द्वादश भाव के स्वामी गुरु के संबंध में निमानुसार उल्लेखनीय है-यदि द्वादश भाव का स्वामी गुरु हो और वह अपने उच्व नबांष् में स्थित हो, तो मनुष्य को मृत्यु के उपरान्त पुण्यलोक प्राप्त होता है । मृत्यु के खाद " गति है के प्रश्न का विचार द्वादश भाव से किया जाता है । दो गुणों के कारण यहीं शुभ लोक को प्रगति की जात कही गई है । प्रथम, द्वादश भाव का आधिपत्य शुभ ग्रह गुरु को ग्रास है । द्वितीय, गुरु उच्च नवांश में होने से बलवान है तुला लग्न के संदर्भ में गुरु यदि इन्द्र रोग हो, गुणा लग्न हो और द्वादश भाव के स्वामी बुध कौ दशा में गुरु की भुक्ति हो, तो मिल को बहुत अधिक शारीरिक कष्ट होता है और भाई को राजयोग प्राप्त होता है । बुध पिता के लिए लग्नेश-चतुर्थेश है और गुरु सप्तमेश दशमेश अर्थात् केन्दाधिपत्य दोष से दूषित है । अत: पिता के लिए कष्ट ज्ञगस्त्रश्चानुकूल है । उधर भाई (तृतीय भाव ) के लिए बुध दशमाधिपति तथा वाम से दशम का स्वामी है । इधर गुरु राज्य एबं उन्नति का द्योतक है । लग्न तथा चतुर्थ का स्वामी योगकारक है, अतएव बुध गुरु भाई के लिए शुभ राजयोग कारक है ।
शुक्र-शुक्र का अर्थ है-वीर्य। वीर्य का अर्थ वह धातु है, जो सन्तानोत्पत्ति का कारण है । वीर्यं शब्द का दूसरा अर्थ है-शुरवीरता जो सबंधा प्रत्यय है । क्योंकि वीर्यं की रक्षा से मानव मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है । चंद्र नाडी में शुक्र के गुणों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है- शुक्र: बलं रूपं राज चौग्यरसप्रिय: । शुक्र एक नैसर्गिक शुभ ग्रह है । यह अपनी पाते तथा दृष्टि द्वारा भावों को लाभ पहुंचाता है । शुक्र द्वितीय राशि का स्वामी और शक्ति भी है । सुन्दरता का अध्ययन शुक्र द्वारा होता है । यह ग्रह अमात्य है, अत: इसका राज्य से गहरा संबंध है । यह ग्रह 'रसमय' है । इसे काव्य के सभी प्रकार के रसों के आस्वादन, संगीत- नृत्य के रस तथा सुगंधित तेलों के रस आदि से संबंधित माना गया है । चंद्र नाडी में शुक्र के गुणों का उल्लेख गुणा लग्न के प्रसंग में यदि लग्न में नवम तथा द्वादश भाव का स्वामी सध शुक्र के साथ स्थित हो अथवा शुक्र से दृष्ट हो, तो राजयोग प्राप्त होता है । ऐसा जातक राजा अथवा उसके समान सामर्ध्व एल धन वाला, शूरवीर, नाटक, अलंकार, काव्य और संगीत में रुचि रखने वाला, विनयशील, संत्यवादी तथा सुगंधित पदार्थों से युक्त सुंदर वस्त्र धारण करने बाला होता है । ये सरि गुण शुक्र के हैं । संत्यवादित्ता का संबंध भी शुक्र से है । कहा गया है कि नेत्र, सच्ची वाणी, फल, कार्यकुशलता, वीर्य एल जलक्रीड़ा-इन सबका निरीक्षण-परीक्षण कुण्डली में शुक्र की स्थिति से करना चाहिए । यदि जन्मकुण्डली में शुक्र और केतु एक ही राशि में स्थित हों, तो जातक हिंवयों को कुदृष्टि से देखने वाला होता है । शुक्र आँख का प्रतिनिधि है और केतु जंगल अथर्रत्पापत्व का । इसलिए केतु और शुक्र में दृगत्रुता है । अत: शुक्र-केतु का रोग दुष्ट दृष्टिदायक है ।नाडीकतां ने वृष लग्न के संदर्भ में यह षलोक प्रस्तुत किया यदि शुक्र व्यय स्थान में मेष राशि का हो, परंतु नीच नवांश में न हो और नवम भाव के स्वामी से दृष्ट हो, तो जातक के हाथ खजाना लगता है । तात्पयं यह है कि वह बहुत ही धनाहय होता है । इसका कारण यह है कि द्वादश भाव में सभी ग्रह निर्जल होते हैं । परंतु शुक्र ही एक ऐसा ग्रह है, जो इस भाव में बलवान हो जाता है । क्योंकि शुरु भोगात्मक ग्रह है और द्वादश स्थान भी भीग का स्थान है । अतएव अनुकूल परिस्थितियों के कारण द्वादश भाव में स्थित शुक्र बहुत बलवान होता है । है भावार्थ रत्नाकर है नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में उल्लेख किया गया है-क्रोईं भी लग्न हो, यदि धन भाव का स्वामी द्वादश भाव में स्थित हो, तो धन केलिए अशुभ फल देता है । परंतु शुक्र इस नियम का अपवाद है । यदि शुक्र द्वादश भाव में स्थित हो, तो उलटा धनदायक होता है । लेकिन वहां शुक्र शनि की राशि अथवा नवांश आदि में नहीं होना चाहिए ।
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