Saturday 22 August 2015

मृत्यु के देवता यमराज ने उजागर किए मृत्यु से जुड़े सत्य:

जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु तय है, फिर वह अपना हो या पराया। यह सत्य हर कोई जानता है कि काल की घड़ी में राजा हो या रंक, छोटा हो या बड़ा सभी बराबर हो जाते हैं, जो अक्सर नजर भी आता है। किंतु जीवन में कई तरह की वासनाएं इंसान को इस सच से अनजान बनाती है और वह एक-दूसरे के लिए ऊंच-नीच के कई दोष व क्लेशों में जकड़ा रहता है। यह भी वजह है जब भी मृत्यु से जुड़ा कोई भी विषय या घटना इंसान के सामने आती है तो वह उसे जानने के लिए आतुर हो जाता है। मृत्यु से जुड़े किसी भी विषय को लेकर उसकी यह जिज्ञासा आजीवन बनी रहती है। असल में, मृत्यु क्या है और खासतौर पर मृत्यु के बाद क्या होता है? यह जान लेना किसी भी आम इंसान के लिए मुश्किल है या यूं कहें कि मुमकिन नहीं है।
प्राचीन हिन्दू धर्मशास्त्रों में मृत्यु से जुड़ी सारी जिज्ञासाओं को शांत करने वाले ऐसे ही रहस्य भी उजागर हैं, जो माना जाता है कि मृत्यु से जुड़े सत्य जानने ही जिद पर अड़े एक मासूम बच्चे के सामने स्वयं मृत्यु के देवता यमराज को भी उजागर करने पड़े। हिन्दू धर्मग्रंथ कठोपनिषद में मृत्यु और आत्मा से जुड़े कई रहस्य उजागर हैं, जिसका आधार बालक नचिकेता और यमराज के बीच हुए मृत्यु के रहस्य व आत्मज्ञान से जुड़ा संवाद है। नचिकेता वह बालक था, जिसकी पितृभक्ति और आत्म ज्ञान की जिज्ञासा के आगे मृत्यु के देवता यमराज को भी झुकना पड़ा। विलक्षण बालक नचिकेता से जुड़ा यह प्रसंग न केवल पितृभक्ति, बल्कि गुरु-शिष्य संबंधों के लिए भी बड़ी मिसाल है। प्रसंग के मुताबिक वाजश्रवस (उद्दालक) ऋषि नचिकेता के पिता थे। एक बार उन्होंने विश्वजीत नामक ऐसा यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ दान कर दिया जाता है। किंतु दान के वक्त नचिकेता यह देखकर बेचैन हुआ कि पिता ने स्वस्थ गायों के बजाए कमजोर, बीमार गाएं दान कर रहें हैं। तीक्ष्ण व सात्विक बुद्धि का बालक नचिकेता ने समझ लिया कि पुत्र मोह के वशीभूत ही उनके पिता ऐसा कर रहे हैं।
मोह दूर कर धर्म-कर्म करवाने के लिए ही नचिकेता ने पिता से सवाल किया कि वे मुझे किसे देंगे। उद्दालक ऋषि ने इस सवाल को टाला, पर नचिकेता नहीं माना और उसके बार-बार सवाल पूछने से क्रोधित ऋषि ने कह दिया कि तुझे मृत्यु (यमराज) को दूंगा। पिता को यह बोलने का दु:ख भी हुआ। किंतु सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प पिता से पूरा करवाया।
यम के दरवाजे पर पहुंचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज वहां नहीं है, फिर भी उसने हार नही मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए डटे रहे। यम ने लौटने पर द्वारपाल से नचिकेता बारे में जाना तो उस बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से बहुत खुश हुए। यमराज ने नचिकेता की पिता की आज्ञा के पालन व तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा।
तब नचिकेता ने पहला वर पिता का स्नेह मांगा। दूसरा अग्नि विद्या जानने के बारे में था। तीसरा वर मृत्यु रहस्य और आत्मज्ञान को लेकर था। यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की और नचिकेता को आत्मज्ञान के बदले कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया। लेकिन नचिकेता के आत्मज्ञान जानने के इरादे इतने पक्के थे कि वह अपने सवालों पर टिका रहा। नचिकेता ने नाशवान कहकर भोग-विलास की सारी चीजों को नकार दिया और शाश्वत आत्मज्ञान पाने का रास्ता ही चुना। आखिरकार, विवश होकर यमराज को मृत्यु के रहस्य, जन्म-मृत्यु से जुड़ा आत्मज्ञान देना पड़ा।
क्या है आत्मज्ञान और परमात्मा का स्वरूप?
मृत्यु से जुड़े रहस्यों को जानने की शुरुआत बालक नचिकेता ने यमदेव से धर्म-अधर्म से संबंध रहित, कार्य-कारण रूप प्रकृति, भूत, भविष्य और वर्तमान से परे परमात्म तत्व के बारे में जिज्ञासा कर की। यमदेव ने नचिकेता को प्रतीक रूप में परब्रह्म का स्वरूप बताया। उन्होंने बताया कि अविनाशी प्रणव यानी ऊंकार ही परमात्मा का स्वरूप है। यानी ब्रह्म और परब्रह्न दोनों का नाम ही ऊंकार है। ऊंकार ही परमात्मा को पाने के सभी आश्रयों में सबसे सर्वश्रेष्ठ और अंतिम जरिया है। सारे वेद कई तरह के छन्दों व मंत्रों में यही रहस्य उजागर है। जिनका सार यही है कि जगत में परमात्मा के इस नाम व स्वरूप की शरण लेना ही सबसे बेहतर उपाय है।
कैसे ह्रदय में माना जाता है परमात्मा का वास?
मनुष्य का ह्रदय ब्रह्म को पाने का स्थान माना जाता है। यमदेव के मुताबिक मनुष्य ही परमात्मा को पाने का अधिकारी माना गया है। उसका ह्रदय अंगूठे की माप का होता है। इसलिए इसके मुताबिक ही ब्रह्म को अंगूठे के आकार का पुकारा गया है और अपने ह्दय में भगवान का वास मानने वाला यह मानता है कि दूसरों के ह्रदय में भी ब्रह्म इसी तरह मौजूद है। इसलिए वह परनिंदा या घृणा से दूर रहता है।
क्या है आत्मा का स्वरूप?
यमदेव के मुताबिक शरीर के नाश होने के साथ जीवात्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है।
किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?
मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है, जो अविनाशी, अजन्मा, ज्ञानस्वरूप, सर्वव्यापी ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के ह्रदय रूपी महल में राजा की तरह रहते हैं। इस रहस्य को समझ जो मनुष्य जीते जी भगवद् ध्यान और चिन्तन करता है, वह शोक में नहीं डूबता, बल्कि शोक के कारण संसार के बंधनों से छूट जाता है। शरीर छूटने के बाद विदेह मुक्त यानी जनम-मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। उसकी यही अवस्था सर्वव्यापक ब्रह्म रूप है।
क्या आत्मा मरती या मारती है?
जो लोग आत्मा को मारने वाला या मरने वाला माने वे असल में आत्म स्वरूप को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनके बातों को नजरअंदाज करना चाहिए। क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है।
क्या होते हैं आत्मा-परमात्मा से जुड़ी अज्ञानता व अज्ञानियों के परिणाम?
जिस तरह बारिश का पानी एक ही होता है, किंतु ऊंचे पहाड़ों की ऊबड़-खाबड़ बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता और नीचे की और बहकर कई तरह के रंग-रुप और गंध में बदला चारों तरफ फैलता है। उसी तरह एक ही परमात्मा से जन्में देव, असुर और मनुष्यों को जो भगवान से अलग मानता और अलग मानकर ही उनकी पूजा, उपासना करता है, उसे बारिश के जल की तरह ही सुर-असुर के लोकों और कई योनियों में भटकना पड़ता है।
कैसा है ब्रह्म का स्वरूप यानी वह कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
ब्रह्म प्राकृतिक गुण से परे, स्वयं दिव्य प्रकाश स्वरूप अन्तरिक्ष में प्रकट होने वाले वसु नामक देवता है। वे ही अतिथि के तौर पर गृहस्थों के घरों में उपस्थित रहते हैं, यज्ञ की वेदी में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले होते हैं। इसी तरह सारे मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि तो पर्वतों में नदी, झरनों और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस तरह ब्रह्म प्रत्यक्ष, श्रेष्ठ और सत्य तत्व हैं।
आत्मा के जाने पर शरीर में क्या रह जाता है?
एक शरीर से दूसरे शरीर में आने-जाने वाली जीवात्मा जब वर्तमान शरीर से निकल जाती है, तो उसके साथ जब प्राण व इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है, तो मृत शरीर में क्या बाकी रहता है, यह नजर तो कुछ नहीं आता, किंतु असल में वह परब्रह्म उसमें रह जाता है, जो हर चेतन और जड़ प्राणी व प्रकृति में सभी जगह, पूर्ण शक्ति व स्वरूप में हमेशा मौजूद होता है।
मृत्यु के बाद जीवात्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?
यमदेव के मुताबिक अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु संगति, शिक्षा और व्यापार के जरिए देखे-सुने भावों से पैदा भीतरी वासनाओं के मुताबिक मरने के बाद जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश करती है। इनमें जिनके पुण्य-पाप समान होते हैं वे मनुष्य का और जिनके पुण्य से भी ज्यादा पाप होते हैं, वे पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं। जो बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे पेड़-पौधे, लता, तृण या तिनके, पहाड़ जैसी जड़ योनियों में जन्म लेते हैं।
आईये इसे ज्योतिषीय रूप में जाने की मृत्यु के बाद क्या होता है। किसी भी जातक का अष्टम भाव उसके मृत्यु का भाव होता है अगर अष्टमेश या अष्टम भाव शुभ ग्रहों से युत अथवा शुभ ग्रहों की दृष्टि युत होता है तो ऐसे जातक का जन्म मनुष्य योनि में अच्छे कुल में होना माना जात है यदि अष्टमेश या अष्टम भाव कू्रर ग्रहों से पापाक्रांत होकर स्वयं कू्रर स्थानों पर बैठ जाएं तो ऐसे जातक को कष्ट की यानि प्राप्त होती है। जिसमें अगर अष्टम भाव जल योनि हुई तो जलीय जीव जंतु, वायुभाव वाले ग्रहों के होने पर वायु योनि वाले जीव जंतु तथा पृथ्वी वाले भावों के स्वामी होने पर पृथ्वाी पर स्थिर जीव के रूप में जन्म मिलता है। अगर अष्टम भाव या भावेश सौम्य ग्रह हों तो उसके साथ जातक के अन्य स्थान जैसे लग्र, तृतीय, पंचम तथा भाग्य स्थान उत्तम हों, तो जातक को इसी योनि में जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्ति का योग बनता है।
Pt.P.S.Tripathi
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