा शुक्र लग्न से भी इन भावों में मंगल की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाता है। इतने सारे संयोगों का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो इस गणित से 70 प्रतिशत से अधिक लड़के-लड़कियां मंगली होते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मंगल दोष होने से दाम्पत्य जीवन अनिष्टकारी होगा ही। यह मात्र एक हौवा बना दिया गया है। मंगल दोष होता अवश्य है परंतु इस विषय की गणना विद्वान ज्योतिषी द्वारा ही की जा सकती है क्योंकि जितनी संख्या में मंगल दोष होते हैं उतनी ही उस दोष के परिहार की संभावनाएं बनती हैं। यदि वास्तव में मंगल दोष जन्मपत्री में बनता है तो अपने अनुरूप रत्न चयन करें। यह उपक्रम भी मंगल दोष के निवारण में उपयोगी सिद्ध होगा। अकसर मंगल दोष के निदान स्वरूप पुखराज अथवा मूंगा धारण करवाया जाता है। यह प्रत्येक दशा में उपयुक्त नहीं है, यह ध्यान रखें। यदि जन्मपत्री में मंगल दोष बनता है तथा गुरु से मंगल युति बनाता है अथवा उससे दृष्ट है तब तो पुखराज इस दोष के निवारण में उपयोगी होगा। गुरु यदि मंगल से षडाष्टक दोष बनाता है अथवा ऐसी राशि में स्थित है जो पंचधा मैत्री से मंगल की शत्रु है तब पुखराज पहनाना उचित नहीं है। इसी प्रकार मात्र मंगल दोष देखकर मूंगा धारण करवा देना भी सर्वथा अनुचित है। गुरु की तरह मंगल का यदि राहु से युति अथवा दृष्टि संबंध बनता है और राहु मंगल की किसी मित्र राशि में स्थित है तो गोमेद अथवा उस ग्रह का रत्न धारण करवाया जा सकता है जिस ग्रह के नक्षत्र में राहु हो। दूसरे, राहु जिस ग्रह की राशि में हो उस राशि के स्वामी ग्रह से संबंधित रत्न भी धारण करवाया जा सकता है। तीसरे, राहु के साथ जितने ग्रह स्थित हों उनमें से जो मंगल का मित्र ग्रह हो उस ग्रह का रत्न भी मंगल दोष के निवारण हेतु धारण करवाया जा सकता है। हर पल प्रयास यह रखना है कि मित्र राशि पीड़ित ग्रह से षडाष्टक दोष न बनाती हो। यदि राशि से संबंधित ग्रह का भी इस दोष में ध्यान रखा जाता है तो यह सर्वाधिक प्रभावशाली चयन सिद्ध होगा। मंगल का राहु अथवा गुरु से संबंध न हो और उसकी स्थिति मंगल दोष बना रही हो तो मंगल की राशि की मित्र राशियां देखें। ये कुंडली में मंगल की स्थिति से छठे या आठवें नहीं होनी चाहिए। इन राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न मंगल दोष का निवारण करेंगे। पूर्व की भांति यदि यह भी ध्यान रखा जाए कि संबंधित ग्रह भी मंगल से षडाष्टक दोष न बना रहे हों तो आपका चयन सर्वथा उचित होगा। नाड़ी दोष और रत्न चयन वर-कन्या की जन्मपत्रियों को विवाह हेतु मिलाना केवल एक तथाकथित जन्मपत्रिका मेलापक परंपरा का निर्वाह करना नहीं है। इसका मूल उद्देश्य है भावी दम्पति के गुण, स्वभाव, आचार-व्यवहार, प्रजनन शक्ति, विद्या तथा आर्थिक दशा का मिलान करना जिससे कि दोनों का भावी जीवन सुखमय हो। इस गुण मिलान पद्धति में निम्न बातें होती हैं- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री, भकूट तथा तथाकथित महादोष नाड़ी दोष। क्रम में एक-एक अधिक गुण माने जाते हैं अर्थात वर्ण का 1, वश्य का 2, तारा का 3, योनि का 4. ग्रह मैत्री का 5. गण मैत्री का 6. भकूट का 7 तथा नाड़ी का 8। इस प्रकार कुल 36 गुण होते हैं। इसमें कम से कम 18 गुण मिलने पर विवाह किया जा सकता है परंतु नाड़ी और भकूट गुण अवश्य होने चाहिए। इन गुणों के बिना 18 गुणों में विवाह मंगलकारी नहीं माना जाता है। यदि वर और वधू की नाड़ी एक होती है तो यह स्थिति दोनों के लिए शुभ नहीं होती है ऐसी ज्योतिष की मान्यता है। कहा तो यहां तक जाता है कि आदि, अन्त्य तथा मध्य तीन प्रकार की नाड़ियों में अंतिम नाड़ी का एक होना दोनों की मृत्यु तक का कारण बनता है। इसीलिए नाड़ी का विवाह मेलापक सारिणी में न मिलना लोगों को भयभीत किए हुए है। यदि विवाह हो गया है और दोनों की नाड़ी एक है और आप इससे भयभीत हैं तो रत्नों का प्रयोग करके अपने भय को दूर कर सकते हैं। लड़का और लड़की यदि अश्विनी, आद्र्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों में से किसी एक में जन्म लेते हैं तो यह आदि नाड़ी कहलाती है। भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपद में से किसी एक में दोनों जन्म लेते हैं तो यह मध्य नाड़ी है। कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण अथवा रेवती में दोनों के जन्म लेने पर अन्त्य नाड़ी होती है। लड़के-लड़की दोनों का जन्म यदि एक नक्षत्र में होता है, परंतु उनके चरण भिन्न हैं अर्थात मान लें कि लड़का रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुआ है और लड़की तीसरे चरण में, तब यहां नाड़ी दोष नहीं होगा तथा इस प्रयोजन हेतु रत्न धारण कराने की भी आवश्यकता नहीं है। परंतु यदि लड़का-लड़की एक नक्षत्र के एक ही चरण में जन्मे हैं तो यह नाड़ी दोष का कारण है। यहां आप निम्न प्रकार से रत्न प्रयोग कर सकते हैं, यह उपक्रम नाड़ी दोष निदान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। दोनों के नक्षत्र स्वामी ग्रहों की बलाबल स्थिति क्या है? यहां तीन विकल्प हो सकते हैं। दोनों ग्रह बलवान हों। दोनो ग्रह बलहीन हों। एक बलवान हो तथा दूसरा बलहीन। यदि दोनों ग्रह बलवान हैं तो आप उन से संबंधित रत्न, उपरत्न अथवा दोनों का प्रयोग कर सकते हैं। मान लें कि दोनों का जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के द्वितीय चरण में हुआ है। ज्येष्ठा का स्वामी ग्रह है बुध। इसलिए यहां लड़का-लड़की दोनों को आप पन्ना अथवा उसका कोई उपरत्न धारण करवा सकते हैं। यदि नक्षत्र स्वामी ग्रह लड़के-लड़की दोनों की जन्मपत्रियों में क्षीण हैं तो दोनों की जन्मपत्रिकाओं में पंचधा मैत्री से उन ग्रहों के मित्र तथा अधिमित्र ग्रह देख लें। दोनों में से जिसके भी नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे ग्रह छठे अथवा आठवें भाव में स्थित हों तो वे ग्रह छोड़ दें। शेष ग्रह के रत्न लड़के तथा लड़की को धारण करना दीर्घायु प्रदान करने वाला तथा सुख-समृद्धि दाता सिद्ध होगा। तीसरी स्थिति में लड़के तथा लड़की के नक्षत्र के स्वामी ग्रह जन्मपत्री में बलवान तथा बलहीन हो सकते हैं। जिसकी पत्री में जो ग्रह बलवान हों उनसे संबंधित रत्न उसे धारण करवा सकते हैं। दोनों में से जिसके ग्रह बलहीन हों उनके पंचधा मैत्री से मित्र ग्रह देखकर यह पता कर लें कि उनमें से उसके नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे षडाष्टक दोष तो नहीं बना रहे हैं। यदि नहीं तो उन ग्रह के रत्न आप उसे धारण करवा सकते हैं। मारकेश, मृत्युभय एवं रत्न चयन राजा हो अथवा रंक - मृत्युभय से कोई भी अछूता नहीं है। मृत्यु आनी है तो फिर त्रिदेव भी उसे टाल नहीं सकते। यदि इस पर विजय प्राप्त हो गई होती तो कुबेरपति अथवा धनपति कभी मरते ही नहीं। क्या है यह भयभीत करने वाला मारकेश? ज्योतिष में वे कौन-कौन से अरिष्टकारी योग बनते हैं जो मारण करते हैं अथवा मरण तुल्य कष्ट देते हैं? ये पूर्णतया ज्योतिष शास्त्र के विषय हैं। संक्षिप्त में यह जान लें कि मृत्यु का निर्णय करने के लिए मारक का ज्ञान करना आवश्यक है। तदनुसार ही रत्नादि चयन करना उचित है। ज्योतिष में लग्नेश, षष्ठेश, अष्टमेश, गुरु तथा शनि से मारकेश का विचार होता है। अष्टमेश बलवान होकर यदि पहले, चैथे, छठे, दसवें अथवा 12वें भाव में हो तो मारक बन जाता है। पूर्व की भांति ऐसे में अष्टमेश के मित्र ग्रहों को पंचधा मैत्री सूची से ज्ञात कर लें। यह देख लें कि जहां अष्टमेश स्थित है वे ग्रह उससे षष्ठम-अष्टम भावगत न हों, न ही उनकी राशि इन भावों में पड़ती हो। उन ग्रहों के रत्न आप मारकेश के प्रभाव को कम करने के लिए धारण कर सकते हैं। यहां विशेष रूप से यह ध्यान रखें कि अन्य किसी विधि से यदि बलवान अष्टमेश का रत्न निकल रहा हो तो वह कदापि धारण न करें अन्यथा वह प्रबल मारकेश बन जाएगा। मारक ग्रह का प्रभाव अष्टमेश ग्रह की अंतर्दशा में प्रभावी होता है, इसलिए उस दशा में यत्न करके वह रत्न अवश्य जुटा लें। शनि षष्ठेश तथा अष्टमेश होकर यदि लग्नेश को देखता है तो लग्नेश ही मारक हो जाता है। ऐसी स्थिति में लग्नेश को, यदि वह बली है, उसके रत्न से बलवान करना होगा। परंतु यदि लग्नेश ऐसे में बली नहीं है तो पूर्व की भांति उसके मित्र ग्रहों में जो बलवान ग्रह हो तथा लग्नेश से छठे या आठवें भी न हो तो संबंधित रत्न धारण करवाना बुद्धिमानी होगी। पराशर के मत से जन्मकुंडली में द्वितीय और सप्तम भाव मारकेश हैं तथा इन दोनों के स्वामी - द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय और सप्तम में रहने वाले पाप ग्रह एवं द्वितीयेश और सप्तमेश के साथ रहने वाले पाप ग्रह-मारकेश हो जाते हैं जैसा कि पूर्व में लिखा है। पाप ग्रह मारकेश यदि बली है तब उसके रत्न-उपरत्न अथवा रोगादि से सर्वथा बचें। अन्यथा यह प्रबल मारकेश बन जाते हैं। यहां उनके मित्र ग्रहों के रत्न पूर्व की भांति ही प्रयोग करने चाहिए। शनि मारकेश से भी दो हाथ आगे है, इसीलिए सब इससे भयभीत रहते हैं। प्रबल मारक शनि का रत्न, छल्ला, कड़ा आदि ऐसे में कदापि प्रयोग न करें। सुरक्षा की दृष्टि से शनि के मित्र ग्रहों में से पूर्व की भांति छांटकर उनके रत्न, रंग आदि चयन करें। द्वादशेश पापग्रह हो तो मारक बन जाता है। पापग्रह षष्ठेश हो अथवा पाप राशि में षष्ठेश स्थित हो या पापग्रह से दृष्ट हो तो षष्ठेश की दशा मारक हो जाती है। मारकेश की दशा में षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश की अंतर्दशा भी मारक होती है। मारकेश यदि अधिक बलवान है तो उसकी ही दशा अथवा अंतर्दशा में मरण अथवा मरण तुल्य कष्ट होता है। राहु-केतु पहले, सातवें, आठवें अथवा 12वें भाव में हांे अथवा मारकेश से सातवें भाव में हों अथवा मारकेश के साथ हों तो मारक बन जाते हैं। मकर और वृश्चिक लग्न वालों के लिए राहु मारक बन जाता है। शनि का भूत और रत्न चयन जातक ग्रंथों में शनि की साढ़े साती और ढइया का अलग-अलग तरीके से वर्णन है। इसकी गणना चलित नाम से, लग्न से, चंद्र से तथा सूर्य से की जाती है। एक व्यक्ति के जीवन में अधिक से अधिक साढ़े 22 वर्ष साढ़े साती में निकल जाते हैं। कहते हैं साढ़े साती में जातक उन्नति नहीं कर पाता और उसे दुख, कलह तथा बीमारी आदि निरंतर घेरे रहते हैं। यदि शनि उच्च का हो और उसकी साढ़े साती प्रारंभ हो जाए तो व्यक्ति चहुदिश हानि प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतः शनि की साढ़े साती का विचार जन्मपत्री में चंद्रमा की स्थिति से किया जाता है। गोचरवश भ्रमण करता हुआ शनि जब चंद्रमा से द्वादश भाव में प्रवेश करता है तो यह शनि की साढ़े साती का प्रारंभ कहलाता है। चंद्रमा से तीसरी राशि को जब शनि पार करता है तो साढ़े साती का अंत माना जाता है। इस प्रकार हर राशि पर ढाई-ढाई वर्ष भ्रमण करता हुआ चंद्र की राशि सहित उसके आगे और पीछे स्थित रहता है। चंद्रमा से चैथी तथा आठवीं राशियों में जब शनि गोचरवश ढाई-ढाई वर्ष स्थित रहता है तो यह शनि की ढइया कहलाती है। शनि के इन गोचरवश स्थित स्थानों को लोगों ने शनि का भूत, शनि का प्रकोप, दारिद्र्य और आरोग्य से जोड़कर एक अज्ञात भय बैठा दिया है। यह उचित नहीं है। शनि के तथाकथित इन दिनों में सामान्यतः शनि का रत्न नीलम, उपरत्न, लोहे का छल्ला अथवा कड़ा पहनने का चलन है। यह चयन ठीक है परंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए नहीं। सदैव ध्यान रखें कि यम-नियम प्रत्येक व्यक्ति पर सटीक बैठें, यह आवश्यक नहीं है। किसी भी रूप में निदान के समय सामान्य नियमों के स्थान पर व्यक्ति विशेष के अनुरूप नियम खोज करके ही आगे बढ़ना चाहिए। साढ़े साती में रत्न धारण करवाते समय ध्यान रखें कि धारण किए गए रत्न का कैसा भी संबंध उसके गोचर भाव से छठे अथवा आठवें से न हो। भाग्य प्रदायक दिशा एवं रत्न चयन यदि आपको अपना जन्म लग्न ज्ञात है तब तो ठीक है अन्यथा अपने नाम के प्रथम अक्षर की राशि को लग्न मानकर लग्न कुंडली तैयार करें। मान लें आपका नाम राम है और आपकी नाम राशि तुला बनती है। कुंडली में आप देखिए कि दूसरे, नौवें तथा ग्यारहवें भावों में कौन-कौन सी राशियां हैं और वे राशियां किन-किन दिशाओं अथवा विदिशाओं की सूचक हैं। उदाहरण के लिए इन भावों में क्रमशः वृश्चिक, मिथुन तथा सिंह राशियां हैं और वह उत्तर, पश्चिम तथा पूर्व दिशाओं की कारक हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने वर्तमान स्थान से यदि आप इन दिशा-विदिशाओं में पड़ने वाले गांव, शहर आदि में प्रवास करते हैं तो आपके भाग्य में उत्तरोत्तर उन्नति की संभावना बढ़ सकती है। यह बात अवश्य ध्यान में रखें कि यह चयन बहुत ही साधारण सा सूत्र है, शुभ फल की प्राप्ति के लिए अन्य ज्योतिषीय घटकों का आपके लिए अनुकूल होना भी परमावश्यक है। लाभ देने वाले घटकों में एक विकल्प उचित रत्न चयन भी हो सकता है। इन राशियों के रत्न, उपरत्नादि यदि परस्पर मित्र हैं तो आपके लिए भाग्यशाली सिद्ध हो सकते हैं। यदि तीन रत्नों का संयोग न मिल पाए तो यह देखें कि कौन से दो रत्न परस्पर मित्र हैं। यदि यह संयोग भी नहीं मिल रहा है तो आप राशियों के अन्य मित्र राशियों के रत्न चयन करें। अन्य मित्र राशियों का चयन करते समय षडाष्टक दोष का ध्यान अवश्य रखें अर्थात वे राशियां छठे, आठवें भाव में परस्पर न हों।

मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन

विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा।अगर आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा। एक अन्य उदाहरण देखें। आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति ें मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला सिद्ध होगा। मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले हों तो रत्न का चयन करना सरल होता है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वे अरिष्टकारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा-सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगी। इसे और स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। मान लें कि आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आप अपनी माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होंगी। जन्मपत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है। ध्यान रखें, इस स्थिति में चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना चहिए। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियां कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती है तथा त्रिक भावों अर्थात् छठे, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित है तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोष से मुक्ति दिलाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार नैसर्गिक मित्र चक्र से कर सकते हैं परंतु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। मान ले कि इस उदाहरण में जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहां कर्क राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियां क्रमशः इस प्रकार हैं - सिंह, मेष, वृश्चिक, धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क से छठे भाव में स्थित है अर्थात षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहां इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा। कालसर्प दोष से बाधित उन्नति एवं रत्न चयन यह दोष जन्म कुंडली में तब बनता है जब राहु तथा केतु के मध्य सातों ग्रह आ जाते हैं। यह दोष जिसकी पत्री में होता है उसकी उन्नति सदैव बाधित रहती है। लाख प्रयास करने के बाद भी सफलता उसे जल्दी नहीं मिल पाती। जीवन की दौड़ में कालसर्प दोष से पीड़ित व्यक्ति सर्वथा पीछे रह जाता है, ऐसा ज्योतिष मनीषियों का मानना है। ज्योतिष के प्रसिद्ध अनेक मूल ग्रंथों में इसका कहीं भी विवरण नहीं मिलता है। मूलतः बारह प्रकार से कालसर्प दोष व्यक्ति की जन्मपत्रिकाओं में बनते हैं। लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु (स्वाभाविक) हो तथा अन्य सभी ग्रह बाएं स्थित हों अथवा दाएं तो यह कालसर्प दोष का एक विकल्प है। इसी प्रकार राहु क्रमशः दूसरे, तीसरे अथवा सातवें भाव में हो और केतु क्रमशः आठवें, नवें अथवा लग्न में हो और अन्य सातों ग्रह राहु, केतु के इस अर्धगोलाकार भचक्र से बाएं अथवा दाएं स्थित हों तो यह भी उदाहरण है कालसर्प दोष का। इन स्थितियों में व्यक्ति पर पड़ने वाला सुप्रभाव अथवा दुष्प्रभाव क्या हो सकता है, यह अलग विषय है। हां इनसे जनित दुष्प्रभाव के निदान स्वरूप रत्नों की सहायता से हम शुभ की अनुभूति अवश्य कर सकते हैं। जन्मपत्री में देखें कि राहु किस राशि में स्थित है। पंचधा मैत्री चक्र से उस राशि के स्वामी ग्रह के मित्र, अधिमित्र ग्रह चुन लें। यदि वह ग्रह अथवा उसकी राशि राहु की राशि से, अर्थात जिस राशि में राहु है, छठे अथवा आठवें भाव में स्थित न हो तो आप उस ग्रह के रत्न कालसर्प दोष के निदान हेतु चयन कर सकते हैं। पाठक देखें कि राहु कन्या अर्थात बुध की राशि में बैठकर कालसर्प दोष बना रहा है या नहीं। राहु का रत्न गोमेद भी इस दोष के निदान हेतु धारण कराया जा सकता था परंतु उक्त दो रत्न क्यों चुने गए, पाठक इसका विवेचनात्मक पहलू देखें। पंचधा मैत्री के आधार पर कन्या राशि के स्वामी ग्रह बुध के सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि तथा राहु मित्र हैं। शनि और मंगल को इसलिए छोड़ दिया गया था कि वे कन्या राशि से षडाष्टक दोष बना रहे थे। शुक्र मंगल के नक्षत्र में था इसलिए पहले वह मंगल का प्रभाव देता। मंगल त्याज्य था ही इसलिए शुक्र का रत्न भी यहां कार्य नहीं करता। बुध ग्रह अपने ही नक्षत्र में स्थित था। कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार वह ग्रह अधिक प्रबल हो जाता है जो अपने ही नक्षत्र में होता है। राहु भी बुध अधिष्ठित राशि स्वामी है। इस दृष्टिकोण से भी बुध शुभ रहा। साथ में सूर्य के रत्न माणिक्य को इसलिए भी चुना गया कि वह लग्नेश था। मंगल दोष एवं रत्न चयन लड़के अथवा लड़की की जन्मकुंडली में मंगल ग्रह यदि पहले, चैथे, सातवें, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित होता है तो वह मंगल दोष कहलाता है। ऐसे में एक-दूसरे के जीवन में अनिष्टकारी परिणाम होते हैं। लग्न के अतिरिक्त चंद्र तथा सूर्य लग्न से भी मंगल की इन भावों में स्थिति मंगल दोष का कारण बनती है। दक्षिण भारत में मंगल की द्वितीय भाव गत स्थिति को भी मंगल दोष का कारण मानते हैं तथा शुक्र लग्न से भी इन भावों में मंगल की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाता है। इतने सारे संयोगों का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो इस गणित से 70 प्रतिशत से अधिक लड़के-लड़कियां मंगली होते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मंगल दोष होने से दाम्पत्य जीवन अनिष्टकारी होगा ही। यह मात्र एक हौवा बना दिया गया है। मंगल दोष होता अवश्य है परंतु इस विषय की गणना विद्वान ज्योतिषी द्वारा ही की जा सकती है क्योंकि जितनी संख्या में मंगल दोष होते हैं उतनी ही उस दोष के परिहार की संभावनाएं बनती हैं। यदि वास्तव में मंगल दोष जन्मपत्री में बनता है तो अपने अनुरूप रत्न चयन करें। यह उपक्रम भी मंगल दोष के निवारण में उपयोगी सिद्ध होगा। अकसर मंगल दोष के निदान स्वरूप पुखराज अथवा मूंगा धारण करवाया जाता है। यह प्रत्येक दशा में उपयुक्त नहीं है, यह ध्यान रखें। यदि जन्मपत्री में मंगल दोष बनता है तथा गुरु से मंगल युति बनाता है अथवा उससे दृष्ट है तब तो पुखराज इस दोष के निवारण में उपयोगी होगा। गुरु यदि मंगल से षडाष्टक दोष बनाता है अथवा ऐसी राशि में स्थित है जो पंचधा मैत्री से मंगल की शत्रु है तब पुखराज पहनाना उचित नहीं है। इसी प्रकार मात्र मंगल दोष देखकर मूंगा धारण करवा देना भी सर्वथा अनुचित है। गुरु की तरह मंगल का यदि राहु से युति अथवा दृष्टि संबंध बनता है और राहु मंगल की किसी मित्र राशि में स्थित है तो गोमेद अथवा उस ग्रह का रत्न धारण करवाया जा सकता है जिस ग्रह के नक्षत्र में राहु हो। दूसरे, राहु जिस ग्रह की राशि में हो उस राशि के स्वामी ग्रह से संबंधित रत्न भी धारण करवाया जा सकता है। तीसरे, राहु के साथ जितने ग्रह स्थित हों उनमें से जो मंगल का मित्र ग्रह हो उस ग्रह का रत्न भी मंगल दोष के निवारण हेतु धारण करवाया जा सकता है। हर पल प्रयास यह रखना है कि मित्र राशि पीड़ित ग्रह से षडाष्टक दोष न बनाती हो। यदि राशि से संबंधित ग्रह का भी इस दोष में ध्यान रखा जाता है तो यह सर्वाधिक प्रभावशाली चयन सिद्ध होगा। मंगल का राहु अथवा गुरु से संबंध न हो और उसकी स्थिति मंगल दोष बना रही हो तो मंगल की राशि की मित्र राशियां देखें। ये कुंडली में मंगल की स्थिति से छठे या आठवें नहीं होनी चाहिए। इन राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न मंगल दोष का निवारण करेंगे। पूर्व की भांति यदि यह भी ध्यान रखा जाए कि संबंधित ग्रह भी मंगल से षडाष्टक दोष न बना रहे हों तो आपका चयन सर्वथा उचित होगा। नाड़ी दोष और रत्न चयन वर-कन्या की जन्मपत्रियों को विवाह हेतु मिलाना केवल एक तथाकथित जन्मपत्रिका मेलापक परंपरा का निर्वाह करना नहीं है। इसका मूल उद्देश्य है भावी दम्पति के गुण, स्वभाव, आचार-व्यवहार, प्रजनन शक्ति, विद्या तथा आर्थिक दशा का मिलान करना जिससे कि दोनों का भावी जीवन सुखमय हो। इस गुण मिलान पद्धति में निम्न बातें होती हैं- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री, भकूट तथा तथाकथित महादोष नाड़ी दोष। क्रम में एक-एक अधिक गुण माने जाते हैं अर्थात वर्ण का 1, वश्य का 2, तारा का 3, योनि का 4. ग्रह मैत्री का 5. गण मैत्री का 6. भकूट का 7 तथा नाड़ी का 8। इस प्रकार कुल 36 गुण होते हैं। इसमें कम से कम 18 गुण मिलने पर विवाह किया जा सकता है परंतु नाड़ी और भकूट गुण अवश्य होने चाहिए। इन गुणों के बिना 18 गुणों में विवाह मंगलकारी नहीं माना जाता है। यदि वर और वधू की नाड़ी एक होती है तो यह स्थिति दोनों के लिए शुभ नहीं होती है ऐसी ज्योतिष की मान्यता है। कहा तो यहां तक जाता है कि आदि, अन्त्य तथा मध्य तीन प्रकार की नाड़ियों में अंतिम नाड़ी का एक होना दोनों की मृत्यु तक का कारण बनता है। इसीलिए नाड़ी का विवाह मेलापक सारिणी में न मिलना लोगों को भयभीत किए हुए है। यदि विवाह हो गया है और दोनों की नाड़ी एक है और आप इससे भयभीत हैं तो रत्नों का प्रयोग करके अपने भय को दूर कर सकते हैं। लड़का और लड़की यदि अश्विनी, आद्र्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों में से किसी एक में जन्म लेते हैं तो यह आदि नाड़ी कहलाती है। भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपद में से किसी एक में दोनों जन्म लेते हैं तो यह मध्य नाड़ी है। कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण अथवा रेवती में दोनों के जन्म लेने पर अन्त्य नाड़ी होती है। लड़के-लड़की दोनों का जन्म यदि एक नक्षत्र में होता है, परंतु उनके चरण भिन्न हैं अर्थात मान लें कि लड़का रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुआ है और लड़की तीसरे चरण में, तब यहां नाड़ी दोष नहीं होगा तथा इस प्रयोजन हेतु रत्न धारण कराने की भी आवश्यकता नहीं है। परंतु यदि लड़का-लड़की एक नक्षत्र के एक ही चरण में जन्मे हैं तो यह नाड़ी दोष का कारण है। यहां आप निम्न प्रकार से रत्न प्रयोग कर सकते हैं, यह उपक्रम नाड़ी दोष निदान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। दोनों के नक्षत्र स्वामी ग्रहों की बलाबल स्थिति क्या है? यहां तीन विकल्प हो सकते हैं। दोनों ग्रह बलवान हों। दोनो ग्रह बलहीन हों। एक बलवान हो तथा दूसरा बलहीन। यदि दोनों ग्रह बलवान हैं तो आप उन से संबंधित रत्न, उपरत्न अथवा दोनों का प्रयोग कर सकते हैं। मान लें कि दोनों का जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के द्वितीय चरण में हुआ है। ज्येष्ठा का स्वामी ग्रह है बुध। इसलिए यहां लड़का-लड़की दोनों को आप पन्ना अथवा उसका कोई उपरत्न धारण करवा सकते हैं। यदि नक्षत्र स्वामी ग्रह लड़के-लड़की दोनों की जन्मपत्रियों में क्षीण हैं तो दोनों की जन्मपत्रिकाओं में पंचधा मैत्री से उन ग्रहों के मित्र तथा अधिमित्र ग्रह देख लें। दोनों में से जिसके भी नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे ग्रह छठे अथवा आठवें भाव में स्थित हों तो वे ग्रह छोड़ दें। शेष ग्रह के रत्न लड़के तथा लड़की को धारण करना दीर्घायु प्रदान करने वाला तथा सुख-समृद्धि दाता सिद्ध होगा। तीसरी स्थिति में लड़के तथा लड़की के नक्षत्र के स्वामी ग्रह जन्मपत्री में बलवान तथा बलहीन हो सकते हैं। जिसकी पत्री में जो ग्रह बलवान हों उनसे संबंधित रत्न उसे धारण करवा सकते हैं। दोनों में से जिसके ग्रह बलहीन हों उनके पंचधा मैत्री से मित्र ग्रह देखकर यह पता कर लें कि उनमें से उसके नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे षडाष्टक दोष तो नहीं बना रहे हैं। यदि नहीं तो उन ग्रह के रत्न आप उसे धारण करवा सकते हैं। मारकेश, मृत्युभय एवं रत्न चयन राजा हो अथवा रंक - मृत्युभय से कोई भी अछूता नहीं है। मृत्यु आनी है तो फिर त्रिदेव भी उसे टाल नहीं सकते। यदि इस पर विजय प्राप्त हो गई होती तो कुबेरपति अथवा धनपति कभी मरते ही नहीं। क्या है यह भयभीत करने वाला मारकेश? ज्योतिष में वे कौन-कौन से अरिष्टकारी योग बनते हैं जो मारण करते हैं अथवा मरण तुल्य कष्ट देते हैं? ये पूर्णतया ज्योतिष शास्त्र के विषय हैं। संक्षिप्त में यह जान लें कि मृत्यु का निर्णय करने के लिए मारक का ज्ञान करना आवश्यक है। तदनुसार ही रत्नादि चयन करना उचित है। ज्योतिष में लग्नेश, षष्ठेश, अष्टमेश, गुरु तथा शनि से मारकेश का विचार होता है। अष्टमेश बलवान होकर यदि पहले, चैथे, छठे, दसवें अथवा 12वें भाव में हो तो मारक बन जाता है। पूर्व की भांति ऐसे में अष्टमेश के मित्र ग्रहों को पंचधा मैत्री सूची से ज्ञात कर लें। यह देख लें कि जहां अष्टमेश स्थित है वे ग्रह उससे षष्ठम-अष्टम भावगत न हों, न ही उनकी राशि इन भावों में पड़ती हो। उन ग्रहों के रत्न आप मारकेश के प्रभाव को कम करने के लिए धारण कर सकते हैं। यहां विशेष रूप से यह ध्यान रखें कि अन्य किसी विधि से यदि बलवान अष्टमेश का रत्न निकल रहा हो तो वह कदापि धारण न करें अन्यथा वह प्रबल मारकेश बन जाएगा। मारक ग्रह का प्रभाव अष्टमेश ग्रह की अंतर्दशा में प्रभावी होता है, इसलिए उस दशा में यत्न करके वह रत्न अवश्य जुटा लें। शनि षष्ठेश तथा अष्टमेश होकर यदि लग्नेश को देखता है तो लग्नेश ही मारक हो जाता है। ऐसी स्थिति में लग्नेश को, यदि वह बली है, उसके रत्न से बलवान करना होगा। परंतु यदि लग्नेश ऐसे में बली नहीं है तो पूर्व की भांति उसके मित्र ग्रहों में जो बलवान ग्रह हो तथा लग्नेश से छठे या आठवें भी न हो तो संबंधित रत्न धारण करवाना बुद्धिमानी होगी। पराशर के मत से जन्मकुंडली में द्वितीय और सप्तम भाव मारकेश हैं तथा इन दोनों के स्वामी - द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय और सप्तम में रहने वाले पाप ग्रह एवं द्वितीयेश और सप्तमेश के साथ रहने वाले पाप ग्रह-मारकेश हो जाते हैं जैसा कि पूर्व में लिखा है। पाप ग्रह मारकेश यदि बली है तब उसके रत्न-उपरत्न अथवा रोगादि से सर्वथा बचें। अन्यथा यह प्रबल मारकेश बन जाते हैं। यहां उनके मित्र ग्रहों के रत्न पूर्व की भांति ही प्रयोग करने चाहिए। शनि मारकेश से भी दो हाथ आगे है, इसीलिए सब इससे भयभीत रहते हैं। प्रबल मारक शनि का रत्न, छल्ला, कड़ा आदि ऐसे में कदापि प्रयोग न करें। सुरक्षा की दृष्टि से शनि के मित्र ग्रहों में से पूर्व की भांति छांटकर उनके रत्न, रंग आदि चयन करें। द्वादशेश पापग्रह हो तो मारक बन जाता है। पापग्रह षष्ठेश हो अथवा पाप राशि में षष्ठेश स्थित हो या पापग्रह से दृष्ट हो तो षष्ठेश की दशा मारक हो जाती है। मारकेश की दशा में षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश की अंतर्दशा भी मारक होती है। मारकेश यदि अधिक बलवान है तो उसकी ही दशा अथवा अंतर्दशा में मरण अथवा मरण तुल्य कष्ट होता है। राहु-केतु पहले, सातवें, आठवें अथवा 12वें भाव में हांे अथवा मारकेश से सातवें भाव में हों अथवा मारकेश के साथ हों तो मारक बन जाते हैं। मकर और वृश्चिक लग्न वालों के लिए राहु मारक बन जाता है। शनि का भूत और रत्न चयन जातक ग्रंथों में शनि की साढ़े साती और ढइया का अलग-अलग तरीके से वर्णन है। इसकी गणना चलित नाम से, लग्न से, चंद्र से तथा सूर्य से की जाती है। एक व्यक्ति के जीवन में अधिक से अधिक साढ़े 22 वर्ष साढ़े साती में निकल जाते हैं। कहते हैं साढ़े साती में जातक उन्नति नहीं कर पाता और उसे दुख, कलह तथा बीमारी आदि निरंतर घेरे रहते हैं। यदि शनि उच्च का हो और उसकी साढ़े साती प्रारंभ हो जाए तो व्यक्ति चहुदिश हानि प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतः शनि की साढ़े साती का विचार जन्मपत्री में चंद्रमा की स्थिति से किया जाता है। गोचरवश भ्रमण करता हुआ शनि जब चंद्रमा से द्वादश भाव में प्रवेश करता है तो यह शनि की साढ़े साती का प्रारंभ कहलाता है। चंद्रमा से तीसरी राशि को जब शनि पार करता है तो साढ़े साती का अंत माना जाता है। इस प्रकार हर राशि पर ढाई-ढाई वर्ष भ्रमण करता हुआ चंद्र की राशि सहित उसके आगे और पीछे स्थित रहता है। चंद्रमा से चैथी तथा आठवीं राशियों में जब शनि गोचरवश ढाई-ढाई वर्ष स्थित रहता है तो यह शनि की ढइया कहलाती है। शनि के इन गोचरवश स्थित स्थानों को लोगों ने शनि का भूत, शनि का प्रकोप, दारिद्र्य और आरोग्य से जोड़कर एक अज्ञात भय बैठा दिया है। यह उचित नहीं है। शनि के तथाकथित इन दिनों में सामान्यतः शनि का रत्न नीलम, उपरत्न, लोहे का छल्ला अथवा कड़ा पहनने का चलन है। यह चयन ठीक है परंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए नहीं। सदैव ध्यान रखें कि यम-नियम प्रत्येक व्यक्ति पर सटीक बैठें, यह आवश्यक नहीं है। किसी भी रूप में निदान के समय सामान्य नियमों के स्थान पर व्यक्ति विशेष के अनुरूप नियम खोज करके ही आगे बढ़ना चाहिए। साढ़े साती में रत्न धारण करवाते समय ध्यान रखें कि धारण किए गए रत्न का कैसा भी संबंध उसके गोचर भाव से छठे अथवा आठवें से न हो। भाग्य प्रदायक दिशा एवं रत्न चयन यदि आपको अपना जन्म लग्न ज्ञात है तब तो ठीक है अन्यथा अपने नाम के प्रथम अक्षर की राशि को लग्न मानकर लग्न कुंडली तैयार करें। मान लें आपका नाम राम है और आपकी नाम राशि तुला बनती है। कुंडली में आप देखिए कि दूसरे, नौवें तथा ग्यारहवें भावों में कौन-कौन सी राशियां हैं और वे राशियां किन-किन दिशाओं अथवा विदिशाओं की सूचक हैं। उदाहरण के लिए इन भावों में क्रमशः वृश्चिक, मिथुन तथा सिंह राशियां हैं और वह उत्तर, पश्चिम तथा पूर्व दिशाओं की कारक हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने वर्तमान स्थान से यदि आप इन दिशा-विदिशाओं में पड़ने वाले गांव, शहर आदि में प्रवास करते हैं तो आपके भाग्य में उत्तरोत्तर उन्नति की संभावना बढ़ सकती है। यह बात अवश्य ध्यान में रखें कि यह चयन बहुत ही साधारण सा सूत्र है, शुभ फल की प्राप्ति के लिए अन्य ज्योतिषीय घटकों का आपके लिए अनुकूल होना भी परमावश्यक है। लाभ देने वाले घटकों में एक विकल्प उचित रत्न चयन भी हो सकता है। इन राशियों के रत्न, उपरत्नादि यदि परस्पर मित्र हैं तो आपके लिए भाग्यशाली सिद्ध हो सकते हैं। यदि तीन रत्नों का संयोग न मिल पाए तो यह देखें कि कौन से दो रत्न परस्पर मित्र हैं। यदि यह संयोग भी नहीं मिल रहा है तो आप राशियों के अन्य मित्र राशियों के रत्न चयन करें। अन्य मित्र राशियों का चयन करते समय षडाष्टक दोष का ध्यान अवश्य रखें अर्थात वे राशियां छठे, आठवें भाव में परस्पर न हों।

गर्भपात का ज्योतिषीय कारण

विवाह के बाद संतान का ना होना कष्ट देने वाला होता है उसमें भी यदि संतान सुख में बाधा गर्भपात का हो तो मानसिक संत्रास बहुत ज्यादा हो जाती है। कई बार चिकित्सकीय परामर्ष अनुसार उपाय भी कारगर साबित नहीं होते हैं किंतु ज्योतिष विद्या से संतान सुख में बाधा गर्भपात का कारण ज्ञात किया जा सकता है तथा उस बाधा से निजात पाने हेतु ज्योतिषीय उपाय लाभप्रद होता है। सूर्य, शनि और राहु पृथकताकारक प्रवृत्ति के होते हैं। मंगल में हिंसक गुण होता है, इसलिए मंगल को विद्यटनकारक ग्रह माना जाता है। यदि सूर्य, शनि या राहु में से किसी एक या एक से अधिक ग्रहों का पंचम या पंचमेष पर पूरा प्रभाव हो तो गर्भपात की संभावना बनती है। इसके साथ यदि मंगल पंचम भाव, पंचमेष या बृहस्पति से युक्त या दृष्ट हो तो गर्भपात का होना दिखाई देता है। आषुतोष भगवान षिव मनुष्यों की सभी कामनाएॅ पूर्ण करते हैं अतः संतानसुख हेतु पार्थिवलिंगार्चन और रूद्राभिषेक से संतान संबंधी बाधा दूर होती है।

प्रकृति एवं ज्योतिष

न केवल भारतीय सनातन परम्परा में बल्कि शिव की अन्य संस्कृतियों में भी ‘आदि-मिथुन’ की कल्पना की गई है। चाहे वह पाश्चात्य संस्कृति में उपलब्ध एडम और ईव हों अथवा स्वयम्भुवन् मनु और सद्रूपा। मानव जाति को स्त्री-पुरुष द्वन्द्वात्मक स्वरूप में ही स्वीकृत किया गया है। मानव जाति और सभ्यता के लाखों वर्षों के विकासक्रम में स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य प्रकृति भी अस्तित्व में आ गई है। यह प्रकृति स्त्री और पुरुष के मध्य की है और अपने हाव-भाव, व्यवहार, चिंतन, पसंद-नापसंद के आधार पर इन्होंने समाज में अपना एक अलग स्थान निश्चित कर लिया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में स्त्री जातक-पुरुष जातक के अतिरिक्त इस विशिष्ट प्रकृति से संबंधित विषयों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। न केवल भारतीय सनातन परम्परा में बल्कि शिव की अन्य संस्कृतियों में भी ‘आदि-मिथुन’ की कल्पना की गई है। चाहे वह पाश्चात्य संस्कृति में उपलब्ध एडम और ईव हों अथवा स्वयम्भुवन् मनु और सद्रूपा। मानव जाति को स्त्री-पुरुष द्वन्द्वात्मक स्वरूप में ही स्वीकृत किया गया है। मानव जाति और सभ्यता के लाखों वर्षों के विकासक्रम में स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य प्रकृति भी अस्तित्व में आ गई है। यह प्रकृति स्त्री और पुरुष के मध्य की है और अपने हाव-भाव, व्यवहार, चिंतन, पसंद-नापसंद के आधार पर इन्होंने समाज में अपना एक अलग स्थान निश्चित कर लिया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में स्त्री जातक-पुरुष जातक के अतिरिक्त इस विशिष्ट प्रकृति से संबंधित विषयों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। यह सृष्टि द्वन्द्वात्मक है। स्त्री और पुरुष का विपरीत लिंगियों के प्रति आकर्षण सनातन और अनादि काल से होता रहा है और इसे प्राचीन समाजशास्त्री ऋषि मुनियों और आधुनिक संविधान और कानून द्वारा भी मान्यता प्रदान की गई है। परंतु जब इस सनातन व्यवस्था का अतिक्रमण कर पुरुष का पुरुष के प्रति और स्त्री का स्त्री के प्रति आकर्षण और यौन संबंध आदि अस्तित्व में आ जाए तो इसकी वैधता और अवैधता का निर्धारण करने वाले कानूनविदों, न्यायालयों और कानून निर्माताओं के लिए अत्यंत ही असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। परिवार के किसी प्रिय व्यक्ति के इस स्थिति में आने पर स्थिति और भी अधिक सोचनीय हो जाती है। कारण - आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार गर्भ के तृतीयामास से ही भ्रूण के लिंग निर्धारण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है और यौवनारंभ की कालावधि में हाॅर्मोनों के प्रभाव से पुरुष या स्त्री विषयक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन अस्तित्व में आते हैं। स्त्री तथा पुरुष हाॅर्मोन्स का आधिक्य और पुरुष शरीर में स्त्री हाॅर्मोन का आधिक्य ही ऐसी असहज स्थिति उत्पन्न करता है और तृतीय प्रकृति अस्तित्व में आती है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में ही स्पष्ट रूप से इस विषय पर चर्चा की गई है और कहा गया है कि गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष की जैसी मनोभावना, उत्कट इच्छाएं, गर्व, कामातुरता, कफ-वात आदि की मात्र रहती है, वैसे ही गुण गर्भस्थ शिशु में भी आ जाते हैं जातक की शारीरिक और मानसिक दशा का निर्धारण उसके देश, जाति, कुल, पूर्वज आदि के द्वारा ही निर्धारित होता है। जहां तक जातक के शरीर की बनावट का प्रश्न है तो लग्न में स्थित नवांश राशि से शरीर की बनावट प्रभावित होती है। इसी प्रकार सूर्य जिस ग्रह के त्रिशांश में स्थित हो उसी ग्रह के रूप, गुण, शील व प्रकृति का जातक पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने ग्रंथों में स्त्री-पुरुष के साथ ही साथ ‘नपुंसक’ के लिए भी विशेष रूप से विचार किया है। इन ग्रंथों में नपुंसकों के अधिपति के रूप में बुध व शनि को स्वीकृत किया गया है। जन्मकालीन ग्रह स्थिति, यौवनारम्भ की कालावधि में हाॅर्मोन्स का असंतुलन, सान्न्ािध्य आदि ऐसे अनेक महत्वपूर्ण अवयव हैं, जिससे मनुष्य की ंिचंतनशैली प्रभावित होती है। इन कारणों के अतिरिक्त कभी-कभी दुर्घटनावश, चिकत्सकीय आवश्यकताओं, दुर्भावनावश या स्वेच्छा से ही पुरुष जातक का लिंगच्छेद भी होता देखा गया है। यहां कुछ ऐसे ही ज्योतिषशास्त्रीय योगों की चर्चा की गई है, जिनके जन्मांग में उपस्थिति के कारण ‘तृतीया प्रकृति’ और उनसे संबंधित हाव-भाव और शारीरिक व्यवहार अस्तित्व में आते हैं- ज्योतिषशास्त्रीय योग - बलवान सूर्य व चन्द्रमा विषम राशियों में हों तथा परस्पर दृष्टि रखते हों। बलवान बुध शनि विषम राशियों में परस्पर राशि में चंद्रमा व सूर्य लग्न में हों तथा उन्हें मंगल देखता हो। विषम राशि में बुध, सम राशि में चंद्रमा हों तथा दोनों को मंगल देखता हो। विषम राशि व विषम नवांश में लग्न, चंद्रमा व बुध हों तथा उन पर शुक्र शनि की दृष्टि हो, सूर्य, बुध तथा शनि एक साथ हों। चंद्र, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि साथ हों। सिंहस्थ सूर्य शनि द्वारा दृष्ट हों। कन्या राशि में सूर्य हो तो स्त्रीवत शरीर वाला। मकर या कुंभ राशि के सूर्य पर बुध की दृष्टि हो। मिथुन राशि में चंद्रमा हो तो नपुंसकों का मित्र। कर्क नवांशगत चंद्रमा शुक्र द्वारा दृष्ट हो। बुध मकर या कंुभ राशि में स्थित हो। सिंहस्थ बुध को मंगल देखता हो। कन्या राशि में शनि हो। वृष या तुलागत शनि को बुध देखे। मिथुन व कन्या राशि में शनि का त्रिशांश हो तो कन्या नपुंसक। सिंह राशि में बुध का त्रिशांश हो तो पुरुष के समान व्यवहार करने वाली। बुध, शुक्र, चंद्र निर्बल हों, शनि मध्यबली व शेष पुरुष ग्रह बली हो तो स्त्री का आचरण पुरुषवत् होता है। दशम भाव में अथवा अष्टम भाव में शुक्र और शनि की युति हो तथा शुभ ग्रह से अदृष्ट हों। शनि जलराशिस्थ होकर षष्ठ या द्वादश भाव में शुभ दृष्टि से रहित होकर स्थित हों। कारकांश लग्न में केतु स्थित होकर शनि और बुध से दृष्ट हो। षष्ठ या अष्टम भाव में नीचराशि का शनि हो। नपुंसक ग्रहों की राशि लग्न में हो तथा नपुंसक ग्रह राशि का नवांश भी हो। सप्तम, दशम, चतुर्थ में नपुंसक ग्रह हों। शुक्र से युक्त शनि दशम भाव में या शुक्र से षष्ठ या व्यय भाव में जलचर राशिस्थ शनि हो। सप्तमेश पाप ग्रहों के साथ नीच राशि में अस्त हो या छठे या आठवें भाव में हो या पाप ग्रहों से युक्त होकर सप्तम भाव में हो। सप्तम भाव में निर्बल क्रूर ग्रह या शुभ ग्रह हो तथा सप्तमेश अष्टम में या दूसरे ग्रह के नवांश में हो। निर्बल लग्नेश नीच राशि में नीच राशिस्थ ग्रह से दृष्ट हो व सप्तमेश छठे भाव में अस्त हो। प्रथम, द्वि तीय, तृतीय तथा चतुर्थ भावों में शुभ ग्रह व पाप ग्रह हों और सप्तमेश सप्तम में पाप ग्रह के साथ हों। शुक्र के नवांश में शनि और शनि के नवांश में शुक्र हो और दोनों में परस्पर दृष्टि संबंध बन रहा हो। लग्न में वृष, तुला या कुंभ राशि का नवमांश हो। षष्ठेश और बुध, राहु या केतु के साथ लग्न में स्थित हो तो लिंगच्छेद। सप्तमेश और शुक्र संयुक्त होकर छठे भाव में स्थित हो तो स्त्री नपुंसक (षण्ढा)। षष्ठ भाव का स्वामी बुध और राहु के साथ युत हो और लग्नेश के संबंध हो। षष्ठेश लग्न में बुध की राशि का हो तथा लग्नेश बुध स्वयं की राशि में हो तो स्त्री नपुंसक। इसी योग में यदि शनि तथा बुध भी साथ हों तो पुरुष नपुंसक होता है। लग्नेश बुध से युक्त होकर चंद्रमा लग्न में बैठा हो। लग्न एवं चंद्रमा दोनों ही पुरुष राशियों में हों तथा इन्हीं राशियों के नवांश भी हों तथा लग्न, चंद्र पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो स्त्री का शरीर, रूप, स्वभाव, पुरुषाकार। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध तथा शुक्र साथ हों तो नपुंसकों से मित्रता रखने वाला। सिंहस्थ चंद्रमा पर बुध की दृष्टि हो तो स्त्री के समान हाव-भाव दिखाने वाला होगा। निराकरण - जन्मांक में उपरोक्त योगों की उपस्थिति यदि अधिक मात्रा में हो तो जातक के बाल्यावस्था (3-4 वर्ष) में ही ज्योतिषशास्त्रीय उपाय करा लेने चाहिए। इन योगों के निर्धारक ग्रहों से संबंधित मंत्रों का शास्त्रीय अनुष्ठान भी इस दृष्टि से अनुकूल प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। यौवनारम्भ के दिनों में चिकित्सकों से परामर्श तथा जीवनशैली, रहन-सहन आदि पर नियंत्रण द्वारा भी इस असहज स्थिति से बचा जा सकता है।

बेहतर करियर के लिए कुंडली में शनि को बनाए प्रबल

शनि को ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील माना जाता है अर्थात् शनि सृष्टि के संतुलन चक्र का नियामक है। क्योंकि बैलेंस शनि का मुख्य गुण है इसलिए यह बैलेंस की कारक राशि तुला में अतिप्रसन्न अर्थात् उच्चराशिस्थ होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में अधिक संतुलन, सुरक्षा व स्थिरता अर्थात् जाॅब सैक्यूरिटी आदि देने में समर्थ होते हैं। इसे न्याय का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य को उसकी गलतियों और पाप कर्मों के लिए दण्डित करके मानवता की रक्षा करता है और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया को स्थिरता पूर्वक गति देता रहता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में करियर के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के सभी शुभ योग विद्यमान हों तो यह सही है कि जातक अपने करियर में ऊंचा उठेगा लेकिन उन्नति प्राप्त होने का उसका मार्ग सरल होगा या कठिनाइयों से भरा हुआ होगा इसका सूक्ष्म विष्लेषण करने हेतु कुंडली में शनि की स्थिति का अध्ययन करना होगा। यदि कुंडली में शनि की स्थिति उत्तम हो, यह 3, 6, 10 या 11वें भाव में स्थित हो, नीचराषिस्थ व पीड़ित न हो तो आसानी से सफलता मिलेगी। नीचराषिस्थ होने की स्थिति में पूर्ण नीचभंग हो रहा हो तो भी सफलता मिल सकती है। परंतु यदि शनि का नीचभंग नहीं हुआ या शनि शत्रुराषिस्थ व पीड़ित होकर अषुभ भाव में स्थित हुआ तो जातक की सफलता पर प्रष्न चिह्न लग जाएगा तथा विषेष योग्यता संपन्न होने के बावजूद भी उसे जीवन में कठिनाइयों व संघर्ष से जूझना पड़ेगा तथा वह साधारण जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएगा। शनि हमें यथार्थवादी बनाकर हमारी वास्तविक शक्तियों व योग्यताओं से अवगत करवाता है तथा हमें एकान्तप्रिय होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करवाता है अर्थात् हमें थ्वबनेमक रखता है। कालपुरुष के अनुसार शनि को व्यवसाय के कारक दशम भाव का स्वामी माना जाता है। हमारे जीवन में स्थिरता व संतुलन का विचार दशम भाव से भी किया जाता है क्योंकि दशम भाव व्यवसाय का घर होता है और जितना हम व्यावसायिक स्तर पर सफल होते हैं उतनी ही श्रेष्ठ सफलता हमें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्राप्त होती है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं संतुलन अर्थात् बैलेंस के कारक शनि की राशि का व्यवसाय के भाव में होना उचित ही है। ग्रहों में शनि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि यह ग्रह बलवान होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता जातक के कदम चूमती है। शनि की विशेष उत्तम स्थिति से जातक को बहुत से नौकर-चाकर, उच्च पद्वी, सत्ता व धन सम्पदा आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। शनि को सत्ता का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि राजनीति, कूटनीति, मंत्रीपद सभी इसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यदि कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो यह कालपुरुष की दशम राशि मकर को दशम दृष्टि से देखकर न केवल व्यावसायिक जीवन में सफलता की गारंटी देता है अपितु अपनी लग्नस्थ स्थिति के कारण जातक को कुशल विचारक व योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की योग्यता भी देता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, तांत्रिकों व ज्योतिषियों की कुंडली में शनि की इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। यदि लग्नस्थ शनि नीच का भी हो तो भी व्यावसायिक जीवन में स्थिरता व अधिकार प्राप्ति का कारक बनता है क्योंकि वह दशम दृष्टि से अपनी राशि को देखता है और कालपुरुष के अनुसार भी दशम भाव में इसकी मकर राशि ही होती है जिसे व्यवसाय की कारक राशि माना जाता है। लग्नस्थ शनि सभी लग्नों के लिए श्रेष्ठ है यद्यपि चर लग्न के लिए शनि की लग्नस्थ स्थिति अधिक उत्तम मानी जाएगी क्योंकि चर लग्नों के जातकों में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होती है जबकि शनि का गुण धैर्य व स्थिरितापूर्वक एकाग्रचित्त होकर कार्य सम्पादन करना है। इसलिए इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण जातक को श्रेष्ठस्तरीय सफलता का सूत्र व मार्ग स्पष्ट कर देता है। यदि कर्क लग्न के शनि का विचार करें तो यह सामान्य रूप से प्रबल अकारक होता है लेकिन शुभ भाव लग्न में बैठकर यह न केवल अष्टमेश का शुभ फल देकर दीर्घायु बनाता है अपितु जातक को रिसर्च ओरिएंटड, गुप्त व कूटनीतिक योग्यताओं से सम्पन्न भी कर देता है। कर्क लग्न की अपनी यह विशेषता होती है कि इससे प्रभावित जातकों का शरीर, मन और आत्मा एकात्म समन्वित होते हैं। लग्न से शरीर व आत्मा का विचार तो होता ही है साथ ही मन की राशि कर्क के लग्न में आ जाने से चंद्रमा का प्रभाव भी लग्न में आ जाएगा क्योंकि यह लग्नेश होगा इसलिए ऐसी कुंडली में लग्नस्थ शनि शरीर, मन व आत्मा तीनों को प्रभावित करेगा अर्थात् मानव को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले ग्रह शनि का प्रभाव आपके जीवन के हर पक्ष पर सीधे रूप से पड़ेगा और फलस्वरूप आप सर्वाधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होंगे तथा राजनीति के गलियारों में आपकी कुशलता का विशेष डंका बजेगा। तुला लग्न की पत्री में लग्नस्थ शनि उच्चराशिस्थ होकर चतुर्थेश व पंचमेश होकर आपको शश योग से समन्वित करके परम भाग्यशाली बना देगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में आप सफल होंगे। ऐसा भी संभव है कि आप योग, अध्यात्म, वैराग्य, दर्शन, त्याग आदि की कठिनतम रहस्यमयी आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करके संसार को चमत्कृत कर दें अथवा कोई बड़े वैज्ञानिक बनें। मकर राशि की कुंडली में लग्नेश शनि अपार धन सम्पदा से सम्पन्न बड़ा व्यापारी तो बना ही देगा साथ ही आपकी एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति को भी सुदृढ़ करेगा। अधिकतर ऐसा देखा गया है कि दशम भावस्थ शनि चाहे किसी भी राशि का हो, जातक के जीवन में व्यावसायिक स्थिरता बनी रहती है। यदि ऐसा शनि नीच का हो तो भी जातक का कार्य चलता रहता है। नीच राशि का शनि अक्सर ज्योतिष कार्यों से या अन्य परामर्श संबंधी कार्यों से लाभान्वित कराता है। शनि का दशम भाव से संबंध होने से लोहे का व्यापार तथा तिल, तेल, खनिज पदार्थ, पेट्रोल, शराब आदि के क्रय-विक्रय से, ठेकेदारी से, दण्डाधिकारी, सरपंच अथवा मंत्री पद आदि से लाभान्वित करवा सकता है। जब शनि गोचर में उच्चराशिस्थ होता है तो समाज, देश व संसार में जगह-जगह पर न्याय व्यवस्था के समुचित रूप से स्थापित किए जाने की आवाजें उठने लगती हैं। ऐसा 30 वर्ष में एक बार होता है और ऐसे में शनि समाज में फैली अव्यवस्थाओं और अन्याय को नियंत्रित करता ही है। मानव के स्वभाव, भाग्य व जीवन चक्र का नियमन चंद्र की गति, नक्षत्र व चंद्र पर अन्य ग्रहों के प्रभाव द्वारा होता है इसलिए जातक की मानसिकता, मनः स्थिति, ग्रह दशा के क्रम व गोचर का विचार भी चंद्रमा को केंद्र में रखकर ही किया जाता है। कुंडली में सत्ता की प्राप्ति के प्रबल कारक शनि का गोचर में चंद्रमा के निकट आना जीवन में जिम्मेदारियों के बढ़ने तथा सत्ता प्राप्ति का सबब बनते देखा गया है। इसे साढ़ेसाती भी कहते हैं। कुंडली में शनि की खराब स्थिति तथा साढ़ेसाती में अशुभ भाव व राशि में वक्री या अस्त होकर गोचर करना करियर में जबर्दस्त नुकसान देता है, नौकरी छूट जाती है, राजनीति में हार तथा व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। वहीं कुंडली में शनि की शुभ स्थिति हो तथा अच्छे राजयोग बन रहे हों तो ऐसे में साढ़ेसाती के समय शनि का शुभ भाव व राशि में गोचर करियर में श्रेष्ठतम सफलता प्रदान करता है। जितनी श्रेष्ठ कुंडली होगी उतनी ही ऊंची सफलता सुनिश्चित हो जाएगी। श्रेष्ठतम कुंडली में शुभ साढ़ेसाती सत्ता का सुख देती है। चाहे ग्रह योग व साढ़ेसाती का सूक्ष्म निरीक्षण कितना ही शुभ फलदायी प्रतीत होता हो परंतु जातक को साढ़ेसाती के समय व्यापार में जोखिम नहीं उठाना चाहिए। शनि की साढ़ेसाती आपको अपने व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है साथ ही आपको जोखिम उठाने के लिए मना करती है। आपके लिए ऐसी कठिनाइयां भी उत्पन्न करती है जिससे आप अपनी गलतियों से सीखें। यह तकलीफें देकर आपको न केवल एक अच्छा इंसान बना देती है अपितु करियर को भी समुचित दिशा प्रदान करती है। जब कुंडली में शनि की स्थिति श्रेष्ठ हो, धन व लाभ भाव के स्वामी विशेष बली हों तथा गुरु व बुध भी उत्तम स्थिति में हों और गोचरस्थ शनि चंद्रमा से तृतीय, षष्ठ व एकादश भावों में शुभ राशि व शुभ ग्रहों के ऊपर से गोचर कर रहा हो तो वह समय व्यापारिक क्षेत्र में उन्नति के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। इस समय यदि शुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा भी चल रही हो तो जोखिम भी उठाए जा सकते हैं क्योंकि सफलता तय है। जिस समय दशम भाव, दशमेश व दशम के कारक पर शनि व गुरु दोनों का गोचरीय प्रभाव आ रहा हो और यह गोचर चंद्रमा से शुभ हो व शुभ राशि में भी हो तो करियर में उन्नति निश्चित रूप से होती है। यदि शनि मेष या वृश्चिक राशि में हो या मंगल से दृष्ट हो तो जातक मशीनरी, फैक्ट्री, धातु, इंजीनियरिंग, इंटीरियर या बिजली संबंधी कार्यों, केंद्रीय सरकार, कृषि विभाग, खान, खनिज या वास्तुकला विभाग में कार्य करता है। यदि इस ग्रह योग पर गुरु व शुक्र का भी प्रभाव हो तो ऐसा जातक न केवल धन लाभ अर्जित करता है अपितु उसे भूमि व सम्पति का लाभ भी प्राप्त होता है। यदि शनि वृष या तुला राशि में हो अथवा इस पर शुक्र की दृष्टि हो तो कला, प्रबंधन, कम्प्यूटर के व्यवसाय से लाभ उठाता है। यदि गुरु व बुध का शुभ प्रभाव भी इस ग्रह योग पर पड़ता हो तो कानूनविद्, वकील, न्यायाधीश आदि के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। शनि और शुक्र मित्र हैं इसलिए शनि पर शुक्र का यह प्रभाव सौभाग्यवर्धक माना जाता है। शनि से गुरु, शुक्र व बुध की शुभ स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आय लाभ नियमित रूप से होता रहता है। ऐसे जातक अपने व्यवसाय में विशेष सुखी होते हैं। उनके पास धन, वाहन और भवन सभी मौजूद रहते हैं। शनि मिथुन या कन्या में हो अथवा बुध से दृष्ट हो तो ऐसे जातक एकाउंटिंग, काॅस्टिंग, अभिनय, बुद्धिजीवी वाले कार्यों, व्यापार, वितत्य सौदों, विज्ञान व वाकपटुता आदि के अतिरिक्त लेखन कला व कानून संबंधी कार्यों से धन लाभ प्राप्त करते हैं। यदि गुरु व शुक्र का भी प्रभाव रहे तो धन कमाना सरल होने लगता है। ऐसे जातक को मित्रों से भी सहयोग मिलता है। शनि कर्क राशि में हो या चंद्रमा से दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति कला, ज्योतिष, राजनीति, धर्म, यात्रा, पेय पदार्थ, साहित्य, जल, मदिरा आदि के कार्यों से लाभ उठाते हैं। ऐसे लेगों के करियर में बार-बार परिवर्तन होते हैं। करियर में यात्राएं भी खूब होती हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं कि ऐसे लोग कठिन परिश्रम वाले कार्यों में संलग्न होना चाहें। ऐसे लोग अधिकतर शांत व नरम स्वभाव के होते हैं। शनि सिंह राशि में हो अथवा सूर्य से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को सरकारी नौकरी या सत्ताधारी लेागों से लाभ मिलता है। इसका यह भी संकेत निकाल सकते हैं कि पिता पुत्र का व्यापार या साझेदारी आदि में संबंध है। इसके कारण सरकारी नौकरी व राजनीति से लाभ मिलता है। शनि सूर्य की शत्रुता के चलते कुछ संघर्ष के पश्चात् सफलता मिलती है। इसलिए यदि गुरु, शुक्र व बुध आदि ग्रहों का शनि पर प्रभाव न हो तो व्यावसायिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि गुरु, शुक्र, बुध व बलवान चंद्रमा का प्रभाव आ जाए तो जातक को विशेष प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। यदि शनि धनु या मीन राशि म हो या गुरु से दृष्ट हो तो जातक को कानून, वन विभाग, लकड़ी या धार्मिक संस्थाओं आदि में विशेष सफलता मिलती है। यह ग्रह योग जातक को मनोविज्ञान, गुप्त ज्ञान (पराविद्या), प्रशासनिक कार्य, प्रबंधन कार्य, शिक्षक, अन्वेषक, वैज्ञानिक, ज्योतिषी, मार्गदर्शक, वकील, इतिहासकार, चिकित्सक, धर्मोपदेशक आदि के रूप में प्रतिष्ठित कराता है। ऐसे जातक में वाद-विवाद करने का विशेष चातुर्य होता है व व्यक्तित्व विशेष आकर्षक होता है। इनके बहुत से मित्र होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। ऐसा ग्रह योग स्वतंत्र व्यवसाय या रोजगार की प्राप्ति करवाता है। शनि मकर या कुंभ राशि में हो तो जातक को सेवा, यात्रा, जन आंदोलन, विक्रय कार्य अथवा लायजनिंग संबंधी कार्यों से लाभ होता है। शनि विदेशी भाषा का कारक है इसलिए विद्या व भाषा पर अधिकार देने वाले ग्रहों जैसे शुक्र, गुरु, बुध व केतु से इसका शुभ संबंध और स्थिति जातक को अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का विद्वान बनाती है। शनि के ऊपर, गुरु, बुध, केतु इन सभी का प्रभाव पड़े तो मशहूर वकील बने। शनि पर केवल राहु का प्रभाव हो तो जातक छोटी नौकरी से गुजर बसर करता है परंतु यदि राहु के साथ-साथ गुरु, शुक्र का भी प्रभाव हो तो प्रारंभ में नौकरी करने के पश्चात् जातक धीरे-धीरे अपने आप को स्वतंत्र व्यवसाय में भी स्थापित कर लेता है।

वास्तु द्वारा व्यवसाय को बढ़ाने के उपाय

वास्तु में प्रत्येक दिशा किसी न किसी ग्रह द्वारा शासित होता है। अतः किसी भी व्यवसाय को तत्संबंधी दिशाओं एवं ग्रहों के अनुकूल रहने पर विशेष लाभ मिलता है। प्रश्न: पूर्व दिशा में किस तरह का व्यवसाय करना चाहिए? उत्तर: ग्रहों में सूर्य पूर्व दिशा का स्वामी होता है।दवा, औषधि आदि के लिए पूर्व की दिशा सबसे उपयुक्त है। दवाइयां उत्तर एवं पूर्व के रैक पर रखें। उत्तर-पूर्व के निकट सूर्य की जीवनदायिनी किरणें सर्वप्रथम पड़ती हैं जो कि दवाइयां को ऊर्जापूर्ण बनाए रखती है जिसके सेवन से मनुष्य शीघ्र स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करता है।आयुर्वेदिक एवं यूनानी दवा का संबंध सूर्य ग्रह से है, अतः इसे पूर्व दिशा की रैक पर रखना लाभप्रद होता है। इस तरह के भूखंड पर ऊनी वस्त्र, अनाज की आढ़त, आटा पीसने की चक्की तथा आटा मिलों का कार्य काफी लाभप्रद होता है। प्रश्न: उत्तर पूर्व दिशा में किस तरह का व्यवसाय या कार्य करना चाहिए ? उत्तर: उत्तर पूर्व दिशा का ग्रह स्वामी गुरू है जो कि आध्यात्मिक एवं सात्विक विचारों के प्रणेता हैं। उत्तर-पूर्व दिशा अभिमुख भूखंड शिक्षक, प्राध्यापक, धर्मोपदेशक, पुजारी, धर्मप्रमुख, प्राच्य एवं गुप्त विद्याओं के जानकार, न्यायाधीश, वकील, शासन से संबंधित कार्य करने वाले, बैंकिंग व्यवस्था से संबंधित कार्य, धार्मिक संस्थान, ज्योतिष से संबंधित कार्यों के लिए लाभप्रद होता है। आध्यात्मिक ग्रंथों की छपाई के कार्य के लिए यह दिशा विशेष लाभकारी होता है। साथ ही बिजली के पंखों की फैक्ट्री लगाना भी लाभप्रद होता है। आध्यात्मिक ग्रंथों की छपाई के कार्य के लिए यह दिशा विशेष लाभकारी होता है। साथ ही बिजली के पंखों की फैक्ट्री लगाना भी जलाषय एवं फव्वारांे को व्यवस्थित कर लगाया जाता है। धनागमन के प्रतीक फव्वारों एवं जलाषयों को बड़ी सूझ-बूझ के साथ लगाया जाता है क्योंकि यदि पानी का निकास गलत ढंग से हो, तो घर का सारा धन गलत ढंग से चला जायेगा। प्रश्न: भारी पत्थर एवं मूर्तियां घर में लगाने से क्या लाभ होता है ? उत्तर: भवन के दक्षिण-पष्चिम को भारी करने के लिए भारी पत्थरों, चट्टानों एवं मूर्तियों का सहारा लिया जाता है। कई बार तो पति-पत्नी के अलगाव, निरंतर यात्राओं एवं अस्थायित्व का दोष वांछित दिषा कोण को भारी करने पर रहस्यमयी ढंग से स्वतः ही समाप्त हो जाता है। प्रश्न: जीवित कछुआ पालने या कछुए की मूर्ति घर में लगाने से क्या लाभ होता है ? उत्तर: एक जीवित कछुआ पालने या कछुए की मूर्ति या फोटो अपने घर की उत्तर दिषा में रखने या लगाने से जीवन में सुख समृद्धि को बढ़ावा मिलता है। कछुए का मुंह पूर्व की तरफ रखना चाहिए। यह आयु को बढ़ाता है। घर की उत्तर दिशा में किसी तालाब या पानी के टब में कछुए का होना पूरे घर वाले की समृद्धि एवं आयु के लिए शुभ फलदायी होता है।

करें गुणवत्ता में विकास: ज्योतिष्य उपाय

मनुष्य को बुरा कहलाने से नहीं डरना चाहिए, किन्तु बुरा होने या बुरे काम करने से डरना चाहिए, जबकि होता इसके ठीक विपरीत है। लोग-बुरे कर्म करने से उतना नहीं डरते जितना इस बात से डरते हैं कि कोई बुरा न कह दे। मनुष्य का यह स्वभाव हो गया है कि वह स्वयं भले दूसरों की निंदा-आलोचना करता रहे, किन्तु स्वयं अपनी निंदा-आलोचना उसे पसंद नहीं है। कोई थोडी सी उसकी आलोचना करे तो वह दुखी ही नहीं क्रुद्ध भी हो जाता है। यहाॅ तक कि आलोचना करने वाले को अपना विरोधी तक मान लेता है, भले ही वह आलोचना कितनी ही सही क्यों न हो और उसकी भलाई के लिए ही क्यों न की गई हो। जबकि यह मानना चाहिए कि निंदक व्यक्ति हमारी निदा करके हमें सावधान कर रहा है तथा हमारे दोषो को निकालने की हमें प्रेरणा दे रहा है।
इस संबंध में यदि कुंडली का विष्लेषण किया जाए तो यदि किसी व्यक्ति के तीसरे स्थान का स्वामी अनुकूल, उच्च तथा सौम्य ग्रहों से संरक्षित हो तो ऐसे व्यक्ति बुराई को भी भलाई में बदलने में सक्षम होते हैं वहीं यदि किसी जातक का तीसरा स्थान विपरीत कारक हो अथवा राहु जैसे ग्रहों से पापक्रांत हो तो ऐसे लोग किसी की छोटी सी बात या आलोचना सहन नहीं कर पाते और क्रोधित हो जाते हैं अतः आपको अपने हित में या किसी की कहीं कोई छोटी बात भी बुरी लगती है तो अपनी कुंडली का विष्लेषण करा लें तथा कुंडली में इस प्रकार की कोई ग्रह स्थिति बन रही हो तो तीसरे स्थान के स्वामी अथवा कालपुरूष की कुंडली में तीसरे स्थान के स्वामी ग्रह बुध अर्थात् गणेषजी की उपासना, गणपति अर्थव का पाठ का हरी मूंग का दान करने से आलोचना को साकारात्मक लेकर अपनी बुराई को धीरे-धीरे दूर करने का प्रयास करने से आप निरंतर बुराई से बचते हुए सफलता प्राप्त करेंगे तथा लोगों के बीच लोकप्रिय भी होंगे।

असफल होने का मूल कारण जाने ज्योतिषीय गणना

हर व्यक्ति का व्यवहार तय होता है और वह अपने व्यवहार के अनुसार ही हर कार्य तथा निर्णय करता और लेता है और व्यक्ति की संकल्प शक्ति एवं निर्णय लेने की क्षमता में सामंजस्य होता है। संकल्प शक्ति की कमी के कारण व्यक्ति अपनी इच्छाओं एवं आकांक्षओं की पूर्ति में कमी पाता है। संकल्प शक्ति की कमी के कारण सही निर्णय लेने की क्षमता भी प्रभावित होती है एवं व्यक्ति अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सही निर्णय नहीं ले पाता है। व्यक्ति की तार्किक क्षमता एवं बौद्धिक क्षमता प्रबल होने पर भी उस की संकल्प शक्ति एवं कार्य के प्रति एकाग्रता मे कमी के कारण सफलता मिलने मे देरी हो सकती है। परंतु इसका प्रमुख कारण यह है कि उन की संकल्प शक्ति एवं इच्छा शक्ति मे कमी है और इसे केवल मेहनत एवं कठिन परिश्रम से ही जीता जा सकता है। किंतु इसका ज्योतिषीय कारण भी है अगर किसी व्यक्ति का तृतीयेश, पंचमेश एवं एकादशेश विपरीत कारक हो अथवा क्रूर ग्रहों से पापाक्रंात हो तो ऐसे व्यक्ति में संकल्पशक्ति तथा एकाग्रता की कमी के कारण विफलता आती है अतः इन ग्रहों की शांति, संबंधित ग्रह का दान एवं मंत्रजाप कर संकल्पशक्ति को दृढ तथा एकाग्रता में वृद्धि का असफलता को सफलता में बदला जा सकता है। साथ ही व्यक्ति की सफलता उसके सामाजिक उन्नति का भी कारक होता है। अतः संतुष्टि तथा उन्नति से ही सामाजिक सौहाद्र्य बनाये रखा जा सकता है अतः सामाजिक तौर पर शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी ग्रह शांति जरूरी है।

Tuesday 21 February 2017

संपूर्ण सुख हेतु -कुंडली में करें गुरू को प्रबल

धन से अधिक महत्व चरित्र का माना गया है। अमेरिका के प्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने लिखा है था कि ‘उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धन है।’ इसी तरह ग्रीन नामक विद्वान का कथन था, ‘चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए।’ स्वामी विवेकानंद प्रायः युवाओं को संबोधित करते हुए कहा करते थे, ‘युवाओ! उठो! जागो! अपने चरित्र का विकास करो।’ इस तरह विभिन्न विद्वानों ने चरित्र के महत्व पर प्रकाश डाला है और मानव जीवन में इसे सर्वोपरि माना है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र इसीलिए आकर्षक और प्रभावशाली था कि उन्होंने सदैव अपने चरित्र का ख्याल रखा। वस्तुतः आज इसी चरित्र को बनाए रखने की परम आवश्यकता है। हम चाहें किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों, किसी भी पद पर अपना योगदान कर रहे हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। भारतीय संस्कृति की यही तो विशेषता रही है। यही संस्कृति ‘बहुजन हिताय’ और ‘बहुजन सुखाय’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की पावन भावना का विकास करती है। यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। जितने भी महापुरुष हुए, उन सभी ने अपने बाल्यकाल से ही चरित्र की रक्षा का ध्यान रखा। मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाए जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ उसके अनुरूप नहीं होती। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो यह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म- कर्म वाले दीखते हैं, किन्तु उनके भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। ऐसे व्यक्ति भी सच्चे चरित्र वाले नहीं माने जा सकते। सच्चा चरित्रवान वही माना जायेगा और वास्तव में वही होता भी है, जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है। चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। विचारकों का कहना है कि ‘‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’ विचारकों का यह कथन शत- प्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। संयत इच्छाशक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। जीवन में सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं, तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होता है, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है। ज्योतिष में संपूर्ण चरित्र का निर्माण विभिन्न स्थानों एवं विभिन्न ग्रहों की अनुकूल स्थिति तथा संयोजन का परिणाम होती है, माना जाता है कि व्यक्ति की कुंडली सब कुछ बया करती है अतः यदि किसी जातक के चरित्र को जानना है तो उसके लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम एवं एकादश स्थान के ग्रह, इन स्थानों में उपस्थित ग्रह एवं ग्रहों के पाप प्रभाव से देखा जा सकता है। अगर ये स्थान उच्च, अनुकूल तथा सौम्य ग्रहों के साथ हों तो चरित्र का आकार अनुकूल दिशा में बढता है वहीं पर यदि इन क्षेत्रों पर कू्रर ग्रहों एवं प्रतिकूल स्थिति में हो जाए तो उसका चरित्र दुषित हो सकता है। चरित्र के निर्माण में वैसे तो सभी ग्रहों का संपूर्ण प्रभाव होता है किंतु गुरू संपूर्ण ग्रहों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रह है। अतः यदि गुरू दूषित हो जाए अथवा उपरोक्त स्थानों का स्वामी होकर राहु जैसे पाप ग्रहों से पापाक्रांत होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए तो चरित्र को बचाकर रखना बहुत कठिन हो जाता है। अतः बचपन से ही चरित्र के निर्माण का ध्यान रखना चाहिए साथ ही गुरू एवं अन्य समस्त ग्रहों की अनुकूलता, जातक के व्यवहार का बारीकी से अध्ययन करने के लिए ज्योतिषीय गणना जरूर कराना चाहिए। इसके साथ गोचर के ग्रहों तथा समय काल परिस्थिति के अनुरूप इन समस्त ग्रहों तथा इन ग्रहों की दशाओं को ज्ञात कर उचित ज्योतिषीय उपाय द्वारा चरित्र को सुधारा जा सकता है, जो ना केवल व्यक्ति अपितु परिवार उसके उपरांत समाज एवं देश को बचाया जा सकता है।

विवाह पंचमी - राम सीता का विवाह उत्सव

मार्गशीष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को विवाह पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों में इस दिन का बड़ा महत्व बताया गया है क्योंकि आज ही के दिन त्रेता युग में भगवान राम और सीता का विवाह हुआ था। भारत के साथ ही नेपाल में भी विभिन्न मंदिरों और स्थानों पर विवाह पंचमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। पौराणिक धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान राम ने जनक नंदिनी सीता से विवाह किया था। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीराम ने विवाह द्वारा मन के तीनों विकारों काम, क्रोध और लोभ से उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। हिंदू पौराणिक कथाओं में राम और सीता की महत्ता को देखते हुए इनके सम्मान में ही विवाह पंचमी का शुभ मांगलिक त्योहार मनाया जाता है। त्रेता युग में पृथ्वी पर राक्षसों का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर था। उस समय मुनि विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा करने के उद्देश्य से अयोध्या के महाराज दशरथ से उनके पुत्रों राम एवं लक्ष्मण जी को माँग कर ले गए। यज्ञ की समाप्ति के पश्चात विश्वामित्र जी जनक पुरी के रास्ते से वापसी आने के समय राजा जनक के सीता स्वयंवर की उद्घोषणा की जानकारी मिली। मुनि विश्वामित्र ने राम एवं लक्ष्मण जी को साथ लेकर सीता के स्वयंवर में पधारें। सीता स्वयंवर में राजा जनक जी ने उद्घोषणा की जो भी शिव जी के धनुष को भंग कर देगा उसके साथ सीता के विवाह का संकल्प कर लिया। स्वयंवर में बहुत राजा महाराजाओं ने अपने वीरता का परिचय दिया परन्तु विफल रहे। इधर जनक जी चिंतित होकर घोषणा की लगता है यह पृथ्वी वीरों से विहीन हो गयी है, तभी मुनि विश्वामित्र ने राम को शिव धनुष भंग करने का आदेश दिया। राम जी ने मुनि विश्वामित्र जी की आज्ञा मानकर शिव जी की मन ही मन स्तुति कर शिव धनुष को एक ही बार में भंग कर दिया। उसके उपरान्त राजा जनक ने सीता का विवाह बड़े उत्साह एवं धूम धाम के साथ राम जी से कर दिया। साथ ही दशरथ के तीन पुत्रों भरत के साथ माध्वी, लक्ष्मण के साथ उर्मिला एवं शत्रुघ्न जी के साथ सुतकीर्ति का विवाह भी बड़े हर्ष एवं धूम धाम के साथ कर दिया। सीता की जन्मभूमि जनकपुर और राम जन्मभूमि अयोध्या, इन दोनों ही जगहों पर विवाह पंचमी के दिन को पूरी भव्यता के साथ मनाया जाता है। इस पवित्र विवाह का स्मरण करते हुए इस दिन शहर भर में हजारों दीए जलाए जाते हैं और बड़े पैमाने पर विवाह झांकियां निकाली जाती हैं। भृगु संहिता में विवाह पंचमी के दिन को विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त के रूप में बताया गया है। इसके बावजूद लोग इस दिन अपनी बेटियों की शादी करना पसंद नहीं करते। इसके पीछे उनकी धारणा यह है कि इस दिन विवाह होने से की वजह से ही देवी सीता और भगवान राम को वैवाहिक जीवन का पूर्ण सुख नहीं मिला था इसलिए लोग कुंडली दिखाकर किसी विद्धान ज्योतिष की सलाह से ही विवाह का शुभ मूहुर्त निकालते हैं किंतु मार्गशीर्ष पक्ष की शुक्ल पक्ष की पंचमी राम-जानकी विवाह के उपलब्ध में विवाह पंचमी के रूप में आज भी मनाया जाता है।

विवाह पंचमी - राम सीता का विवाह उत्सव

मार्गशीष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को विवाह पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों में इस दिन का बड़ा महत्व बताया गया है क्योंकि आज ही के दिन त्रेता युग में भगवान राम और सीता का विवाह हुआ था। भारत के साथ ही नेपाल में भी विभिन्न मंदिरों और स्थानों पर विवाह पंचमी को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। पौराणिक धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भगवान राम ने जनक नंदिनी सीता से विवाह किया था। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीराम ने विवाह द्वारा मन के तीनों विकारों काम, क्रोध और लोभ से उत्पन्न समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है। हिंदू पौराणिक कथाओं में राम और सीता की महत्ता को देखते हुए इनके सम्मान में ही विवाह पंचमी का शुभ मांगलिक त्योहार मनाया जाता है। त्रेता युग में पृथ्वी पर राक्षसों का अत्याचार अपनी चरम सीमा पर था। उस समय मुनि विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा करने के उद्देश्य से अयोध्या के महाराज दशरथ से उनके पुत्रों राम एवं लक्ष्मण जी को माँग कर ले गए। यज्ञ की समाप्ति के पश्चात विश्वामित्र जी जनक पुरी के रास्ते से वापसी आने के समय राजा जनक के सीता स्वयंवर की उद्घोषणा की जानकारी मिली। मुनि विश्वामित्र ने राम एवं लक्ष्मण जी को साथ लेकर सीता के स्वयंवर में पधारें। सीता स्वयंवर में राजा जनक जी ने उद्घोषणा की जो भी शिव जी के धनुष को भंग कर देगा उसके साथ सीता के विवाह का संकल्प कर लिया। स्वयंवर में बहुत राजा महाराजाओं ने अपने वीरता का परिचय दिया परन्तु विफल रहे। इधर जनक जी चिंतित होकर घोषणा की लगता है यह पृथ्वी वीरों से विहीन हो गयी है, तभी मुनि विश्वामित्र ने राम को शिव धनुष भंग करने का आदेश दिया। राम जी ने मुनि विश्वामित्र जी की आज्ञा मानकर शिव जी की मन ही मन स्तुति कर शिव धनुष को एक ही बार में भंग कर दिया। उसके उपरान्त राजा जनक ने सीता का विवाह बड़े उत्साह एवं धूम धाम के साथ राम जी से कर दिया। साथ ही दशरथ के तीन पुत्रों भरत के साथ माध्वी, लक्ष्मण के साथ उर्मिला एवं शत्रुघ्न जी के साथ सुतकीर्ति का विवाह भी बड़े हर्ष एवं धूम धाम के साथ कर दिया। सीता की जन्मभूमि जनकपुर और राम जन्मभूमि अयोध्या, इन दोनों ही जगहों पर विवाह पंचमी के दिन को पूरी भव्यता के साथ मनाया जाता है। इस पवित्र विवाह का स्मरण करते हुए इस दिन शहर भर में हजारों दीए जलाए जाते हैं और बड़े पैमाने पर विवाह झांकियां निकाली जाती हैं। भृगु संहिता में विवाह पंचमी के दिन को विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त के रूप में बताया गया है। इसके बावजूद लोग इस दिन अपनी बेटियों की शादी करना पसंद नहीं करते। इसके पीछे उनकी धारणा यह है कि इस दिन विवाह होने से की वजह से ही देवी सीता और भगवान राम को वैवाहिक जीवन का पूर्ण सुख नहीं मिला था इसलिए लोग कुंडली दिखाकर किसी विद्धान ज्योतिष की सलाह से ही विवाह का शुभ मूहुर्त निकालते हैं किंतु मार्गशीर्ष पक्ष की शुक्ल पक्ष की पंचमी राम-जानकी विवाह के उपलब्ध में विवाह पंचमी के रूप में आज भी मनाया जाता है।

मित्र सप्तमी का पर्व चर्म तथा नेत्र रोगों से मुक्ति

मित्र सप्तमी का त्योहार मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन मनाया जाता है। सूर्य देव की पूजा का पर्व सूर्य सप्तमी एक प्रमुख हिन्दू पर्व है। सूर्योपासना का यह पर्व संपूर्ण भारत में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता रहा है। सूर्य भगवान के अनेक नाम हैं जिनमें से उन्हें मित्र नाम से भी संबोधित किया जाता है, अतः इस दिन सप्तमी को मित्र सप्तमी के नाम से जाना जाता है। इस दिन भास्कर भगवान की पूजा-उपासना की जाती है। भगवान सूर्य की आराधना करते हुए लोग गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर के किनारे सूर्य देव को जल देते हैं।
पौराणिक महत्व -
सूर्य देव को महर्षि कश्यप और अदिति का पुत्र कहा गया है। इनके जन्म के विषय में कहा जाता है कि एक समय दैत्यों का प्रभुत्व बढने के कारण स्वर्ग पर दैत्यों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है। देवों की दुर्दशा देखकर देव-माता अदिति भगवान सूर्य की उपासना करती हैं। अदिति की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान सूर्य उन्हें वरदान देते हैं कि वह उनके पुत्र रूप में जन्म लेंगे तथा उनके देवों की रक्षा करेंगे। इस प्रकार भगवान के कथन अनुसार देवी अदिति के गर्भ से भगवान सूर्य का जन्म होता है। वह देवताओं के नायक बनते हैं और असुरों को परास्त कर देवों का प्रभुत्व कायम करते हैं। नारद मुनि के कथन अनुसार जो व्यक्ति मित्र सप्तमी का व्रत करता है तथा अपने पापों की क्षमा मांगता है सूर्य भगवान उससे प्रसन्न हो उसे पुनः नेत्र ज्योति प्रदान करते है। इस प्रकार यह मित्र सप्तमी पर्व सभी सुखों को प्रदान करने वाला व्रत है। सप्तमी व्रत भगवान सूर्य की उपासना का पर्व है। सप्तमी के दिन इस पर्व का आयोजन मार्गशीर्ष माह के आरंभ के साथ ही शुरू हो जाता है। इस पर्व के उपलक्ष्य में भगवान सूर्य की पूजा का विशेष महत्व होता है। मित्र सप्तमी व्रत में भगवान सूर्य की पूजा उपासना की जाती है, इस दिन व्रती अपने सभी कार्यों को पूर्ण कर भगवान आदित्य का पूजन करता है व उन्हें जल से अघ्र्य दिया जाता है। सूर्य भगवान का षोडशोपचार पूजन करते हैं। पूजा में फल, विभिन्न प्रकार के पकवान एवं मिष्ठान को शामिल किया जाता है। सप्तमी को फलाहार करके अष्टमी को मिष्ठान ग्रहण करते हुए व्रत पारण करें। इस व्रत को करने से आरोग्य व आयु की प्राप्ति होती है। इस दिन सूर्य की किरणों को अवश्य ग्रहण करना चाहिए। पूजन और अघ्र्य देने के समय सूर्य की किरणें अवश्य देखनी चाहिए। मित्र सप्तमी महत्व मित्र सप्तमी पर्व के अवसर पर परिवार के सभी सदस्य स्वच्छता का विशेष ध्यान रखते हैं। मित्र सप्तमी पर्व के दिन पूजा का सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के फल, दूधकेसर, कुमकुम बादाम इत्यादि को रखा जाता है। इस व्रत का बहुत महत्व रहा है। इसे करने से घर में धन धान्य की वृद्धि होती है और परिवार में सुख-समृद्धि आती है। इस व्रत को करने से चर्म तथा नेत्र रोगों से मुक्ति मिलती है।

किस्मत का तारा चमकायें करें अनुकूल उपाय

हम जो चाहते है उसको पाने के लिए हम हर कोशिश करते है कि वह हमें प्राप्त हो जाए। लेकिन कभी-कभी अधिक कोशिश करने के बाद भी हम असफल हो जाते है। और इसका पूरा दोष अपनी किस्मत में डाल देते है कि हमारी किस्मत खराब है। इसके बाद हम और फिर किसी भी तरह की कोशिश नहीं करते है और बैठ जाते है कि अब सब खुद ठीक होगा। ऐसा क्यूं होता है कि कभी-कभी अपने काम में जान तक झोंक देने वाले को सफलता नहीं मिलती और किसी-किसी को छोटी कोशिश से ही बुलंदियां मिल जाती हैं। क्यूं कोई मुकद्दर का सिकंदर कहलाता है और क्यूं कोई किस्मत का गरीब कहलाता है। क्यूं लोग भाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली कहे जाते हैं। सामान्यतौर पर यह बता पाना किसी के भी बस की बात नहीं होती है किंतु इसे ज्योतिषीय शास्त्र द्वारा बताया जा सकता है। जब किसी भी व्यक्ति की कुंडली में उसका भाग्येश उच्च या अनुकूल स्थिति में हो तो भाग्येश की दशा या अंतरदशा में उसके जीवन में अचानक उन्नति तथा सफलता के योग बनते हैं और यदि इसके साथ ही लग्नेश, तृतीयेश या एकादशेश भी अनुकूल तथा उच्चस्थ हों तो निश्चित ही किस्मत बदलती है और लोग मुकद्दर का सिकंदर कहते हैं। भाग्य का साथ पाने और मेहनत के बाद भी असफलता को सफलता में बदलने के लिए पितृ शांति कराना चाहिए क्योंकि हमाने शास्त्र में माना जाता है किसी भी व्यक्ति की समृद्धि का कारण उसके पितरों का आर्शीवाद होता है।

ल्यूकोडर्मा: ज्योतिष्य विश्लेषण


श्वित्र कोई भयंकर या जानलेवा रोग नहीं है, एक आम समस्या है फिर भी पीड़ित के मन में हीन भावनाएं उत्पन्न होती हैं जिससे पीड़ित सार्वजनिक रूप से सामने आने से कतराते हैं। आयुर्वेद में त्वचा पर आने वाले सफेद दाग-धब्बों को श्वित्र कहते हैं। आम भाषा में इसे फुलेरी भी कहते हैं। लेकिन आधुनिक विज्ञान में इसे ‘ल्यूकोडर्मा’ कहते हैं। हमारी त्वचा की दो परतें होती हैं बाह्य और भीतरी। भीतरी परत के नीचे के भाग में मेलानोफोल कोशिका में एक तत्व होता है जिसे मेलेनिन कहते हैं। इस तत्व का मुख्य कार्य त्वचा को प्राकृतिक वर्ण प्रदान करना होता है। जब यह तत्व विकृत हो जाता है तब श्वित्र रोग होता है। मेलेनिन तत्व के कण त्वचा के भीतर, नीचे की सतह में उत्पन्न होते हैं और वे ही ऊपर आकर त्वचा को प्राकृतिक वर्ण प्रदान करते हैं। त्वचा के जितने भागों में इन कणों का अभाव होता है, वहां सफेद दाग दिखाई देते हैं और अगर पूरे शरीर की त्वचा में ही मेलेनिन का अभाव हो, तो उस व्यक्ति का पूरा शरीर सफेद दिखाई देता है। यहां तक कि आंखों का काला भाग भी सफेद लगता है और सारे बाल भी सफेद हो जाते हैं। रोग के कारण: आयुर्वेद में पाप कर्मों को रोग का कारण कहा गया है। साथ ही दूध-दही, दूध-मछली जैसे विभिन्न गुण युक्त चीजों को आपस में मिलाकर खाने से भी यह रोग हो सकता है। पेट में कृमि, आंव, टाइफाइड, पीलिया, तपेदिक आदि रोगों के बाद भी इस रोग की उत्पत्ति हो सकती है। श्वित्र की उत्पत्ति आनुवंशिक भी होती है। अगर माता-पिता में से एक या दोनों श्वित्र से पीड़ित हों, तो उनकी संतानों मंे भी रोग उत्पन्न होने की आशंका रहती है। आयुर्वेद के अनुसार श्वित्र रोग में कफ की प्रधानता होती है। त्वचा की छोटी-छोटी शिराओं में अवरोध के कारण मेलेनिन त्वचा उत्पन्न नहीं हो पाता है जिससे श्वित्र रोग उत्पन्न हो जाता है।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण ज्योतिषीय दृष्टि से त्वचा का कारक चंद्र और बुध ग्रह है। शुक्र ग्रह त्वचा को निखारता है, सुंदर बनाता है। मंगल ग्रह शरीर में उन तत्वों की उत्पत्ति करता है जो त्वचा को प्राकृतिक वर्ण बनाए रखने में सहायक होता है। यदि जन्मकुंडली में लग्नेश, लग्न और संबंधित ग्रह दुष्प्रभावों में हों तो ऐसे रोग की संभावनाएं बढ़ जाती हंै। विभिन्न लग्नों में श्वित्र रोग: मेष लग्न: लग्नेश मंगल, राहु-केतु से युक्त षष्ठ या अष्टम भाव में हो और बुध लग्न में शनि से युक्त या दृष्ट हो। शुक्र अस्त हो तो जातक को श्वित्र रोग हो सकता है। वृष लग्न: लग्नेश शुक्र अस्त होकर अष्टम भाव में वक्री मंगल लग्न में और सप्तम भाव में बुध हो, राहु तृतीय या पंचम भाव में हो तो जातक को त्वचा संबंधित रोग होता है। मिथुन लग्न: लग्न और लग्नेश दोनों वक्री मंगल से दृष्ट या युक्त हो, चंद्र राहु-केतु से युक्त चतुर्थ या पंचम भाव में हो, शुक्र अस्त हो या नीच का हो तो जातक को श्वित्र रोग हो सकता है। कर्क लग्न: बुध-शनि लग्न में, चंद्र सप्तम भाव में, सूर्य द्वितीय भाव में, शुक्र राहु से युक्त तृतीय भाव में हो तो जातक को सफेद दाग हो सकते हैं। सिंह लग्न: लग्नेश सूर्य राहु या केतु से युक्त षष्ठ या सप्तम भाव में हो, शुक्र अष्टम भाव में, बुध अस्त हो, चंद्र शनि से युक्त या दृष्ट चतुर्थ या एकादश भाव में हो तो जातक को त्वचा संबंधित रोग होता है। कन्या लग्न: मंगल लग्न में या लग्न पर दृष्टि, राहु से युक्त होकर दे, बुध अस्त हो, चंद्र पर राहु या केतु की दृष्टि हो, गुरु केंद्र में हो तो जातक को श्वित्र रोग हो सकता है। तुला लग्न: गुरु लग्न में राहु से युक्त हो, शुक्र षष्ठ, सप्तम या अष्टम भाव में अस्त हो, चंद्र मंगल से युक्त होकर केंद्र में हो तो जातक को त्वचा संबंधित रोग हो सकता है। वृश्चिक लग्न: राहु से युक्त, बुध लग्न में हो या लग्न पर दृष्टि दे, शुक्र-चंद्र, शनि से युक्त या दृष्ट हो तो जातक को त्वचा रोग, श्वित्र जैसा रोग हो सकता है। धनु लग्न: शुक्र बुध लग्न में राहु केतु से युक्त या दृष्ट हो, गुरु चंद्र से युक्त अष्टम भाव में हो तो जातक को श्वित्र रोग हो सकता है। मकर लग्न: गुरु षष्ठ भाव में, चंद्र से युक्त राहु से दृष्ट हो, शनि चतुर्थ भाव में सूर्य से अस्त हो, बुध, शुक्र, तृतीय या पंचम भाव में हो तो जातक को श्वित्र रोग का सामना करना पड़ता है। कुंभ लग्न:श्गुरु चंद्र लग्न में हो, मंगल षष्ठ भाव में राहु से युक्त हो, बुध शुक्र चतुर्थ भाव में अस्त हो, शनि द्वितीय भाव में हो तो जातक को श्वित्र रोग हो सकता है। मीन लग्न: शुक्र लग्न में शनि राहु-केतु से युक्त चतुर्थ, सप्तम या एकादश भाव में हो, चंद्र षष्ठ भाव में हो और बुध अस्त होकर द्वादश भाव में हो तो जातक को श्वित्र रोग हो सकता है। उपरोक्त सभी योगों (संबंधित ग्रहों की) में दशा-अंतर्दशा एवं गोचर के प्रतिकूल रहने से रोग होते हैं। उसके उपरांत जातक को रोग से राहत मिल जाती है।

किस्मत का तारा चमकायें करें अनुकूल उपाय

हम जो चाहते है उसको पाने के लिए हम हर कोशिश करते है कि वह हमें प्राप्त हो जाए। लेकिन कभी-कभी अधिक कोशिश करने के बाद भी हम असफल हो जाते है। और इसका पूरा दोष अपनी किस्मत में डाल देते है कि हमारी किस्मत खराब है। इसके बाद हम और फिर किसी भी तरह की कोशिश नहीं करते है और बैठ जाते है कि अब सब खुद ठीक होगा। ऐसा क्यूं होता है कि कभी-कभी अपने काम में जान तक झोंक देने वाले को सफलता नहीं मिलती और किसी-किसी को छोटी कोशिश से ही बुलंदियां मिल जाती हैं। क्यूं कोई मुकद्दर का सिकंदर कहलाता है और क्यूं कोई किस्मत का गरीब कहलाता है। क्यूं लोग भाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली कहे जाते हैं। सामान्यतौर पर यह बता पाना किसी के भी बस की बात नहीं होती है किंतु इसे ज्योतिषीय शास्त्र द्वारा बताया जा सकता है। जब किसी भी व्यक्ति की कुंडली में उसका भाग्येश उच्च या अनुकूल स्थिति में हो तो भाग्येश की दशा या अंतरदशा में उसके जीवन में अचानक उन्नति तथा सफलता के योग बनते हैं और यदि इसके साथ ही लग्नेश, तृतीयेश या एकादशेश भी अनुकूल तथा उच्चस्थ हों तो निश्चित ही किस्मत बदलती है और लोग मुकद्दर का सिकंदर कहते हैं। भाग्य का साथ पाने और मेहनत के बाद भी असफलता को सफलता में बदलने के लिए पितृ शांति कराना चाहिए क्योंकि हमाने शास्त्र में माना जाता है किसी भी व्यक्ति की समृद्धि का कारण उसके पितरों का आर्शीवाद होता है।

जीवन में भटकाव

संसार में समय को सबसे अमूल्य वस्तु माना गया है। धन - सम्पति खो जाने पर उन्हें परिश्रम करके दोबारा प्राप्त किया जा सकता है पर समय खो जाने पर पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत - कह कर समय के महत्व को समझाया गया हैं। समय का सदुपयोग करने का महत्व बताया गया है। हमें सावधान भी किया गया है कि यदि समय पर कर्म करने से चूक जाएंगे, समय का सदुपयोग नही करेंगे तो बाद में यह अभिशाप बन जाएगा। समय का पंछी एक बार हाथ से छूट जाने के बाद दुबारा कभी भी पकड़ में नहीं आता। समय का सदुपयोग ही सफलता का प्रतीक हैं। समझदार व्यक्ति समय का एक पल भी बेकार नहीं करते। कभी यह भी नही सोचते कि कल करेंगे। समय ही वास्तव में जीवन और उसका कर्म हैं। किंतु युवा होते बच्चें सालभर बिना अध्ययन किए बिता देते हैं और अब जब परीक्षा का समय शुरू होने वाला है तो परेशान होते हैं कि तैयारी पूरी नहीं हुई। अगर ऐसा आपके साथ ही हो रहा हो तो अब पछताए हो क्या कहावत चरितार्थ नहीं होना चाहिए बल्कि समय रहते पछताने से बचने का उपाय करना चाहिए। इसके लिए किसी विद्वान ज्योतिषीय से कुंडली की ग्रह दषा जानें तथा पता लगायें कि शुक्र, राहु, सप्तमेष, पंचमेष की दषा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो उपयुक्त उपाय तथा थोड़े से अनुषासन से भटकाव पर काबू पाते हुए उसके लक्ष्य के प्रति एकाग्रता बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। और पछताने से बचना चाहिए।

नीचस्थ लग्नेश और रोग

मानव जीवन और रोग का अटूट संबंध है। विश्व में ऐसा कोई जातक नहीं है, जिसे कभी कोई रोग न हुआ हो, चाहे वह छोटा रोग हो, चाहे बड़ा। पूर्व जन्म के अशुभ कर्मों के कारण जातक को रोग होते हैं। ज्योतिष के आधार पर रोग, उसकी तीव्रता तथा उसके समयावधि का आकलन किया जा सकता है। प्रत्येक राशि, नक्षत्र, ग्रह और भाव किसी न किसी रोग के कारक होते हैं। ज्योतिष की वह शाखा, जो राशि, नक्षत्र ग्रह तथा भाव के आधार पर रोग का ज्ञान कराती है, चिकित्सा ज्योतिष कहलाती है। यों तो ज्योतिष में रोगों से संबंधित असंख्य योग हैं। परंतु यहां ऐसे योग का उल्लेख किया जा रहा है, जिसमें स्वयं लग्नेश (तनु भाव का स्वामी) अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण, स्वयं रोगोत्पत्ति का कारण बन जाता है। इस योग को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है। ‘‘जन्म लग्नेश जिस भाव में नीचस्थ हो कर स्थित होता है, वह काल पुरुष के उसी भाव से संबंधित अंग में जातक को रोग देता है।’’ जन्म लग्नेश की नीच राशि में स्थिति विभिन्न लग्नों की जन्मकुंडलियों में यहां उद्धृत तालिका के अनुसार हो सकती है। जन्मकुंडली में तीन भाव ऐसे हैं, जिनमें कोई भी ग्रह लग्नेश हो कर नीच राशिस्थ नहीं हो सकता है। ये तीन भाव हैं लग्न, षष्ठ और अष्टम। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी ग्रह अपनी स्वयं की राशि, अथवा अपनी राशि से षष्ठ, या अष्टम राशि में नीचस्थ नहीं होता। लग्न सिर का, षष्ठ भाव गुर्दे अंतड़ियों और अपेंडिक्स का तथा अष्टम भाव गुदा और अंडकोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपर्युक्त तीनों भाव उक्त सूत्र के अपवाद हैं। रोग की तीव्रता: नीचस्थ लग्नेश द्वारा उत्पन्न रोग की तीव्रता पर निम्न बातों का प्रभाव पड़ता है: यदि नीचस्थ लग्नेश पर युति, दृष्टि, या मध्यत्व द्वारा शुभ प्रभाव अधिक हो, तो काल पुरुष से संबंधित अंग में रोग की तीव्रता न्यून होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश नवांश में उच्च हो, तो भी रोग की तीव्रता न्यून होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश पर युति, दृष्टि या मध्यत्व द्वारा अशुभ प्रभाव अधिक हो, तो रोग की तीव्रता अधिक होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश नवांश में नीचस्थ हो, तो भी रोग की तीव्रता अधिक होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश नवांश कुंडली में त्रिक भावों (6, 8, 12) में हो, तो भी रोग की तीव्रता अधिक होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश निरयण भाव चलित में अगले भाव में चला जाए, तो रोग का प्रभाव अगले भाव से संबंधित अंग पर भी होगा। यदि नीचस्थ लग्नेश निरयण भाव चलित में पिछले भाव में रह जाए, तो रोग का प्रभाव पिछले भाव से संबंधित अंग पर भी होगा। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि नीचस्थ लग्नेश का रोग से संबंधित फलादेश करने से पहले सभी बिंदुओं पर भली भांति विचार कर लेना चाहिए।