Sunday 5 March 2017

रोग निवारण में ज्योतिष का महत्व

ज्योतिष ‘‘विज्ञान’’ एवं ‘‘अध्यात्म’’ का मित्र या ‘मिश्रित’ रूप है। रोग के क्षेत्र में चिकित्सा विज्ञान के साथ ही ज्योतिष विज्ञान के ग्रह एवं नक्षत्रों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र में नौ ग्रहों के लिए नौ रंग एवं नौ रत्नों की प्राथमिकता प्रमाणित है। ग्रहों की प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न होने से मनुष्य पर पड़ने वाले विभिन्न ग्रहों की किरणें एवं विकिरण में भारी उथल-पुथल होते हैं एवं मानव जीवन में तरह-तरह की समस्याओं के साथ ही विभिन्न रोगों का समावेश हो जाता है। हमारे ऋषि- महर्षियों ने ज्योतिष विज्ञान में इन विषयों को समाहित किया है। अब हमें इसका अध्ययन कर अनुभव प्राप्त करना है। ज्योतिष विज्ञान बीमारी की अवधि एवं उसके कारण बताने में समर्थ है क्योंकि भारतीय ज्योतिष शास्त्र एवं चिकित्सा शास्त्र का गहरा संबंध है जिसके अध्ययन से बताया जा सकता है कि इस ग्रह की दशा में इस तरह की बीमारी हो सकती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रोगों की उत्पत्ति, अनिष्ट ग्रहों के प्रभाव से एवं पूर्व जन्म के अवांछित संचित कर्मों के प्रभाव से बताई गई है। भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्मकुंडली में लग्न, द्वितीय, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश स्थान बड़ा प्रभावशाली होते हैं जबकि कुंडली के षष्ठेश एवं अष्टमेश रोग, बीमारी, तरह-तरह की शारीरिक परेशानी, दुर्घटना के साथ ही मृत्यु तक की परेशानी को बताने वाले मुख्य भाव हैं। इन दोनों भाव में बैठे अनिष्ट ग्रहों से उत्पन्न रोग एवं परेशानी के लिए पूजा-पाठ, हवन, मंत्र-जाप, यंत्र धारण, विभिन्न प्रकार के रत्न का धारण, दान आदि साधन बताये गये हैं। कुंडली के लग्न, द्वितीय, षष्ठम, सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव में बैठे ग्रह अधिकतर रोग उत्पन्न करते हैं जिसमें कुंडली के षष्ठ एवं अष्टम भाव का महत्वपूर्ण स्थान है। कुछ सटीक बीमारियां जिसका कुंडली से अध्ययन कर अगर कुंडली न हो तो हस्तरेखाओं में भी आयु रेखा एवं विभिन्न ग्रहों के स्थान पर उपस्थित सूक्ष्म रेखाओं एवं चिह्न से रोगों का पता लगाया जा सकता है और उसका सटीक निदान किया जा सकता है। विभिन्न रोगों के निदान में विभिन्न रत्न एवं उपरत्न का भी महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि रत्नों में ग्रहों को नियंत्रण करने की अद्भुत क्षमता होती है। वैदिक ग्रंथों के अनुसार मानव शरीर पंच तत्व से बना है। ग्रहों के उथल-पुथल से किसी भी तत्व की न्यूनता एवं अधिकता होने पर उस तत्व विशेष से संबंधित विकार रोग के रूप में उत्पन्न होते हैं जो पूर्ण रूपेण ग्रहों पर आधारित है। अतः इस पंच तत्व का संतुलन भी शरीर को निरोग रखता है। आधुनिक वर्तमान अनुसंधान रत्नों के महत्व को स्वीकारता है। अगर वैज्ञानिक स्थिति से देखें तो रत्नों के अंदर कार्बन, एल्युमिनियम, बेरियम, कैल्सियम, तांबा, हाइड्रोजन, लोहा, फास्फोरस, मैंगनीज, पोटाशियम, गंधक एवं जस्ता होता है। आकाश में भ्रमण कर रहे ग्रह भी अपने विशेष ताप एवं राशियों से इन रत्नों में उपयुक्त तत्व की प्रमुखता देते हैं जिससे ये रत्न ग्रहों एवं रोगों को संतुलित करने की क्षमता रखते हैं। रत्न के इतने प्रभावी होने का कारण रत्नों के प्रकाश परावर्तन की क्षमता होती है। इसलिए प्रकाश की किरणों के संपर्क में आते ही प्रकाश के परावर्तन एवं अपवर्तन की क्रिया से झिल-मिलाने लगते हैं। कुछ ग्रह रत्नों में स्वर्ण आभा होती है जो रात्रि में प्रकाशवान होते हैं। सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु के लिए माणिक (रूबी), मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, लहसुनिया जैसे रत्न एवं इसके विभिन्न उपरत्न अनुकूल प्रभाव के लिए उपयोग किया जाता है। इनकी प्रतिकूल अवस्था में उत्पन्न रोग-आंख, हृदय रोग, दर्द की परेशानी सूर्य की प्रतिकूल अवस्था में, चंद्रमा में ठंड एवं एलर्जी, मासिक परेशानी स्त्रियों में, मंगल से उच्च रक्तचाप, रक्त से संबंधित रोग, बुध-वाणी की समस्याएं, चर्म रोग, मानसिक एवं न्यूरो की समस्याएं, बृहस्पति-मोटापा, लीवर की परेशानी, तथा लीवर से संबंधित विभिन्न बीमारियां, शुक्र-मधुमेह, गुप्त रोग, मोटापा, शनि-पेट की समस्याएं, तरह-तरह की खतरनाक बीमारी, कैंसर आदि, राहु-चर्म रोग, पेट की समस्याएं मानसिक अस्थिरता, बेचैनी की समस्याएं, उदर की समस्याएं, केतु-गैस्ट्रीक, गठिया, दर्द की परेशानी, मूत्र एवं संबंधित रोग के वाहक होते हैं। रोगों से संबंधित अनिष्ट ग्रहों का दान एवं उससे संबंधित अन्न या वस्तु का जल प्रवाह करने से, मंत्र का जाप एवं हवन करने से, यंत्र को धारण करने से, रत्न उपरत्न को धारण करने से ग्रह पर अनुकूल प्रभाव होने से रोगों में भी काफी परिवर्तन आता है और व्यक्ति धीरे-धीरे ठीक हो जाता है। कुछ जटिल रोगों में ज्योतिषीय उपाय से काफी प्रभाव पड़ता है। इससे इतना तो जरूर होता है जो रोग नियंत्रण में रखता है। 

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