Friday 14 October 2016

मेष लग्न एवं धन योग

मेष लग्न में यदि मंगल लगनस्त हो तथा बृहस्पति एवं सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट्र हो, तो धनवान होने में संदेह नहीं करना चाहिए । इसके साथ यदि द्धितीयेश शुक्र तथा एकादशेश शनि के मध्य विनिमय-परिवर्तन रोग निर्मित हो रहा हो, तो अत्यधिक धनी-मानी होने की सृष्टि होती और सूर्य का संयोग हो रहा हो, तो जातक कै अथोंदूगम की कोई सीमा नहीं होती । यदि शनि और शुक्र लाभ अथवा द्वितीय भाव में संयुक्त न होकर, लग्न में लग्नेश मंगल, पंचमेश सूर्य एवं नवमेश वृहस्पति से युक्त हों अथवा शनि, मंगल, शुक्र लग्नस्त होकर बृहस्पति और सूर्य द्धारा दुष्ट हों, तो भी जातक अपार धनवान होता हे । इस स्थिति से भी अधिक धनवान, धनार्जन, धनसंचय,धन संवर्द्धन, धनोदूगम एवं धनोत्पत्ति तब होती है जब लग्न पर मंगल, वृहस्पति और सूर्य का पूर्ण एवं प्रबट्ठा प्रभाव हो, शनि और शुक्र पंचम अथवा नवम भावस्थ हों अथवा कैन्द्र स्थानों में एकदूसरे से किसी न किसी रूप में संबंधों उल्लेखनीय है किं नवांश की महत्वपूर्ण भूमिका की उपेक्षा नहीँ की जानी चाहिए । यदि मेष लग्न हो तया मंगल स्वनवांशस्थ डो अथवा सिंह या
धनु राशि का नवांश प्राप्त कर रहा हो, तो मंगल की, धन प्रदान करने की क्षमता में अवश्य अभिवृद्धि होती है । इसी प्रकार यदि नवमेश बृहस्पति की दृष्टि लग्नस्थ वृहस्पति पर पड़ रही हो और वह स्वनबांश, उच्व नवांश या फिर मेष, सिहे या धनु नवांश मेँ स्थित हो, तो धनयोग की प्रबलता स्वत: सिद्ध होती है । लग्नस्थ मंगल पर सूर्य की दृष्टि हो अथवा सूर्य से मंगल संयुक्त हो, तो धनयोग क्री श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होतीं है परन्तु सूर्य, यदि लग्नस्थ होकर मेष, सिंह व धनु नबांशरथ हो, तो प्रबल धनयोग की संसिद्धि, समस्त संदेहों को पराजित करती है उल्लेखनीय है कि सभी ग्रह स्थितियाँ एक जन्मग्रेग में एक साथ निर्मित नहीँ हो सकती हैं अत: जिस जन्मग्रेग मेँ इन ग्रहयोगों की प्रबलता एवं अधिकता हो, वह व्यक्ति उतना ही समृद्ध, सम्पन्न, सम्पत्तिवान तवा धनवान होगा लग्न, त्रिकोण, लाभ भाव, धन भाव तथा थनकारक बृहस्पति का अध्ययन तो स्वाभाविक है परन्तु कतिपय भाव स्थितियों पर प्राय: पाठकों का ध्यान कैन्दित नहीं हो पाता हे और ये भाव भी अधोंपार्जन की दृष्टि ये पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं । धन भाव एवं लाभ भाव से त्रिकोण भावस्थ ग्रहों की अवहेलनाहै । यदि शनि और उ, लाभ या धन भाव में संयुक्त रूप से स्थित हों तथा लग्न में मंगल, वृहस्पतिग्रहों की अवहेलना करना मिथ्या परिणाम का प्रतिपादन करता है षष्ठ तथा दशम भाव, धन भाव के त्रिकोण स्थान होते हैं । इसी प्रकार लाभ भाव के त्रिकोण स्थान, तृतीय तथा सप्तम मय होते हैं इसीलिए तृतीय, षष्ठ, दशम तथा एकादश भावस्थ ग्रहों
द्वारा वसुमति योग की संरचना होती है जो धनवान होने की संपुष्टि करती है मेष लग्न से तृतीय भाव मिथुन तथा षष्ठ भाव कन्या होता है । यदि मिथुन या कन्या राशि में बुध स्थित हो, शुक्र अथवा शनि से संयुक्त हो, तो धनयोग का निर्माण होता है । इसी प्रकार मेष लग्न के जातक के जन्मग्रेग में मिथुन अथवा कन्या राशि में बुध के साय सूर्य अथवा अति भी शुभ फल प्रदान करते हैं इसी विधान का अनुकरण करते हुए यदि सप्तम अथवा यम भाव में शुक अथवा शनि संस्थित हो या उनके मध्य विनिमय दुष्टिसम्बन्ध स्थापित हो रहा हो, तो जातक धनवान होता है । यदि शनि और शुक्र के मध्य विनिमय नवांश परिवर्त्तन हो रहा हो, तो धनयोग की प्रबलता को आधार प्राप्त होता है मेष लग्न में पंचमस्थ सूर्य पर एकादशरथ शनि अथवा अति दुष्टिनिक्षेप बरि, तो अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होता है । यदि एकादश भाव में बृहस्पति तथा शनि संयुक्त रूप से संस्थित हों तथापंचम भाव में सूर्य, सिंह राशिंगत ही, तो जातक के ज़न्मा३ग में धनयोग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार से मेष लग्न में उत्पन्न होने वाले जातक के ज़न्मग्रेग के नवम भाव में बृहस्पति की स्थिति उत्वम भाग्य प्रदान करती है । वृहस्पति पर यदि सूर्य अथवा शुक्र हो, तो भी धन सम्बन्धी शुभ फलों में वृद्धि होती है । बृहस्पति, सूर्य और मंगल की नवम भाव मेँ युति की अत्यधिक प्रशंसा की जानी चाहिए । क्योंकि तीनों त्रिक्रोणों के अधिपति के नवम भाव में स्थित होने से उत्तम भाग्य तथा धनयोग की संरचना होती हे पाठकगण भ्रमित न हों, इसलिए इस बिषय का अधिक विस्तार न करते हुए इतना कहना ही उपयुक्त होगा कि नक्षत्रों के बलाबल तथा शुभाशुभ पर विचार करना भी अपेक्षित है । नवम भाव में धनु राशिगत वृहस्पति, यदि धनु, कर्क, सिंह अथवा मेष नवांश में स्थित हो, तो निश्चित रूप से बृहस्पति के शुभत्व में वृद्धि होगी तथा जातक अत्यधिक भाग्यवान व्यक्ति वो रूप में प्रतिष्ठित और प्रशंसित होगा । इसी प्रकार से नवम भावस्थ बृहस्पति यदि उत्तराषाढ़ नक्षत्र कं प्रथम पद में स्थित हो, तो उसके शुभत्व का विस्तार होगा । यदि बृहस्पति दसवर्ग बल मेँ अधिक से अधिक स्ववर्ग अथवा उच्व राशि कै वर्गो को प्राप्त करेगा, तो उत्तमोत्तम फल प्रदान करने मेँ सफल होगा । यदि दसवर्ग बल की गणना न की गई हो, तो षडवर्ग बल के आधार पर बृहस्पति, मंगल, सूर्य, शनि और केतु के बलाबल पर विचार करने के उपरान्त ही जातक कै धन सम्बन्धी विषयों के भविष्य कथन की अभिव्यक्ति करनी चाहिऐ |

Thursday 13 October 2016

सम्मोहन की ज्योतिष्य अवधारणा

मानव-मस्तिष्क की रचना बहुत जटिल है। शरीर की समस्त चेतनाओं का केंद्र मस्तिष्क है। यह अपनी गतिविधियों को तंत्रिका-तन्त्र के माध्यम से स्वचालित करता है। मनुष्य के ऐच्छिक एबं अनैच्छिक कार्यों का नियन्त्रण तंत्रिका-तंत्र ही करता है। इस तन्त्र के अभाव में शरीर के सभी अंग कार्य करना बंद कर देते है। शरीर में विभिन्न संवेदनाओं की उत्पत्ति, मांसपेशियों का स्वचालन, सोचना,विचारना, जटिल मानसिक क्रियाएं, इच्छाओं का स्त्रोत और उनकी पूर्ति की अनुभूति इसी तन्त्र के द्वारा होती है।
मस्तिष्क के ‘मेरुशीर्ष’ या ‘सुंषुम्ना शीर्ष’ से निकलने वाली 31 जोड़ी नसें शरीर के समस्त हिस्सों तक फैली रहती हैं। जिस प्रकार बिजली या टेलीफोन के तार पावर हाउस से निकलकर घर-घर फैले रहते हैं, उसी प्रकार मस्तिष्क से निकलकर 31 जोड़ी प्रधान नाडिय़ा शरीर में सर्वत्र फैली रहती हैं। इनका पावरहाउस या ऊर्जा-स्त्रोत मस्तिष्क होता है। तंत्रिका-तंत्र में तीन प्रकार की नाडिय़ाँ होती हैं। उनके कार्य और प्रकृति को देखते हुए तंत्रिका-तंत्र को तीन भागों में बाटाजा सकता है-
1. परिधीय तंत्रिका-तंत्र:
इस तंत्र मे दो प्रकार की नाडिय़ां होती हैं-
(अ) ज्ञानवाही
(ब) गतिवाही
ज्ञानवाही नाडिय़ां बाहर की क्रियाओं से संवेदना ग्रहण करके मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं और उन गृहित संवेदनाओं का विश्लेषण करके मस्तिष्क गतिवाहीनाडिय़ों द्वारा स्थिति से निपटने या प्रतिक्रिया के ढंग के बारे में सम्बन्धित अंग तक सन्देश भेजता है।
उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति के पैर में कांटा चुभ जाता है, तो ज्ञानवाही नाडिय़ां मस्तिष्क तक इस घटना का सन्देश ले जाती हैं। फिर मस्तिष्क गतिवाही नाडिय़ां के माध्यम से पैर को उस जगह से तुरन्त हटाने का निर्देश देता है। लेकिन यहीं पर यह जान लेना आवश्यक है कि जब उत्तेजनाएं गतिवाही नाडिय़ों से मस्तिष्क की ओर न जाकर सीधी शारीरिक प्रतिक्रियाओं में परिणीत हो जाती हैं, तो क्रियाओं का स्वचालन सीधे मेरुदण्ड से होता है। ऐसी क्रियाओं को सहज क्रियाएं कहते हैं।
2. केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र:
केन्द्रीय तंत्रिका-तंत्र दो भागों में विभक्त रहता है-
(अ) मेरुदण्ड
(ब) मस्तिष्क
मेरुदण्ड सुषुम्ना शीर्ष का नीचे का हिस्सा है, जो रीढ़ की हड्डियों में सुरक्षित होता हुआ नीचे तक जाता है। इसमें से 31 जोड़ी ज्ञानवाही तथा गतिवाही नाडिय़ां दायीं तथा बांयी ओर निकलती हैं। ज्ञानवाही तथा गतिवाही नाडिय़ां मेरुदण्ड के आगे-पीछे के दोनों भागों से निकलती हैं। नीचे के भागों से स्नायु-तन्तु निकलते हैं, जिनका कार्य गति प्रदान करना होता है। चालक स्नायु ऊपर के भाग से निकलते है। ज्ञानवाही स्नायु का कार्य अनुभव-वेग को मेरुदण्ड तक ले जाना और गतिवाही स्नायुओं का कार्य उस अनुभव-वेग को मसिंपेशियों तक ले जाकर उनसे सहज कार्य कराना होता है।
मस्तिष्क के चार भाग है:
1. बड़ा मस्तिष्क
2. मध्यम मस्तिष्क
3. सेतु
4. मेरुदण्ड शीर्ष (लघु मस्तिष्क)।
बड़ा मस्तिष्क, मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है, जो दो गोलार्धों (दायें-बायें) से मिलकर बना होता है। बड़ा मस्तिष्क सिंताओं द्वारा अनेक भागों में विभक्त रहता है। बड़ा मस्तिष्क शरीर की समस्त क्रियाओं को सांचालित करता है। यदि किसी आघात या दुर्घटना के कारण मस्तिष्क व मेरुदण्ड का सम्बन्ध टूट जाता है, तो शरीर की समस्त क्रियाएं तुरन्त बन्द हो जाती हैं। इस बड़े मस्तिष्क का प्रधान कार्य ज्ञानवाही तन्तुओं से ज्ञान प्राप्त करना तथा गतिवाही तन्तुओं से ज्ञान को क्रियारूप देना है । बृहत् मस्तिष्क में अंग-विशेष के ज्ञान और संचालन के लिए अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित हैं। मस्तिष्क के इन विशिष्ट क्षेत्रों के द्वारा उस अंग विशेष की समस्त चेष्टाएं व गतिविधियां संचालित होती हैं। बृहत् मस्तिष्क में ही विभिन्न संवेगों का जन्म होता है तथा समस्त क्रियाएं व चेष्टाएं नियंत्रित होती है।
मध्य मस्तिष्क बृहत् मस्तिष्क के ठीक नीचे स्थित रहता है। यह शारीरिक गतिविधियों को समता प्रदान करता है तथा मसिपेशियों के कार्यं को नियंत्रित करता है। यदि यह कार्यं करना बन्द कर दे, तो शारीरिक गति असन्तुलित हो जाती है।
सेतु लधु मस्तिष्क के दोनों भागों के बीच श्वेत स्नायु सूत्रों की पट्टी के रूप में विद्यमान रहता है। यह सुषुम्ना शीर्ष का सम्बन्थ बड़े मस्तिष्क से जोड़ता है। बड़े मस्तिष्क को जाने वाले सभी स्नायु यहीं से होकर जाते हैं। इसका प्रमुख कार्य भिन्न-भिन्न भागों से सम्बन्ध स्थापित करना है।
मेरुशीर्ष या सुषुम्ना शीर्ष स्नायु सुत्रों द्वारा बना हुआ वह गड्ढा हैं, जो बृहत्मस्तिष्क के नीचे स्थित रहता है। इसके पीछे लधु मस्तिष्क होता है। सभी स्नायुसूत्र, जो सुषुम्ना से होकर बृहत् या लघु मस्तिष्क को जाते हैं, मेरुदण्ड शीर्ष से होकर ही जाते हैं। इसके मध्य में रक्त-परिभ्रमण, श्वसन एवं निगलने आदि क्रियाओं के केन्द्र विद्यमान हैं। इस प्रकार यह मस्तिष्क का महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें आघात से मनुष्य की तुरन्त मृत्यु को जाती है। यदि इस पर हलका आघात भी लग जाये, तो मनुष्य तुरन्त चेतनाशून्य (बेहोश) हो जाता है।
3. स्वतन्त्र तंत्रिका:
तंत्र-मेरूदण्ड से सीधा तथा बायीं ओर गर्दन तक फैला हुआ है। इसका आकार डोरियों के समान होता है। यह थूक, मूत्राशय आदि क्रियाओं को नियंत्रित करता है। हदय की धडक़न, नाडिय़ों की गति व फेफड़ों की श्वास-प्रश्वाश प्रक्रियाएं भी स्वतन्त्र तंत्रिका-तन्त्र द्वारा ही नियंत्रित होती हैं। इस तन्त्र में दो प्रकार की नाडिय़ां काम करती हैं- अनुकम्पी या सहायनी और परानकम्पी या अतिसहायनी। दोनों प्रकार की नाडिय़ां एक-दूसरे के विपरीत कार्य करती हैं। जब पहली सक्रिय होती है, तो दूसरी निक्रिय होने लगती है। इन नाडिय़ों में रस उत्पन्न होने से उत्तेजना उत्पन्न होती है तथा शरीर में शक्ति का संचार होने लगता है। जिन कार्यों को हम सामान्य अवस्था में करने में असमर्थ रहते हैं, उन्हें उत्तेजना की अवस्था में सहज ही कर लेते हैं।
इस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क और तंत्रिका-तंत्र की क्रियाविधि अत्यन्त सुनियोजित व सुव्यवस्थित है।
जब किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाता है, तो सम्मोहनकर्ता उसे किसी चमकीली वस्तु, काले बिन्दु या शक्ति-चक्र में एकटक देखने के लिए कहता है। वह व्यक्ति जब लक्ष्य को बिना पलक झपकाये कुछ देर तक देखता रहता है, तो निम्नलिखित क्रियाएँ घटित होती हैं-
1. ज्ञानवाही व गतिवाही नाडिय़ों में दबाव उत्पन्न होने लगता है।
2. मस्तिष्क के दृश्य क्षेत्र में दबाव उत्पन्न होने से मस्तिष्क थकान अनुभव करने लगता है।
3. मस्तिष्क का शेष भाग विचार शून्य रहता है।
4. हदय की गति मन्द पड़ जाती है।
5 सांस धीमी गति से चलने लगती है।
6. उस व्यक्ति के मन-मस्तिष्क पर मनोवैज्ञानिक दबाव पडऩे लगता है। इसीलिए उपर्युक्त परिस्थितियों में जब सम्मोहनकर्ता अपने माध्यम को पलके बन्द करने व सो जाने का निर्देश देता है, तो वह निर्देशों को सहजता से स्वीकार कर लेता है।
यह परिस्थिति अकस्मात् दो मिनट के अन्दर घटित होती है। इसलिए चेतन मन धीरे-धीरे सम्मोहन की कृत्रिम नींद की अवस्था में चला जाता है, किन्तु शारीरिक क्रियाएं फिर भी सामान्य व सक्रिय बनी रहती हैं। ऐसी परिस्थिति में अवचेतन मन, चेतन मन का स्थान ले लेता है। चेतन मन के निष्क्रिय हो जाने पर अवचेतन मन सक्रिय हो उठता है। अवचेतन मन की सक्रियता की इस अवस्था को ही सम्मोहन कहा जाता है।
इस सन्दर्भ में यहा यह बता देना आवश्यक है कि चेतन मन शरीर के किसी अंग या भाग से आने वाली ज्ञानवाही संवेदनाओं का विश्लेषण करता है और तत्पश्चात् गतिवाही नाडिय़ों द्वारा कार्यनीति का निर्देश देता है, जिससे अंगों में किसी कार्य की प्रतिक्रिया का प्रभाव तुरन्त दिखाई देता है, किन्तु अवचेतन मन ज्ञानवाही तन्तुओं से प्राप्त संवेदनाओं अथवा संकेतों का विश्लेषण स्वयं नहींं कर सकता, इसलिए इस कार्य को स्वयं सम्मोहनकर्ता सम्पादित करता है। अवचेतन मन की विशेषता यह है कि वह सम्मोहन कर्ता के प्रति पूर्णत: समर्पित और दृढ़ आस्थावान होता है। सम्मोहनकर्ता उसे जैसी आज्ञा देता है, वैसा ही सब कुछ उसे सत्य और साकार दिखाई देता है।
अवचेतन मन के सक्रिय हो जाने से परिधीय तंत्रिका-तन्त्र और केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र को ज्ञानवाही नाडिय़ों द्वारा प्राप्त होने वाले संवेदना-संकेतों का विश्लेषण कार्य मस्तिष्क के भीतर नहींं होता; क्योंकि यह कार्य चेतन मन का है तथा इस अवस्था में चेतन मन निष्क्रिय रहता है और अवचेतन जागृत रहता है। इसलिए तथ्यों के विश्लेषण व तर्क-वितर्क की प्रक्रिया पूर्णत: बन्द पड़ी रहती हैं। यही कारण है कि सम्मोहनकर्ता जैसी भावना देता है, अवचेतन को वैसा ही सत्य दिखाई देता है।
अवचेतन मन की सक्रियता के करण गतिवाही नाडिय़ां सम्मोहनकर्ता से प्राप्त निर्देशों का पालन करने के लिए विवश होती हैं। इसीलिए जब सम्मोहनकर्ता सम्मोहित व्यक्ति को कहता है कि, तुम्हारा हाथ संवेदना शून्य हो गया है, तो गतिवाही नाडिय़ां उसे संवेदना शून्य बना देती हैं। साथ ही ज्ञानवाही नाडिय़ों से प्राप्त संकेतों के विश्लेषण करने और ग्रहण करने में अवचेतन मन अक्षम हो जाता है, जिससे उस व्यक्ति के हाथों में सचमुच संवेदना शून्यता की स्थिति आ जाती है। यह सब अवचेतन के तर्क-वितर्कहित होने के कारण होता है।
यदि कोई व्यक्ति दर्दनिवारक दवाइयां खा लेता है, तो उसे अपने शरीर में होनेवाली पीड़ा का आभास नहींं होता। वास्तव में पीड़ाहर दवाइयां अंगों की पीड़ा को समाप्त नहींं करती, अपितु मस्तिष्क तक संवेदना पहुंचाने वाली ज्ञानवाही नाडिय़ों को निष्क्रिय बना देती है, जिससे मस्तिष्क तक पीड़ा को संवेदनाएं नहींं पहुंच पाती और रोगी को पीड़ा से छुटकारा मिल पाता है। ठीक यही प्रक्रिया सम्मोहन की अवस्था में भी होती है। सम्मोहन की अवस्था में पीड़ाहर दवाइयों का काम सम्मोहनकर्ता द्वारा दी गयी भावनाएं करती हैं।
दु:ख, सुख, पीड़ा, बेचैनी, सर्दी-गर्मी, पेशीय क्रियाएं, स्वाद, दृष्टि, गन्ध आदि का कारण हमारा मस्तिष्क है, इसलिए सम्मोहन की अवस्था में इन सभी अनुभूतियों की प्रतीति अथवा भ्रम की स्थिति उत्पन्न की जा सकती है।
परिधीय तंत्रिका-तंत्र पर सम्मोहन का प्रभाव:
परिधीय तंत्रिका-तंत्र का कार्य स्थानीय संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाना तथा मस्तिष्क के निर्देशों के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त करना है। यदि किसी व्यक्ति के पैर में सुई चुभाई जाये, तो परिधीय तंत्रिका-तंत्र की ज्ञानवाही नाडिय़ां मस्तिष्क तक यह सन्देश पहुंचाती हैं कि उस स्थान पर सुंईं चुभायी गयी है। प्राप्त संकेतों का तुरन्त अध्ययन व विश्लेषण करके, मस्तिष्क गतिवाही नाडिय़ों के माध्यम से यह निर्देश पेशियों को देगा कि उस जगह से पैर को तुरन्त हटाया जाये और पैर तुरन्त यहीं से हट जायेगा। इस सम्मूर्ण क्रिया का सम्पादन पलक झपकते हो जायेगा।
सम्पोहन के प्रभाव से चेतन मन निष्क्रिय हो जाता है। इसलिए परिधीय तंत्रिका-तन्त्र की क्रियाएं भी प्रभावित हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में अवचेतन मस्तिष्क में जो भावनाएं विद्यमान रहती हैं, यहीं परिधीय तंत्रिकाओं को चिंतित करती हैं, अर्थात् यदि सम्मोहित व्यक्ति को यह कहा जाये कि सुई चुभने से उसे दर्द नहींं होगा, तो उसे दर्द नहींं होता। लेकिन यदि उसे यह भावना दी जाये कि उसके पैर में सुई चुभ गयी है, तो उसे सुई चुभने का दर्द महसूस होगा, क्योंकि अवचेतन में सुई चुभने की अनुभूति साकार हो जायेगी तथा गतिवाही नाडिय़ां उस दिशा में सक्रिय हो उठेगी। यहीं कारण है कि सम्मोहन की अवस्था में दर्द की अनुभूति नहींं होती।
केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र पर सम्मोहन का प्रभाव:
केन्द्रीय पेशियों का संचालन, पलक झपकना, स्वाद, गन्ध एवं रंगों की अनुभूति, शरीर एवं अंगों का संचालन, मनोवेग से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का संचालन, शरीर में विद्यमान संवेदना की अनुभूति आदि करता है। केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र के निष्क्रिय हो जाने से सम्पूर्ण शरीर चेतनाशून्य हो जाता है।
सम्मोहन की अवस्था में केन्द्रीय तंत्रिका-तन्त्र की सम्पूर्ण क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं अवचेतन मन के नियन्त्रण में आ जाती हैं । इसलिए संवेदनाओं की अनुभूति, मांसपेशियों की गति-संचालन, स्वाद, गन्ध, रंगों की अनुभूति व मनोवेग का प्रभाव आदि सभी कुछ अवचेतन को दी गयी भावनाओं व उसकी अनुभूतियों पर निर्भर करता है। यहीं कारण है कि इन सभी अनुभूतियों व मनोवेगों के विषय में सम्मोहित व्यक्ति को भ्रमित किया जा सकता है और सम्मोहित व्यक्ति भ्रम को ही सत्य स्वीकार करके अपनी चेष्टाएं करेगा, क्योंकि उसके अवचेतन मन में तर्क-वितर्क या विश्लेषण की क्षमता ही नहींं रह जाती। जब सम्मोहित व्यक्ति को कहा जाता है कि उसके हाथ-पैर की पेशियां अकड़ गयी हैं तो उसका अवचेतन मन इस भावना को स्वीकार कर लेता है और गतिवाही नाडिया अपने संकेतों द्वारा मसिंपेशियों में अकडऩ उत्पन्न कर देती हैं। इसी प्रकार स्वाद, गन्ध, तापमान व रंग आदि का भ्रम उत्पन्न होने से शरीर-क्रिया प्रभावित होती है ।
स्वचालित तंत्रिका-तन्त्र परसम्मोहन का प्रभाव:
स्वचालित तंत्रिका-तन्त्र शरीर में विद्यमान अनैच्छिक पेशियों, जैसे मूत्राशय, हदय एवं फेफड़ों की पेशियां व अन्त: स्त्रावी ग्रन्थियां, आँतों की गति आदि से सम्बद्ध होती हैं। सम्मोहन की अवस्था में शरीर के तापमान, नाड़ी को गति, हृदय की धडक़न एवं सांस लेने की गति-आवृति को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए अवचेतन मन को ऐसी अनुभूति करनी पड़ती हैं कि उसके फेफड़ों या ह्रदय की धडक़न धीरे-धीरे बढ़ रही हैं, जब यह कहा जायेगा कि धडक़न बढ़ रही हैं, तो आवचेतन मन धडक़न बढऩे की अनुभूति करेगा, जिससे उस अंग विशेष की नाडिय़ा में रस उत्पन्न होगा। नाडिय़ों मे उत्पन्न रस उत्तेजना की वृद्धि या शमन करके स्थानीय क्रियाओं मे असाधारण स्थिति पैदा कर देता हैं, जिसके फलस्वरूप शरीर-क्रिया प्रभावीत होती हैं। इस प्रकार स्वचालित तंत्रिका-तंत्र पर सम्मोहन का सीधा और कारगर प्रभाव पड़ता है।

कुंडली में लक्ष्मी योग

ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में धन वैभव और सुख के लिए कुण्डली में मौजूद धनदायक योग या लक्ष्मी योग काफी महत्वपूर्ण होते हैं. जन्म कुण्डली एवं चंद्र कुंडली में विशेष धन योग तब बनते हैं जब जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश दूसरे भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एक साथ व नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो व्यक्ति धनवान होता है. ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में धन वैभव और सुख के लिए कुण्डली में मौजूद धनदायक योग या लक्ष्मी योग काफी महत्वपूर्ण होते हैं. जन्म कुण्डली एवं चंद्र कुंडली में विशेष धन योग तब बनते हैं जब जन्म व चंद्र कुंडली में यदि द्वितीय भाव का स्वामी एकादश भाव में और एकादशेश दूसरे भाव में स्थित हो अथवा द्वितीयेश एवं एकादशेश एक साथ व नवमेश द्वारा दृष्ट हो तो व्यक्ति धनवान होता है.
शुक्र की द्वितीय भाव में स्थिति को धन लाभ के लिए बहुत महत्व दिया गया है, यदि शुक्र द्वितीय भाव में हो और गुरु सातवें भाव, चतुर्थेश चौथे भाव में स्थित हो तो व्यक्ति राजा के समान जीवन जीने वाला होता है. ऐसे योग में साधारण परिवार में जन्म लेकर भी जातक अत्यधिक संपति का मालिक बनता है. सामान्य व्यक्ति भी इन योगों के रहते उच्च स्थिति प्राप्त कर सकता है.
मेष लग्न के लिए धन योग:
लग्नेश मंगल कर्मेश शनि और भाग्येश गुरु पंचम भाव में हो तो धन योग बनता है. इसी प्रकार यदि सूर्य पंचम भाव में हो और गुरु चंद्र एकादश भाव में हों तो भी धन योग बनता है और जातक अच्छी धन संपत्ति पाता है.
वृष लग्न के लिए धन योग:
मिथुन में शुक्र, मीन में बुध तथा गुरु केन्द्र में हो तो अचानक धन लाभ मिलता है. इसी प्रकार यदि शनि और बुध दोनों दूसरे भाव में मिथुन राशि में हों तो खूब सारी धन संपदा प्राप्त होती है.
मिथुन लग्न के लिए धन योग:
नवम भाव में बुध और शनि की युति अच्छा धन योग बनाती है. यदि चंद्रमा उच्च का हो तो पैतृक संपत्ति से धन लाभ प्राप्त होता है.
कर्क लग्न के लिए धन योग:
यदि कुण्डली में शुक्र दूसरे और बारहवें भाव में हो तो जातक धनवान बनता है. अगर गुरू शत्रु भाव में स्थित हो और केतु के साथ युति में हो तो जातक भरपूर धन और एश्वर्य प्राप्त करता है.
सिंह लग्न के लिए धन योग:
शुक्र चंद्रमा के साथ नवांश कुण्डली में बली अवस्था में हो तो व्यक्ति व्यापार एवं व्यवसाय द्वारा खूब धन कमाता है. यदि शुक्र बली होकर मंगल के साथ चौथे भाव में स्थित हो तो जातक को धन लाभ का सुख प्राप्त होता है.
कन्या लग्न के लिए धन योग:
शुक्र और केतु दूसरे भाव में हों तो अचानक धन लाभ के योग बनते हैं. यदि कुण्डली में चंद्रमा कर्म भाव में हो तथा बुध लग्न में हो व शुक्र दूसरे भाव स्थित हो तो जातक अच्छी संपत्ति संपन्न बनता है.
तुला लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली में दूसरे भाव में शुक्र और केतु हों तो जातक को खूब धन संपत्ति प्राप्त होती है. अगर मंगल, शुक्र, शनि और राहु बारहवें भाव में होंतो व्यक्ति को अतुल्य धन मिलता है.
वृश्चिक लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली में बुध और गुरू पांचवें भाव में स्थित हो तथा चंद्रमा एकादश भाव में हो तो व्यक्ति करोड़पति बनता है. यदि चंद्रमा, गुरू और केतु दसवें स्थान में होंतो जातक धनवान व भाग्यवान बनता है.
धनु लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली में चंद्रमा आठवें भाव में स्थित हो और सूर्य, शुक्र तथा शनि कर्क राशि में स्थित हों तो जातक को बहुत सारी संपत्ति प्राप्त होती है. यदि गुरू बुध लग्न मेषों तथा सूर्य व शुक्र दुसरे भाव में तथा मंगल और राहु छठे भाव मे हों तो अच्छा धन लाभ प्राप्त होता है.
मकर लग्न के लिए धन योग:
जातक की कुण्डली में चंद्रमा और मंगल एक साथ केन्द्र के भावों में हो या त्रिकोण भाव में स्थित हों तो जातक धनी बनता है. धनेश तुला राशि में और मंगल उच्च का स्थित हो व्यक्ति करोड़पति बनता है.
कुंभ लग्न के लिए धन योग:
कर्म भाव अर्थात दसवें भाव में चंद्र और शनि की युति व्यक्ति को धनवान बनाती है. यदि शनि लग्न में हो और मंगल छठे भाव में हो तो जातक एश्वर्य से युक्त होता है.
मीन लग्न के लिए धन योग:
कुण्डली के दूसरे भाव में चंद्रमा और पांचवें भाव में मंगल हो तो अच्छे धन लाभ का योग होता है. यदि गुरु छठे भाव में शुक्र आठवें भाव में शनि बारहवें भाव और चंद्रमा एकादशेश हो तो जातक कुबेर के समान धन पाता है.
कुछ अन्य धन योग:
यह तो बात हुई लग्न द्वारा धन लाभ के योगों की अब हम कुछ अन्य धन योगों के विषय में चर्चा करेंगे जो इस प्रकार बनते हैं.
* मेष या कर्क राशि में स्थित बुध व्यक्ति को धनवान बनाता है, जब गुरु नवे और ग्यारहवें और सूर्य पांचवे भाव में बैठा हो तब व्यक्ति धनवान होता है.
* जब चंद्रमा और गुरु या चंद्रमा और शुक्र पांचवे भाव में बैठ जाए तो व्यक्ति को अमीर बनाता है.
* सूर्य का छठे और ग्यारहवें भाव में होना व्यक्ति को अपार धन दिलाता है.
* यदि सातवें भाव में मंगल या शनि बैठे हों और ग्यारहवें भाव में शनि या मंगल या राहू बैठा हो तो व्यक्ति धनवान बनता है.
* मंगल चौथे भाव, सूर्य पांचवे भाव में और गुरु ग्यारहवे या पांचवे भाव में होने पर व्यक्ति को पैतृक संपत्ति से लाभ मिलता है.

पेट के रोग और ज्योतिष्य उपाय

पेट के रोग को ज्योतिष में देखा जाये तो चतुर्थ, पंचम एवं दशम भाव से देखा जाता है। इन स्थानों के स्वामीग्रह यदि छठे, आठवे या बारहवें अथवा अपने घर से छठे, आठवे, बारहवे स्थान में हो जाये, अथवा क्रूर ग्रहों से आक्रांत हो तो पेट के रोग देते हैं। साथ ही अगर लग्र, तीसरे, पंचम, सप्तम, दशम स्थानों में शनि अथवा राहु हों, तब भी पेट के रोगी हो सकते हैं। अत: यदि चिकत्सकीय ईलाज से लाभ न प्राप्त हो रहा हो तो उक्त ग्रहों की शांति करानी एवं मंत्र जाप करना एवं उक्त ग्रहों की सामग्री दान करना चाहिए।
पेट के रोग कई सारे और रोगों का कारण बन सकते हैं। क्या होते हैं पेट के रोगों के कारण और क्या है इनका इलाज? कुछ सरल उपाय जिन्हें अपना कर हम स्वस्थ हो सकते हैं। पेट के कुछ आम रोग हैं एसिडिटी, जी मिचलाना और अल्सर। जानते हैं इनके कारणों, लक्षण, ईलाज और बचने के उपायों के बारे में। साथ ही यह भी जानते हैं कि कैसे योग अपना कर और अपनी भावनाओं में बदलाव लाकर हम इन रोगों से बच सकते हैं।
एसिडिटी:
हमारे पेट में बनने वाला एसिड या अम्ल उस भोजन को पचाने का काम करता है, जो हम खाते हैं, लेकिन कई बार पचाने के लिए पेट में पर्याप्त भोजन ही नहीं होता या फिर एसिड ही आवश्यक मात्रा से ज्यादा बन जाता है। ऐसे में एसिडिटी या अम्लता की समस्या हो जाती है। इसे आमतौर पर दिल की चुभन या हार्टबर्न भी कहा जाता है। वसायुक्त और मसालेदार भोजन का सेवन आमतौर पर एसिडिटी की प्रमुख वजह है। इस तरह का भोजन पचाने में मुश्किल होता है और एसिड पैदा करने वाली कोशिकाओं को आवश्यकता से अधिक एसिड बनाने के लिए उत्तेजित करता है।
एसिडिटी के आम कारण:
* लगातार बाहर का भोजन करना।
* भोजन करना भूल जाना।
* अनियमित तरीके से भोजन करना।
* मसालेदार खाने का ज्यादा सेवन करना।
* विशेषज्ञों का मानना है कि तनाव भी एसिडिटी का एक कारण है।
* काम का अत्यधिक दबाव या पारिवारिक तनाव लंबे समय तक बना रहे तो शारीरिक तंत्र प्रतिकूल तरीके से काम करने लगता है और पेट में एसिड की मात्रा आवश्यकता से अधिक बनने लगती है।
एसिडिटी से बचने के लिए क्या करें:
पानी: सुबह उठने के फौरन बाद पानी पिएं। रात भर में पेट में बने आवश्यकता से अधिक एसिड और दूसरी गैर जरूरी और हानिकारक चीजों को इस पानी के जरिए शरीर से बाहर निकाला जा सकता है।
फल: केला, तरबूज, पपीता और खीरा को रोजाना के भोजन में शामिल करें। तरबूज का रस भी एसिडिटी के इलाज में बड़ा कारगर है।
नारियल पानी: अगर किसी को एसिडिटी की शिकायत है, तो नारियल पानी पीने से काफी आराम मिलता है। अदरक: खाने में अदरक का प्रयोग करने से पाचन क्रिया बेहतर होती है और इससे जलन को रोका जा सकता है।
दूध: भोजन के अम्लीय प्रभाव को दूध पूरी तरह निष्प्रभावी कर देता है और शरीर को आराम देता है। एसिडिटी के इलाज के तौर पर दूध लेने से पहले डॉक्टर से सलाह ले लेनी चाहिए, क्योंकि कुछ लोगों में दूध एसिडिटी को बढ़ा भी सकता है।
सब्जियां: बींस, सेम, कद्दू, बंदगोभी और गाजर का सेवन करने से एसिडिटी रोकने में मदद मिलती है। लौंग: एक लौंग अगर कुछ देर के लिए मुंह में रख ली जाए तो इससे एसिडिटी में राहत मिलती है। लौंग का रस मुंह की लार के साथ मिलकर जब पेट में पहुंचता है, तो इससे काफी आराम मिलता है।
कार्बोहाइडे्रट: कार्बोहाइडे्रट से भरपूर भोजन जैसे चावल एसिडिटी रोकने में मददगार है, क्योंकि ऐसे भोजन की वजह से पेट में एसिड की कम मात्रा बनती है।
समय से भोजन: रात का भोजन सोने से दो से तीन घंटे पहले अवश्य कर लेना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि भोजन पूरी तरह से पच गया है। इससे आपका स्वास्थ्य बेहतर होगा।
व्यायाम: नियमित व्यायाम और ध्यान की क्रियाएं पेट, पाचन तंत्र और तंत्रिका तंत्र का संतुलन बनाए रखती हैं।
एसिडिटी दूर रखने के लिए किन चीजों से बचें:
* तला भुना, वसायुक्त भोजन, अत्यधिक चॉकलेट और जंक पदार्थों से परहेज करें।
* शरीर का वजन नियंत्रण में रखने से एसिडिटी की समस्या कम होती है।
* ज्यादा धूम्रपान और किसी भी तरह की मदिरा का सेवन एसिडिटी बढ़ाता है, इसलिए इनसे परहेज करें।
* सोडा आधारित शीतल पेय व कैफीन आदि का सेवन न करें। इसकी बजाय हर्बल टी का प्रयोग करना बेहतर है। घर का बना खाना ही खाएं। जितना हो सके, बाहर के खाने से बचें।
* दो बार के खाने में ज्यादा अंतराल रखने से भी एसिडिटी हो सकती है।
* कम मात्रा में थोड़े-थोड़े समय अंतराल पर खाना खाते रहें।
* अचार, मसालेदार चटनी और सिरके का प्रयोग भी न करें।
ईलाज:
शरीर के अंदर उत्सर्जित हुई एसिड की ज्यादा मात्रा को निष्प्रभावी करके एंटासिड एसिडिटी के लक्षणों में तुरंत राहत प्रदान करते हैं। कुछ अन्य दवाएं हिस्टैमिन अभिग्राहकों को रोक देती हैं, जिससे पेट कम एसिड बनाता है।
जी मिचलाना और उल्टी:
जी मिचलाना और उल्टी आना अपने आप में कोई रोग नहीं हैं, बल्कि ये शरीर में मौजूद किसी रोग के लक्षण हैं। जी मिचलाने में ऐसा अहसास होता है कि पेट अपने आपको खाली कर देना चाहता है, जबकि उल्टी करना पेट को खाली होने के लिए बाध्य करने का काम है। शरीर में मौजूद उस बीमारी का पता लगाना और इलाज करना आवश्यक है, जिसकी वजह से उल्टी आना या जी मिचलाना जैसे लक्षण उभर रहे हैं। मरीज को आराम पहुंचाने के साथ-साथ पानी की कमी (खासकर बुजुर्गों और बच्चों में) को रोकने के लिए भी उल्टी और जी मिचलाने के लक्षणों को नियंत्रित करना बेहद महत्वपूर्ण है।
जी मिचलाना और उल्टी के कारण:
* लंबी यात्रा में पैदल चलना।
* गर्भावस्था की प्रारंभिक अवस्था।
* गर्भावस्था के 50 से 90 प्रतिशत मामलों में जी मिचलाना आम बात है।
* 25 से 55 प्रतिशत मामलों में उल्टी आने के लक्षण भी हो सकते हैं।
* दवाओं की वजह से होने वाली उल्टी।
* तेज दर्द।
* भावनात्मक तनाव या डर।
* पेट खराब होना।
* संक्रामक रोग जैसे पेट का फ्लू।
* आवश्यकता से ज्यादा खा लेना।
* खास तरह की गंध को बर्दाश्त न कर पाना।
* दिल का दौरा पडऩा।
* दिमाग में लगी चोट।
* ब्रेन ट्यूमर।
* अल्सर।
* कुछ तरह का कैंसर।
* पेट में संक्रमण की वजह से होने वाला तीव्र जठर शोथ।
* अल्कोहल और धूम्रपान जैसी पेट को तकलीफ देने वाली चीजें।
* कुछ ऐसे मामले जिनमें मस्तिष्क से आने वाले संकेतों की वजह से उल्टी आती है।
* कुछ दवाएं और इलाज।
* मल त्याग में अवरोध।
आमतौर पर उल्टी आने का कोई नुकसान नहीं होता, लेकिन यह किसी गंभीर बीमारी का लक्षण अवश्य हो सकती है। इसके अलावा, इसकी वजह से होने वाली पानी की कमी चिंता का विषय है। पानी की कमी होने का खतरा बच्चों में सबसे ज्यादा होता है।
उल्टी में डॉक्टर की सलाह:
उल्टी के साथ अगर नीचे दिए लक्षणों में से कोई भी होता है तो आपको तुरंत डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
* उल्टी के साथ खून आ रहा है। यह खून देखने में तेज लाल या कॉफी के रंग का हो सकता है।
* तेज सिरदर्द या गर्दन की जकडऩ।
* आलस, व्याकुलता या सतर्कता में कमी।
* पेट में तेज दर्द।
* 101 डिग्री फॉरेनहाइट से ज्यादा बुखार।
* डायरिया या दस्त।
* सांस या नब्ज का तेज चलना।
पेप्टिक अल्सर:
पेट या छोटी आंत की परत में होने वाले घाव को पेप्टिक अल्सर कहते हैं जिसके कारण हैं:
* पेट में हेलिकोबेक्टर पायलोरी नामक बैक्टिरिया की वजह से होने वाला संक्रमण।
* डिस्प्रिन, ऐस्प्रिन, ब्रूफेन जैसी दर्दनाशक दवाएं।
* तमाम तरह के अन्य और अज्ञात कारण।
* तनाव और मसालेदार खाने से अल्सर नहीं होता, लेकिन अगर अल्सर पहले से है तो इनसे वह और ज्यादा बिगड़ सकता है।
* धुम्रपान।
* मल के साथ खून आना या मल देर से होना।
* सीने में दर्द।
* थकान।
* उल्टी, हो सकता है कि उल्टी के साथ खून भी आए।
* वजन में कमी।
अल्सर के लक्षण:
पेप्टिक अल्सर का सबसे प्रमुख लक्षण पेट में होने वाला दर्द है जो हल्का, तेज या अत्यधिक तेज हो सकता है। अपच और खाने के बाद पेट में होने वाला दर्द।
* भरा पेट होने जैसा अहसास।
* भरपूर मात्रा में तरल पदार्थ न ले पाना।
* जल्दी जल्दी भूख लगना और पेट खाली होने जैसा अहसास।
* खाना खाने के एक से तीन घंटे बाद ही ऐसा लगने लगता है।
* हल्का जी मिचलाना।
अल्सर के ईलाज:
अल्सर के इलाज में एंटिबायोटिक दवाओं के साथ में पेट के एसिड को दबाने वाली दवाएं दी जाती हैं, जिनसे एच पायलोरी को नष्ट किया जा सके। जटिलताएं अल्सर की जटिलताओं में शामिल हैं खून आना, छिद्रण और पेट में अवरोध। अगर नीचे दिए गए लक्षण हैं तो फौरन डॉक्टरी मदद लें।
* पेट में अचानक तेज दर्द।
* पेट का कठोर हो जाना, जो छूने पर मुलायम लगता है।
* बेहोशी आना, ज्यादा पसीना आना या व्याकुलता।
* खून की उल्टी होना या मल के साथ खून आना।
* अगर खून काला या कत्थई है तो चिंता की बात ज्यादा है।
* राहत खानपान और जीवनशैली में बदलाव करके इसमें राहत मिलती है।
अल्सर से बचाव के कुछ तरीके:
रेशेदार भोजन करें, खासकर फल और सब्जियां। इससे अल्सर होने का खतरा कम होता है। अगर पहले से अल्सर है तो उसके अच्छा होने में इन चीजों से मदद मिलेगी।
* फ्लेवॉनॉइड युक्त चीजें जैसे सेब, अजवायन, करौंदा और उसका रस, प्याज, लहसुन और चाय एच पायलोरी की बढ़ोतरी को रोकते हैं।
* कुछ लोगों में मसालेदार खाना खाने से अल्सर के लक्षण और बिगड़ सकते हैं।
* धूम्रपान और अल्कोहल का सेवन बंद कर दें।
* कैफीन रहित समेत सभी तरह की कॉफी कम पिएं। सोडायुक्त पेय भी कम लें। ये सभी चीजें पेट में एसिड की मात्रा को बढ़ा सकती हैं।
* योग या ध्यान क्रियाओं के जरिए खुद को विश्राम देने की कोशिश करें और तनाव कम करें। ये क्रियाएं दर्द कम करने और दर्दनाशक दवाओं की आवश्यकता को कम करने में मददगार हैं। ध्यान रखें दिल का दौरा भी अल्सर के दर्द या अपच जैसे लक्षण दे सकता है। जबड़ों के बीच के क्षेत्र में और नाभि के क्षेत्र में किसी भी तरह की दिक्कत या दर्द हो या सांस लेने में परेशानी हो तो अपने डॉक्टर से सलाह करें। बिना डॉक्टर की सलाह के अपने आप ही मेडिकल स्टोर से एंटासिड न खरीदें।
योग मदद कर सकता है:
एक कहावत है, इंसान साइकोसोम या मनोकाय होता है। कई रोग मनोदैहिक होते हैं। अगर दिमाग में कोई तनाव है, तो पेट में एसिडिटी होगी। दिमाग में तनाव है तो दमा हो सकता है। उसी तनाव की वजह से अलग अलग लोगों को अलग अलग तरह के रोग होते हैं। तनाव की वजह से कौन सा रोग होगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस इंसान के अंदर कौन सी चीज जन्म से ही कमजोर है। शरीर और मस्तिष्क दो अलग अलग चीजें नहीं हैं। मस्तिष्क शरीर का सूक्ष्म पहलू है। आमतौर पर जब योग की बात आती है, तो हमारा ज्यादातर काम प्राणमय कोश के स्तर पर ही होता है, क्योंकि अगर हम प्राणमय कोश या ऊर्जा शरीर को पूरी तरह से सक्रिय और संतुलित कर देंगे तो अन्नमय कोश और मनोमय कोश अपने आप ही सही तरीके से संतुलित और स्वस्थ हो जाएंगे।

ज्योतिष द्वारा जाने अपनी मृत्यु का सटीक समय

किसी भी मानवीय जीवन की छह घटनाओं के बारे में कहा जाता है कि इनके बारे में केवल ईश्वर ही जानता है, कोई साधारण मनुष्य इसकी पूर्ण गणना नहीं कर सकता। इन छह घटनाओं में से पहली दो घटनाएं न केवल किसी भी आत्मा के पृथ्वी पर प्रवास का समय निर्धारित करती है, बल्कि ज्योतिषी के समक्ष हमेंशा प्रथम चुनौती के रूप में खड़ी रहती है।
    एक ज्योतिषी के लिए किसी जातक के जन्म समय का निर्धारण ज्योतिषीय कोण से भी बहुत मुश्किल रीति है। सामान्य तौर पर बच्चे के जन्म का समय वही माना जाता है, जो अस्पताल के कार्ड में लिखा होता है। संस्थागत प्रसव से पूर्व तो इतनी शुद्धता भी नहीं थी, केवल अनुमान से ही सुबह, दोपहर, शाम या रात का समय बताया जाता था, गोधूली बेला होने या सूर्य उदय के बाद का समय होने जैसी संभावनाओं के साथ कुण्डली बनाने का प्रयास किया जाता था। हाल के वर्षों में आम लोगों में ज्योतिष के प्रति रुचि बढऩे के साथ अस्पतालों पर भी बच्चे के जन्म समय को शुद्ध रखने का दबाव आने लगा है।
    कृष्णामूर्ति पद्धति के अनुसार गणना की जाए तो जुड़वां पैदा हुए बच्चों के जन्म समय में चार मिनट या इससे अधिक का अंतर होने पर उनके लिए सटीक फलादेश किए जा सकते हैं। परम्परागत षोडषवर्ग पद्धति में भी एक लग्न यानी दो घंटे के साठवें हिस्से तक की गणना का प्रावधान रहा है। अब समस्या यह आती है कि बच्चे का जन्म समय कौनसा माना जाए? अगर सामान्य डिलीवरी हो तो बच्चे के जन्म की चार सामान्य अवस्थाएं हो सकती हैं। पहली कि बच्चा गर्भ से बाहर आए, दूसरी बच्चा सांस लेना शुरू करे, तीसरी बच्चा रोए और चौथी जब नवजात के गर्भनाल को माता से अलग किया जाए। इन चार अवस्थाओं में भी सामान्य तौर पर पांच से दस मिनट का अंतर आ जाता है। अगर कुछ जटिलताएं हों तो इस समय की अवधि कहीं अधिक बढ़ जाती है।
     दूसरी ओर सिजेरियन डिलीवरी होने की सूरत में भी माता के गर्भ से बाहर आने और गर्भनाल के काटे जाने, पहली सांस लेने और रोने के समय में अंतर तो रहेगा ही, यहां बस संतान के बाहर आने की विधि में ही फर्क आएगा। जहां ज्योतिष में चार मिनट की अवधि से पैदा हुए जुड़वां बच्चों के सटीक भविष्य कथन का आग्रह रहता है, वहां जन्म समय का यह अंतर कुण्डली को पूरी तरह बदल भी सकता है। कई बार संधि लग्नों की स्थिति में कुण्डलियां गलत भी बन जाती है। ऐसे में जन्म समय को लेकर हमेंशा ही शंका बनी रहती है। मेरे पास आई हर कुण्डली का मैं अपने स्तर पर बर्थ टाइम रेक्टीफिकेशन करने का प्रयास करता हूं। अगर छोटा मोटा अंतर हो तो तुरंत पकड़ में आ जाता है। वरना केवल लग्न के आधार पर फौरी विश्लेषण ही जातक को मिल पाता है। फलादेश में समय की सर्वांग शुद्धि का आग्रह नहीं किया जा सकता।
ज्योतिषी कोण से मृत्यु:
इसी प्रकार मृत्यु को लेकर भी ज्योतिषीय दृष्टिकोण में कई जटिलताएं सामने आती हैं। सामान्य तौर पर किसी जातक की मृत्यु का समय देखने के लिए मारक ग्रहों और बाधकस्थानाधिपति की स्थिति की गणना की जाती है। लग्न कुण्डली में आठवां भाव आयु स्थान कहा गया है और आठवें से आठवां यानी तीसरा स्थान आयु की अवधि के लिए माना गया है। किसी भी भाव से बारहवां स्थान उस भाव का क्षरण करता है। ऐसे में आठवें का बारहवां यानी सातवां तथा तीसरे का बारहवां यानी दूसरा भाव जातक कुण्डली में मारक बताए गए हैं। इन भावों में स्थित राशियों के अधिपति की दशा, अंतरदशा, सूक्ष्म आदि जातक के जीवन के लिए कठिन साबित होते हैं।
    इसी प्रकार बाधक स्थानाधिपति की गणना की जाती है। चर लग्नों यानी मेष, कर्क, तुला और मकर राशि के लिए ग्यारहवें भाव का अधिपति बाधकस्थानाधिपति होता है। द्विस्वभाव लग्नों यानी मिथुन, कन्या, धनु और मीन के लिए सातवां घर बाधक होता है। स्थिर लग्नों यानी वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ के लिए नौंवा स्थान बाधक होता है। मारक भाव के अधिपति और बाधक स्थान के अधिपति की दशा में जातक को शारीरिक नुकसान होता है। अब मृत्यु का समय ज्ञात करने के लिए इन दोनों स्थानों की तीव्रता को देखना होता है। सामान्य परिस्थितियों में इन स्थानों पर गौर करने पर जातक के शरीर पर आए नुकसान की गणना की जा सकती है।
    लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। अगर इंसान के साथ दो ही परिस्थितियां हों कि या तो वह जिंदा है, या मर गया है तो संभवत: इस प्रकार की गणनाएं सटीक निर्णय दे दें कि जातक की मृत्यु कब होगी। व्यवहारिक तौर पर शारीरिक अक्षमताओं से लेकर जातक के स्थानच्युत होने तक की कई अवस्थाएं होती हैं। मसलन मारक और बाधक की दशा के दौरान जातक को ऐसी चोट लगे कि वह स्थाई तौर पर अक्षम हो जाए और अपने बिस्तर से हिलना भी बंद कर दे। कोई जातक लंबी अवधि के लिए कोमा में जा सकता है, कोई जातक किसी निश्चित अवधि के लिए गायब हो सकता है, यह अवधि कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों तक हो सकती है।
    कोई जातक अज्ञातवास में रहने लग सकता है, जिसमें उसका परिवार और समाज तक से संबंध कट जाता है। कुछ जातक बुरी तरह बीमार होते हैं, इतना अधिक कि शरीर के अधिकांश अंग काम करना बंद कर देते हैं, लेकिन चिकित्सकों द्वारा लगाए गए जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से जातक पूर्णत अक्षम होने के बावजूद जिंदा रहता है।
    इन सभी मामलों में ज्योतिषीय कोण से जातक अनुपस्थित अथवा अक्षम हो चुका होता है, लेकिन तकनीकी रूप से जातक या तो जिंदा है या अज्ञातवास में है। ऐसे में हम देखते हैं कि एक ज्योतिषी जातक को होने वाले नुकसान के बारे में तो स्पष्ट बता सकता है, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु के बारे में नहीं कहा जा सकता। जीवन रक्षक उपकरणों और अक्षम हो चुके जातक को भी एक निश्चित अवधि तक जीवित बनाए रखने की संभावनों के चलते मृत्यु की परिभाषा में भी बदलाव आ रहा है।
    सामान्य परिस्थितियों में मृत्यु के इतर कुछ स्थितियां पराभौतिक भी होती हैं। किसी जातक को अपने संचित कर्मों से मिले प्रारब्ध के भाग को वर्तमान जीवन में जीना होता है, लेकिन वह उसे जी नहीं पाता। उस सूरत में अकाल मृत्यु के बाद ऐसी आत्माएं कुछ अर्से तक अटकी रहती हैं। किसी जातक के जन्म-मृत्यु की शृंखला में तीन प्रकार के कर्म प्रमुख रूप से बताए गए हैं। पहले हैं संचित कर्म। आपने किसी भी जन्म में कुछ भी किया हो, वह हमेंशा संचित होता रहता है। इन्हीं कर्म बंधनों को पूरा करने के लिए हम जन्म लेते हैं। अब संचित कर्म का कौनसा हिस्सा हमेंं वर्तमान जीवन में पूरा करना है, उसका आवंटन ईश्वर करते हैं और हमेंं आवंटित कर्म अर्थात प्रारब्ध के साथ धरती पर भेज देते हैं।
    तीसरा कर्म हम इस जीवन में अपने सक्रिय प्रयासों से करते हैं, इन्हें क्रियमाण कर्म कहा जाता है। कुण्डली में लग्न हमारे संचित कर्मों का लेखा जोखा है, पंचम भाव हमारे प्रारब्ध के बारे में जानकारी देता है और दशम भाव हमारे क्रियमाण कर्म के बारे में बताता है। ज्योतिष के भावात भावम् सिद्धांत के अनुसार बारहवां भाव अगर क्षय का है तो क्रियमाण कर्म के खर्च होने का भाव नौंवा भाव है, जिसे आम बोलचाल की भाषा में भाग्य भाव कहा जाता है। अगर जातक अपने प्रारब्ध का हिस्सा पूरा नहीं कर पाता है और क्रियमाण कर्मों के चलते अपना शरीर शीघ्र छोड़ देता है तो उसे मानव जीवन के इतर योनियों में उस समय को पूरा करते हुए अपने हिस्से का प्रारब्ध जीना होता है। जब तक हमारे सामनेचिकित्सकीय कोण से जीवित शरीर दिखाई देता है, हम यह मानकर चलते हैं कि जातक जीवित है, लेकिन ज्योतिषीय कोण यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता है। ऐसे में ज्योतिषीय योग यह तो बताते हैं कि जातक के साथ चोट कब होगी अथवा मृत्यु तुल्य कष्ट कब होगा, लेकिन स्पष्ट तौर पर मृत्यु की तारीख तय करना गणित की दृष्टि से दुष्कर कार्य है।

गणेशोत्सव 2016

गणेशोत्सव (गणेश+उत्सव) हिन्दुओं का एक उत्सव है। वैसे तो यह कमोबेश पूरे भारत में मनाया जाता है, किन्तु महाराष्ट्र का गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र में भी पुणे का गणेशोत्सव जगत्प्रसिद्ध है। यह उत्सव, हिन्दू पंचांग के अनुसार भाद्रपद मास की चतुर्थी से चतुर्दशी (चार तारीख से चौदह तारीख तक) तक दस दिनों तक चलता है। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी भी कहते हैं।
    गणेश की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण भारत में समान रूप में व्याप्त है। महाराष्ट्र इसे मंगलकारी देवता के रूप में व मंगलपूर्ति के नाम से पूजता है। दक्षिण भारत में इनकी विशेष लोकप्रियता ‘कला शिरोमणि’ के रूप में है। मैसूर तथा तंजौर के मंदिरों में गणेश की नृत्य-मुद्रा में अनेक मनमोहक प्रतिमाएं हैं।
    गणेश हिन्दुओं के आदि आराध्य देव है। हिन्दू धर्म में गणेश को एक विशष्टि स्थान प्राप्त है। कोई भी धार्मिक उत्सव हो, यज्ञ, पूजन इत्यादि सत्कर्म हो या फिर विवाहोत्सव हो, निर्विध्न कार्य सम्पन्न हो इसलिए शुभ के रूप में गणेश की पूजा सबसे पहले की जाती है। महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने गणेशोत्सव की प्रथमा चलायी थी। छत्रपति शिवाजी महाराज भी गणेश की उपासना करते थे।
    पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बढ़ावा दिया। कहते हैं कि पुणे में कस्बा गणपति नाम से प्रसिद्ध गणपति की स्थापना शिवाजी महाराज की मां जीजाबाई ने की थी। परंतु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को जो स्वरूप दिया उससे गणेश राष्टीय एकता के प्रतीक बन गये। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित थी। पूजा को सार्वजनिक महोत्सव का रूप देते समय उसे केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
    लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 1893 में गणेशोत्सव का जो सार्वजनिक पौधरोपण किया था वह अब विराट वट वृक्ष का रूप ले चुका है। 1893 में जब बाल गंगाधर जी ने सार्वजानिक गणेश पूजन का आयोजन किया तो उनका मकसद सभी जातियों-धर्मों को एक साझा मंच देने का था जहां सब बैठ कर मिल कर कोई विचार कर सकें। तब पहली बार पेशवाओं के पूज्य देव गणेश को बाहर लाया गया था, वो तब भारत में अस्पृश्यता चरम सीमा पर थी, जब शुद्र जाति के लोगों को देव पूजन का ये अपने में पहला मौका था, सब ने देव दर्शन किये और गणेश प्रतिमा को चरण छूकर आशीर्वाद लिया, उत्सव के बाद जब प्रतिमा को वापस मंदिर में स्थापित किया जाने लगा (जैसा की पेशवा करते थे मंदिर की मूर्ति को आँगन में रख के सार्वजानिक पूजा और फिर वापस वही स्थापना) तो पंडितो ने इसका विरोध किया के ये मूर्ति अब अछूतों ने छू ली है, ये अपवित्र है, इसको वापस मंदिर में नहीं रखा जा सकता। तब बवाल न बढ़े तो निर्णय लिया गया इसको सागर में विसर्जित कर दिया जाए, से दोनों पक्षों की बात रह जायगी। तब से मूर्ति विसर्जन शुरू हो गया या अब काफी फैल गया है। इस में केवल महाराष्ट्र में ही 50 हजार से ज्यादा सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल है। इसके अलावा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसढ़, उत्तर प्रदेश और गुजरात में काफी संख्या में गणेशोत्सव मंडल है।
स्वतंत्रता संग्राम और गणेशोत्सव:
वीर सावरकर और कवि गोविंद ने नासिक में ‘मित्रमेला’ संस्था बनाई थी। इस संस्था का काम था देशभक्तिपूर्ण पोवाडे (मराठी लोकगीतों का एक प्रकार) आकर्षक ढंग से बोलकर सुनाना। इस संस्था के पोवाडों ने पश्चिमी महाराष्ट्र में धूम मचा दी थी। कवि गोविंद को सुनने के लिए लोगों उमड़ पड़ते थे। राम-रावण कथा के आधार पर वे लोगों में देशभक्ति का भाव जगाने में सफल होते थे। उनके बारे में वीर सावरकर ने लिखा है कि कवि गोविंद अपनी कविता की अमर छाप जनमानस पर छोड़ जाते थे। गणेशोत्सव का उपयोग आजादी की लड़ाई के लिए किए जाने की बात पूरे महाराष्ट्र में फैल गयी। बाद में नागपुर, वर्धा, अमरावती आदि शहरों में भी गणेशोत्सव ने आजादी का नया ही आंदोलन छेड़ दिया था। अंग्रेज भी इससे घबरा गये थे। इस बारे में रोलेट समिति रपट में भी चिंता जतायी गयी थी। रपट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सडक़ों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं व स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। साथ ही अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए धार्मिक संघर्ष को जरूरी बताया जाता है। गणेशोत्सवों में भाषण देने वाले में प्रमुख राष्ट्रीय नेता थे - वीर सावकर, लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्ट चक्रवर्ती, दादासाहेब खापर्डे और सरोजनी नायडू।

पुराणानुसार:
शिवपुराण में भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्ति गणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराण के मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था। गण + पति = गणपति। संस्कृतकोशानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्रक। ‘पति’ अर्थात स्वामी, ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकों के स्वामी।
    शिवपुराण के अन्तर्गत रुद्रसंहिता के चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी मैल से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया। शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया। इस पर शिवगणों ने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका। अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया। इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली। भयभीत देवताओं ने देवर्षि नारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया। शिवजी के निर्देश पर विष्णुजी उत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (हाथी) का सिर काटकर ले आए। मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड़ पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया। माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुखबालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान दिया। भगवान शंकर ने बालक से कहा- गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा। तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा। गणेश्वर! तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है। इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी। कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अध्र्य देकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाएं। तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करें। वर्षपर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

अन्य कथा:
एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुंदर स्थान पर पार्वती जी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- बेटा! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अत: खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा?
    खेल आरंभ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वती जी ही जीतीं। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामत: पार्वती जी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दु:ख भोगने का शाप दे दिया।
    बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- माँ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ। तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे। इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गईं।
    एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो। बालक बोला- भगवन! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूं और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।
गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा।
तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जाग्रत हुई।
    वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने ‘‘गणेश व्रत’’ का इतिहास उनसे कह दिया।
    तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।
    कार्तिकेय ने यही व्रत विश्वामित्रजी को बताया। विश्वामित्रजी ने व्रत करके गणेशजी से जन्म से मुक्त होकर ‘‘ब्रह्म-ऋषि’’ होने का वर माँगा। गणेशजी ने उनकी मनोकामना पूर्ण की। ऐसे हैं श्री गणेशजी, जो सबकी कामनाएँ पूर्ण करते हैं।

चंद्र दर्शन दोष से बचाव:
प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात् व्रती को आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं। किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है।
    जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है। ऐसा शास्त्रों का निर्देश है। यह अनुभूत भी है। इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है। यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो निम्न मंत्र का पाठ अवश्य कर लेना चाहिए- ‘‘सिह: प्रसेनम् अवधीत्, सिंहो जाम्बवता हत:। सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्वमन्तक:॥’’

वास्तुदोष और रोग

वास्तुशास्त्र अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन मेंं निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.
इस विलक्षण भारतीय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से घर मेंं स्वास्थय, खुशहाली एवं समृद्धि को पूर्णत: सुनिश्चित किया जा सकता है. एक इन्जीनियर आपके लिए सुन्दर तथा मजबूत भवन का निर्माण तो कर सकता है, परन्तु उसमेंं निवास करने वालों के सुख और समृद्धि की गारंटी नहींं दे सकता. लेकिन भारतीय वास्तुशास्त्र आपको इसकी पूरी गारंटी देता है.
यहाँ हम अपने पाठकों को जानकारी दे रहे हैं कि वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन न करने से पारिवारिक सदस्यों को किस तरह से नाना प्रकार के रोगों का सामना करना पड सकता है.
पूर्व दिशा मेंं दोष:
* यदि भवन मेंं पूर्व दिशा का स्थान ऊँचा हो, तो व्यक्ति का सारा जीवन आर्थिक अभावों, परेशानियों मेंं ही व्यतीत होता रहेगा और उसकी सन्तान अस्वस्थ, कमजोर स्मरणशक्ति वाली, पढाई-लिखाई मेंं जी चुराने तथा पेट और यकृत के रोगों से पीडित रहेगी.
* यदि पूर्व दिशा मेंं रिक्त स्थान न हो और बरामदे की ढलान पश्चिम दिशा की ओर हो, तो परिवार के मुखिया को आँखों की बीमारी, स्नायु अथवा ह्रदय रोग की स्मस्या का सामना करना पड़ता है.
* घर के पूर्वी भाग मेंं कूडा-कर्कट, गन्दगी एवं पत्थर, मिट्टी इत्यादि के ढेर हों, तो गृहस्वामिनी मेंं गर्भहानि का सामना करना पड़ता है.
* भवन के पश्चिम मेंं नीचा या रिक्त स्थान हो, तो गृहस्वामी यकृत, गले, गाल ब्लैडर इत्यादि किसी बीमारी से परिवार को मंझधार मेंं ही छोडक़र अल्पावस्था मेंं ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है.
* यदि पूर्व की दिवार पश्चिम दिशा की दिवार से अधिक ऊँची हो, तो संतान हानि का सामना करना पड़ता है.
* अगर पूर्व दिशा मेंं शौचालय का निर्माण किया जाए, तो घर की बहू-बेटियाँ अवश्य अस्वस्थ रहेंगीं.
बचाव के उपाय:
* पूर्व दिशा मेंं पानी, पानी की टंकी, नल, हैंडापम्प इत्यादि लगवाना शुभ रहेगा.
* पूर्व दिशा का प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है, जो कि कालपुरूष के मुख का प्रतीक है. इसके लिए पूर्वी दिवार पर ‘‘सूर्य यन्त्र’’ स्थापित करें और छत पर इस दिशा मेंं लाल रंग का ध्वज(झंडा) लगायें.
* पूर्वी भाग को नीचा और साफ-सुथरा खाली रखने से घर के लोग स्वस्थ रहेंगें. धन और वंश की वृद्धि होगी तथा समाज मेंं मान-प्रतिष्ठा बढेगी.
पश्चिम दिशा मेंं दोष:
पश्चिम दिशा का प्रतिनिधि ग्रह शनि है. यह स्थान कालपुरूष का पेट, गुप्ताँग एवं प्रजनन अंग है.
* यदि पश्चिम भाग के चबूतरे नीचे हों, तो परिवार मेंं फेफड़े, मुख, छाती और चमडी इत्यादि के रोगों का सामना करना पड़ता है.
* यदि भवन का पश्चिमी भाग नीचा होगा, तो पुरूष संतान की रोग बीमारी पर व्यर्थ धन का व्यय होता रहेगा.
* यदि घर के पश्चिम भाग का जल या वर्षा का जल पश्चिम से बहकर, बाहर जाए तो परिवार के पुरूष सदस्यों को लम्बी बीमारियों का शिकार होना पड़ेगा.
* यदि भवन का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की ओर हो, तो अकारण व्यर्थ मेंं धन का अपव्यय होता रहेगा.
* यदि पश्चिम दिशा की दिवार मेंं दरारें आ जायें, तो गृहस्वामी के गुप्ताँग मेंं अवश्य कोई बीमारी होगी.
* यदि पश्चिम दिशा मेंं रसोईघर अथवा अन्य किसी प्रकार से अग्नि का स्थान हो, तो पारिवारिक सदस्यों को गर्मी, पित्त और फोड़े-फुन्सी, मस्से इत्यादि की शिकायत रहेगी.
बचाव के उपाय:
* ऐसी स्थिति मेंं पश्चिमी दिवार पर ‘‘वरूण यन्त्र’’ स्थापित करें.
* परिवार का मुखिया न्यूनतम 11 शनिवार लगातार उपवास रखें और गरीबों मेंं काले चने वितरित करें.
* पश्चिम की दिवार को थोडा ऊँचा रखें और इस दिशा मेंं ढाल न रखें.
* पश्चिम दिशा मेंं अशोक का एक वृक्ष लगायें.
उत्तर दिशा मेंं दोष:
उत्तर दिशा का प्रतिनिधि ग्रह बुध है और भारतीय वास्तुशास्त्र मेंं इस दिशा को कालपुरूष का ह्रदय स्थल माना जाता है. जन्मकुंडली का चतुर्थ सुख भाव इसका कारक स्थान है.
* यदि उत्तर दिशा ऊँची हो और उसमेंं चबूतरे बने हों, तो घर मेंं गुर्दे का रोग, कान का रोग, रक्त संबंधी बीमारियाँ, थकावट, आलस, घुटने इत्यादि की बीमारियाँ बनी रहेंगीं.
* यदि उत्तर दिशा अधिक उन्नत हो, तो परिवार की स्त्रियों को रूग्णता का शिकार होना पडता है.
बचाव के उपाय:
यदि उत्तर दिशा की ओर बरामदे की ढाल रखी जाये, तो पारिवारिक सदस्यों विशेषतय: स्त्रियों का स्वास्थय उत्तम रहेगा. रोग-बीमारी पर अनावश्यक व्यय से बचे रहेंगें और उस परिवार मेंं किसी को भी अकाल मृत्यु का सामना नहींं करना पडे१गा.
* इस दिशा मेंं दोष होने पर घर के पूजास्थल मेंं ‘‘बुध यन्त्र’’ स्थापित करें.
* परिवार का मुखिया 21 बुधवार लगातार उपवास रखें.
* भवन के प्रवेशद्वार पर संगीतमय घंटियाँ लगायें.
* उत्तर दिशा की दिवार पर हल्का हरा रंग करवायें.
दक्षिण दिशा मेंं दोष:
दक्षिण दिशा का प्रतिनिधि ग्रह मंगल है, जो कि कालपुरूष के बायें सीने, फेफड़े और गुर्दे का प्रतिनिधित्व करता है. जन्मकुंडली का दशम भाव इस दिशा का कारक स्थान होता है.
* यदि घर की दक्षिण दिशा मेंं कुआँ, दरार, कचरा, कूडादान, कोई पुराना सामान इत्यादि हो, तो गृहस्वामी को ह्रदय रोग, जोड़ों का दर्द, खून की कमी, पीलिया, आँखों की बीमारी, कोलेस्ट्राल बढ जाना अथवा हाजमें की खराबीजन्य विभिन्न प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है.
* दक्षिण दिशा मेंं उत्तरी दिशा से कम ऊँचा चबूतरा बनाया गया हो, तो परिवार की स्त्रियों को घबराहट, बेचैनी, ब्लडप्रैशर, मूर्छाजन्य रोगों से पीडा का कष्ट भोगना पड़ता है.
* यदि दक्षिणी भाग नीचा हो, और उत्तर से अधिक रिक्त स्थान हो, तो परिवार के वृद्धजन सदैव अस्वस्थ रहेंगें. उन्हें उच्च रक्तचाप, पाचनक्रिया की गडबड़ी, खून की कमी, अचानक मृत्यु अथवा दुर्घटना का शिकार होना पड़ेगा. दक्षिण पिशाच का निवास है, इसलिए इस तरफ थोड़ी जगह खाली छोडक़र ही भवन का निर्माण करवाना चाहिए.
* यदि किसी का घर दक्षिणमुखी हो ओर प्रवेश द्वार नैऋत्याभिमुख बनवा लिया जाए, तो ऐसा भवन दीर्घ व्याधियाँ एवं किसी पारिवारिक सदस्य को अकाल मृत्यु देने वाला होता है.
बचाव के उपाय:
* यदि दक्षिणी भाग ऊँचा हो, तो घर-परिवार के सभी सदस्य पूर्णत: स्वस्थ एवं संपन्नता प्राप्त करेंगें. इस दिशा मेंं किसी प्रकार का वास्तुजन्य दोष होने की स्थिति मेंं छत पर लाल रक्तिम रंग का एक ध्वज अवश्य लगायें.
* घर के पूजनस्थल मेंं ‘‘श्री हनुमंतयन्त्र’’ स्थापित करें.
* दक्षिणमुखी द्वार पर एक ताम्र धातु का ‘‘मंगलयन्त्र’’ लगायें.
* प्रवेशद्वार के अन्दर-बाहर दोनों तरफ दक्षिणावर्ती सूँड वाले गणपति जी की लघु प्रतिमा लगायें.

ज्योतिष और आज की रोजगार स्थिति

व्यक्ति को जीवन मेंं रोजगार, व्यवसाय, पद प्राप्ति, नौकरी आदि के कौन से अवसर प्राप्त होंगे अथवा जातक की आर्थिक स्थिति कैसी रहेगी, इसके संबंध मेंं अपने पाठकों को यहाँ विस्तार पूर्वक जानकारी प्रदान की जा रही है. यहां कुछ मूल सिद्धांतो, ग्रहों के सांमंजस्य से बनते रोजगार एवं व्यवसायों, पद प्राप्ति व नौकरी प्राप्ति से संबंधित समस्याओं पर प्रकाश डाला जा रहा है.
1. व्यक्ति को सरकारी सेवा / नौकरी / रोजगार / व्यापार अथवा कोई पद प्राप्त होगा, जन्मकुंडली के प्रथम, द्वितीय, दशम एवं एकादश भावों मेंं ग्रहों की स्थिति एवं इन भावों के स्वामी ग्रहों की स्थिति एवं इन सब पर पड़ते अन्य ग्रहों के प्रभाव पर निर्भर करती है. यदि दसवें भाव का स्वामी ग्रह किसी प्रकार भी पहले, दूसरे, छठें एवं ग्यारहवें भावों से संबंध रखता है तो व्यक्ति को हर हालत मेंं अच्छे रोजगार की प्राप्ति होती है तथा वो पूर्णतया लाभदायक सिद्ध होता है.
2. जन्मकुंडली मेंं अधिकांश ग्रह जिन राशियों मेंं हो उस राशि के तत्व गुण, स्वभाव एवं जिस-जिस रोजगार को वह राशि सूचित करती है, व्यक्ति का स्वाभाविक झुकाव उन्हीं कार्यों की तरफ होता है.
3. दो या दो से अधिक क्रूर ग्रहों के साथ केतु जब मेष, वृश्चिक, मकर या कुंभ मेंं से किसी राशि मेंं हो तो व्यक्ति को निराशा, असफ लता, हार तथा बार-बार नौकरी छूटने का काष्ट सहन करना पड़ता है.
4. दसवें भाव का स्वामी ग्रह शुभ स्थिति मेंं नौवें या बारहवें भाव मेंं वृहस्पति के साथ स्थित हो तो व्यक्ति विदेश मेंं सफ लता प्राप्त करता है.
5. जब जन्मकुंडली मेंं शनि से आगे राहु (जैसे जन्मकुंडली मेंं शनि पांचवें भाव मेंं और राहु सातवें भाव मेंं हो) होता है और इन दोनों के मध्य अन्य कोई ग्रह ना हो तो व्यक्ति को पहले 35 वर्ष तक की आयु मेंं रोजगार संबम्धी कष्टों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है. किसी भी काम मेंं उसके पूरी तरह से पैर नहीं जम पाते.
6. जन्मकुंडली में बुध ग्रह कहीं भी अकेला एवं अशुभ प्रभाव से दूर हो तो व्यापार मेंं जातक अत्यधिक उन्नति प्राप्त करता है.
7. यदि अधिकांश ग्रह जनमकुंडली मेंं तीसरे, दसवें, ग्यारहवें एवं बारहवें अथवा 7, 8, 9, 10, 11 एवं 12 वें भाव मेंं बैठे हों और उन्हीं मेंं सूर्य ग्रह भी सम्मिलित हो तो जातक के लिये नौकरी करना अथवा जनहित विभागों मेंं कार्य करना ही लाभ प्रद रहता है. ऐसे व्यक्ति व्यापार मेंं कभी प्रगति नहीं कर सकते.
सूर्य:
बहुत आशाएं और उमंगे रखने वाला, जीवन मेंं उच्च अधिकारी बनना चाहे, उच्च पद प्राप्ति, सरकारी सेवा सेवा नौकरी मेंं रहना कठिन, डाक्टर, लीडर या प्रबंधकीय कार्यों मेंं सलंग्न.
चंद्रमा:
व्यापार, प्रोविजन स्टोर, कृषि, जलीय पदार्थ, पैतृक व्यवसाय मेंं सलंग्न, रोजगार मेंं परिवर्तन हेतुबार बार विचार उठते रहें.
मंगल:
जोखिम के कार्य, पुलिस सेना, मैक्नीकल, सर्जन, धातु का कार्य, केमिस्ट, फ ायर ब्रिगेड, होटल, ढाबा, अग्नि से संबंधित कार्य, डाईवर, मेंकेनिक एवं इंजीनीयर आदि.
बुध:
व्यापारी, ज्योतिषी, प्रिंटिंग कार्य, सेकेरेट्री, लेखक, अकाऊंटेंट, क्लर्क, आडीटर, एजेंट, पुस्तक विक्रेता, दलाल, अनुवादक, अध्यापक, सहायक, नर्सिंग, मुंशी, स्पीडपोस्ट, कोरियर इत्यादि का कार्य.
गुरू:
शिक्षक, प्रकाशक, जज, न्यायाधीश, वकील, धार्मिक नेता, कथावाचक, पुरोहित, बैंक अधिकारी, मेंनेजर, कपडा स्टोर, प्रोविजन स्टोर, सलाहकारिता आदि के कार्य.
शुक्र:
स्वास्थ्य विभाग, अस्पताल, मेंटरनिटी होम, सोसायटी, रेस्टोरेंट, रेडीमेंड वस्त्र, मनियारी की दुकान, फ ोटोग्राफ ी, गिफ्ट आयटम, आभूषण एवं स्त्री से संबंधित विभाग/कार्यक्षेत्र.
शनि:
लेबर, लेबर विभाग, प्रबंधक या फऱि अधिनस्थ सेवा मेंं उच्चपद, अधिकारी, उद्योगपति, डाक्टर, रंग रसायन, पेट्रोकेमिकल इत्यादि. सब्र संतोष, सुझबूझ रखें तो व्यवसाय ठीक चले, जल्दबाजी करें तो मुश्किले खड़ी हों और हानि हो, दुर्घटनाएं, निराशा एवं घाटे का मुंह देखना पड़े.
राहु:
डाक्टर, कसाई, सफाई कर्मचारी, जेल विभाग, विद्युत विभाग, लेखक उच्चाधिकारी एवं उच्च पद प्राप्ति. यदि सूझबूझ रखें और दिमाग से काम लें तो उन्नति करे नहीं तो अपना काम खुद ही बिगाड़े.
केतु:
गुप्त विद्या, तांत्रिक, ज्योतिषि, होम्योपैथी /आयुर्वेद / नेचरोपैथी का डाक्टर, ट्रेवल एजेंट, फ र्नीचर का काम, पशुओं का व्यापारी. जितना घूमने फिरने वाला हो उतना ही लाभ प्राप्त करे.

भगवान श्रीकृष्ण और ज्योतिष

जब अधर्म का बोलबाला हो जाता है धर्म का नाश होने लगता है, सज्जन पीड़ा से तड़प उठते है दुर्जन अतिचारी हो जाते है तो प्रकृति अपना सन्तुलन बनाने के लिये महापुरुष को पैदा करती है। वह राम के रूप में हों कृष्ण के रूप मेंं हो या अन्य किसी अवतार के रूप मेंं हों, आते हैं। चार युग कही युग पर्यन्त नहीं है, चारों युग इसी शरीर में इसी जीवन में इसी संसार में है। पिता खुद और आगे आने वाली पीढ़ी धर्म रूपी सतयुग है, कुटुम्ब ननिहाल और पिता का राज्य द्वापर है, पत्नी परिवार छोटे-बड़े भाई बहिन आदि सभी त्रेता के युग के रूप में है, माता और पिता का खानदान अधर्म मृत्यु तथा मोक्ष को प्राप्त करने का युग ही कलयुग है। कुंडली को देखने के बाद पता लगता है कि लगन पंचम और नवम भाव सतयुग की मीमांशा करते है, दूसरा छठा और दसवा भाव द्वापर युग की मीमांसा करते हैं, तीसरा, सातवा और ग्यारहवा भाव त्रेता युग की मीमांसा करते है, चौथा, आठवा और बारहवा भाव कलयुग की मीमांसा करते है। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुया था इसलिये जो भी कार्य व्यवहार समय आदि रहा वह सभी दूसरे भाव छठे भाव और दसवे भाव से सम्बन्धित रहा। शनिदेव का केतु के साथ इन्ही भावों में होना श्रीकृष्ण भक्ति की तरफ जाने का इशारा करता है। देवकी माता के रूप में और महाराज उग्रसेन पिता के रूप मेंं, दूसरे भाव का शनि केतु माता के बड़े भाई के रूप में और दूसरे भाव का शनि केतु दत्तक पुत्र की तरह से दूसरी जाति के अन्दर जाकर पालना होना। अष्टम राहु, बारहवा राहु, चौथा राहु तभी अपना काम राक्षस की तरह से करेगा जब शनि केतु दूसरे छठे या दसवे भाव में अपना बल दे रहे होंगे। माता यशोदा की गोद चौथे भाव के लिये शनि केतु की मीमांसा करती है, शनि केतु का दूसरा प्रभाव यमुना जी के रूप में भी मिलता है, शनि जो यम है और केतु जो यम की सहयोगी सूर्य पुत्री के रूप में जानी जाती है। शनि काम करने वाले लोगो से और केतु को हल के रूप में भी देखा जाता है शनि का रंग काला है और केतु का रूप बांसुरी से लेते हंै तो भी भगवान श्रीकृष्ण की छवि उजागर होती है। यही नहीं शनि मंत्र के उच्चारण के लिये जब शनि बीज मंत्र का रूप देखा जाता है तो ‘शँ’ बीज भगवान श्रीकृष्ण की एक पैर मोड कर बांसुरी को बजाने के रूप में दिखाई देता है। अगर इस बीज अक्षर को सजा दिया जाये भगवान श्रीकृष्ण का रूप ही प्रदर्शित होगा।
आदिकाल से मूर्ति की पूजा नहीं की जाती थी यह तो ऋग्वेद से भी देखा जा सकता है, बीज मंत्रो का बोलबाला था। अग्नि, वायु, जल, भूमि और इनके संयुक्त तत्वों को माना जाता था लेकिन इन्हीं बीजो को सजाने के बाद जो रूप बना, वह मूर्ति के रूप में स्थापित किया जाने लगा और पत्थर धातु अथवा किसी भी अचल तत्व पर मूर्ति के रूप में इन्ही बीजों को सजाया जाने लगा भावना से भगवान की उत्पत्ति हुयी और मूर्ति भी बीज अक्षर के रूप में अपना असर दिखाने लगी।
मथुरा नगर को भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली माना जाता है। मथुरा के राजा उग्रसेन को जो श्रीकृष्ण के नाना थे उनके पुत्र कंस ने कैद में डालकर अपने को बरजोरी राजा बना लिया था और अपने को लगातार बल से पूर्ण करने के लिये जो भी अनैतिक काम होते थे सभी को करने लगा था। प्रजा के ऊपर इतने कर लगा दिये थे कि प्रजा में त्राहि त्राहि मची हुयी थी। जब कंस अपने बहनोई वासुदेव को और बहिन देवकी को लेकर रथ से जा रहा था तो आकाशवाणी हुयी कि जिस बहिन को तू इतने प्रेम से लेकर जा रहा है उसी के गर्भ से आठवी संतान उसकी मौत के रूप में पैदा होगी। कंस ने रथ को वापस किया और वसुदेव और देवकी को कारागार में डाल दिया, तथा उनकी सात सन्तानों को मार दिया था, आठवी संतान के रूप मेंं श्रीकृष्ण का जन्म हुआ जिस समय जन्म हुआ उस समय जो भी कारागार के दरवाजे प्रहरी आदि कंस ने देवकी और वसुदेव की सुरक्षा के लिये स्थापित किये थे सभी साधन निष्क्रिय हो गये और वसुदेव अपने हाल के जन्में पुत्र को लेकर उनके मित्र नंद के घर छोड़ आये और उनकी पुत्री को वापस लाकर देवकी की गोद में सुला दिया, कंस को जब पता लगा तो उसने उस कन्या को मारने के लिये जैसे ही पत्थर पर पटकना चाहा वह कन्या कंस के हाथ से छूट कर आसमान में चली गयी और आर्या नाम की शक्ति के रूप मेंं अद्रश्य बादलों की बिजली की तरह से अपना रूप लेकर बोली कि जो तेरी मौत का कारण है वह तो पैदा हो चुका है और बड़े आराम से पाला भी जा रहा है, कंस ने इतना सुनकर आसपास के गांवो में अपने दूत भेज दिये, जब पता लगा कि श्रीकृष्ण नन्द के घर में यशोदा मैया की गोद में पल रहे हंै तो कंस ने अपनी आसुरी शक्तियों को यशोदा के घर पूतना के रूप मेंं, बकासुर के रूप मेंं और कितनी ही आसुरी शक्तियों को भेजा लेकिन श्रीकृष्ण भगवान का बाल भी बांका नहीं हुया। अपनी लीलाओं को दिखाते हुये उन्होने मथुरा की ब्रज भूमि को तपस्थली भूमि को बना दिया और अपनी शक्ति से अपने मामा कंस को मारकर अपने नाना को राजगद्दी पर बैठाकर अपने स्थान द्वारका की तरफ प्रस्थान कर गये।
मथुरा में शनि-केतु माता का घर था और कारागार का रूप भी राहु के रूप में था, चौथे, बारहवे और आठवे भाव का सीधा मिश्रण होने के कारण दूसरे भाव का असर भी शामिल था। वहीं शनि केतु नन्दगांव मेंं यशोदा के द्वारा पाले जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण का रूप था, चौथा भाव माता के साथ दूध और दूध के साधनों से भी जोड़ कर देखा जाता है। मथुरा नगर के उत्तर पूर्व में यमुना नदी बहती है इस नदी का रूप भी श्यामल है, साथ ही यही शनि केतु राहु का रूप रखने के बाद यमुना में कालिया नाग के रूप में प्रकट हुआ जो भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा वश में करने के बाद उसे क्षीर सागर में भेज दिया। पूतना जो राक्षसी रूप में थी वही अपने वक्ष पृष्ठ पर जहर लगाकर भगवान श्रीकृष्ण को दूध पिलाने आयी थी उसका दूध पीने के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना के प्राणों को भी पी लिया था। दूध और जहर दोनों राहु और चन्द्रमा की निशानी है। राहु चन्द्रमा के साथ मिलकर जहरीले दूध के लिये अपने रूप को प्रस्तुत करता है। उसी स्थान पर बकासुर जो बुध राहु के रूप में अपना रूप लेकर भगवान श्रीकृष्ण की मौत लेकर आया था उसे भी भगवान श्रीकृष्ण ने शनि केतु की सहायता से मार गिराया था। राहु शुक्र का मिला हुआ रूप ही रासलीला के रूप में जाना जाता है राहु जब सूर्य को आने कब्जे में करता है कीर्ति का फैलना होता है।
मथुरा नगर की सिंह राशि है यह राशि राज्य सें सम्बन्ध रखती है। नन्दगांव की वृश्चिक राशि का है इसलिये जान जोखिम और खतरे वाले काम करने के लिये तथा मौत जैसे कारण पैदा करने के लिये माना जाता है। वृंदावन वृष और तुला के मिश्रण का रूप है इसलिये धन सम्पत्ति और प्रेम सम्बन्ध शुक्र से मिलते है। बरसाना भी श्री राधा के लिये तथा सत्यभामा कुम्भ राशि के लिये जो मित्र के रूप में ही अपने कारणो को आजीवन प्रस्तुत करती रही। रुकमिणी जो तुला राशि की होकर और राधा भी तुला राशि की होकर अपने को मित्र तथा प्रेम के रूप में प्रस्तुत करने के बाद श्रीकृष्ण की शक्ति के रूप में साथ रही। अक्षर कृ मेंं मिथुन और तुला है और अक्षर कं मेंं मिथुन और वृश्चिक का रूप शामिल है,मिथुन तुला की धर्म और भाग्य के साथ साथ पूज्य बनाने के लिये मानी जाती है जबकि मिथुन और वृश्चिक षडाष्टक योग का निर्माण करने के लिये तथा शत्रुता मौत वाले कारण पैदा करने के लिये जासूसी अवैध्य रूप से धन प्राप्त करने के लिये केवल भौतिक सुखो को भोगने के लिये अहम में आकर अपने को ही भगवान समझने के लिये मानना भी एक प्रकार से माना जा सकता है। यही बात यमुना जी के लिये भी जानी जा सकती है वृश्चिक सिंह और वृश्चिक राशि का मिश्रण भी यमुना जी के लिये अपनी गति को प्रदान करता है चौथे भाव मेंं शनि केतु का रूप पानी के स्थान पर एक काली लकीर या जो पूर दिशा में जाकर राहु यानी समुद्र से मिले। आदि बातों से भी माना जा सकता है।
हरिवंश पुराण में भगवान श्रीकृष्ण सहित गुरु का कारण प्रस्तुत किया गया है और सम्पूर्ण ज्योतिष की जानकारी जीव के रूप में उपस्थित करने के लिये बतायी गयी है। इसी प्रकार से महाभारत पुराण के तेरह पर्व एक लगन और बाकी के बारह भाव प्रस्तुत किये गये है जो ज्योतिष से सटीक रूप से मिलते है। पांच पांडव और छठे नारायाण यानी श्रीकृष्ण भगवान पांच तत्व और एक आत्मा के रूप में आधयत्मिक रूप में तथा पांच तत्व और एक आत्मा के रूप में द्रोपदी के रूप में जो पांच तत्व का भार ग्रहण करती है के प्रति भी आस्था रखना ज्योतिष के रूप में माना जाता है। सौ कौरव दूसरे शुक्र और बारहवे सूर्य की कल्पना को प्रस्तुत करते है। वही शनि केतु कौरवो के लिये कीड़े मकौड़े के रूप में प्रस्तुत करता है तो कुन्ती के विवाह से पहले के पुत्र कर्ण को छठे भाव के शनि केतु के रूप में प्रस्तुत करता है,जो पांचों तत्वों के मिश्रण का संयुक्त रूप था और बारहवे सूर्य की निशानी था,कहा जाता है कि कुंती ने सन्तान प्राप्ति के मंत्र को क्वारे में सूर्य की साधना करने से अंजवाया था भगवान सूर्य उपस्थित हुये और कुंती को पुत्र प्राप्ति के लिये वर दे गये तथा कानो के कुंडल और कवच कुंती को दे गये। विवाह नहीं होने के कारण और क्वारे मेंं सन्तान को प्राप्त करने के कारण कर्ण को यमुना में मय कुंडल और कवच के बहा दिया गया जो किसी मल्लाह ने प्राप्त करने के बाद उन्हे पाला और सूत पुत्र के नाम से कर्ण को जाना जाने लगा। यही चौथे भाव का शनि केतु यानी केतु पतवार और शनि पानी का वाहन यानी नाव के रूप में भी समझा जा सकता है।
इस प्रकार से समझा जा सकता है कि ज्योतिष और भगवान श्रीकृष्ण की कथा में केवल उनकी कथा को प्रस्तुत करने के बाद जो भी कारण पांच तत्व और एक आत्मा के साथ पैदा होते है उन्हे वृहद रूप में वर्णित किया गया है। यह कथाये इसलिये बनायी गयी थी कि पुराने जमाने में लिखकर सुरक्षित रखने का कोई साधन नहीं था और कथा के रूप में गाथा हमेशा चलती रहती थी कोई इस गाथा को भूल नहीं जाये इसलिये ही भागवत पुराण की रचना की गयी थी और नवग्रह तथा जीवन के सभी ग्रहों की शांति के लिये लोग समय समय पर भागवत कथा का आयोजन करवाते थे।

शतभिषा नक्षत्र का जन्म और स्वाभाव

कहा जाता है कि ग्रह से बड़ा नक्षत्र होता है और नक्षत्र से भी बड़ा नक्षत्र का पाया होता है। हर नक्षत्र अपने अपने स्वभाव के जातक को इस संसार में भेजते हंै और नक्षत्र के पदानुसार ही जातक को कार्य और संसार संभालने की जिम्मेंदारी दी जाती है। आइये समझते है नक्षत्र के समय में जन्म और जातक का स्वभाव-
शतभिषा नक्षत्र का जन्म और स्वभाव:
शतभिषा नक्षत्र का मालिक शनि होता है और इस नक्षत्र का प्रभाव उत्तर दिशा की तरफ अधिक होता है, इस नक्षत्र का तत्व आकाश होता है। शरीर में दाहिनी जांघ पर इसका अधिकार होता है, पूरे दिन रात में इसका भोग काल तीन कला होता है। इस नक्षत्र के चार पायों मेंं गो सा सी और सू अक्षर से माने जाते है। चन्द्रमा के इस नक्षत्र में होने पर और जिस पाये में उसका स्थान होता है उसी पाये के अनुसार जातक का नामकरण किया जाता है। शतभिषा नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक का स्वभाव सत्कार करने वाला होता है, वह किसी भी आदर देने वाले काम के पीछे अपना स्वार्थ जरूर देखता है। बिना किसी लाभ के अगर कोई शतभिषा नक्षत्र मेंं पैदा होने वाले जातक से मिलने की कोशिश करता है तो अधिकतर मामले में वह बगली काट कर निकलने वाला होता है। अक्सर देखा जाता है कि जातक बिना कारण ही दूसरे लोगों का ध्यान रखने की कोशिश करने लगता है, इस काम को लोग समाज सेवा या आदर के भाव से देखते है लेकिन लोगो की सोच तब बदल जाती है जब जातक अपने स्वार्थ को पूरा करने के बाद निकल जाता है और जिसका ध्यान रखा जाता था उसके साथ कुछ न कुछ घटना उसके कारण से हो जाती है। इस नक्षत्र का व्यक्ति चलायमान दिमाग का होता है वह कार्य भी ऐसे करता है जहां पर बहुत भीड़ हो और भीड़ के अन्दर अपनी औकात को दिखाकर काम करने से उसे अधिक से अधिक धन की प्राप्ति हो। अक्सर पहले पद में पैदा होने वाले जातक जिनका नाम गो से शुरु होता है वे आजीवन चलते ही दिखाई देते है। उनका भाग्य पैदा होने के स्थान से पश्चिम दिशा में होता है अक्सर तीन सन्तान का योग बनता है। जीवन साथी की प्राप्ति पूर्व दिशा से होती है लेकिन जातक जितना मेंहनत करने वाला होता है जितना भाग दौड़ करने वाला होता है। जातक का जीवन साथी उतना ही चालाक और तर्क करने वाला होता है, इस पाये में जन्म लेने वाले जातक के एक से अधिक सम्बन्ध भी बने देखे जाते है लेकिन सभी सम्बन्ध कार्य स्थान तक ही सीमित होते है। जातक खूबशूरती की तरफ अधिक भागने वाला होता है। जातक की कन्या सन्तान काफी पढ़ी लिखी होती है लेकिन पुत्र संतान अधिक चालाक और मौके का फायदा उठाने वाले होते हैं। इस पाये में जन्म लेने वाले जातक के पास अचल सम्पत्ति होती है। भाई बन्धुओं से जायदाद के पीछे मनमुटाव भी होता है। दूसरे पाये में जन्म लेने वाले जातक अक्सर बहुत ही उत्तेजित होते हैं, समाय और परिवार में नाम कमाने वाले होते हैं, वे अपने भाई बहिनों को तभी तक देखते हंै जब तक कि उनके लिये कोई साधन आजीवन की कार्य शैली के लिये नहीं मिल जाता है। इस पाये में जन्म लेने वाले जातक के जीवन साथी अगर पुरुष है तो वह अक्सर कमजोर होते हंै और किसी न किसी प्रकार के वाहन सम्बन्धित व्यवसाय में जुडे होते है या उन्हे गाड़ी आदि चलाने का अनुभव अच्छा होता है। हिम्मत मेंपक्के होते हैं, किसी भी जोखिम में जाने से नहींं डरते हैं। शतभिषा नक्षत्र के तीसरे पाये में जन्म लेने वाले व्यक्ति गहरी दोस्ती करते हैं और किसी भी समस्या की जड़ तक पहुंचना उनका काम होता है, इनके मन के अन्दर इतने रहस्य होते है कि इनके जीवन साथी भी नहीं जानते है बुद्धिमान भी होते हैं और किसी भी काम में कुशल भी होते हैं लेकिन मन हमेशा अस्थिर होता है जनता के लोगों से और नेता आदि से यह अपने आप ही मानसिक दुश्मनी पाल लेते हैं। जैसे ही बारी आती है किसी न किसी कारण से डुबाने से नहीं चूकते हैं। जनता के गुप्त धन पर इनका अधिक ध्यान रहता है। जीवन में कभी अस्थिरता नहीं आती है हमेशा अडिग होकर ही काम करने में अपना विश्वास रखते हैं, पिता के स्थान पर माता को अधिक मानते है। अक्सर शतभिषा नक्षत्र में पैदा होने वाले लोगो को अधिक मिठाई खाने की आदत होती है और इसी कारण से डायबटीज और मूत्राशय वाले रोग इन्हे अधिक लगते है, पथरी और इसी प्रकार के रोग भी होते देखे जाते हैं। जब यह कठोरता पर आ जात हैं तो बहुत ही निर्दयी स्वभाव के हो जाते है। किसी भी प्रकार का मशीनी लाभ इन्हें अधिक होता है दूसरे के जीवन साथी से सम्पर्क अधिक कायम रखने के कारण भी इनका शरीर कमजोर होता रहता है।

भारत का अद्भुत मंदिर

भारत देश एक ऐसा देश है जो आश्चर्यो से भरा हुआ है। इस देश के हर राज्य के हर शहर के कोने-कोने में कोई न कोई अदुभुत जगह मौजूद है। ऐसी ही एक जगह है उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर जो की अपनी एक अनोखी विशेषता के कारण प्रसिद्ध है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह मंदिर बारिश होने की सूचना 7 दिन पहले ही दे देता है। आप शायद यकीन न करे पर यह हकीकत है।
भारत में कई चीजें ऐसी है जो आश्चर्य और चमत्कार से भरी हुई है। ऐसे ही अनोखी विशेषता उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर की है। इस मंदिर के भवन की छत चिलचिलाती धूप में टपकने लगती है और बारिश की शुरुआत होते ही छत से पानी टपकना बंद हो जाता है। इस मंदिर की विशेषता ये भी है कि यह मंदिर बारिश होने की सूचना सात दिन पहले ही दे देता है। इस मंदिर को ‘बारिश के मंदिर’ नाम से जाना जाता है। इतना ही नहीं यदि पानी की बूंदे बड़ी हैं तो अच्छे मानसून और यदि छोटी हैं तो सूखा होने की बात कही जाती है। अब तो लोग मंदिर की छत टपकने के संदेश को समझकर जमीनों को जोतने के लिए निकल पड़ते हैं। हैरानी में डालने वाली बात यह भी है कि जैसे ही बारिश शुरु होती है, छत अंदर से पूरी तरह सूख जाती है।
कई वैज्ञानिक व रिसर्च टीम इस जगह पर आए ताकि इस प्रक्रिया को अच्छे से समझ सकें पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सका। भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य पुजारी केपी शुक्ला ने कहा कि मंदिर का डिजाइन अपने आप में अभूतपूर्व है। इस पूरे राज्य के किसी और मंदिर को इस तरह नहीं डिजाइन किया गया है। सम्राट अशोक के शासनकाल में देश के अन्य हिस्सों में बनाए गए स्तूपों की तरह ही यह मंदिर भी है। अब इस मंदिर में भगवान जगन्नाथ की पूजा करने हमारी सातवीं पीढ़ी आ रही है। हर साल लोग जुलाई में भगवान जगन्नाथ का रथ खींचने और पूजा करने के लिए काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। जन्माष्टमी के दौरान मेला भी आयोजित किया जाता है। स्थानीय किसान यहां अच्छे मानसून के लिए प्रार्थना करते हैं और पानी की बूंदों को देखने के लिए छत पर पत्थर जमा करते हैं ताकि इनके बीच जमा हुए पानी की बूंदों को देख सकें।

नारद जन्म कथा

देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए। नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गए। भगवान के संकीर्तन के बीच में ही विनोद भाव से हास-परिहास करने लगे। यह देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें शाप दे दिया और वो मानव रूप लेकर पृथ्वी में आये।
जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगीं। एक दिन गांव में कुछ महात्मा आए और चातुर्मास्य बिताने के लिए वहीं ठहर गए। नारद जी बचपन से ही अत्यंत सुशील थे। वह खेलकूद छोड़ कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो यह तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिए दे देते थे।
साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गए। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।
एक दिन सांप के काटने से उनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए चल पड़े। एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए और थोड़ी देर तक अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गए।
भगवान का दोबारा दर्शन करने के लिए नारद जी के मन में परम व्याकुलता पैदा हो गई। वह बार-बार अपने मन को समेट कर भगवान के ध्यान का प्रयास करने लगे, किंतु सफल नहीं हुए। उसी समय आकाशावाणी हुई, ‘‘अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।’’
समय आने पर नारद जी का पांच भौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। यह भगवान की भक्ति और महात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद् गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते हैं। इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इनके द्वारा प्रणीत भक्ति सूत्र में भक्ति की बड़ी ही सुंदर व्याख्या है। अब भी यह अप्रत्यक्ष रूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं। भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष, ध्रुव आदि भक्तों को उपदेश देकर इन्होंने ही उन्हें भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। इनकी समस्त लोकों में अबाधित गति है। इनका मंगलमय जीवन संसार के मंगल के लिए ही है। यह ज्ञान के स्वरूप, विद्या के भंडार, आनंद के सागर तथा सब भूतों के अकारण प्रेमी और विश्व के सहज हितकारी हैं।
अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है। वह विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोगों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं।

ज्वाला देवी मंदिर का रहस्य

हिमाचल प्रदेश में देश के करोड़ों हिंदुओं की आस्था के केंंद्र ज्वालादेवी मंदिर में जल रही प्राकृतिक ज्योति का रहस्य वैज्ञानिक इतने सालों बाद भी नहीं खोज पाए हैं। पिछले अनेक सालों से ऑयल एंड नेचुरल गैस कारपोरेशन लिमिटेड के वैज्ञानिकों ने क्षेत्र के भूगर्भ का कई किलोमीटर तक चप्पा-चप्पा छान मारा, पर कहीं भी गैस और तेल के अंश नहीं मिले। अब ओएनजीसी फिर से एक बार इस रहस्य को जाने के लिए कार्य शुरू कर रहा है।
भूगर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की होती है यहां पूजा:
यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। यहां पर पृथ्वी के गर्भ से 9 अलग-अलग जगह से ज्वालाएं निकल रही हैं जिसके ऊपर ही मंदिर बना दिया गया है। इन नौ ज्योतियां को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद के करवाया था। बाद में पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया।
यहां गिरी थी देवी सती की जीभ:
ज्वालादेवी मंदिर हिमाचल के कांगड़ा जिला में स्थित है। ज्वालादेवी मंदिर को ज्योता वाली का मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर को खोजने का श्रेय पांडवो को जाता है। इसकी गिनती माता के प्रमुख शक्ति पीठों में होती है। मान्यता है यहां देवी सती की जीभ गिरी थी।
अकबर ने ज्योति को बुझाने के लिए खुदवा दी थी नहर:
इस जगह के बारे में एक कथा अकबर और माता के परम भक्त ध्यानु भगत से जुड़ी है। हिमाचल के नादौन ग्राम निवासी माता का एक सेवक ध्यानू भक्त एक हजार यात्रियों सहित माता के दर्शन के लिए जा रहा था। इतना बड़ा दल देखकर बादशाह के सिपाहियों ने चांदनी चौक दिल्ली में उन्हें रोक लिया और अकबर के दरबार में ले जाकर ध्यानु भक्त को पेश किया।
    बादशाह ने पूछा तुम इतने आदमियों को साथ लेकर कहां जा रहे हो। ध्यानू ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया मैं ज्वालामाई के दर्शन के लिए जा रहा हूं मेरे साथ जो लोग हैं, वह भी माता जी के भक्त हैं, और यात्रा पर जा रहे हैं।
    अकबर ने सुनकर कहा यह ज्वालामाई कौन है? और वहां जाने से क्या होगा? ध्यानू भक्त ने उत्तर दिया महाराज ज्वालामाई संसार का पालन करने वाली माता है। वे भक्तों के सच्चे ह्रदय से की गई प्राथनाएं स्वीकार करती हैं। उनका प्रताप ऐसा है उनके स्थान पर बिना तेल-बत्ती के ज्योति जलती रहती है। हम लोग प्रतिवर्ष उनके दर्शन जाते हैं।
    अकबर ने कहा अगर तुम्हारी बंदगी पाक है तो देवी माता जरुर तुम्हारी इज्जत रखेगी। अगर वह तुम जैसे भक्तों का ख्याल न रखे तो फिर तुम्हारी इबादत का क्या फायदा? या तो वह देवी ही यकीन के काबिल नहीं, या फिर तुम्हारी इबादत झूठी है। इम्तहान के लिए हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन अलग कर देते है, तुम अपनी देवी से कहकर उसे दोबारा जिन्दा करवा लेना। इस प्रकार घोड़े की गर्दन काट दी गई।
    ध्यानू भक्त ने कोई उपाए न देखकर बादशाह से एक माह की अवधि तक घोड़े के सिर व धड़ को सुरक्षित रखने की प्रार्थना की। अकबर ने ध्यानू भक्त की बात मान ली और उसे यात्रा करने की अनुमति भी मिल गई।
    बादशाह से विदा होकर ध्यानू भक्त अपने साथियों सहित माता के दरबार मे जा उपस्थित हुआ। स्नान-पूजन आदि करने के बाद रात भर जागरण किया। प्रात:काल आरती के समय हाथ जोड़ कर ध्यानू ने प्राथना की कि मातेश्वरी आप अन्तर्यामी हैं। बादशाह मेरी भक्ती की परीक्षा ले रहा है, मेरी लाज रखना, मेरे घोड़े को अपनी कृपा व शक्ति से जीवित कर देना। कहते है की अपने भक्त की लाज रखते हुए माँ ने घोड़े को फिर से जिंदा कर दिया।
    यह सब कुछ देखकर बादशाह अकबर हैरान हो गया। उसने अपनी सेना बुलाई और खुद मंदिर की तरफ चल पड़ा। वहाँ पहुँच कर फिर उसके मन में शंका हुई, उसने अपनी सेना से मंदिर पूरे मंदिर में पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्वाला बुझी नहीं। तब जाकर उसे माँ की महिमा का यकीन हुआ और उसने सवा मन (पचास किलो) सोने का छतर चढ़ाया। लेकिन माता ने वह छतर कबूल नहीं किया और वह छतर गिर कर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। आप आज भी वह अकबर का छतर ज्वाला देवी के मंदिर में देख सकते हैं।
गोरख डिब्बी का चमत्कारिक स्थान:
मंदिर का मुख्य द्वार काफी सुंदर एव भव्य है। मंदिर में प्रवेश के साथ ही बाये हाथ पर अकबर नहर है। इस नहर को अकबर ने बनवाया था। उसने मंदिर में प्रज्जवलित ज्योतियों को बुझाने के लिए यह नहर बनवाया था। उसके आगे मंदिर का गर्भ द्वार है जिसके अंदर माता ज्योति के रूम में विराजमान है। थोड़ा ऊपर की ओर जाने पर गोरखनाथ का मंदिर है जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। कहते है की यहाँ गुरु गोरखनाथ जी पधारे थे और कई चमत्कार दिखाए थे। यहाँ पर आज भी एक पानी का कुण्ड है जो देखने में खौलता हुआ लगता है पर वास्तव मे पानी ठंडा है। ज्वालाजी के पास ही में 4.5 कि.मी. की दूरी पर नगिनी माता का मंदिर है। इस मंदिर में जुलाई और अगस्त के माह में मेले का आयोजन किया जाता है। 5 कि.मी. कि दूरी पर रघुनाथ जी का मंदिर है जो राम, लक्ष्मण और सीता को समर्पि है। इस मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा कराया गया था। ज्वालामुखी मंदिर की चोटी पर सोने की परत चढ़ी हुई है।
बादशाह अकबर के बाद ह्रहृत्रष्ट जुटी है रहस्य जानने में:
भारत के आजाद होने के बाद इस मंदिर में ज्वाला निकलने के रहस्य को जाने के लिए हमारे देश के वैज्ञानिकों ने प्रयास शुरू किए। 1959 से ऑयल एंड नेचुरल गैस कारपोरेशन लिमिटेड ज्वालादेवी व इसके आसपास के क्षेत्रों में कुएं खोदकर इस कार्य में जुटी हुई है। ज्वालादेवी के टेढ़ा मंदिर में 1959 में पहली बार कुआं खोदा गया था। उसके बाद 1965 में सुराणी में, बग्गी, बंडोल, घीणा, लंज, सुराणी व कालीधार के जंगलों में खुदाई की गई थी।
चमत्कारिक है ज्वाला:
पृत्वी के गर्भ से इस तरह की ज्वाला निकला वैसे कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि पृथ्वी की अंदरूनी हलचल के कारण पूरी दुनिया में कहीं ज्वाला कहीं गरम पानी निकलता रहता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा पावर हाऊस भी बनाए गए हैं, जिनसे बिजली उत्पादित की जाती है। लेकिन यहाँ पर ज्वाला प्राकर्तिक न होकर चमत्कारिक है क्योंकि अंग्रेजी काल में अंग्रेजों ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा दिया कि जमीन के अन्दर से निकलती ‘ऊर्जा’ का इस्तेमाल किया जाए। लेकिन लाख कोशिश करने पर भी वे इस ‘ऊर्जा’ को नहीं ढूंढ पाए। वहीं अकबर लाख कोशिशों के बाद भी इसे बुझा न पाए। यह दोनों बाते यह सिद्ध करती है की यहां ज्वाला चमत्कारी रूप से ही निकलती है ना कि प्राकृतिक रूप से, नहीं तो आज यहां मंदिर की जगह मशीनें लगी होतीं और बिजली का उत्पादन होता।

Wednesday 12 October 2016

नेपाल की जीवित देवी कुमारी

दुनियाभर में बहुत से देश या धर्म ऐसे हैं जहां ईश्वर को सर्वोच्च शक्ति का प्रतीक मानकर पूजा जाता है। कहीं मूर्ति पूजा का विधान है तो कहीं लिखित दस्तावेजों रूपी ग्रंथ को ही ईश्वर माना जाता है। हिन्दू धर्म की बात करें तो यहां विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा की जाती है। इसके अलावा यह धर्म ईश्वर के जीवित अवतारों की भी अवधारणा में विश्वास रखता है।
कुछ समय पहले तक विश्व का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र कहा जाने वाला भारत का पड़ोसी मुल्क नेपाल कुछ ऐसी ही कहानी कहता है जो ईश्वर के अवतार पर विश्वास करने पर बल देती है। नेपाल के लोगों को पिछले दिनों भयंकर त्रासदी का सामना करना पड़ा। अत्याधिक तीव्रता से आए भूकंप ने नेपाल की जमीन को हिलाकर रख दिया, हजारों की संख्या में लोग इस प्राकृतिक आपदा की भेंट चढ़ गए। लेकिन एक स्थान ऐसा था जहां मौजूद लोगों पर आंच तक नहीं आई और वह स्थान था जीवित देवी के नाम से प्रख्यात नेपाल की ‘कुमारी देवी’ का मंदिर।
नेपाल में आए विनाशकारी आपदा ने बहुत से लोगों को अपनी चपेट लिया, हजारों लोगों के परिवारों को तबाह कर दिया लेकिन कुछ खुशनसीब लोग ऐसे भी थे जिनका बाल भी बांका नहीं हो सका। स्थानीय लोगों का मानना है कि उस समय वे कुमारी देवी के स्थान पर थे, कुमारी देवी ने ही उनकी जिन्दगी बचाई है।
नेपाल के लोग इन जीवित देवियों, जिन्हें कुमारी देवी कहा जाता है, को महाकाली का स्वरूप मानते हैं और जब तक ये जवान नहीं हो जातीं, अर्थात जब तक इन्हें मासिक धर्म शुरू नहीं हो जाता, तब तक ये कुमारी देवी की पदवी पर रहती हैं और उसके बाद कोई अन्य बालिका कुमारी देवी बनाई जाती है।
नेपाल के लोगों का मानना है कि ये जीवित देवियां आपदा के समय उनकी रक्षा करती हैं। इस मान्यता की शुरुआत 17वीं शताब्दी के आरंभ में ही हो गई थी। तब से लेकर अब तक नेपाल निवासी छोटी बच्चियों को देवी का रूप मानकर उन्हें मंदिरों में रखकर उनकी पूजा करते हैं। उन्हें समाज और अपने परिवारों से अलग रहना पड़ता है।
नेपाल के लोगों की जीवित देवी या कुमारी देवी शाक्य या वज्राचार्य जाति से संबंध रखती हैं, इन्हें नेपाल के नेवारी समुदाय द्वारा पहचाना जाता है। नेपाल में करीब 11 कुमारी देवियां होती हैं जिनमें से रॉयल गॉडेस या कुमारी देवी को सबसे प्रमुख माना गया है।
शाक्य और वज्राचार्य जाति की बच्चियों को 3 वर्ष का होते ही अपने परिवार से अलग कर दिया जाता है और उन्हें ‘कुमारी’ नाम दे दिया जाता है। इसके पश्चात 32 स्तरों पर उनकी परीक्षाएं होती हैं। इन सभी बच्चियों को ‘अविनाशी’ अर्थात जिसका अंत नहीं हो सकता, कहा जाता है।
जिस तरह बौद्ध धर्म के लोग अपने लामा को चुनते हैं उसी तरह कुछ नेपाल की कुमारी देवी का चयन होता है। उनके भीतर कुछ ऐसे लक्षण देखे जाते हैं जो उनके कुमारी देवी बनने की एक कसौटी होते हैं। इसमें उनकी जन्म कुंडली में मौजूद ग्रह-नक्षत्र भी बड़ी भूमिका निभाते हैं।
उनके समक्ष भैंस के कटे सिर को रखा जाता है, इसके अलावा राक्षस का मुखौटा पहने पुरुष वहां नृत्य करते हैं। कोई भी साधारण बच्ची उस दृश्य को देखकर भयभीत हो जाएगी लेकिन जो भी बच्ची बिना किसी डर के वहां रहती है, उसे मां काली का अवतार मानकर कुमारी देवी बनाया जाता है।
कुमारी देवी बनने के बाद उन्हें कुमारी घर में रखा जाता है, जहां रहकर वे अपना ज्यादातर समय पढ़ाई और धार्मिक कार्यों में बिताती हैं। वह केवल त्यौहार के समय ही घर से बाहर निकल सकती हैं लेकिन उनके पांव जमीन पर नहीं पडऩे चाहिए।
‘कुमारी देवी’ की पदवी उनसे तब छीन ली जाती है जब उन्हें या तो मासिक धर्म शुरू हो जाए या फिर किसी अन्य वजह से उनके शरीर से रक्त बहने लगे या फिर मामूली सी खरोंच ही क्यों ना पडज़ाए। कुमारी देवी की पदवी से हटने के बाद उन्हें आजीवन पेंशन तो मिलती है लेकिन नेपाली मान्यताओं के अनुसार यह कहा जाता है कि जो भी पुरुष पूर्व कुमारी देवी से विवाह करता है उसकी मृत्यु कम उम्र में हो जाती है। इसलिए कोई भी पुरुष उनसे विवाह करने के लिए तैयार नहीं होता, जिस कारण उनमें से अधिकांश आजीवन कुंवारी रह जाती हैं।
नेपाल में रहने वाले बौद्ध और हिन्दू धर्म के लोग यह कहते हैं कि ये देवियां हर बुराई और आपदा से उनकी रक्षा करती हैं। इन्हें ईश्वर के समान ही पूजनीय माना जाता है। शाक्य वंश के लोग इन कुमारी देवियों की सुरक्षा का जिम्मा संभालते हैं। जैसे ही बच्चियों को मासिक धर्म शुरू हो जाता है उन्हें कुमारी देवी की पदवी से हटा दिया जाता है और फिर एक नई कुमारी देवी की खोज शुरू की जाती है। पद से निवृत्त हुई कुमारियों को एक सरकारी आवास में रहना होता है। जिस आवास में ये कुमारी देवियां रहती हैं, नेपाल के लोगों के लिए वह स्थान बेहद पवित्र हो जाता है।
वर्तमान समय में मतीना शाक्य को दुर्गा का अवतार मानकर नेपाल की कुमारी देवी के नाम से पूजा जाता है। पूरा नेपाल इन्हें देवी के स्वरूप में पूजता है। जब भी किसी त्यौहार पर कुमारी देवी अपने आवास से बाहर निकलती हैं तब उनकी रक्षा का जिम्मा संभाले हुए शाक्य वंश के लोग उनकी पालकी को अपने कंधे पर उठाकर नगर में घुमाते हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार कुमारी देवी के दर्शन करना बहुत शुभ होता है।

मृत्यु के पहले दुर्योधन ने बताई थी अपनी तीन गलतियां

महाभारत काल में एक खलनायक के रूप में प्रस्तुत हुए हैं दुर्योधन। कौरवों में ज्येष्ठ एवं सबसे श्रेष्ठ कहलाने वाले दुर्योधन, यदि अपने मामा शकुनि की बातों में ना आते तो शायद आज वे महाभारत काल के सबसे बेहतरीन पात्र के रूप में याद किए जाते। क्योंकि उनमें अर्जुन या भीम से कम प्रतिभा नहीं थी, साथ ही वे एक अच्छे मित्र भी साबित हुए थे। लेकिन महाभारत की कहानी ने उन्हें पल-पल ईष्र्या से भरा हुआ बताया। एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया जिसे केवल और केवल स्वार्थ ने घेर रखा था। लेकिन कुछ इतिहासकारों के मुताबिक दुर्योधन वही कर रहे थे जो कौरवों के लिए उत्तम था। खैर हम यहां दुर्योधन की अच्छाई या बुराई की गणना नहीं कर रहे, बल्कि आपको महाभारत का एक ऐसा प्रसंग सुनाने जा रहे हैं जिसके बारे में आपने पहले कभी नहीं जाना होगा।
महाभारत युद्ध पूर्ण रूप से पाण्डवों और कौरवों की लड़ाई थी, जिसमें एक ओर पांच पाण्डव थे तो दूसरी ओर थे 100 कौरव भाई। पाण्डवों के साथ यदि स्वयं नारायण थे तो दूसरी ओर कौरवों की रक्षा के लिए लाखों की तादाद में मौजूद थी नारायणी सेना।
लेकिन इतनी बड़ी सेना के बावजूद भी कौरव युद्ध ना जीत सके। पड़ोसी राज्यों से भी उन्हें काफी मदद मिली। कई शूरवीर योद्धा और राजा उनकी सेना में मौजूद थे, लेकिन पाण्डवों को परास्त करने की शक्ति किसी में ना थी। महाभारत युद्ध के परिणामों को सभी शोधकर्ताओं ने अपने-अपने अंदाज में समझा है। इस युद्ध को करीब से समझने के बाद सभी ने अपना एक अलग निष्कर्ष दिया है और बताया है कि कौरव आखिर क्यूं हारे। लेकिन स्वयं दुर्योधन ने भी अपनी वह खामियां बताई थीं, जिसकी वजह से कौरव युद्ध हारे। उसने बताया कि यदि ये खामियां ना होतीं, तो कौरव विजेता हो सकते थे। दरअसल यह घटना उस समय की है जब खून में लथपथ दुर्योधन रणभूमि में जमीन पर गिरा हुआ था। वह घड़ी दूर नहीं थी जब किसी भी पल वो अपना दम तोड़ सकता था। दुर्योधन जमीन पर पड़े हुए अपने हाथ की तीन अंगुलियों को बार-बार उठाकर कुछ बड़बड़ा रहा था, लेकिन पीड़ा के कारण उसकी ध्वनि साफ सुनाई नहीं दे रही थी। तभी श्रीकृष्ण उसके पास गए और उसकी दुविधा का कारण पूछा।
तब उसने बताया कि उसने महाभारत के युद्ध के दौरान तीन गलतियां की हैं, इन्हीं गलतियों के कारण वह युद्ध नहीं जीत सका। यदि वह पहले ही इन गलतियों को पहचान लेता, तो आज जीत का ताज उसके सिर होता।
श्रीकृष्ण ने सहजता से दुर्योधन से उसकी उन तीन गलतियों के बारे में पूछा तो उसने बताया, पहली गलती यह थी कि दुर्योधन ने स्वयं नारायण के स्थान पर उनकी नारायणी सेना को चुना। यदि नारायण युद्ध में कौरवों के पक्ष में होते, तो आज परिणाम कुछ और ही होता।
दूसरी गलती उसने यह की कि अपनी माता के लाख कहने पर भी वह उनके सामने पेड़ के पत्तों से बना लंगोट पहनकर गया। यदि वह नग्नावस्था में जाता, तो आज उसे कोई भी योद्धा परास्त नहीं कर सकता था।
दुर्योधन के अनुसार तीसरी भूल जो उसने की थी वो थी युद्ध में आखिर में जाने की भूल। यदि वह पहले जाता तो कई बातों को समझ सकता था और शायद उसके भाई और मित्रों की जान बच जाती।
श्रीकृष्ण ने नम्रता से दुर्योधन की यह सारी बात सुनी। फिर उन्होंने उसे समझाया कि ‘हार का मुख्य कारण तुम्हारा अधर्मी व्यवहार और अपनी ही कुलवधू का वस्त्राहरण करवाना था। तुमने स्वयं अपने कर्मों से अपना भाग्य लिखा। यह सुनकर दुर्योधन को अपनी असली गलती का आभास हुआ।

ऋषि पराशर द्वारा बताये गए विभिन्न ज्योतिष्य उपाय

वृहत्त पाराशर ज्योतिषशास्त्र में ऋषि पाराशर ने बहुत सारे उपाय बताए हैं जिनमें उन्होंने यह वर्णन किया है कि किस कारण से वह कष्ट आया है और उसकी निवृत्ति का क्या उपाय हैं। यह उपाय ज्यादातर मंत्र और दान पूजा-पाठ इत्यादि से संबंधित है। उन सब का संक्षिप्त विवरण इस लेख में दिया जा रहा है।
विभिन्न शाप :
संतान नष्ट होने या संतान ना होने को विभिन्न तरह के शाप के परिणाम ऋषि पाराशरजी ने बताया है। ऋषि पाराशर जी ने उल्लेेख किया है कि भगवान शंकर ने स्वयं पार्वती जी को यह उपाय बताए हैं।
1. सर्प का शाप:
बहुत सारे योगों से सर्प शाप का पता चलता है। उनमें राहु पर अधिक बल दिया गया है। कुल आठ योग बताए गए हैं। सर्प शाप से संतान नष्ट होने पर या संतान का अभाव होने पर स्वर्ण की एक नाग प्रतिमा बनाकर विधिपूर्वक पूजा की जाए जिसमें अनुष्ठान, दशंाश हवन, मार्जन, तर्पण, ब्राह्मण भोजन कराके गोदान, भूमि दान, तिल दान, स्वर्ण दान इत्यादि किए जाएं तो नागराज प्रसन्न होकर कुल की वृद्धि करते हैं।
2. पितृ शाप :
गतजन्म में पिता के प्रति किए गए अपराध से जो शाप मिलता है तो संतान का अभाव होता है। इस दोष का पता सूर्य से संबंधित योगों से चलता है और सूर्य के पीड़ित होने या कुपित होने पर ये योग आधारित हैं। निश्चित है कि मंगल और राहु भी गणना में आएंगे। इसी को पितृ दोष या पितर शाप भी कहा गया है। कुल मिलाकर ग्यारह योग हैं।
     इसके लिए गया श्राद्ध करना चाहिए तथा जितने अधिक ब्राह्मणों को भोजन करा सकें, कराएं। यदि कन्या हो तो गाय का दान और कन्या दान करना चाहिए। ऐसे करने से कुल की वृद्धि होगी।
3. मातृ शाप:
पंचमेश और चंद्रमा के संबंधों पर आधारित यह योग संतान का नष्ट होना या संतान का अभाव बताते हैं। इन योगों में निश्चित रूप से मंगल, शनि और राहु का योगदान मिलेगा। यह दोष कुल 13 मिलाकर हंै। इस जन्म में भी यदि कोई माता की अवहेलना करेगा या पीड़ित करेगा तो अगले जन्म में यह दोष देखने को मिलेगा।
4. भ्रातृ शाप:
यदि गतजन्म में भाई के प्रति कोई अपराध किया गया हो तो उसके शाप के कारण इस जन्म में संतान नष्ट होना या संतान का अभाव मिलता है। पंचम भाव, मंगल और राहु से यह दोष देखे जाते हैं। यह दोष कुल मिलाकर तेरह हैं।
उपाय : हरिवंश पुराण का श्रवण करें, चान्द्रायण व्रत करें, कावेरी नदी या अन्य पवित्र नदियों के किनारे शालिग्राम के सामने पीपल वृक्ष उगाएं तथा पूजन करें, पत्नी के हाथ से दस गायों का दान करें और फलदार वृक्षों सहित भूमि का दान करें तो निश्चित रूप से कुल वृद्धि होती है।
5. मामा का शाप:
गतजन्म में यदि मामा के प्रति कोई अपराध किया गया हो तो उसके शाप से संतान का अभाव इस जन्म में देखने को मिलता है। यदि ऐसा होता है कि पंचम भाव में बुध, गुरू, मंगल और राहु मिलते हैं और लग्न में शनि मिलते हैं। इस योग में शनि-बुध का विशेष योगदान होता है। इसके लिए भगवान विष्णु की मूर्ति की स्थापना, तालाब, बावड़ी, कुअंा और बांध को बनवाने से कुल की वृद्धि होती है।
6. ब्रह्म शाप:
गतजन्म में कोई धन या बल के मद में ब्राह्मणों का अपमान करता है तो उसके शाप से इस जन्म में संतान का अभाव होता है या संतान नष्ट होती है। यह कुल मिलाकर सात योग हैं। नवम भाव, गुरू, राहु और पाप ग्रहों को लेकर यह योग देखने को मिलते हैं। योग का निर्णय तो विद्वान ज्योतिषी ही करेंगे परंतु उपाय निम्न बताए गए हैं। इसके लिए चान्द्रायण व्रत, प्रायश्चित करके गोदान, दक्षिणा, स्वर्ण और पंचरत्न तथा अधिकतम ब्राह्मणों को भोजन कराएं तो शाप से निवृत्ति होकर कुल की वृद्धि होती है।
7. पत्नी का शाप:
गतजन्म में पत्नी के द्वारा यदि शाप मिलता है तो इस जन्म में संतान का अभाव होता है। यह ग्यारह योग बताए गए हैं जो सप्तम भाव और उस पर पापग्रहों के प्रभाव से देखे जाते हैं। इसके लिए कन्या दान श्रेष्ठ उपाय बताया गया है। यदि कन्या नहीं हो तो स्वर्ण की लक्ष्मी-नारायण की मूर्ति तथा दस ऐसी गाय जो बछड़े वाली माँ हों तथा शैया, आभूषण, वस्त्र इत्यादि ब्राह्मण जोड़े को देने से पुत्र होता है और कुल वृद्धि होती है।
8. प्रेत शाप:
यह नौ योग बताए गए हैं जिनमें ये वर्णन है कि अगर श्राद्ध का अधिकारी अपने मृत पितरों का श्राद्ध नहीं करता तो वह अगले जन्म में अपुत्र हो जाता है। इस दोष की निवृत्ति के लिए निम्न उपाय हैं। इसके लिये गया में पिण्डदान, रूद्राभिषेक, ब्रह्मा की स्वर्णमय मूर्ति, गाय, चांदी का पात्र तथा नीलमणि दान करना चाहिए।
9. ग्रह दोष:
यदि ग्रह दोष से संतान हानि हो तो बुध और शुक्र के दोष में भगवान शंकर का पूजन, गुरू और चंद्र के दोष में संतान गोपाल का पाठ, यंत्र और औषधि का सेवन, राहु के दोष से कन्या दान, सूर्य के दोष से भगवान विष्णु की आराधना, मंगल और शनि के दोष से षडङग्शतरूद्रीय जप कराने से संतान प्राप्ति होती है और कुल की वृद्धि होती है।
अन्य दोषों के उपाय:
अमावस्या का जन्म:
ऋषि पाराशर जी का मानना है कि अमावस्या के जन्म से घर में दरिद्रता आती है अत: अमावस्या के दिन संतान का जन्म होने पर शांति अवश्य करानी चाहिए। इस उपाय के अंतर्गत विधिपूर्वक कलश स्थापना करके उसमें पंच पल्लव, जड़, छाल और पंचामृत डालकर अभिमंत्रित करके अग्निकोण में स्थापना कर दें फिर सूर्य की सोने की, चंद्रमा की चांदी की मूर्ति बनवाकर स्थापना करें और षोडशोपचार या पंचोपचार से पूजन करें फिर इन ग्रहों की समिधा से हवन करें, माता-पिता का भी अभिषेक करें और सोने, चांदी या गाय की दक्षिणा दें और इसके बाद ब्राह्मण भोजन कराएं। इससे गर्त के ग्रह चंद्रमा एवं सूर्य की शांति होती है और जातक का कल्याण होता है।
कृष्ण चतुर्थी व्रत के उपाय:
चतुर्थी को छ: भागों में बांटा है। प्रथम भाग में जन्म होने पर शुभ होता है, द्वितीय भाग में जन्म हो तो पिता का नाश, तृतीय भाग में जन्म हो तो माता की मृत्यु, चतुर्थ भाग में जन्म हो तो मामा का नाश, पंचम भाग में जन्म हो तो कुल का नाश, छठे भाग में जन्म हो तो धन का नाश या जन्म लेने वाले स्वयं का नाश होता है। इस दोष का निवारण भगवान शिवजी की पूजा से होता है। यथाशक्ति शिव की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर महामृत्युंजय मंत्र का जाप करें। इस जप का विधान थोड़ा सा तकनीकी और कठिन होता है। हवन में सभी ग्रहों की आहुतियां उनके निमित्त समिधा से दी जाती हैं, बाद में स्थापित कलश के जल से माता-पिता का अभिषेक कराया जाता है।
भद्रा इत्यादि में जन्म का दोष:
भद्रा, क्षय तिथि, व्यतिपात, परिघ, वज्र आदि योगों में जन्म तथा यमघंट इत्यादि में जो जातक जन्म लेता है, उसे अशुभ माना गया है। यह दुर्योग जिस दिन हुआ हो, वह दुर्योग जिस दिन आए उसी दिन इसकी शांति करानी आवश्यक है। इस दुर्योग के दिन विष्णु, शंकर इत्यादि की पूजा व अभिषेक शिवजी मंदिर में धूप, घी, दीपदान तथा पीपल वृक्ष की पूजा करके विष्णु भगवान के मंत्र का 108बार हवन कराना चाहिए। पीपल को आयुर्दायक माना गया है। इसके पश्चात् ब्राह्मण भोज कराएं तो व्यक्ति दोष मुक्त हो जाता है।
माता-पिता के नक्षत्र में जन्म:
यदि माता-पिता या सगे भाई-बहिन के नक्षत्र में किसी का भी जन्म हो तो उनमें से किसी को भी मरणतुल्य कष्ट अवश्य होगा। किसी शुभ लग्न में अग्निकोण से ईशान कोण की तरफ जन्म नक्षत्र की सुंदर प्रतिमा बनाकर कलश पर स्थापित करें फिर लाल वस्त्र से ढककर उपरोक्त नक्षत्रों के मंत्र से पूजा-अर्चना करें फिर उसी मंत्र से 108बार घी और समिधा से आहुति दें तथा कलश के जल से पिता, पुत्र और सहोदर का अभिषेक करें। ब्राह्मण भोजन कराएं और दक्षिणा दें इससे उस नक्षत्र की शांति होती है।
संक्रांति जन्म दोष:
ग्रहों की संक्रांतियों के नाम घोरा, ध्वांक्षी, महोदरी, मन्दा, मन्दाकिनी, मिश्रा और राक्षसी इत्यादि हैं। सूर्य की संक्रांति में जन्म लेने वाला दरिद्र हो जाता है इसलिए शांति करानी आवश्यक है। संक्रांति में जन्म का अगर दोष हो तो नवग्रह का यज्ञ करना चाहिए। विधि-विधान के साथ अधिदेव और प्रत्यधिदेव देवता के साथ जिस ग्रह की संक्रांति हो उसकी प्रतिमा को स्थापित कर लें फिर ग्रहों की पूजा करके व हवन करके महामृत्युंजय मंत्र का जप करें। तिल से हवन कर लेने के बाद माता-पिता का अभिषेक करें और यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराके, दान-दक्षिणा दें इससे संक्रांति जन्म दोष दूर होता है।
ग्रहण काल में जन्म का दोष:
जिसका जन्म ग्रहणकाल में होता है उसे व्याधि, कष्ट, दरिद्रता और मृत्यु का भय होता है। ग्रहण नक्षत्र के स्वामी तथा सूर्यग्रहण में सूर्य की तथा चंद्रग्रहण में चंद्रमा की मूर्ति बनाएं। सूर्य की प्रतिमा सोने की, चंद्रमा की प्रतिमा चांदी तथा राहु की प्रतिमा सीसे की बनाएं। इन ग्रहों के प्रिय विषयों का दान करना चाहिए फिर ग्रह के लिए निमित्त समिधा से हवन करें परंतु नक्षत्र स्वामी के लिए पीपल की समिधा का इस्तेमाल करें। कलश के जल से जातक का अभिषेक करें और ब्राह्मण को भोजन कराएं व दान-दक्षिणा दें। इससे ग्रहणकाल में जन्म दोष दूर होता है।
प्रसव विकार दोष:
यदि निर्धारित समय से कुछ महीने पहले या कुछ महीने बाद प्रसव हो तो इस विकार से ग्राम या राष्ट्र का अनिष्ट होता है। अंगहीन या बिना मस्तिष्क का या अधिक मस्तिष्क वाला जातक जन्म ले या अन्य जानवरों की आकृति वाला जातक जन्म ले तो यह विकार गाँव के लिए आपत्ति लाने वाला होता है। कुल में भी पीड़ा आती है। पाराशर ऐसे प्रसव के लिए अत्यंत कठोर है और ना केवल ऐसी स्त्री बल्कि ऐसे जानवर को भी त्याग देने के लिए कहते हैं। इसके अतिरिक्त 15वें या 16वें वर्ष का गर्भ प्रसव भी अशुभ माना गया है और विनाश कारक होता है। इस विकार की भी शांति का प्रस्ताव किया गया है। ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र का पूजन, ग्रह यज्ञ, हवन, अभिषेक और ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। इस प्रकार से शांति कराने से अनिष्ट से रक्षा होती है।
त्रीतर जन्म विकार:
तीन पुत्र के बाद कन्या का जन्म हो या तीन कन्या के बाद पुत्र का जन्म हो तो पितृ कुल या मातृ कुल में अनिष्ट होता है। इसके लिए जन्म का अशौच बीतने के बाद किसी शुभ दिन किसी धान की ढेरी पर चार कलश की स्थापना करके ब्रह्मा, विष्णु, शंकर और इंद्र की पूजा करनी चाहिए। रूद्र सूक्त और शांति सूक्त का पाठ करना चाहिए फिर हवन करना चाहिए। इससे अनिष्ट शांत होता है।
गण्डान्त विकार:
पूर्णातिथि (5,10,15) के अंत की घड़़ी, नंदा तिथि (1,6,11) के आदि में दो घड़ी कुल मिलाकर चार तिथि को गण्डान्त कहा गया है। इसी प्रकार रेवती और अश्विनी की संधि पर, आश्लेषा और मघा की संधि पर और ज्येष्ठा और मूल की संधि पर चार घ़्ाडी मिलाकर नक्षत्र गण्डान्त कहलाता है। इसी तरह से लग्न गण्डान्त होता है। मीन की आखिरी आधी घटी और मेष की प्रारंभिक आधी घटी, कर्क की आखिरी आधी घटी और सिंह की प्रारंभिक आधी घटी, वृश्चिक की आखिरी आधी घटी तथा धनु की प्रारंभिक आधी घटी लग्न गण्डान्त कहलाती है। इन गण्डान्तों में ज्येष्ठा के अंत में पांच घटी और मूल के आरंभ में आठ घटी महाअशुभ माना गया है। इसके लिए गण्डान्त शांति के बाद ही पिता बालक का मुंह देखें। तिथि गण्डान्त में बैल का दान, नक्षत्र गण्डान्त में बछड़े वाली गाय का दान और लग्न गण्डान्त में सोने का दान करना चाहिए। गण्डान्त के पूर्व भाग में जन्म हो तो पिता के साथ बच्चो का अभिषेक करना चाहिए और यदि दूसरे भाग में जन्म हो तो माता के साथ बालक का अभिषेक करना चाहिए। इन उपायों के अंतर्गत तिथि स्वामी, नक्षत्र स्वामी या लग्न स्वामी का स्वरूप बनाकर, कलश पर पूजा करें और फिर हवन करें व अभिषेक इत्यादि करें।
    लगभग सभी गण्डान्तों में गोदान को एक बहुत सशक्त उपाय माना गया है। ज्येष्ठा गण्ड शांति में इन्द्र सूक्त और महामृत्युंजय का पाठ किया जाता है। मूल, ज्येष्ठा, आश्लेषा और मघा को अति कठिन मानते हुए तीन गायों का दान बताया गया है। रेवती और अश्विनी में दो गायों का दान और अन्य गण्ड नक्षत्रों के दोष या किसी अन्य दुष्ट दोष में एक गाय का दान बताया गया है।
    ज्येष्ठा नक्षत्र की कन्या अपने पति के बड़े भाई का विनाश करती है और विशाखा के चौथे चरण में उत्पन्न कन्या अपने देवर का नाश करती है। अत: इनके विवाह के समय तो अवश्य ही गोदान कराना चाहिए। आश्लेेषा के अंतिम तीन चरणों में जन्म लेने वाली कन्या या पुत्र अपनी सास के लिए अनिष्टकारक होते हैं तथा मूल के प्रथम तीन चरणों में जन्म लेने वाले जातक अपने ससुर को नष्ट करने वाले होते हैं अत: इनकी शांति अवश्य करानी चाहिए। अगर पति से बड़ा भाई ना हो तो यह दोष नहीं लगता है।
    पाराशर अतिरिक्त लगभग सभी होरा ग्रंथ शास्त्रकारों ने ग्रहों की शाति को विशेष महत्व दिया है। फलदीपिका के रचनाकार मंत्रेश्वर जी ने एक स्थान पर लिखा है कि - ‘‘दशापहाराष्टक वर्गगोचरे, ग्रहेषु नृणां विषमस्थितेष्वपि। जपेच्चा तत्प्रीतिकरै: सुकर्मभि:, करोति शान्तिं व्रतदानवन्दनै:।।’’ जब कोई ग्रह अशुभ गोचर करे या अनिष्ट ग्रह की महादशा या अन्तर्दशा हो तो उस ग्रह को प्रसन्न करने के लिए व्रत, दान, वन्दना, जप, शांति आदि द्वारा उसके अशुभ फल का निवारण करना चाहिए।

ज्योतिष शाश्त्र से मधुमेह का इलाज

मधुमेह के रोग को एक वंशानुगत रोग के रूप में भी जाना जाता है. अगर आपके शरीर में इन्सुलिन की मात्रा की कमी है तब ये रोग आपको घेरता है. आप दवाओ के सहारे इस रोग पर कुछ हद तक काबू पा सकते है. अगर आप ज्योतिषीय मान्यताओ की तरफ ध्यान देते है तो इसके अनुसार आप पाओगे कि अगर जलीय राशी जैसे कि कर्क, वृश्चिक या मीन और शुक्र राशी जैसे कि तुला में दो या दो से अधिक पापी ग्रहों ने प्रवेश कर रखा है तो इन राशी के लोगो को मधुमेह के रोग की आशंका बहुत ज्यादा है. अगर इन राशियों के शुक्र के साथ ब्रस्पति या चंद्रमा दूषित है या त्रिक भाव में है तब भी आपको मधुमेह हो सकता है. शत्रु राशी या क्रूर ग्रहों जैसे राहू, शनि, सूर्य, और मंगल ने आपकी राशी में प्रवेश कर रखा है तब भी आपको मधुमेह हो सकता है.
    ज्योतिष उपायों के अनुसार मधुमेह के रोग से मुक्त होने के लिए आप सोलह शुक्रवार तक पूर्ण मन से किसी मंदिर या जरूरतमंद व्यक्ति को सफेद चावल का दान करे. इसके अलावा आप ú शुं शुक्राय नम: मंत्र की एक माला का जाप करे. इसी तरह आप ब्रहस्पति और चंद्रमा की वस्तुओं का भी दान करे. आप शाम के समय या फिर रात्रि में महामृत्युंजय मंत्र का भी जाप अवश्य करें. साथ ही आप पुष्प नक्षत्र में जामुनों को इक्कठा करें और फिर उनका सेवन करे. आप करेले के पाउडर को प्रतिदिन सुबह दूध के साथ मिला कर उसका सेवन करे ऐसा करने से भी आपको मधुमेह के रोग से मुक्ति में लाभ मिलेगा.
    ज्योतिष शास्त्र में कई बार उन लोगों को भी मधुमेह के रोग की शिकायत मिली है जिनकी कुंडली में लग्न पर शनि-केतु की पाप की दृष्टी देखी गई हो. अगर वृश्चिक राशी के चतुर्थ स्थान में शुक्र-शनि की युति, मीन पर सूर्य व मंगल की दृष्टी हो, साथ ही तुला राशी के लोगो पर राहू स्थित हो कर चन्द्रमा पर दृष्टी रखे तो इस स्थिती में इन सब लोगो की इज्जत, प्रतिष्टा को हानि होती है साथ ही इन लोगों को मधुमेह के रोग का भी खतरा होता है.
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मधुमेह के कारण:
ज्योतिष शास्त्र में अगर मीन राशी के जातकों की राशी में बुध पर सूर्य की दृष्टी हो या ब्रहस्पति लग्नेश के साथ छठे भाव में हो या फिर इन जातकों के दशम भाव में मंगल-शनि की युक्ति या मंगल दशम स्थान पर शनि पर दृष्टी रख रहा हो तो इस स्थिति में भी ये रोग हो सकता है. इन सबके अलावा अगर लग्नेश शत्रु राशी में, नीचे का या लगन व मग्नेश पाप ग्रहों से दृष्टी मिला रहा हो व शुक्र आठवे घर में विराजमान हो तब भी इस रोग का खतरा है, कुछ मामलों में अगर चतुर्थ भाव में वृश्चिक राशी में शनि-शुक्र की युति भी मधुमेह के रोग का एक बड़ा कारण बन सकती है.
* अगर आप औषधि का सेवन कर रहे है या हवन करने का विचार कर रहे है तो उसके लिए शुभ नक्षत्र का इंतजार करे.
* अगर आप औषधियों का सेवन आरम्भ कर रहे है तो उनके किये अश्वनी, पुण्य, हस्त, और अभिजित नक्षत्रो का चयन करे और उन्ही नक्षत्रो में सेवन आरम्भ करे.
* अगर आपके गोचरीय ग्रहों में आपको अशुभता दिखाई दे रही है तो आप पहले उन्हें औषधीय स्नान करके शुभ कर ले.
* अगर आपके ग्रह दूषित है तो आप हवन करा सकते है, सूर्य की शांति के लिए आपको समिधा, आक या मंदार की डालियों का सेवन करना चाहिए, चंद्रमा की शांति के लिए आप पलाश, मंगल की शांति के लिए खरीद या खैर, बुध की शांति के लिए अपामार्ग या चिचिढा, गुरु की शांति के लिए पीपल, शुक्र की शांति के लिए उदुम्बर या गुलर, शनि की शांति के लिए खेजड़ी या शमी, रहू के लिए दूर्वा और अंत में केतु की शांति के लिए आप कुशा की समिधा, सरल, सनिग्ध डाली हे हवन की प्रक्रिया ले लिए इस्तेमाल करनी चाहिए, इसके साथ साथ ग्रहों के मंत्रो के साथ ही हमे यज्ञाआहुति देनी चाहिए. तभी आपको आपके द्वारा कराए गये हवन का पूरा लाभ मिल सकेगा और आपको मधुमेह के रोग से बचने में आपकी सहायता कर सकेगा.
    उपरलिखित मधुमेह के रोग के होने के कारण और उनसे बचने या मुक्ति पाने के उपायों को पड़ कर आप अपने आप को मधुमेह जैसी भयंकर बीमारी से बचा सकते है और एक रोगमुक्त जीवन जी सकते है.
वास्तु शास्त्र में मधुमेह:
* वास्तु शास्त्र के अनुसार मधुमेह से बचाव के लिए आपको अपने घर के मध्य भाग को लोहे के जाल, बेकार सामान, और स्टोर से बचाना होगा.
* आपको अपने घर की उत्तर-पूर्व दिशा में नीले फूल वाला पौधा लगाने से भी लाभ प्राप्त हो सकता है.
* याद रखे कि आप कभी भी भूल कर भी अपने बेडरूम में खाना न खाए.
* मधुमेह से बचने के लिए आप अपने बेडरूम में कभी भी जूते या चप्पल पहन कर न जाये और न ही कभी पुराने जूते चप्पलो को अपने बेडरूम में रखे.
* आप अपने पीने के पानी के लिए मिट्टी के घड़े का इस्तेमाल करे और घड़े में तुलसी के सात पत्तो को डालना न भूले, उसके बाद ही घड़े के जल का इस्तेमाल करें.
* मधुमेह से बचाव हेतु आप प्रतिदिन एक बार अपनी माँ के हाथो से बने खाने का सेवन जरुर करे.
* आप अपने घर के मुखिया, अपने पिता का हमेशा आदर करे, उन्हें सम्मान दे और उनका सदैव कहना माने.
* मधुमेह से मुक्ति पाने के लिए आप हर मंगलवार के दिन अपने मित्रो को मिठाई देना न भूले.
* आप ब्रहस्पति देव की हल्दी की एक गांठ को सिलबट्टे पर पीस ले फिर उसमे शहद मिला कर प्रतिदिन सुबह खाली पेट ले, ऐसा करने से भी आपको मधुमेह के रोग से मुक्ति मिलेगी.
* आप प्रत्येक रविवार के दिन प्रात: सुबह सूर्य को जल दे, उसके बाद आप बंदरो को गुड खिलाये इससे भी आपको मधुमेह में लाभ मिलेगा.
* आप अपने घर के ईशानकोण से लोह धातु से निर्मित हर वास्तु को हटा दे.
    मधुमेह से बचने के लिए आप इन सब उपायों का इस्तेमाल कर सकते है और इन उपायों को करने से आपको महसूस होगा के आपका मधुमेह का रोग कितनी जल्दी ठीक हो रहा है और आप रोग मुक्त हो रहे है.