Saturday 22 August 2015

अदृश्य बाधा निवारण (पिशाच्च बाधा)


अब अन्य कारणों पर विचार करें। इस जन्म में या पिछले जन्म में किसी का द्रव्य, मकान, खेती इत्यादि ऐहिक सुखों के साधनों का उपहार करना अब जिसका उपहार होता है, वह जीवात्मा उस प्रियतम वस्तु में तन्मय होता है।
उसके जीति होते हुए जो संस्कार निश्चय ही देहाभिमान अहंकार मृत्युउपारन्त भी कायम रहता है। यह जीव उसकी भावना जैसा, कल्पना जैसा एवं निश्यच जैसा बनता है। ऐसा वर्णन जीव के उद्देश्य ेस उपनिषद में वर्णित है। जीव मनोमय याने वासनामय है। वह वासना जैसे शरीर धारण करता है। एवं उसी वासना अनुरूप शरीर को उपयोग में लाता है और सब क्रियाएं करता है। देहपतन के (मृत्यु के) बाद सुक्ष्म देह की प्रधानता रहती है। यह सुक्ष्म देह वासनामय रहता है। वासना मनोमय रही ळे एवं मन वासनामय होता है। सुक्ष्म देह नष्ट होने पर प्रात्प होने वाला अतिवाहिक सुक्ष्म देह पंचतन्मात्र सुक्ष्म तम पांच ज्ञानेंद्रिय (मन, बुद्धि, वित्त, अहंकार और जीव) अहंकार एवं अंतकरण चतुष्ठय मिलकर होता है। वह केवल मनोमय होता है। इस विवेचन से अन्तेमाति: सा गति: इस नियमानुसार उस जीवात्मा को गति नहहीं मिलता वह जीवात्मा सुक्ष्म होने के कारण उसकी वासनानुरूप वासना से संबंधित व्यक्तियों को वह पीड़ा देता है। इस प्रकार सृष्टि क्रमानुसार गति नहीं मिलती। वह पैशाचिक योनी में जाता है। मृत्यु उपरान्त वासनानुरूप जीवात्मा जन्म लेता है। ऐसा कहा गया है मनोमय प्राण शरीर लेता है।
इस प्रकार पैशाचिक बाधा होती है। इस जन्म या पिछले जन्म का वह परिणम होता है। उसे दूर करने के लिए शास्त्रकारों ने बतलाया है कि , सभी वयाधि एवं पीड़ा अपनरे कर्मों से ही दूर होते हैं। उनका निवारण औषधिदान, जप, होम, देवानुष्इाान, इन्ही कार्यों से होता है। ऐसा शास्त्र वचन है। यहां भी पीड़ा देने वाले का ज्ञान अपने को नहीं होता है। वैसे ही दान, भोजन, बाह्मणों द्वारा योग्य स्थान पर किये गये अनुष्ठान इत्यादि से अपनी गृह पीड़ा, भूतबाधा, रोगबाधा नष्ट होती है। ऐसा अनुभव है। यहां सुक्ष्म शरीर की प्रधानता मानी जाती है। पूर्व कर्म सूक्ष्मदेह (शरीर) के रूप में ही यहां मिलता है। अत: संकल्प द्वारा दिया अन्न आहारादि संकल्परूप, वासनामय सुक्ष्म शरीर पर परिणाम कर सकता है। इस प्रकार पैशाचिक बाधा दूर होकर संतति प्रतिबंध इत्यादि दु:ख समापत होते हैं।
सर्पवध
सर्ववध (हत्या)करने से संतति का प्रतिबंध होता है। इस कारण का विचार करें। पहले वर्णन कर चुके हैं कि वासनानुरूप जन्म प्राप्त होता है। जिस समय वासना की परिणति वासना से उत्पन्न होने वाले काम, क्रोधादि के अतिरेक (अधिक मात्रा) में होते हैं, गीता में जैसा वर्णन किया है कि विषय के बारे में तादात्म्य (एकरूपता) बुद्धि निर्माण होने पर विषय प्राप्ति होती है। वह विषय उपलब्ध (रुकावटें) निर्माण होती हैं। तम क्रोध निर्माण होता है। क्रोध की परिणति (परिवर्तन) सार-असार विचार के शून्यता में होती है, और फिर बुद्धि नाश होकर उसका मानवत्व (मानवता) समाप्त हो जाता है। ऐसी परंपरा का गीता में वर्णन है।
जिस समय ऊपर वर्णनानुसार तीव्रतर वासना की परिणति (परिवर्तन) मानवत्व नष्ट करने में होती है। उस समय उसे सर्पयोनी प्राप्त होती है। सभी सर्पयोनी इसी कारण होती है यह नहीं मानना चाहिये। किन्तु वह जीवात्मा सर्पयोनी में जाता है। इतना ही कहना है। सर्पयोनी का और मानव का अत्यंत निकटवर्ती संबंध है क्योंकि महाभारत में ऐसा वर्णन है। ब्रह्मदेव से सप्तऋषि निर्माण हुए। उसमें एक मरीची ऋषि का पुत्र कश्यप ऋषि हैं उसकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम था कदु और दूसरी का नाम था विनता। कदु सर्प (संतान) हुये तो वनिता को गरुण (पुत्र) हुआ। इस प्रकार मानव और सर्प का (नागयोनी) का निकट का संबंध है। नागयोनी में भी मानव के अनुसार चार वर्ण है ऐसा वर्णन है। इस बात से मानव का सर्प से शास्त्र दृष्टि से संबंध है। इसका अब विचार करें। क्योंकि इस विधि में मानव जैसा ही सर्प का अंत्यविधी करके श्राद्ध, पिंडदान इत्यादि करतक हैं। इसी कारण शास्त्रीय दृष्टि से शेष उपत्ति में साम्य कैसे आता है, इसका विचार करना अनिवार्य है।
Pt.P.S.Tripathi
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