Tuesday 2 August 2016

सिहावा की गोद में

सिहावा मेंं सप्त ऋषियों के आश्रम विभिन्न पहाडिय़ों मेंं बने हुये हैं। उनमेंं मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य आश्रम, अंगिरा आश्रम, श्रृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि ऋषियों का आश्रम है। श्री राम ने अपने वनवास के समय दण्डाकारण्य मेेंं स्थित आश्रम मेंं जाकर यहां बसे ऋषियों से भेंट कर सिहावा मेंं ठहर कर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा महानदी का उद्गम स्थल है। दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रेणियों मेंं निवासरत अनेक ऋषि-मुनियों और गुरूकुल मेंं अध्यापन करने वाले शिक्षार्थियों का यह सिहावा क्षेत्र ही जनस्थान है। यहां राम साधु-सन्यासियों एवं मनीषियों से सत्संग करते रहे। सीतानदी सिहावा के दक्षिण दिशा मेंं प्रवाहित होती है, जिसके पाश्र्व मेंं सीता नदी अभ्यारण बना हुआ है। इसके समीप ही वाल्मीकि आश्रम है। यहाँ पर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा मेंं आगे राम का वन मार्ग कंक ऋषि के आश्रम की ओर से काँकेर पहुँचता है। कंक ऋषि के कारण यह स्थान कंक से काँकेर कहलाया।रायपुर से धमतरी होते हुए 140 किलो मीटर पर नगरी-सिहावा है, यहाँ रामायण कालीन सप्त ऋषियों के प्रसिद्ध आश्रम हैं। नगरी से आगे चल कर लगभग 10 किलोमीटर पर भीतररास नामक ग्राम है। वहीं पर श्रृंगि पर्वत से महानदी निकली है। कर्णेश्वर महादेव मंदिर, गणेश घाट, हिरंगी हाथी खोट का आश्रम, दंतेश्वरी की गुफा, अमृत कुंड और महामाई मंदिर उल्लेखनीय पवित्र स्थल हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। कई अन्य पौराणिक ऋषियों के आश्रम भी यहां हैं। ये आश्रम एक ही स्थान पर न होकर दूर-दूर हैं लेकिन कुल मिलाकर इसे सिहावा क्षेत्र ही कहा जाता है।
यहां सडक़ पर स्वागत द्वार लगा है ‘‘धमतरी जिले मेंं आपका स्वागत है।’’ यानी आश्रम कांकेर जिले मेंं स्थित है। फरसिया गांव के पास महामाई का मन्दिर है। यहीं एक कुण्ड है। यही कुण्ड महानदी का उद्गम है। मन्दिर प्रांगण मेंं ही एक रजवाहा (नहर) भी बह रहा है। यह सोण्ढूर बांध से बहकर आता है। कुण्ड चारों तरफ से पक्का बना है। एक कोने मेंं एक नाली निकलकर खेतों मेंं बहती चली गई है। आश्रम के पुजारी बताते हैं कि यही महानदी है और यहीं से यह अपनी यात्रा शुरू कर देती है।
यह इलाका एक मैदानी इलाका है लेकिन पूर्वी घाट के पहाड़ यहां से ज्यादा दूर नहीं। अगर आसपास ऊंची जमीन हो तो निचले इलाकों मेंं धरती से स्वत: पानी निकलना कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन यह अद्भुत है कि एक छोटे से जलस्त्रोत से इतनी बड़ी नदी बन जाती है। कुण्ड का पानी साफ है और जिसमेंं खुद की स्वच्छ तस्वीर दीखती है।
पौराणिक विशेषता:
छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल, जिसका विस्तार पश्चिम मेंं त्रिपुरी से लेकर पूर्व मेंं उड़ीसा के सम्बलपुर और कालाहण्डी तक था, का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का ‘कोशल’ प्रदेश, जो कि कालान्तर मेंं ‘उत्तर कोशल’ और ‘दक्षिण कोशल’ नाम से दो भागों मेंं विभक्त हो गया, का ‘दक्षिण कोशल’ ही वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी (जिसका नाम उस काल मेंं ‘चित्रोत्पला’ था) का मत्स्यपुराण तथा महाभारत के भीष्म पर्व मेंं वर्णन है-
चित्रोत्पला चित्ररथां मंजुलां वाहिनी तथा।
मन्दाकिनीं वैतरणीं कोषां चापि महानदीम्।।
(महाभारत - भीष्मपर्व 9/34)
मन्दाकिनीदशार्णा च चित्रकूटा तथैव च।
तमसा पिप्पलीश्येनी तथा चित्रोत्पलापि च।।
(मत्स्यपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण 50/25)
चित्रोत्पला वेत्रवपी करमोदा पिशाचिका।
तथान्यातिलघुश्रोणी विपाया शेवला नदी।।
(ब्रह्मपुराण - भारतवर्ष वर्णन प्रकरण 19/31)
वाल्मीकि रामायण मेंं भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट उल्लेख है। यहाँ स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम मेंं निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या मेंं राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। इस दृष्टि से राम को धरती पर लाने का प्रमुख श्रेय छत्तीसगढ़ को ही प्राप्त है। राम के काल मेंं यहाँ के वनों मेंं ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि मेंं राम यहाँ आये थे। दण्डकारण्य क्षेत्र मेंं सीता माता का पता लगाया गया था। सिहावा पर्वत का पौराणिक नाम महेन्द्रचल या महेन्द्रपर्वत जिसका उल्लेख पुराणों मेंं भी मिलता है। महाभारत काल मेंं इस पर्वत पर भगवान परशुराम जी का आश्रम होने की मान्यता है । इसी पर्वत पर दानवीर कर्ण ने शिक्षा ग्रहण की थी ।
भृगु ऋषि आश्रम: यह आश्रम अभ्यारण्य मेंं स्थित है। असल मेंं उदन्ती और सीतानदी अभयारण्य दोनों जुड़वा अभयारण्य हैं। पता नहीं चलता कि कि महामाई मन्दिर से निकलकर हम उदन्ती मेंं घुसे या सीतानदी मेंं। भृगु आश्रम जाने का रास्ता बिल्कुल कच्चा है और कुछ पैदल भी चलना पड़ जाता है। यहां बिल्कुल सन्नाटे मेंं और वीराने मेंं एक छोटी सी कुटिया है। एक साधु रहते हैं। बताते हैं कि यहां एक के बाद एक सात छोटे-छोटे तालाब हैं। यहां वनों मेंं पसरी शांति मन को एक सम्मोहन से बांध लेती है। पहाड़ी के नीचे झांकने पर सिहावा नगर की सुन्दरता खण्डाला से भी कहीं अधिक आकर्षक जान पड़ती है। नीचे आकार लेती नन्ही महानदी है जो सोलह किलोमीटर की यात्रा कर और फिर वहां से लौटकर पश्चिम से पूर्व की ओर बह चली है।
शृंगी ऋषि आश्रम:
यह सिहावा का एक प्रमुख आश्रम है। श्रृंगी ऋषि सप्तऋषियों मेंं से एक है। शृंगी ऋषि ही थे जिनके आशीर्वाद से राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति हुई। यहां एक बंजर सी पहाड़ी है जिस पर बड़े-बड़े पत्थर और कुछ पौधे दिखाई देते हैं। नीचे बराबर मेंं ही महानदी बहती है। अपने उद्गम से मुकाबले यहां यह कुछ बड़ी हो गई है। अब यह छोटे रूप मेंं नहीं बहती बल्कि अब इसका अपना क्षेत्र है।
यहां पहाडी पर भी एक छोटा सा कुंड है, कुछ लोग कहते हैं कि महानदी का एक उद्गम यह भी है। इसका सीधा सम्बन्ध नीचे बह रही महानदी से है। अगर इस कुण्ड मेंं फूल आदि डाले जायें तो वे महानदी मेंं पहुंच जाते हैं। इस शुष्क पथरीली पहाड़ी के शीर्ष पर पानी का कुण्ड होना एक चमत्कार ही है। शायद कोई भूविज्ञानी ही बता सकता है कि यहां कुण्ड मेंं पानी क्यों है। वो भी ऐसे कुण्ड मेंं जो सीधा नीचे महानदी से जुड़ा है। यह भी प्रसिद्ध है कि यहां पहाडी पर खोखले पत्थर हैं जो बजते हैं।
पहाड़ी से नीचे उतरने पर फि र एक आश्रम मिलता है। यहां पर भी कई साधु मिलते हैं। एक ने बताया कि साधु ही वे लोग हैं जो बिना पैसे के पूरे देश मेंं घूम लेते हैं, उन्हें कहीं भी न बोलने चालने की असुविधा होती, न खाने-पीने की और न उठने बैठने की। यहां से निकले पर कर्क आश्रम ही मिलता है। सिहावा की यात्रा का यही अंतिम पड़ाव होता है। यदि पास मेंं बस्तर जैसा प्राकृतिक सौन्दर्य निहारना है तो सिहावा-नगरी एक आदर्श पर्यटन स्थल के रुप मेंं दिखाई देता है।

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